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Monday 27 June 2016

श्रीकालिदासप्रणीत :मेघ-सन्देश (उत्तर-संदेश)

श्रीकालिदासप्रणीत

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मेघ-सन्देश  : उत्तर-संदेश

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जहाँ प्रासाद करते मेघ-स्पर्श, तेरी महत्ता सम ऊँचे होते, 

जिसके मणिमय तल-चमक, करे स्पर्धा तेरे जल-बिन्दुओं से।  

जहाँ सुन्दर भित्ति चित्र, तेरे इन्द्रधनुषी वर्ण को मात देते, 

ललित वनिताओं के चारु कदम, नीलांजना* से तुलना करते। 

संगीत* हेतु मृदंग*-थाप, तेरे गर्जन सम स्निग्ध* प्रतीत होते,  

और जहाँ हर विशेष में तुमसे अधिक ही तुलना करते।१/६६।


नीलांजना* : बिजली; संगीत* : नृत्य, वाद्य, गीत; मृदंग* : ढोल; स्निग्ध* : मृदु  


जहाँ लीला-कमल कर में लिए तरुणियाँ, बालकुंदों* से केश सजाती,

लोध्र प्रसवरज* आच्छादित उनकी मुख-आभा पाण्डु* सा चमकती। 

नव कुरवुक* उनके केश-बंधों में लगतें व एक चारु शिरीष कर्णों में, 

   माँग में कदम्ब कुमुद सुशोभित, जो तेरे यहाँ आगमन से जन्में।२/६७।


बालकुंद* : चमेली नव-कुसुम; प्रसवरज* : पुष्प-पराग; 

पाण्डु* : पीत-सुवर्ण; कुरवुक* : चोलाई-पुष्प  


जिसके यक्ष 
उत्तम कुल यौवनाओं को संग लिए भ्रमण करते

   स्फटिक मणिमय प्रासाद-कूचों पर रात्रि की ज्योति-छाया में। 

रतिफल* कल्पवृक्ष प्रसूत* की मधु का पान करते, मृदुता से 

     वाद्य-भांड* तेरी गंभीर-ध्वनि सम संगीत स्पंदन करते।३/६८। 


रतिफल* : कामोत्तेजक; प्रसूत* कुसुम; वाद्य-भांड* : ढोल 

 

 सूर्योदय पर मार्ग सब संकेत स्पष्ट कर देते, मध्य-रात्रि बहके 

त्वरित चपल कदम जहाँ, गुप्त-मिलन हेतु मन्दाकिनियों* के। 

चारु अलकों से पतित मंदर-पुष्प व कर्ण-आभूषण हेम* कमल 

जो शिथिल मोतियों संग भूमि पर बिखरे पड़े, चोली-सूत्र 

झपट लिए, जो उनके वक्षों को जकड़ते हैं तंग।४/६९।


 मन्दाकिनी* : मादक-यौवना;  हेम* : स्वर्ण


जहाँ अनुरागी हटाते राग-ग्रसित अश्लील कम्पित करों से नीवी-बंधन 

बिम्ब-फल सम अधर वाली प्रियाओं के, हटा देते शिथिल कौशेय* वसन। 

वे भी लज्जा से चूर्ण-मुष्टि* रत्नों पर डालने को तत्पर, जैसे वे चमक उठेंगे 

   तेरी दामिनी* भाँति, निश्चिततया मूढ़-प्रयत्न विफल प्रेरणा ही होते।५/७०। 


कौशेय* : रेशमी; दामिनी* : बिजली; चू
र्ण-मुष्टि* : सुगन्धित   


जहाँ विशाल प्रासादों पर निज नायक सतत-गति* से,

 निज सलिल-कण दोष से तुम रंग-भित्तियों को नष्ट करते।  

  फिर शंका-स्पर्श से जलमुच* सदृश धूम्र अनुकृति* में निपुण 

शीघ्र ही जर्जर हों, यन्त्रजालों* से हो जाते निर्गम।६/७१। 


सतत-गति* : पवन; जलमुच* : मेघ; यन्त्रजाल* : जाली; अनुकृति* : नकल  

 

