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Monday 27 June 2016

श्रीकालिदासप्रणीत मेघ-सन्देश : पूर्व-संदेश

कालिदासप्रणीत

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 मेघ-सन्देश  : (पूर्व-संदेश)

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निज कर्त्तव्यों से चिंतामुक्त एवं अपने स्वामी से शापित, महिमा-गमित,

कोई एक यक्ष दुःसह विरह से, निज कान्ता से एक वर्ष हेतु है निर्वासित।

बसता रामगिरि स्निग्ध छायादार वृक्ष-आश्रमों में,

और जनक-सुता के स्नान द्वारा पवित्र जलों में।१।


उस पर्वतिका कुछ मास बिताकर, दूर निज असहाय से,

सुवर्ण-कवच हैं फिसलते, उसकी अग्रबाहु को नग्न करते।

उस कामी ने प्रथम* आषाढ़-दिवस एक मेघ को गिरि-शिखर लेते देखा अंक,

जो क्रीड़ा में नदी-तीर पर प्रहार को झुके, एक अति-रूपवान गज था सम।२।


प्रथम* : अत्युत्तम मंगल    


देखकर उसको, जो केतकी-पुष्पण हेतु करता है प्रेरित,

          राजराजा-सामन्त स्वामी ने अश्रु नियंत्रित कर किया मनन।

            वर्षा-मेघ से तो उद्विग्न-हृदय भी प्रसन्न; तब उसकी कहें क्या,

     जो दूर-स्थित उसको कण्ठ लगाने हेतु करता है कामना ।३।


आगामी पावस संग, प्रिया के प्राण-पोषण की कामना करते,

स्व-कुशलता सन्देश प्राण-दायक मेघ द्वारा भेजने की आशा में।

उसने वंदना  करते हुए वन-मल्लिका के नूतन पुष्प-अर्पित कर,

स्नेह-शब्दों की भूमिका व प्रसन्नता से मेघ का किया स्वागत।४।

 

एकमात्र तुषार-ज्योति, मरुत-सलिल मिश्रण; क्या मेघ सक्षम

है संदेश-वाहन, व ले जा सकता ही प्रखर इन्द्रि व बुद्धित?

इससे अज्ञात अकारण कुतूहली यक्ष ने विनती की अभिभूत 

वस्तुतः कामातुर-मन चेतन को अचेतन से करते हैं भ्रमित।५।


आवर्तक*-मेघों के महान कुल में जनित भुवन*-विदित तुम,

ज्ञात तुम तड़ित-देव* के प्रकृति-पुरुष*, कामना से धरते रूप।

अतः दैवी-आदेश से भार्या व बंधुजनों से सुदूर, मेरा है निवेदन

    इच्छा प्राप्तार्थ उत्तम से विनती है उचित, अधम से तो निरर्थक।६।


आवर्तक* :भँवर; भुवन*: विश्व; तड़ित-देव* : इंद्र; प्रकृति-पुरुष*: अमात्य


ओ पयोद* ! तुम ही सब मनस्ताप-ज्वलित हेतु शरण हो, अतः

धनपति*-क्रोध से निरस्त मुझसे, प्रिया हेतु करो संदेश ग्रहण।

तब जाओ यक्षपति नगरी अलका, उसके प्रासाद हैं अभिषिक्त

    शिव-भ्रू की चन्द्र-ज्योति से, जहाँ वह बाह्य-विपिन* है स्थित।७।


पयोद* : वर्षा-दायक मेघ; धनपति* : कुबेर; विपिन* : वन

 

