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Wednesday 12 October 2016

सहज शब्द-प्रवाह

 सहज शब्द-प्रवाह
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बहु-भाँति लेख-संस्मरण, कथा-साहित्य, जन लिखते भिन्न रस-संयोग से

सबका निज ढ़ंग मनन-अभिव्यक्ति का, समग्र तो न सब कह ही सकते॥

 

लेखन-विधा है अति-निराली, यूँ न मिलती, कुछ तो चाहिए सहज रूचि ही

विशेष समय आवश्यक बतियाने को, वरन सुफियाने की घड़ी न मिलती।

फिर मन में क्या आता उन क्षण- विशेष में, कलम तो मात्र माध्यम बनती

शब्द-प्रवाह सहज ही तब निज-दिशा लेता, देखो मंजिल कहाँ है मिलती॥

 

ज्ञान-स्रोत समक्ष-पुस्तकें, विद्वद-प्रवचन, संगति या दैनंदिन कार्य-कलाप

या कुछ क्षण निज संग बिताना भी, जिससे निकले एक कमल-मुकुल सा।

मन-रमणीयता का भी अपना विश्व, कहाँ- कब बैठेगा किसी को न प्रज्ञान

कैसे सुसंवाद हो सके निज श्रेष्ठ से, कुछ एकत्रण से हो सके ही विकास॥

 

सुघड़, विचक्षण मनन- दृष्टान्त मनीषियों का, जितना निहारो उतना कम

अति-गह्वर उनका अवलोकन, यूँ न मात्र सतही अपितु जीवन-सार तत्व।

जितनी मात्रा- गुण पास एक, उतना दान- संभव, उपलब्धता पूँजी है यहाँ

यह बात और कि लोभी हो, बाँटन-अरुचि, स्व-संग ही खत्म हो जाएगा॥

 

क्या मेरी मनोदशा विशेष परिस्थितियों में है, मन-भाव यथैव ही उद्गीरित

कैसे निज-समीपता व संग जुड़न-अभिलाषा, स्वयं गति से लेकर कलम।

विल डुरांट ने तो लिखे हैं `सभ्यता एवं  दर्शन का इतिहास' से विस्तृत ग्रंथ

वह भी गुजरे दुःख-सुख परिस्थितियों से, तथापि सहज रच दिया अद्भुत॥

 

विभोर मन चेतन-शक्ति, आत्मिक-बल बढ़ाओ, जीवन हेतु महद उद्देश्य

ऐसे तो महद रचना न बने, उठ खड़े होवों लिख दो निज सर्वोत्तम लक्ष्य।

वाल्मीकि, व्यास, शैक्सपीयर, गोएथे, कालि ऐसे न, अल्पकाल जीव-भंगुर

समक्ष विपुल राशि तेरे अर्थ पड़ी, निम्न कामना से तो अति-लाभ होगा न॥

 

माना सबको निज जीवन ही जीना, पर दान भी जिम्मेवारी उत्तम विरासत

'यूँ ही आऐ न आऐ' उक्ति से ऊपर उठो, जग-आगमन को करो सार्थक।

कैसे चेतन क्षण बढ़ते जाऐं जीवन में, व उनमें संपूर्णता भरने का उत्साह

चल पड़ो किसी लम्बी यात्रा पर, कुछ जग देखो, अपनी भी कहो अथाह॥

 

वे मार्ग- अध्याय जान-सीख लो, जो उन्नति, परम-प्राप्ति का दिखाऐ मार्ग

बैठो विद्वद- जनों संग उत्तम संगोष्ठी में, कैसे किया है उनने पथ लो जान।

प्रदत्त कार्य निश्चित ही विशाल होगा, परियोजना- प्रबंधन भी चाहिए उत्तम

किंतु हर अध्याय पर पूर्ण ध्यान, नैपुण्य से देखो कुछ भी छूटना चाहिए न॥

 

जीवन-विज्ञान एक बड़ा विषय है, ज्ञात हो चाहिए उचित कार्यान्वयन विधि

कौन तत्व कहाँ कैसे प्रभावित करता, सुप्रबंधन से झलके उत्तमता अति।

जीवन- उपलब्धि निज स्वेद-रक्त की आहुति से, प्रयास से न कभी घबरा

श्रम-सुस्ती से थकना न इतनी शीघ्र, जब कर्त्तव्य अधिक तो विश्राम कहाँ॥

 

फिर बिंदु तो इंगित करने होंगे, जो अन्तः घोर-तम से प्रकाश में आगमन

कुछ स्वप्न लूँ समर्थ- विवेकियों संग, ज्ञान प्रवाह रोम-कूप में हो प्रकटन।

जीवन फिर पूर्ण खिल सकेगा, सब पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष मेल से

सर्व- अवस्था ही आस्वादन लेना, न घुटकर मरना जब इतना सम्भव है॥

 