जहाँ मध्य रात्रि जैसे ही तुम कुछ हटे, तन्तु-जाल से लटके

चन्द्र- कान्त* विशद* शशि-चरण स्पर्श से चमकने लगेंगे।

प्रियतम के दृढ़-आलिंगन से सुरत-क्रिया से जनित ग्लानि से 

      किञ्चित मुक्त वनिताओं को स्फुट जल-बिंदुओं से हिमता देंगे।७/७२।


 तन्तु-जाल* : मकड़जाल; चन्द्र-कान्त* : मूँगा; विशद* : शोभित   


जानकर कि धनपति*-सखा सर्वश्रेष्ठ यहाँ साक्षात् रहते कामदेव हैं
,   

तुमको देख भी भय से निज मधुप-रोपित कुसुम-बाण नहीं चलाते। 

उनका काम चतुर रमणियाँ करती, तेरी प्रवृत्ति से मोहक अदा जिनकी, 

      व अमोघ नयन भ्रू-धनुष से चमकती दृष्टि, निःसन्देह प्रेमी को भेदती।८/७३।


 धनपति* : कुबेर  


वहीं कुबेर-प्रासाद के 
त्तर में मिलेगा हमारा आगार*, जिसको 

दूरेव-लक्षित इंद्र-धनुष सम चारु तोरण* द्वारा लेना पहचान। 

समीप ही एक बाल मंदार*, मेरी कान्ता ने तनय* सम पाला,

        अब वह उसके हस्त-प्राप्य, स्तबक* भार से झुक है गया सा।९/७४।


आगार* : आवास; तोरण* : द्वार; मंदार* : कल्प; 

तनय* : पुत्र; स्तबक* : कुसुम 

 

और तुम्हें ले जाऐंगे इसके मरकत* शिलाबद्ध सोपान* पथ   

दीर्घ वैदूर्य* नाल पर, कमल-मुकुल शोभित एक गुरु शीतल सर। 

जल को आवास कृत इसके हंस करते शांत होकर जल-क्रीड़ा, 

   तुम्हें देख भी निकट मानस ताल की न होती उत्कण्ठा।१०/७५। 


मरकत* : पन्ना; सोपान* : सीढ़ी; वैदूर्य* : लहसुनिया (रत्न)

 

इसके तीर-विहित* चारु इन्द्रनील* जड़ित क्रीड़ा-शैल* शिखर

जिसके चारों ओर दर्शनीय कनक-कदली* वृक्षों की है वेष्टन*। 

ऐ सखा! तेरी स्फुरित तड़ित उपांत* देख, स्मरण से मेरा तमस 

           सम कातर हृदय काँपता, जब मेरी प्रिया को है अत्यधिक पसंद।११/७६।


   विहित* : सटी; इन्द्रनील* : नीलम; क्रीड़ा-शैल* : लघु-पर्वतिका; 