वनिताएँ जिनके पति दूर-भूमि पथिक हैं, अव्यवस्थित केश पीछे सरकाती

उत्सुकता से पवन-पदवी* पर उच्च आरूढ़ तुम्हें देखती, और सांत्वना पाती।

क्योंकि जब तुम आते सब वस्त्रों में व कर्म हेतु सशक्त, कौन उपेक्षा सक्षम निज

    अकेली विक्षिप्त भार्या की, यावत मुझ सम प्राणी एक विस्मयी अभिलाषा कृत।८।


पवन-पदवी* : आकाश


मित्र पवन तुम्हें शनै-२ धकेले
, जब तुम मार्ग पर हो डोलते,  

यहाँ तेरे वाम पर चातक पक्षी, स्व गर्व में मधुर संगीत गुनते। 

सारसिकाऐं जानेंगी मिलन-ऋतु, जब देखती रमणीय उपस्थिति 

पूरी तरह से आश्वस्त होती, आऐंगें आकाश-मार्ग से प्रेमी।९। 


वहाँ पहुँचकर अबाधित तुम, निश्चित ही देखोगे मेरी भार्या को, 

तेरी बन्धु-पत्नी अब तक जीती होगी, मात्र दिवस-गणना में तत्पर।

 आशा के मृदु सूत्रों से हैं बंध उस कामिनी के पुष्प सदृश प्राण, एवं

वियोग-भार से हृदय नीचे अति-शीघ्र ही झुकने को प्रवृत्त।१०।


और सुनकर एक कर्ण-मधुर ध्वनि तुम्हारी गर्जना,

जो वसुधा द्वारा उसके कुकुरमुत्ता-छत्र फहरा सकता।

 कैलाश शिखर तक मार्ग हेतु, कमल-पुष्प एकत्रित कर राजहंस

    मानसरोवर-कामना करेंगे, तेरे व्योम-पथ में बनेंगे सहचर।११। 


अंक* लगो व अपने 
सुहृद को विदाई दो, शैलकटक* द्वारा घिरे-

इस महागिरि पर, यहाँ चिन्हित चरण विश्व-पूजित रघुराज के।

अनेक बार तुमसे पुनर्मिलन पर यह निज स्नेह करता है प्रदर्शन,

उच्छ्वास करते ज्वलन आह ! दीर्घ वियोग से है जनित।१२।


अंक* :
कंठ; शैलकटक* : ढलान

 

पहले सुनो ओ मेघ! ! जैसे मैं करता हूँ मार्ग वर्णन,

जो तेरी यात्रा-उपयुक्त, जिसका करोगे अनुसरण। 

श्रांत हो पर्वतों पर चरण धरते हुए, जब क्षीण निर्झर-जल 

        द्वारा नूतन, सुनोगे मेरा संदेश, कर्णों में उत्सुकता से पान।१३।    


यद्यपि उन्मुख सिद्ध-अंगनाऐं* तेरी प्रचण्ड शक्ति देखकर हैं मुग्ध,

अब उत्साहित-चकित, कैसे पवन तुम्हें ले जा रही पर्वत-शिखर?

इस स्थान से सरस गहन निचुल* में उत्तर-उन्मुख नभ में अत्युच्च जाते,

   त्याग पथ स्थूल शुण्ड*-ध्वंस गर्वित गजों का, जो दिशा-रक्षा करते।१४।


अंगना* : कन्या; निचुल* : लबादा; शुण्ड* : सूँड


यहाँ से पूर्व में, पर्वतिका-शिखर से निकलता दर्शनीय 

इंद्र-धनुष अंश चमकता जैसे दीप्तिमान रत्न-शोभनीय

इसकी दमक से तेरी श्याम-नील देह स्फुरित, जैसे गोपाल-वेश में

     विष्णु कान्तिमान, प्रकाशित मयूर-पंखों की रंग-बिरंगी छटा से।१५।

 

यद्यपि प्रीति-स्निग्ध जनपद-वधू* भ्रू-विलास* में अभिज्ञ,

तेरा चक्षु-पान करती, जानती सर्व कृषि तुम्हीं पर निर्भर। 

अतः चढ़ो ऊँचे मैदानों पर, किञ्चित पश्चिम दिशा लेकर,

     नवीन हल-रेखाओं से सुवासित, गति से बढ़ो ओर उत्तर।१६।


जनपद-वधू* : ग्रामि
णी; भ्रू-विलास* : नयन-मटकाना

   

जब उदार चित्रकूट पहुँचोगे, वह तेरा अभिनन्दन करेगा,

ओ यात्रा-मान्दित वर्षा-दायक ! उच्च मस्तक वह बैठा लेगा। 

  तुम भी ग्रीष्म की भीषण-अग्नियों पर प्रखर बौछार करोगे,    

महात्माओं में सत्य-अनुभूति की मृदुता तुरंत फलदायक है,

नेकी का बदला महात्मा नेकी से चुकाते।१७। 


देख तेरी तीव्र धाराओं से दावाग्नि पूर्ण बुझता

अमरकूट भी कृतज्ञता से तुम्हें भाल लेगा लगा।

क्रूरतम हृदय भी पूर्व-अनुग्रह स्मरण कर शरणागत-सखा 

से मुख न फेरते, महाजनों की फिर कहिए क्या?।१८।  


इसके ढलान-कानन आम्रों के परिणत* फलों से कांतिमान,

शिखर पर कृष्ण स्निग्ध केशों से सर्प-वेणी* सम होना आरूढ़।

विस्तृत पीत-सुवर्ण वक्रों* से घिरे श्याम केंद्र से धरा सम प्रतीत,

दैवी प्रेमी-मिथुन की सम्मोहन-अवस्था जैसा होगा दर्शित।१९।


परिणत* : 
पके; सर्प-वेणी* : कुण्डली; वक्र* : घुमाव   

 

