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Monday 20 June 2016

नाम-चिंतन

नाम-चिंतन 
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एक उन्मुक्त अभिलाषा मानव-मन की, सर्वश्रेष्ठ से सीधा जुड़ाव

तभी तो नर नाम ईश्वर पर रखते, माना उनके हैं प्रत्यक्ष अवतार॥

 

भारत में कितने ही नाम-गोत्रों का संबंध तो देवों से जुड़ा है लगता

विशेषतया उच्च-वर्ग लोगों ने सु-नामों पर, एकाधिकार सा किया।

बहु तो न ज्ञात सामाजिक स्थिति का, तथापि एक ओर झुके लगते

अधुना युग में सब नव-नाम अपनाते, सब भाँति के प्रयोग हो रहें॥

 

गणेशन, विनायकम, मुरुगन, विश्वनाथन, सुब्रमण्यम, कार्तिकेयन,

गंगाधरन, महादेवन, सदाशिव, परमशिवम, दक्षिणमूर्ति, नटराजन।

ईश्वरन, नारायणन, सत्यनारायणन, करुणाकरण, विभूतिनारायण,

स्वामीनाथन, वेंकटेश्वर, नरसिंहम, हरिहरन, रामचंद्रन, जगन्नाथन॥

 

संपूर्णनारायण, करुणेश, प्रभु, राधाकृष्णन, श्रीनिवासन, भास्करन,

वेंकटरमन, गोपालन, रंगनाथन, सच्चिदानंद, राजगोपाल, आनंदन।

स्वामी, कृष्णन माधवन, मोहनन, राघवन, शेषशायी, अनंतनारायण,

करूणानिधि, थिरुमल, कलानिधि, नांबियर, राजराजा, धराधरन॥

 

अय्यर, सेनानी, राजर्षि, शेषन, कृष्णामूर्ति, नारायणमूर्ति, चिदांबरम

धरनीधरन, लिंगेश्वरन, सुंदरम, चक्रवर्ती, सदगुरु, व अनेक हैं अन्य॥

 

भारत में नामकरण संस्कार शिशु का, हेतु अनन्त योग-संभावना

ज्योतिषी जाँचते पूर्वजन्म व भविष्य, क्या-२ उसके भाग्य में बदा।

समृद्ध-समर्थों को अच्छे नाम, शास्त्रोक्त नाम भी बँटे जन्मानुसार

निर्धन-निम्नों के नाम भी निम्न, श्रेष्ठ शब्दों पर न विशेष अधिकार॥

 

पर क्या जिजीविषा मानव-मन की, युग्म सीधा ईश्वर से करने की

क्या यह गुण-ग्रहण की इच्छा या नाम से प्रभुता सिद्ध करने की ?

निज कुल का ईश्वर-योग, किंचित उन्हें भी उसी श्रेणी में रख देगा

पूर्वज महान-स्तुत्य थे, हम भी योग्य, अतः अन्य सम्मान से देखें॥

 

पुराने काल में नाम भी वर्गीकृत, जिससे दूर से ही पहचान हो ज्ञात

किससे कितना है संपर्क वाँछित, आचार-व्यवहार के नियम तय।

कुछ पूर्ण-स्वच्छन्द सर्वाधिकार युक्त, कुछ को हैं सीमाऐं दिखा दी

किसी को सर्व पूर्ण-पनपन मौकें, अन्यों हेतु बलात दमित-प्रवृत्ति॥

 

ये ईश्वर पर कैसे नामकरण हैं, नरों ने समय-२ पर मनन से बनाऐं

नामों का जन्म एक घटना है, चिंतन से जुड़ते गए शतों-सहस्रों में।

ईश्वर सर्वव्यापी ही है तो, हर कण पर उसकी उपस्थिति की मुहर

सर्वभूमि गोपाल की ही तो, सबका उसपर बराबर का अधिकार॥

 

पर ऐसा न था सत्य जग में, हर पहलू पर अधिकार-कर्त्तव्य बताऐ

कुछ तो किंचित अतीव हैं स्नेह-पात्र, अन्य अति-दूरी पर रखे गए।

कुछ तो है दृष्टिकोण बाँटने वालों का, अपनों को तो लाभ ही मिले

मैं ही नियन्ता, बुद्धि-शक्तिमान, अपने से बचे तो अन्यों को मिले॥

 

कौन निर्धारक कर्मगति का -मानव, प्रारब्ध या अदम्य ऊर्ध्व-शक्ति

माना कारक भी बाधक, क्या भाग्य पर रुदन-उद्विग्नता बात अच्छी?