कनक-कदली* : सुवर्ण-केला;  वेष्टन* : घेराव; उपांत : निकट    


और यहाँ इस पर एक कुरवक*-वृत्त में सुवासित माधवी* मंडप में 

किसलयों से लहरता एक रक्त-अशोक व निकट खड़ा कान्त केसर है। 

एक तेरे सखा का प्रिय वामपद स्पर्श-अभिलाषी व आकांक्षा करता अन्य 

     उसकी वदन-मदिरा की, जैसे यह दोहल* कुसुम का है रूप-छद्म।१२/७७।     


 कुरवक* : मेंहदी;  माधवी* : चमेली; दोहल*: एक प्रकार का कुसुम


और उसके मध्य हरिताश्म मणि-चबूतरे के मूल से एक,

 कञ्चन-यष्टि* निकला, जो तरुण बाँस-पादप से अधिक प्रकाशित। 

वहाँ रखी एक स्फटिक फलक* पर बैठता तेरा यह सुभग सुहृद 

नीलकंठ विगतदिवस* है, वह नाचने लगता जब प्रिया ताली 

बजाती, खनक से उसके भुज-बंध नूपुरों की ।१३/७८।


 कञ्चन-यष्टि* : सुवर्ण-दण्ड; फलक* : पादुका;  विगतदिवस* : संध्या 


ओ बुद्धिमान! इन लक्षणों को उर निहित कर अपने,  

और पहचान लेना द्वार निकट लगे सुन्दर शंख-पद्म से। 

जिसकी शोभा निश्चय ही मद्धम हुई होगी मेरे वियोग में, 

          जैसे सूर्य-अपाय* में कमल भी निज पूर्ण-रूप में न खिलते।१४/७९। 


अपाय* : ह्रास


तुम शीघ्रता से बन उतरना एक तनु कलभ*, उस 

रत्नप्रभा निष्ठ क्रीड़ा-शैल* तीर पर, यथा है प्रथम कथित। 

अर्ह-अंत* में सहज सौदामिनी-चमक की अल्पाल्प प्रभा संग 

             भवन में पतित हो जाना, जो प्रतीत खेलती खद्योत*-पंक्ति सम।१५/८०। 


कलभ* : गज-शावक; क्रीड़ा-शैल* : लघु-पर्वतिका; 

अर्ह-अंत*: सूर्य-अंत, संध्या ; खद्योत* : जुगनु


वहाँ देखोगे तन्वी*, यौवन-वसन्त में श्याम-वर्णा, चमेली-कलियों जैसे दंत, ओ
ष्ट 

जैसे पके बिम्ब-फल, क्षीण कटि*, निम्न* नाभि व चकित हिरणी सी दृष्टि-कातर।  

नितम्ब-भार से अलसाया सा गमन, कटि किंचित नम्र है स्तन वहन से, 

आह! उसको नारियों में आद्या* कृति ही बनाई वहाँ ब्रह्मा ने।१६/८१। 


तन्वी*: तनु युवती; कटि* : कमर; निम्न* : गहरी; आद्या* : प्रथम 

 

 ओ मितभाषी! उसको स्वभावतः मेरा द्वितीय प्राण* ही मानना

चक्रवाकी सम एकाकी सुबकती, सहचर* दूरस्थ है जिसका। 

ये दीर्घ-दिवस बीतने साथ, गाढ़-उत्कंठा लिए वह बाला इतनी 

            परिवर्तित मिलेगी, जैसे शिशिर से अन्य रूप हो जाती पद्मिनी*।१७/८२।


प्राण* : जीवन; सहचर* : सखा; पद्मिनी* : कमल 


निश्चित ही प्रबल रुदन से उसके 
नेत्र गए होंगे सूज 

व शिशिर में ज्वलन्त आह से अधर-ओष्ट हों गए फट। 

उसका मुख अंजलि में होगा, मात्र लटकी खुली अलकों* से स्पष्ट  

          तेरी छाया से पाण्डु हुए इंदु सम निश्चित ही लगेगी अति-दैन्य*।१८/८३।


अलक* : केश; दैन्य* : दयनीय  


तुमको वह दिखाई देगी दिवस के पूजा- बलियों* में अदृश्य, 

या विरह से तनु* यादों में डूबी या अन्यभाव से मेरी रूचि अंकन।  

या फिर पिंजर-बद्ध सारिका* से मधुर-वचनों से पूछती, 'हे गिरिके*!

   क्या स्वामी स्मरण करती हो, तुम तो उसकी बहुत थी प्रिये'?१९/८४। 


बली* : कृत्य; तनु* : क्षीण; सारिका* : मैना; 

गिरिका* : बिल्ली (से बचाव हेतु पिंजर-बद्ध पक्षी)  

 

या मलिन* अनाकर्षित परिधान में ओ सौम्य ! 