मेरी मनोवृत्ति उचित कर देना ओ परमपिता, तार सीधे तुमसे जुड़ जाऐं

हटा कर सब मेरे प्रमाद, अपुण्य तन-मन के ज्ञान-वृत्ति में चित्त हो जाए।

मूल-प्राथमिकताओं से करा तुम परिचय, न इतने अल्प-निर्वाह से सन्तुष्ट

क्यूँ न करूँ मैं सर्वोत्तम हेतु ही चेष्टा, जब ज्ञात है संभव व समक्ष मंजिल॥


पवन कुमार,
१२ अक्टूबर, २०१६ समय १३:३७ अपराह्न 
(मेरी डायरी दि० २६.०६.२०१६ समय प्रातः १०:२२ से) 

Sunday 2 October 2016

उत्प्रेरण-विधा

 उत्प्रेरण-विधा 
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वर्तमान अनूठे असमंजसता-पाश में, अबूझ हूँ जानकर भी
कैसे खेऊँ नैया, पार दूर, अकेला, फिर हिम्मत खण्डित सी।  

सकारात्मक मन-मस्तिष्क धारक, तथापि अनिश्चितता घेरे 
विवेक प्रगाढ़ न हो रहा, नकारात्मकता आकर है झिझकोरे।
वातावरण जो होना चाहिए भय-मुक्त, स्वच्छंद - उन्मुक्तता  
सब ऊल-जुलूल बोलते, मानो जीवन की यही परिणति यहाँ। 

भेजा गया कुछ इस आशा से, विभाग के नाम में होगा लाभ  
अपने कर्म, विचार-शैली से, परियोजना को बढ़ाऊँगा अग्र। 
सभी महारथी-ज्ञानी बनते यहाँ, कुछ तो बिल्कुल दयनीय  
कुछ तव मुख ताकते, माना समस्त शक्ति तुममें समाहित। 

उद्वेलित क्षुद्र-घटनाओं से, माना बाह्य न अति-प्रतिक्रिया  
मनन सतत संचालित रहता, विभिन्न पहलुओं को देखता। 
निर्णय लेने में समर्थ होते भी, अपने को असहाय सा पाता 
कुछों के शंकालु होने से, अवश्यम्भावी है प्रभाव पड़ना। 

माना कोई योग नहीं है, अब तक कृत कार्य-कलापों में
तथापि अब प्रथम, अतः सहभागी होता जा रहा शनै-२। 
 करो निज-मूल्य  सशक्त, त्रुटि न हो कर्त्तव्य - निर्वाह में 
मात्र उत्तम कार्य ही सम्बल देंगे, वही अपेक्षित तुमसे। 

सभी से एक रिश्ता बनाओ, जिम्मेवारी और आदर का 
बने सब एक दूजे के साथी, और परस्पर अनुभूति का। 
नहीं हों मात्र पर-छिद्रान्वेषी ही, सुधार में सबका विश्वास 
 यदि आवश्यक हो तो बल भी, ध्यान में ला करो स्थापित। 

अनन्त-शक्ति पुञ्ज हो, क्षीणता कदापि न करो स्वीकार 
निज-शौर्य अंश-दान अन्यों को भी, प्रबल रक्त-संचार। 
जीवन जीने का नाम व समझना इसको भली-प्रकार से 
कर्त्तव्य हर पर नज़र हो, और कहीं कुछ छूटा न जाए। 

निडर बनूँ प्रबल-मन संचालक, सदा दृढ़ता से हो बात 
निज-कार्य निपुण हो सदा, औरों को समझाने का हुनर। 
माना अन्य भी जानते होंगे, तुम स्व-विद्या में बनो प्रवीण 
जग अपरिपक्व ज्ञान को आलोक दो, ताकि राह सुगम। 

निज निष्ठा-कर्मठता से, जग में एक उत्तम छाप छोड़ो 
माना सब कुछ न हाथ स्व, इतने भी असहाय नहीं हो। 
बनाओ और सबल स्वयं को, दुर्बलता-भाव ही न आए 
किञ्चित स्वस्थ मन-स्वामी बनो, निज-गुण जोड़ते जाए। 

परम-युक्त में ध्यान सदा, निस्सन्देह बनो संकट-मोचक 
अभय दो सह-कर्मियों को, गतिविधियाँ करो उचित-दक्ष। 
अपनी श्रेष्ठता को सबमें बाँटो, तभी तो होगी उसमें वर्धन   
सम्पूर्णता में और अधिक चाशनी, चहुँ ओर हो प्रकाशित। 

माना यश-गान न अभिलाषा, जग-पार गमन महद  लक्ष्य  
कटे सब फंदे निम्नता के, मनुज के काले-कलाप, असत्य। 
प्राणी-दुर्बलताओं से उठकर, सर्व-विकास का सागर-मंथन
प्रक्रियाऐं-साधन सब उचित होऐं, स्वयं-सुधार एक उत्प्रेरण। 

मेरे मन के प्राण-पखेरू, लगा उत्तुंग उड़ान एक दूर गगन 
देख अतीव दूर-दृश्य अद्भुत, विकास फिर क्यों न संभव?
ले संग उचित-मनन व कार्य-शैली, क्षमताओं में सतत वृद्धि 
जीवन-उन्मुक्तता सन्देश जीवियों को, बृहत कल्याण दृष्टि। 

धन्यवाद। 

पवन कुमार,
२ अक्टूबर, २०१६ समय १९:०३ सायं 
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी ३०. ०९. २०१४ समय ८:४० प्रातः से)