कुछ समय उस पर्वत पर विश्राम करना, लता-कुञ्जों में जिसके

वनचर-वधुएँ क्रीड़ा करती हैं, पुलकित होंगी तेरी द्रुत फुहारों से। 

तब शीघ्र मार्ग पार निकल देखना रेवा*-निर्झर को, जो भक्ति से सजाते 

     असमतल तीर विन्ध्य के, एक गज-देह भस्म-धारियों से विभूषित जैसे।२०।

 

रेवा* : नर्मदा  


जब तेरी वर्षा हल्की हो
, जलवाष्पों को लेना ऊपर खींच 

नदी-प्रवाह जम्बु* कुञ्ज बाधित, गज-मद गंध से सुवासित। 

ओ अन्तःसार* घन* ! अनिल तुमको रिक्त करने में है अक्षम, 

      क्योंकि लघुता से ही सर्वस्व संभव, विपुलता मात्र दंभ-गर्व ।२१।


जम्बु* : जामुन;  अन्तःसार* : सतत यात्रा से आंतरिक बल ग्रहण करते; घन* :
संहति  


देखकर हरित-कपिश* नीप* पुष्प, अर्ध-आविर्भूत उनके पुंकेसर 

और प्रत्येक सरोवर तट पर कंदली दिखा रहा निज प्रथम-मुकुल*। 

अग्नि-ग्ध अरण्य-भूमि से निकलती प्रखर सुरभि का आनंद लेते,

  सारंग* मार्ग प्रशस्त करेंगे, जब गुजरोगे नव जल-बिंदु गिराते।२२।


कपिश* : पीत; नीप* : कदम्ब; प्रथम-मुकुल* : कली;  सारंग* : मृग


सिद्ध तुम्हारी 
बूँदें पकड़ने में प्रवीण चातकों को देखेंगे 

उड़ते बगुलें चिन्हित करते, उँगलियों पर उन्हें गिनते। 

तुम्हें पूर्ण-कृतज्ञ हों आदर देंगे, व शीघ्र तेरी गर्जना से भय-कम्पित

        चिपकती प्रिय भार्याओं की अन्य-अपेक्षित आलिंगन-उत्तेजना करेंगे ग्रहण।२३। 


ओ मित्र
! 

यद्यपि मेरी प्रिया हेतु शीघ्रता भी करोगे, मेरा पूर्वानुमान विलम्ब 

जैसे धीमे चलोगे वन-ककुभ* से सुरभित एक से अन्य पर्वत पर।  

यद्यपि शुक्लापांग*  केका* संग सजल-नयनों से करेंगे  स्वागत, 

मैं तुमसे अनुनय करता हूँ कि अग्र बढ़ने का करना यत्न ।२४।


कुकुभ* : मल्लिका पुष्प; शुक्लापांग* : मयूर; केका* : पीहू-पीहू    


तेरे आगमन पर दशार्ण*-उपवनों में केतकी उठेंगी पीत खिल 

ग्राम-चतुष्क* नीड़ों में आकुल खग, एकत्र होना करेंगे प्रारम्भ। 

जम्बु-कुञ्ज पकते नील-कृष्ण फलों की आभा संग व होंगे गहन   

और वनांत में वन-हंस कुछ दिवस हेतु और जाऐंगे ठहर।२५। 


दशार्ण* : विन्ध्य के उत्तर में मालवा क्षेत्र; चतुष्क* : चौराहा     


उसके दर्शन पश्चात पहुँ
चो प्रख्यात विदिशा नाम राजधानी, 

तुरन्त तुम्हें विशुद्ध तृप्ति ही मिलेगी एक कामुक-कामना सी। 

वेत्रावती* के मधुर जल का स्वाद लेना, निज प्रिया-ओष्ट जैसे, 

तीरों पर मधुर गर्जन से वह तरंग-सुभ्रूओं संग बहती जैसे।२६। 

 