निज अंक वीणा लिए, कामना रचने मधुर मेरी नाम-धुन। 

अपने नयनसलिल* से आर्द्र तंत्री* को लयबद्ध करते कुछ, 

        चाहे स्व-अधिकृत धुन हो, मूर्छा से बार-२ जाती विस्मर।२०/८५।


मलिन* : अनाकर्षित;  नयनसलिल* अश्रु; तंत्री* : तार   


या विरह-दिवस से लेकर, शेष मास-अवधि गिनती होगी, 

दहलीज़ पर रखे पुष्पों को फर्श पर क्रम से हुई बिछाती। 

या हृदयनिहित संयोग-क्षणों की आनंद-कल्पना संजोती, 

          ऐसे ही प्रिय-विरह में सुबकती नारियों की नाना दशा होती।२१/८६।  

 

दिवस में तो व्यापार से एकाकीपन इतना पीड़ित न करता, 

पर निर्विनोद* में रात्रि तेरे मित्र को भारी गुजरती, हूँ डरता। 

मध्य-रात्रि मिलना वातायन* समीप, सन्देश संग साध्वी से उस, 

           जहाँ विरह से फर्श पर उन्निद्र* होगी, अतः विनती देना सांत्व।२२/८७। 


निर्विनोद* : दुःख; वातायन* : खिड़की; उन्निद्र* : उनींदी    


या विरह-वेदना ग्रसित शयन में करवट लिए, सिकुड़ी स्वयं में 

लेटी मिलेगी, तनु जैसे हिमांशु*-शेषकला मात्र प्राची-मूल* में।  

जब मेरे संग रात्रि-क्षणों में पूर्ण-आनन्द के पंख लगे होते थे, 

        अब महद विरह अश्रुओं से भारी, अस्वीकार खिंचे जाते हैं।२३/८८।


हिमांशु* : चन्द्र; प्राची-मूल* : पूर्व-दिशा

 

एक निःश्वास* से क्लेशित किसलय* से ओष्ट फट गए होंगे, देखोगे

जल्द- अनुष्ठान-स्नानों से शुष्क कपोलों पर लम्बित अलकें* हटाते।

नींद आकांक्षा करती, अंत में स्वप्नों में कैसे करेगी समागम मेरे संग,

  लेकिन यकायक नयनसलिल* उत्पीड़न आशा देगा प्लुत कर।२४/८९।


निःश्वास* : गहरी आह; किसलय* : पंखुड़ी; अलक* : केश;  नयनसलिल* : आंसू

 

प्रथम विरह-दिवस, उसके एक शिखा पुष्प-जूड़े में सँवरे केश

जो दुःख में हट गए होंगे, मैं ही खोलूँगा इस शाप-समाप्ति पर।

 देखोगे लम्बे बढ़े नख, जो स्पर्श से उलझे बालों को पीड़ा देते 

          बार- गण्डों* से एक वेणी* में करने हेतु कष्ट से हटाए जाते।२५/९०।


गण्ड* : कपोल; वेणी* : माँग 

 

पूर्व प्रीति को स्मरण करके उसके नयन,

झँझरियों से दर्शित शीतल, होंगे सुधामयी चन्द्र-किरणों पर। 

और दुःख में एकदम अश्कों से भारी पलकों से नेत्र छिपाकर 

           वह, जैसे घटा-दिवस कुमुदिनी सम ही, न प्रबुद्ध है न ही सुप्त।२/८९।

 

अपने समस्त आभरण* तजकर वह अबला दुःख में गहन, 

मृदु काया जिलाए रखेगी, बारम्बार शय्या पर लेटेगी व्यर्थ।  

वह दृश्य निश्चित ही तुम्हें रुला देगा, कुछ नवसलिल देना छिड़क, 

क्योंकि सभी आर्द्र-अंतरात्मा* करुणा-वृत्ति होते हैं प्रायः।२७/९२।


 आभरण* : आभूषण; आर्द्र-अंतरात्मा* : मृदु-हृदय


जानता हूँ तेरा हृदय मेरे हेतु प्रेम से पूरित, अतः मुझे विश्वास  

हमारे इस प्रथम-वियोग में ही वह लाई गई है दशा में दारुण। 

निश्चय ही अनन्य भाव से प्रतीत होता वाचाल न हूँ, ओ सुभग! 