राजधर्म या प्रजा में आश्रमों का कठिन निर्वाह, सेना-पुरोहित सचेत

रहो सीमा में, सुपाठन- सुव्यवसाय स्व-क्षेत्र, अन्यों का है तो निषेध॥

 

क्या थी बलात प्रगति-निरोध, या दमितों को निम्न रखने का स्वभाव

या अंध-विश्वास में डूबे है रहना, वास्तविक उन्नति हेतु कर्म-अभाव?

क्यों वे व्यक्त-असमर्थ, कम से कम अपने क्षेत्र से बाहर निकलकर

एकता-अभाव व युक्ति-असमर्थता, स्पर्धा से भय, बलशाली समक्ष॥

 

एक को सर्वाधिक, दूजे को कम, फिर और कम, अतएव वर्गीकरण

अन्तिमों को कुछ नहीं, या लो बची जूठन, बाँटे अपने-२ को है अन्ध।

जिनको कुछ मिला - समझे वंचितों से सौभाग्यशाली, कुछ तो हैं श्रेष्ठ

विषमता है प्रजा-प्रचलित, सर्व चेष्टा-दृष्टि प्रभुओं को करने में संतुष्ट॥

 

जब इतने बटाँव है तो विरोध स्वाभाविक, मार तो ही पड़ेगी क्षीण पर

वह मज़दूर हाशिए पर खड़ा है, जैसे उसके रक्त से ही जगत-पोषण।

माना मानव ने बलि- प्रथा को दिया अन्य-रूप, शोषण अधिकार-नव

देह-कर्म उनका- लाभ हमारा, अन्न-धन वे पैदा करें, फल खाऐं हम॥

 

क्या यह लाभ-तंत्र, झूठ-फ़रेब चलन या है वास्तविक श्रम-पारितोषिक

निर्धन- मज़बूरी का अमानवीय लाभ, लपकने को बैठे कुछ ही अन्य।

कौन तय करे दाम कितना हो, शासकीय या माँग-पूर्ति की क्रिया बस

या व्यवसायी-साहस जो दूर ले जाए, दुर्लभ-वस्तुओं का मूल्य अधिक॥

 

क्या है यह परम से जोड़ने की प्रवृत्ति, माना वह नाममात्र तक सीमित

चरित्र-व्यवहार कितना मिलता आदर्श से, या वह भी है मात्र कल्पित।

या वे भी थे सहज मानव सब भाँति, सभी तरह के गुण - दोष से युक्त

बस नरों ने गुण- अतिश्योक्ति की, व सबसे ऊपर कर लिए हैं स्थित॥

 

वर्तमान में भी हैं योग्य, सत्य धरातल पर न सही कमसकम प्रसिद्धि में

वे कितने महान, मानव-विफलताओं से परे या विज्ञापन भाव बढ़ाए हैं।

या कुछ परिस्थितियों का समन्वय, जो मनुष्य को दिलाऐ यश- सम्मान

तब कैसे भावी पीढ़ी महिमा-मंडन करेगी, साक्षात ईश-श्रेष्ठ लेगी मान?

 

सुयोग्य तो निज प्रतिभा-निर्मित, चाटुकार-स्वार्थी संग, लगें शेखी बघारने

सामान्य को ही ईश्वर-कृत माना, शनै वे भी निज को सर्वश्रेष्ठ मानने लगे।

कितने दंभी-ढोंगी बैठे हैं, हाट में सजा-सजाकर अपनी विज्ञापन-दुकान

साक्षात ईश्वर से ही उनका सीधा रिश्ता, कृपा बरसेगी हमारा है बखान॥

 

सब कुछ चलन आधुनिक संचार माध्यमों पर, उनको है मिलता शुल्क

जितनी प्रसिद्धि उतने श्रद्धालु होंगे, अल्प जुड़कर ही तो भरेगा कलश।

फिर भक्त-जमात एक बड़ा राजनीतिक बल, जो चुनावों में होता प्रयोग

नेता व प्रचारक का है सु-समन्वय, दुकान चलने दो, तुम लो फिर लाभ॥

 

वह कौन सा काल आया है इस जग में, जब तथाकथित देवता थे विचरते

चार युग तो बता दिए हैं स्मृति-ग्रन्थों में, किंतु कितना सत्य कोई न जाने।

प्रश्न का अधिकार मानव को मिला है, और विज्ञान-धारणा उनको नकारे

यहाँ बहुत-कुछ लिखा बस अतिश्योक्ति, मानव सर्व-काल प्रवेशित कैसे?