वेत्रावती* : बेतवा 


वहाँ तुम नीचे उतरोगे निकाई शैल पर विश्राम इच्छा से, 

तेरे स्पर्श से वह पुलकित, कदम्ब पुष्पण परिणत होते जैसे।  

पर्वतिका निज शिला-गृहों द्वारा, आनंद-परिमल* करती उद्गार  

   उद्दाम* अनुरागी नगर-पण्यांगनाओं* संग करते मिलेंगे विहार।२७।


परिमल* : सुवास; उद्दाम* : अनियंत्रित; 
पण्यांगना* : वेश्या


वहाँ विश्राम करके तुम चल देना,

वनों में नदी-तीर की यूथिका*-कलियों पर नूतन जलकण छिड़कना। 

जैसे तेरी छाया-उपहार से स्पर्श मालिन-मुख लेते क्षणिक एकत्रण सुख

 जो प्रतिक्षण गण्डों* से स्वेद पोंछती, काट देती मुरझाए कर्ण-उत्पल।२८।


यूथिका* : चमेली; 
गण्ड* : कपोल 


जैसे तेरा उत्तर-पथ अलका इंगित, उज्जैयिनी-मार्ग वक्र निश्चय ही, 

अतः उसके सौध*-भ्रमण से न हटना, वरन निश्चित जिओगे वृथा ही। 

वहाँ पौरांग्नाओं* की बिजली-स्फुरित चकित नयनों से यदि न करोगे विहार 

जो दामिनी-चमक पर वंचित लोचनों से अकस्मात भय से जाती काँप।२९। 


सौध* : प्रासाद; 
पौरांग्ना* : नगर-वधू; लोचन : चक्षु  

 

अपने पथ पर जब मिलो निर्विन्ध्या* को तुम, मंदिर-घंटियों सी 

मेखला पहने, लहरों पर पंक्तियों में छपछपाती हैं जल-मुर्गाबी। 

अस्थिर चारु चाल संग वक्र-पथ बनाते, नाभि-वलय प्रदर्शित, 

       ऐसे ही नवोढाओं* के प्रथम प्रणय-वचन से, अवश्यमेव प्रिय विभ्रमित।३०।


निर्विन्ध्या* :  पार्वती सरिता, नेवाज; नवोढा* : नववधू    


ओ सुभग प्रेमी ! उस नदी को पार कर तेरा होगा प्रिय कृत्य

काली सिन्धु को प्रवृत्त करना, निस्तेज करते दुख-निवारण से। 

स्पष्टतया तेरे विरह में तड़पती सी, सलिल क्षीण हो गया है, 

      कृश वेणी* व पाण्डु-छाया सी हुई, तीर पतित शुष्क तरु-पर्ण पीतिमा से।३१। 


 वेणी* : केश 

 

अवन्ती पहुँच, जिसके ग्राम-वृद्ध उदयन कथा-कोविद*, 

  तुम फिर श्रीविशाला* पुरी जाना जो पूर्वेव है बहु-चर्चित। 

चमकता जैसे दिव* का एक कांति-खण्ड, आया है धरा पर  

 स्वर्गिक-पुण्यों संग, जिनके सुरचित फल प्रायः हैं हृत*।३२। 


 कोविद* : पारंगत; श्रीविशाला* : उज्जयिनी; दिव* : स्वर्ग; हृत* : छीने गए  


प्रत्यूष* में उज्जैयिनी में शीतल
क्षिप्रा-वात* से स्फुटित कमल

दीर्घ आमोद की सुवासित मैत्री से सारस-युग्ल का प्रेम-कूजन। 

 रात्रि में थकी युवतियों के अंगों की सुरत*-ग्लानि हरती जैसे, 

  पटु* मदहोश प्रेमी अनुकूल प्रार्थना-चाटुकारिता करता है।३३। 


प्रत्यूष* : उषा-काल; वात* : पवन; पटु* : चतुर; सुरत* :
समागम   

 

जैसे गवाक्ष* निकसित नारी केश संस्कार* व धूप से बढ़ता तेरी चारु-रूप, 

वैसे ही भवन के मयूर बन्धु-प्रीति भाव से उपहार देते निज नृत्य।

यात्रा से थके तुम रात्रि बिताकर, वैभव देखना उसके महलों में, 

जो सुवासित है ललित कामिनियों के अंकित* पाद-रंग से।३४।  


गवाक्ष* : जालांतर, खिड़की; संस्कार* : सुगन्धित 
तेल; 