        शीघ्र ही भ्राता की यह सकल उक्ति देख लोगे प्रत्यक्ष स्वयं।२८/९३।  


अञ्जन-स्नेह शून्य, फैली अलकों* से अब रुद्ध नेत्रान्त, व अब

विस्मृत नयन भ्रू-विलास न करते होंगें, मधुपान भी निषेध। 

पर मानता, उस मृगाक्ष्या* का वाम नेत्र तेरी निकटता से होगा स्पंदित,

         एवं नीलकमल-श्री* से तुलना करेगी, मीन हिलाती होंगी जब सलिल।२९/९४। 


अलका* : केश; मृगाक्ष्या* : मृगनयनी; श्री* : सौंदर्य  

    

बाँई जाँघ पर मेरे पद-नख चिन्ह होंगे, व चिर विरचित 

मोती-माला दैव बदलने कारण हटा ली होगी ओर एक।  

समागम -अंत में मेरे समुचित हाथों के मृदु मर्दन से वह 

     मृदु सरस कदली* तने सी रही होगी पीली स्फुरित।३०/९५।


कदली* : केला  

 

हे जलद* ! विनती है, यदि उस काल वह निद्रा में पाए सुख, 

तुम निकट प्रतीक्षा करना, मात्र एक रात्रि रोक गर्जना निज।    

 प्रेम-स्वप्न में प्रियतम ढूँढ़न-यत्न करती, हटने न देना उसकी भुजलताओं के 

   मेरे कण्ठ-बंधन को, जो गाढ़-आलिंगन से हो जाते पतित कदाचित।३/९६।

                                                

जलद* : वर्षा-दायक मेघ 

 

स्व-जलकणिका की शीतल अनिल से उसको जगाकर,  

जब यकायक आश्वस्त होगी मालती कलियों से अभिनव। 

तेरी उपस्थिति से शोभित गवाक्ष* से स्तिमित* नयनों से निहारेगी जब, 

  दामिनी-गर्भस्थ कर मानिनी को विनीत-गर्जना से कहना आरम्भ।३/९७।


 गवाक्ष* : 
खिड़की; स्तिमित* : आर्द्र

 

ओ अविधवे*! जान, तेरे भर्ता का प्रिय मित्र अम्बुवाह*, 

मैं उसका सन्देश मन में निहित कर तेरे समीप हूँ आया। 

गंभीर पर सुखकारी वाणी से श्रांत* प्रोषित* पथिकों की घर आने की- 

         अनेक त्वरित-कुतूहलें सुनाता हूँ, सुलझाने अबलाओं की उलझी वेणी*।३३/९८।


अविधवा* : सधवा; अम्बुवाह* : पावस मेघ; प्रोषित* : विदेश गए; 

श्रांत* : क्लान्त, दुःखी; वेणी* : केश


इस आख्यान से, मैथिली* सम पवनतनय*-उन्मुख व तेरी उत्कण्ठा-प्रेरित 

उसका हृदय पुष्प सम खिल उठेगा, सम्भावना संग वैसे ही देखेगी वह।   

बड़े सम्मान से तुरंत स्वागत करेगी, ओ सौम्य! सुनेगी तुम्हें बड़े ध्यान से, 

सुहृद द्वारा लाया कान्त-उदन्त*, क्या सीमंतिनिओं* हेतु पुनर्मिलन की 

हीन वस्तु है?/९९। 


मैथिली* : सीता; पवनतनय* : हनुमान; कान्त-उदन्त* : पति-
समाचार; 

सीमंतिनी* : सुहागिन      


ओ आयुष्मान*
! मेरे वचन व निज सम्मानार्थ उसको यूँ बोलना - 

तुमसे वियुक्त* तेरा सहचर रामगिरि के तपो-आश्रम में रहता। 

उसने पूछा है, ओ अबला ! तेरा सब ठीक है, ऐसे अनिंद्य* शब्द 

सुलभविपदा* प्राणियों को बोले जाने चाहिए हैं पूर्व।३/१००।


 आयुष्मान* : 
चिरंजीवी; वियुक्त* : विभाजित; अनिंद्य* : सांत्वना; 