 

फिर विभिन्न पंथ-मान्यताऐं, अनेक वृतांत, क्या है नितांत सत्य व असत्य

माना विश्वासी की संस्थाओं में सत्य-निष्ठा भी, क्या मान ही लें सारा जग?

पर स्वार्थी निज-ग्रंथों को ही शाश्वत घोषित करते, विरोध तो नहीं सहन है

या तो अपने में ही मस्त रहो, न हम तुमको छेड़ें - उलझो न तुम हमसे॥

 

मैं अमुक वहाँ पर इस कुल-स्थान जन्मा, मेरा संपर्क सर्वोपरि ईश्वर से

मेरा आराध्य, उसपर पूर्णाधिकार, कोई अन्य आकर न धृष्टता दिखाए।

ईश्व को तो स्वार्थ-वश वर्गीकृत किया, यह मेरा रूप अन्य से न मतलब

फिर तेरे गणेश की ऐसी-तैसी, मेरा गणेश ही होगा सर्वप्रथम विसर्जन'॥

 

यह क्या खेल निष्ठा- विश्वास-रूढ़ियों का, सत्य अज्ञात फिर भी हैं उलझे

कुछ तंत्र-कर्मकांड बता दिए स्वार्थियों ने, श्रद्धालु उन्हें अकाट्य मानते।

अनेक लघु पंथ पनपे हैं नर-समूहों में, बस निज-परिधि निर्मित वहीं तक

किंतु कितना विस्तार मानव-मन संभव, सिकुड़ना तो है अर्ध-विकसित॥

 

और क्या है प्रश्नकरण-प्रवृत्ति, हेतु मानव का सर्वांगीण विकास व उद्भव

जब वर्तमान ही सहज न लगता, विरोधाभास खोलते हैं परत दर परत।

क्या है यह सब मनीषियों का निर्मल- चिंतन या स्वार्थ-निर्वाह लुब्धों का

या घोर तम में ही मात्र सन्तुष्टि, मूढ़ता-ज्ञानाभाव निकृष्ट श्रेणी में रखता॥

 

यद्यपि साहित्य दर्पण है मनन का, पर प्रश्न कितनी संभव है मानव-थाह

क्या जन- भावनाऐं कर्ता में, कुछ विवेकशील भी या अंधानुकरण मात्र।

या बस एक ढ़र्रा सा बना लिया, समस्त तीज-त्यौहार मनाते समझें बिन

सभ्यता-प्रयोग एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है, पर क्या इच्छा ही सत्यान्वेषण?

 

कैसे सत्य, किसके सत्य, क्या, क्यों, कितना ही है अध्ययन-अनुसंधान

क्या हर संभव पक्ष का सत्य-अवलोकन, या जो समक्ष चलाऐं हैं काम।

फिर कौन अन्वेषी दुर्गम राहों के, किसमें साहस सूक्ष्मता में करें प्रवेश

कौन उपकरण, गुरु-सहायक, मनन-दिशा संग में, हम भी बनाऐं पंथ॥

 

पर मानव-मन है अति ढोंगी-चतुर, निज स्वार्थ-पूर्ति हेतु है उक्ति बनाए

उसको न अर्थ है पूर्ण सत्य-उचित से, बस जैसा बन सके, काम चलाए।

वह बिदकता है अपने से समर्थतरों से, जो हाँ में हाँ मिलाऐ वही उत्तम

कहता यह अन्य तो अविवेकी-दोषपूर्ण हैं, दूर रहो-रखो इसमें ही हित॥

 

किंतु क्यों हम बोलते हैं अन्य के विरोध में, अच्छे हो जब तक संग ही

जरा हटें तो विरोधी मान लिया, मन-वाणी-कलम से उनकी ही बुराई।

किंतु कब तक खुद को ही समझाऐं, जब दर्द हो रहा तो क्या न कराहें

उसकी स्थिति तो न समझ-जानते, निज समय तो बस उसी में है बीते॥

 

माना सबसे न कहते भी, पर अंदर ही अंदर तो युद्ध चलता ही रहता

कष्ट तो हैं जब नर नीर-क्षीर विवेकी, सत्य-स्थिति को ज्ञान-यत्न रहता।

मात्र आत्म-मुग्ध या दत्त नाम रूप मानने से, बहु-विकास हैं न सम्भव

प्रयास-वृद्धि, अस्वीकार विशेषण, `मन से जय ही निज सत्य-विजय'


पवन कुमार, 
20 जून, 2016 समय 23:54 म० रा०  
(मेरी डायरी 20 जून, 2015 समय 10:50 प्रातः से) 
    

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