पाद-रंग अंकित* : रक्त-अलक्तक पद-चिन्ह   

 

 तब तुम त्रिभुवन-गुरु चण्डेश्वर* के पुण्य-धाम जाना, 

 गण भर्ता की कंठ-छवि सादर देखते, तेरा वर्ण भी नीलकण्ठ जैसा। 

इसके उपवन गंधवती-समीर से हिलते, सुगन्धित नीलकमल-रज से 

 व जल-क्रीड़ा करती नवोढ़ाओं द्वारा प्रयोग अनुलेपों से महकते।३५। 


चण्डेश्वर* : महाकाल    

 

संयोग से यदि तुम पहुँचो असंध्या- काल* महाकाल,

रुकना जब तक, सूर्य दृष्टि से न हो जाए असाक्षात*। 

 मंदिर-डमरु आयोजन द्वारा शूली* को समर्पित संध्या-बलि संस्कार में, 

    ओ जलधर ! तुम गहन-कंठ गर्जन के पूर्ण-फल का लेना सुख अपने।३६।   


असंध्या-काल* : दिवस समय; शूली* : पिनाकी, शिव;
असाक्षात* : ओझल  

 

अपने परिमित चरणों से रत्न-नूपुर खनकाती लीला-वधुएँ*, 

जिनके हस्त थके हैं शोभित रत्न-जड़ित मूँठ वाले चँवर डुलाते। 

तेरे वर्षाग्र-बिंदुओं* से प्रसन्न, जैसे गणिका* आनन्दित प्रेमी के 

नख-क्षत से, और मधुकर*-पंक्ति सम दीर्घ कटाक्ष नज़रों से।३७।


 लीला-वधू* : देवदासी;  वर्षाग्र-बिंदु* : बौछार; मधुकर* : भ्रमर;
गणिका* : वेश्या, नगरवधू  

 

तब नूतन जपाकुसुम* सम संध्या की रक्तिम प्रभा में, अभिषिक्त हर 

नृत्य शुरू करते, नाभि-मंडल लीन, उठा निज कर-वन में पूर्ण लुप्त। 

 जब पशुपति* रक्त-रंजित आर्द्र गज-चर्म धारण की इच्छा करते त्याग, 

     भवानी के स्तिमित* नयनों द्वारा भक्ति देख, अब हैं उके उद्वेग शांत।३८।


जपाकुसुम* : 
गुड़
, चीनी-गुलाब; पशुपति* : शिव; स्तिमित* : निश्छल

 

 राजपथ पर रमण*-आवास को मिलनार्थ युवतियाँ जाती मिलेंगी, 

वहाँ रात्रि में दृष्टि-अस्पष्ट तम, जिसे छेद न सके एक सुई भी। 

सौदामिनी* से पथ चमकाना, जो पारस पर सुवर्ण-रेखा सी चमकती, 

     पर गर्जना व भारी वर्षा से चकित न करना, सतर्क हो जाती सहज ही।३९।


रमण* : प्रेमी; सौदामिनी : बिजली   

 

कुछ भवन-वलभियों* पर जहाँ पारावत* हैं सुप्त,

दामिनी संग रात्रि बिताना, जो चिर-विलास से अति-खिन्न। 

परन्तु विनती है सूर्योदय पर यात्रा पुनः आरम्भ देना कर, 

निश्चय ही सुहृद* के सहायक न करते कदापि विलम्ब।४०। 


वलभी* : कंगूरेदार छत; पारावत* : धारीदार-कपोत; 

दामिनी* : बिजली; सुहृद* : मित्र  


खण्डिता*-पति भी 
तब घर जाते मिलेंगे, दुखी पत्नियों को शांति दान, 

नयनसलिल* पोंछते, अतः शीघ्र ही सूर्य के पथ से आना निकल बाहर।  

वह भी उषाकाल कमल-सर लौट आता, उसके सरोज-मुख से अश्रु मार्जन, 

   वह तो अल्प-सुवासित ही, यदि तुमसे उसकी किरण-कराग्र* न बाधित।४१। 


खण्डिता* : स्त्री, जिसका पति व्यभिचार का दोषी हैं; नयनसलिल* : अश्रु;  कराग्र* : उँगली     


