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Sunday 26 October 2014

सफल जागरण

सफल जागरण 
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दिन निकला और सुबह हुई, मन मेरा उन्मत्त हुआ

कैसे बेहतर बने सब कुछ, विचारने का मन हुआ॥

 

मेरी खूबसूरतियों की स्मृति, इस पल में हुई है प्रखर

उजला-उजला विभोर, प्रफुल्लता चहुँ ओर स्फुटित।

शब्द-समृद्धि व अपरिमित-आकांक्षा, सब ओर बिछीं

मैं उठ बैठा फिर खड़ा हुआ, सब पर्यन्त मुखर हुई॥

 

मैं उन्मादित-हर्षित मन में, यह जीवन का उजला पक्ष

विचारक-चिंतक मौलिक, और सब है संवाद सबक।

मेरी लघु-परिमिता विस्तृत हुई, ज्ञान चक्षु हुए हैं प्रखर

बहु-समृद्ध, विशाल-असीमित, नभ-तारक गण मुखर॥

 

मेरी व्याधियाँ-अतृप्तियाँ, संकुचन सब भाग से हैं गए

मैं बना सम्पूर्ण और ये पल, परब्रह्म से सम्पर्क किए।

मेरी शैली-रचना, मेरा मतवाला बौद्धिक चिंतक मन

मेरी विद्या-पुस्तकें-ज्ञान, सब कुछ तो हुए प्रज्वलित॥

 

मैंने तजी कुचेष्टाऐं, व दया-शुचिता को आमुख हुआ

व्यर्थ-संवाद छोड़, सबल-समर्थ-सार्थक ओर हूँ बढ़ा।

मैं बना वास्तुकार स्वयं का, भले ही विचार बाह्य कुछ

किंतु इस समक्ष पल में तो, स्व में ही फलीभूत बस॥

 

शायद मनुष्यत्व पा हूँ गया, एवं आत्म को जान गया

अपनी व्यर्थताओं को भुला, सुपक्षों ओर इंगित हुआ।

मैं जागा, जगत जागा, और समाधान हो गए सारे प्रश्न

सौभाग्यशाली बना स्वयं को, बढ़ा दूँगा अपने प्रयत्न॥

 

मन में उठी हिल्लोरें मेरी, मन कुछ हुआ है वयस्क

वर्धन उस ओर जहाँ, सीमाऐं हुई हैं समाप्त सकल।

सब मेरे और मैं सबका, कोई भी नहीं है विरोध-द्वेष

बना हूँ स्वयं का संगी, और सब ओर खड़े हैं प्रेरक॥

 

माना मन में ही निज, मनोरमा विस्तृत आगे कितनी

करूँ रसास्वादन मैं उनका, सब कुछ लिए मेरे ही।

जागा इस भाँति से हूँ, सर्वस्व ही अपना हो सा गया

मैं उठ खड़ा तन्द्रा से, बहु-विचित्रता से रिश्ता बढ़ा॥

 

मेरे सब डर दूर भाग गए हैं, और मैं जितेन्द्रिय बना

महावीर मेरा तन-मन, व सबलता का है पक्ष बढ़ा।

मोह हटा मम दुर्बलताओं से, अधमता क्षीण हुई सब

और मैं बना परम का साधक, अरिहंत से बढ़ा प्रेम॥

 


पवन कुमार,
26 अक्टूबर, 2014 समय 15:26 अपराह्न 
(मेरी डायरी दि० 11 अगस्त, 2014 समय 07:00 प्रातः से )

Thursday 23 October 2014

उज्ज्वल-पक्ष

उज्ज्वल-पक्ष 
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कैसे यूँ कुछ मनुज बढ़ जाते, जब वे भी हाड़-माँस के हैं 
कैसे स्थापित होते प्रयत्नों में, अत्यधिक दूरी तय कर जाते। 