सुलभविपदा* : दुःखित  


दूरवर्ती विधि के एक 
वैरी आदेश से उसके मार्ग रुद्ध हैं 

पर संकल्प से उसके अंग तेरे अंग के साथ ही एक है। 

तनु से तनु, गाढ़ तप्त से तप्त, आँसुओं से और द्रुत अश्रुपूर्ण, विरत-उत्कण्ठा*- 

 से और अधिक उत्कंठा, उष्ण आह से और अधिक प्रखर उष्ण ह।३६/१०१।


विरत-उत्कण्ठा : निराशा   


कौन सखियों से पूर्व तेरे कर्ण में फुसफुसाते प्रेम करेगा, निश्चित ही अब 

क्या कथन संभव भला उच्च स्वर में, क्योंकि लोभ से चाहता मुख-स्पर्श? 

अतः अतिक्रांत* है तेरे श्रवण से, लोचनों में अदृष्ट, मेरे मुख के माध्यम से, 

     एक गहरी चाह लिए, तेरी उत्कंठा हेतु बोलता ये विरचित पद है।३७/१०२।


अतिक्रांत* : विगत    

   

 श्याम-लताओं में अंग, दृष्टिपात चकित हरिणी-चक्षुओं में,

तेरी शीतल मुख-छाया शशि में, केश सुन्दर मयूर-पंखों में। 

तेरी भ्रू-पताका* नदी की लघु-वीचियों* में, पर अहोभाग्य! 

           हे चण्डी* ! विषाद में तुम्हें सम्पूर्ण दर्शन न वस्तु में एक।३८/१०३।


पताका* : 
वक्र; वीची* : घुमाव; चण्डी* : अत्यन्त-कोपिनी

 

ओ प्रिया! वर्षा-नीर पड़ी ऊष्म-भूमि की नव सुवास, तेरी है मुख-सुगंध,  

काम के पाँच मद-बाणों से पूर्वेव व्यर्थ-सुबकते, दूरस्थ को और किए व्यर्थ। 

कृपया करुणार्थ सोचो, इस ग्रीष्मांत दिन कैसे गुजरेंगें, जब भारी पावस मेघ

               दिवस-कांति अल्प करते, लघु अंशों में छिटक प्रेमवश सर्व नभ-दिशा जाते फैल।३९/१०४।  


 क्रोध कल्पना में धातुराग* से तुम्हें शैल पर कर उके
रित   

पर जब तक चाहता तुम्हारे चरणों में स्वयं को अंकित। 

तब तक चित्त द्वारा मेरी रूप-दृष्टि सतत अश्रुओं से मंदित

        आह! कितना क्रूर है कृतान्त*, यहाँ भी संगम न संभव।४०/१०५।


 धातुराग* :
 अञ्जन आदि द्रव्य; कृतान्त* : भाग्य 


बहुत प्रयास कर तुम्हें स्वप्न-संद
र्शन* में पाता हूँ, कैसे मैं 

नभ में भुजाऐं फैला देता, निर्दयता से आश्लेष* हेतु तुम्हें। 

क्या वे स्थूल* मुक्ता* सी बूंदें, तनय किसलयों पर न एकत्रित,

             निश्चित ही क्या मेरे अति-कष्ट देख वन-देव बहाऐंगे अश्रु न?४१/१०६। 


सं
दर्शन* : दर्शन; आश्लेष* : गले लगाना; स्थूल* : मोटे; मुक्ता* : मोती  


  अचानक उस क्षीर-श्रुति हिमालय की समीर देवदार-

द्रुम-किसलय पुट* खोलती, सुरभि है दक्षिण-प्रवृत। 

तुषार आर्द्र वात को आलिंगन में लेता, पूर्व-स्पष्ट* कि 

ऐ गुणवतीउसने तेरे अंग किए होंगे स्पर्श।४/१०७।


किसलय-पुट* : बंद-पत्र की नव-कलियाँ; पूर्व-स्पष्ट* : कल्पना करते  

 