तुम छाया रूप में भी प्रकृति-सुभग*, 

 निर्मल गम्भीरा-जल में ऐसे प्रवेश करोगे, जैसे शांत चेतना-सर*। 

अतः धैर्य कर स्वागत करती चटुल* नज़रों की न करना उपेक्षा, 

उसकी कुमुदिनी सी श्वेत मीनों की विस्मयी उछालों का।४२। 


प्रकृति-सुभग* : अति सुन्दर; सर* : ताल; चटुल* : प्रिय   

 

उसके ढलुए तट-सरकंडों द्वारा नितम्ब* से मुक्त होते घननील सलिलवसन- 

को हल्के हाथ से रोकना; खिंच रहा ऐसे, जैसे तुम झुकते हों उसके ऊपर।  

ओ सखा ! क्या तेरे लिए कठिन न निर्झरी त्याग, क्योंकि छोड़ेगा कौन 

   एक-विवृत-जंघा* वनिता को, एकबार वपु-मधुरता स्वाद चखकर?।४३। 


नितम्ब* : कटि; विवृत-जंघा* : नंगी जांघ  


तेरी फुहारों द्वारा नूतन वसुधा-गंध से सुवासित, 

कानन-उदुम्बरों* को पका देगी शीतल पवन।   

गज-सूंडों की जल-बौछार संग, प्रसन्न हो ले जाऐगी यह

  तुम्हें शनै देव-गिरि* पर, जहाँ चाहोगे पहुँचना तुम।४४। 


उदुम्बर* : अंजीर,
गूलर; गिरि* : पर्वत 

 

स्कन्द* वहाँ निवासित है, तुम बनाना निज को पुष्प-मेघ, 

व्योम*-गंगा जल संग पुष्प-सार से लगाना फुहार उन पर। 

क्योंकि सूर्य से भी अधिक ऊर्जावान, नव शशिभृत* धारक 

     वह दैव-अग्नि मुख में रखा गया, इंद्र-मेजबानों की रक्षार्थ।४५। 


स्कन्द* : कार्तिकेय; व्योम* : आकाश; शशिभृत : चन्द्र    

 

तब पर्वत-गूँज में तेरी गर्जना बढ़ेंगी व नर्तन हेतु प्रेरित करेगी 

कार्तिकेय-वाहन मयूर को, ऑंखें शिव-चन्द्र ज्योत्स्ना से चमकेंगी। 

 तथा पुत्र-प्रेम में गौरी कर्णों पर ज्योति-लेखा वलयों से चमकती 

  उसके गिरे पंख को उठा, पूर्व-धृत कमलपत्र स्थल रख लेगी।४६।  


जल-ध्वनि कुल-जन्में! ऐसे देव की स्तुति कर व कुछ दूरी लाँघने पर  

वीणा-धारक सिद्ध-दम्पति तेरी जल-बिंदुओं से डरकर छोड़ देंगे पथ। 

 पर सुरभि-पुत्री बलियों से उपजी रंतिदेव-कीर्ति का करना आदर, 

जो एक चमर्ण्वती (चंबल) नदी रूप में बहती है पृथ्वी पर।४७।  


शारंगी* देव का वर्ण चुराकर जब इसके जलपान हेतु झुकोगे,

निश्चय ही गगन-गत दूर से वह सिन्धु नीचे देख विस्मित होंगे। 

एक तनु-रेखा सा प्रवाह देखकर; यद्यपि वह स्थूल है, जैसे  

 मध्य नीलम-जड़ित एक मुक्ता-माला पहनी हो पृथ्वी ने।४८। 


 शारंगी* : शिव 


 वह नदी पार कर तुम स्वयं को बनने देना पात्र 

दशपुर की मृग-नयनी वधुओं की कुतूहली नेत्रों का। 

 चमकते रमण मृगी-चक्षु व श्वेत चमेली की मधुकर श्री* से भी, 

विभ्रम भ्रू-लता संग बढ़ कर होते, उनके कृष्ण नयन ही।४९। 


श्री* : शोभा, गरिमा

 

पावन कुरुक्षेत्र नीचे ब्रह्मवर्त से गुजरते निज-छाया द्वारा, 

तुम उस युद्धसूचक नृप-महारण की भूमि  भूल जाना

जहाँ गाण्डीव-धन्वा* के राजन्य*-मुखों पर बरसें शतों शर

जैसे तुम भी धारा पात करते हो उत्पलों* पर।५०। 


राजन्य* : राजकुमार; गाण्डीव-धन्वा* : अर्जुन; उत्पल* : कमल 


बन्धु-स्नेह निहित समर*-विमुख व अभिलाषित रेवती*-लोचन  

हाला*-रस तजहलधर* ने सरस्वती-पय किया अर्चन। 

 ओ सौम्य ! तुम भी उस जल का आनंद लेना

      जो अंतःशुद्ध करेगा, कृष्ण बस वर्ण में करेगा।५१।


 समर* : युद्ध; 
हलधर* : बलराम;  रेवती* : बलराम की पत्नी; हाला* : सोम-रस   


वहाँ से निकल जाह्नवी जाना, जो आती कनखल-पवर्तिका निकट- 

शैलराज* से अवतीर्ण, यहीं सगर-तनयों* हेतु स्वर्ग सोपान* निर्मित। 

और इंदु आभूषित शिव जटाऐं उसने ऊर्मि-हस्तों से ली जकड़

हँसते हुए फेन गौरी की वक्र-भृकुटि का करते उपहास।५२।


शैलराज* : हिमालय; तनय* : पुत्र (
६००००); सोपान* : सीढ़ी  


यदि तुम व्योम* में सुरगज सम लटके अपने पृष्ठ-भाग में,

 इच्छा रखो गंगा-प्रपातों का निर्मल-स्फटिक जल पान में।  

जैसे ही तेरी छाया उस स्थल पर उसकी धारा पर पड़ेगी, 

  गंगा-जमुना संगम सी वह, अभिराम* ही प्रतीत होगी।५३।  


व्योम* : आकाश;  अभिराम* : 
मनोरमा 


मृग-नाभि गंध से सुरभित शिला, वह गौर हिमाच्छादित 

गंगा-प्रभव* पर्वत जब देखोगे, मिटा देगा तेरा श्रम दीर्घ। 

तुम सुशोभित होंगे त्रिनेत्र वाहन श्वेत नांदी के पंक*-  

उखाड़ते शृंग की शुभ्र-शोभा चिह्न की तरह तब।५४।


प्रभव* : जन्म-स्थल; 
पंक* : गीली मिट्टी  

 

यदि बहती पवन में सरल* शाखा-घर्षण से वनाग्नि उल्का-क्षेप सम- 

पर्वतों पर आक्रमण करें, व भीषणता चमरी* वालभारों* को ज्वलन 

तुमसे विनती उसे पूर्ण-शांत करना, सहस्र तीव्र वारि-धाराओं से निज, 

  महाजन-समृद्धि का सर्वोत्तम उपयोग पीड़ितों की आपदा-प्रशमन।५५।   


सरल* : देवदार; चमरी* : 
याक; वालभार* : गुच्छीदार पूँछ 


यद्यपि गर्जना सह
-असमर्थ, पर्वतों पर यकायक व्यर्थ-गर्वित शरभ*, 

क्रुद्ध हों तुमपर झपटेंगे, मार्ग से अति-दूर मात्र तुड़वाऐंगें निज अंग। 

 हँस कर उनको तुमुल* हिमवृष्टि पात से छितरा देना तुम, क्या 

निष्फल आरम्भ प्रयत्न-कर्ता उपहास फल ही न बनता?५६।  


शरभ* : टिड्डी-दल;  तुमुल* : घनघोर  


वहाँ 
परिक्रमा करना इन्दुमौली* के चरण-न्यास* धारक पर्वत की 

आदर-नमित* हों, सिद्ध नम्र हों पूजा-उपहारों से शाश्वत भक्ति। 

जिस पर दृष्टि से देह-परित्याग और पाप छोड़कर अपने

 श्रद्धालु स्थिरगण पद प्राप्त हैं करते।५७। 


  नमित* : झुककर; इन्दुमौली* : शिव; चरण-न्यास* : पद-चिन्ह

 