यदि ये लम्बी रातें केवल एक क्षण में हो जाऐं समाहित, 

तीक्ष्ण ग्रीष्म-दिन मद्धम ऊष्मा से मात्र चमकता रहे नित।  

 ऐसी दुर्लभ प्रार्थनाओं से हृदय एक अशरण ही तो बनता है, 

      ओ चेतसचटुल-नयिनी*! तेरे वियोग की क्रूर वेदना से।४३/१०८।


 चेतसचटुल-नयिनी* : दीप्त-नेत्री  

  

किन्तु गहन चिंतन में आत्म-बल से, इसे सह हूँ जाता   

ओ कल्याणी! तुम भी स्वयं को घोर पतन से रोकना।  

किसके संग रहते सदा अति सुख या एकांत कातरत्व*?, 

           धरा पर नर-दशा एक चक्र-क्रम सम, पुनः-२ गति निम्न-ऊपर।४४/१०९।


कातरत्व* : कष्ट   


 जब शेषशायी शारंगपाणि* जागेंगे योग-निद्रा से, अंत होगा शाप,

अब लोचन* बंद करो और ये शेष चार मास भी जाने दो लाँघ। 

पश्चात इस विरह-गणित हम दोनों, शरद-चन्द्रिका क्षपाओं* में, 

  परिणत* सुख लेंगें, जिसकी अभिलाषा की थी हमने।४५/११०।  


शारंगपाणि* विष्णु; लोचन* : आँख; क्षपा* : रात; परिणत* : सुख 

 

 और आगे कहा- एक बार शयन में तुम मेरे कण्ठ से थी लिपटी 

निद्रा त्याग विप्रबुद्ध* हो अचानक सस्वर भी रुदन करने लगी? 

और जब बारम्बार पूछने पर अंत में हँसकर यूँ कहा, तुम कितव*!

मैंने स्वप्न में तुम्हें अन्य रमणी से भी करते देखा प्रणय ।४६/१११।


विप्रबुद्ध : जागृत; कितव* : धूर्त    

   

अब इस मेरे हमारे अभिज्ञान* दान से जानना कि हूँ कुशल, 

ओ असित-नयिनी* ! कौलीन* से अविश्वास न करना मुझ पर। 

  अकारण कहती विरह में स्नेह-ह्रास होता, अभोग से निश्चित ही 

              श्रृंगार-रसों में इच्छा गहन बढ़ती, व विपुल प्रेम-राशि बन जाती।४७/११२।


 अभिज्ञान* पहचान; असित-नयिनी* : कृष्ण-नयिनी; कौलीन* : प्रवाद, अफवाह      


विश्वास है कि अब तेरे द्वारा मेरा यह व्यवस्थित बन्धु-कृत्य होगा सम्पूर्ण, 

 ऐ सौम्य! निश्चितेव तेरी गंभीर मुद्रा की प्रवचन*-कल्पना न सकता कर।    

निःशब्द तुम इंगित विनतियों में चातकों को जल देते, सत्य ही सद-पुरुष 

   अन्यों की प्रार्थनाओं में प्रयोजन समझ कर देते हैं क्रिया सम्पादन।४८/११३।


प्रवचन* : इन्कार  


ऐ प्रिय ! उर की ऐसी अति-प्रिय इच्छा लिए
, जो किंचित लगे अद्भुत, 

सौहार्द अर्थ अथवा प्रेम-आतुर जानकर, मुझ पर ऐसी अनुक्रोश* कर।  

विचरण करो सब इष्ट-भूमियों में इस पावस में लिए शौर्य महिमा-यश, 

          हे मेघ ! तुम भी भूदेव को दामिनी से कदापि दूर न रखोगे मात्र क्षण।४९/११४।


     अनुक्रोश* : करुणा


इति मेघसन्देश प्रदीप हिन्दी रूपान्तर समाप्त। 


पवन कुमार,

१८ जून, २०१६ समय १७:०० अपराह्न