कीचकों* से निकल अनिल मधुर-संगीत बजाती

किन्नरियाँ* आनंदित होकर त्रिपुर-विजय गाती। 

यदि तेरी ध्वनि कंदराओं में डमरू सम बज सकती है, तो वहाँ एकत्रित

  पशुपति* नृत्य-नाटिका हेतु संगीत-टोली क्या पूर्ण होगी तुम बिन?५८


 कीचक* : खाली बेंत; किन्नरी* : वन-
सुंदरी;  पशुपति* : शिव  


अद्रिनाथ* के तटों* के अनुपम सौंदर्य से गुज़रते हुए,

तुम निकलना उत्तर दिशा में संकरे क्रोंच- रंध्र* से। 

यह द्वार है हंसों के मानसरोवर का, भृगुपति* हेतु यश का व जैसे 

     खिंचे लाँघन को वामन* के चारु श्याम-पद, बलि-र्व चूर्ण करने।५९। 


 अद्रिनाथ* : हिमालय; तट* : ढलान; रंध्र* : दर्रा; भृगुपति*: परशुराम; वामन* : विष्णु    

 

ऊर्ध्व* चढ़ते कैलाश-अतिथि बनना - तीस वनिताओं* हेतु दर्पण, 

जिसकी शिखर-संधियाँ* हैं दशमुख* भुजा दबाव से अवदलित*। 

ऊपर नभ-चुम्बी महद शिखर, विशद* कुमुद से चमकेंगे, जैसे यह 

  प्रतिदिन ही राशिभूत* होता युगों से हो त्रयम्बकम- अट्टहास*।६०।


 ऊर्ध्व* : ऊपर; वनिता* :देवी; संधि* : जोड़; दशमुख* : रावण; अवदलित* : चटकी; 

विशद* : मृदु; राशिभूत* : संचित; अट्टहास* : महाहास


जब  तुम ऊपर देखते हुए, स्निग्ध* अभिन्न अंजन सम चमकते 

इसके नूतन कटे श्वेत हस्ती-दन्त सम शुभ्र-लानों पर फिसलोगे। 

हिमालय प्रफुल्ल नयन से अवलोकन करेगा, जैसे हलभृत* ने एक 

    नीला वस्त्र कंधे रख, चित्तहारी नयनों सी शोभा अर्जित ली कर।६१।


स्निग्ध* : चिकना; हलभृत* : बलराम     


उस क्रीड़ा-शैल पर शम्भु के भुजंग-वलय वंचित 

हस्त पकड़े गौरी पादचरण* विहारती मिले यदि। 

भक्ति से अंतः-स्तंभित जल ऊर्मि-सोपान* में विरचित कर,

         जैसे वे मणि-तट* आरोह हों, अग्रगायी होकर मिलना वहीं पूर्व।६२।  


 पादचरण* : पैदल; ऊर्मि-सोपान* : लहर की सी
ढ़ियाँ; 

मणि-तट* : रत्नाभूषित लान 


वहाँ इन्द्र-दामिनी से 
उद्गीर्ण वलयों से टकराकर बरसोगे तुम, 

सुर-युवतियाँ निश्चित ही जल-यंत्रधारा* से करेंगी अभिषेक*। 

ग्रीष्म-ताप में तुम्हें पाकर क्रीड़ा-उत्सुक, यदि न जाने दें अग्र, 

ऐ मित्र! भीषण गर्जना से उन्हें कर देना भयभीत कुछ।६३। 


यंत्रधारा* : बौछार; अभिषेक* : स्नान   


तुम मानसरोवर जल का पान करना, खिलतें स्वर्ण-कमल जहाँ, 

व मुखपट* प्रीति से ऐरावत को एक क्षण काम-पुलकित करना। 

जलद* की आर्द्र-वात* की नाना-चेष्टाओं से रेशमी अंशुक पहनेंगें 

कल्पतरु किसलय*, लेना आनंद उस ललित नगेंद्र* का जिसके, 

आभूषित तट विविध प्रकाश-छाया में हैं चमकते।६४।


मुखपट* : गुह्य छाया, जलद*: मेघ; आवरण; वात* : बयार; 

किसलय* नव-पल्लव; नगेंद्र* : हिमालय   


ओ कामचारिन* ! शुक्ल-दुकूलों* में स्व प्रणयिन के बैठी ऊपरी अंग   

उच्च पर्वत से पतित नीचे अलका* को देख, पाओगे  पहचान तुम। 

बहु-मंज़िलें महलों पर ऊँचे जैसे वनिता केश-बाँधे मुक्ता-जाल में, 

वह पावस* में मेघ-सलिल उद्गार से बहती है अति-मात्रा में।६५। 


कामचारिन* : स्वेच्छा से भ्रमण करने वाले; दुकूल* : वस्त्र; 

अलका* : गंगा; पावस* : वर्षा-काल  



पूर्व -संदेश समाप्त 
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