मनस्वी मन-तहों तक जा, आचरण की क्षीण ईंट करते उचित 
बनते सतत प्रहरी स्वयं के और अपने बेहतर की आशा करत। 
जीवन उच्च-शिखर ओर इंगित हो, कुछ भी कसर न छोड़ते 
जगाकर अपने क्षीण पक्ष, अभ्यास सतत से सशक्त करते। 

नहीं है आसान इतना भी, जब दुर्बलता अविश्वास जगाए 
कौन छेड़े अनछुए पहलुओं को, क्यों मीठी नींद को खोए। 
मानव के अंदर छुपे हुए शत्रु और उसे वे घायल करते 
सतत युद्ध यूँ चलता रहता, कभी जीता कभी हर्षाए। 

स्व-पक्ष को मज़बूत करना, मन-मस्तिष्क को दुरस्त करना 
निकाल बाहर नकारात्मकता को, व्यव्हार निज सुदृढ़ करना।  
जीवन की एक शैली बना लो, जिसमें आत्म -विश्वास हो भरा
फिर तुम्हें अपनी ही नहीं, बल्कि संगियों को भी साथ लेना। 

यह जग स्वार्थों में मस्त, केवल वर्तमान की परवाह करता 
यदा-कदा भूत से प्रभावित, तथापि अबों की चिन्ता करता। 
बहुत बार परेशान सा, स्व-क्षीणताओं को महसूस करता 
मन तो न बदला, औरों की दुर्बलता भी निज मान लेता। 

क्यों है यह भ्रामक स्थिति, सु-गंतव्य पर नहीं नज़र 
मन-मीत को जगा, उसको बना स्नेहिल एवं मृदुल। 
आगे बढ़ने के कौन मार्ग, जिनका करना अनुसरण 
सर्व-ज्ञान निकट होते भी, अबोध पाता इस समय। 

दूर है एक तारा, मारूँ छलांग और तोड़ लाऊँ उसे 
दूरी बहुत, चाहिए प्रयास महद, अनवरत साहस कुँजी है। 
इस जग की प्राथमिकताऐं देखें, तो भरी बहुत अवाँछित   
निज-प्राथमिकता समझो, अर्जुन भाँति करो मीन-लक्षित। 

अनेक अविष्कार, वृहद गाथा व जग-समझ स्वस्थ-मन से 
न वे रहे पर-छिद्रान्वेषी पर स्वयं को बहुत ही सुधारते।  
कैसे बनें स्वयं और अन्य भी योग्य इसमें आहुति डालते 
जितना बन पाए उतना देते हैं नहीं अटकते, भ्रांत रहते। 

पर क्या उनका द्वंद्व न स्वयं से, और कैसे वे विजयी होते 
अपने से उठकर वे संसार में कुछ सार्थक रचना करते। 
कैसे बनें आत्म-विजयी व कौन प्रेरणा कराती है अद्भुत 
न मुझ-मम में खोए रहते, अपितु कुछ ठोस जाते कर। 

मनन क्यों न आता स्व से ऊपर, बाह्य-सौंदर्य अहसास 
जीवन-अनुपम चिंतन कैसे हो बाहर, रूबरू हो जाए। 
पकड़ ले कूची, लेकर रंग-रोगन उकेरें कुछ सुन्दर  
अति मन-भावन रचना, स्व-संग अन्य भी रोमांचित। 

जीवन के कण-कण से, हर क्षण का बेहतर निर्माण  
चित्रित करते स्वयं का ही, बाहर तो बस दिखावा है। 
हममें से कुछ देख लेते, वरन अपने से ही किसे फुर्सत 
जब फिर उपभोग में व्यस्त, व सोचते उपयोगी हैं हम। 

इस कलम को कुछ अंदर से, बाहर भी चाहिए मोड़ना 
कब तक अपने में व्यथित, जब बाहर भी आवश्यकता। 
 निकलो, उठाओ उपकरण प्रगति के, सर्वस्व को झोंक दो 
फिर सम्भावना अन्य कुछ सक्षमों की श्रेणी में आने की। 

धन्यवाद। 

पवन कुमार,
23 अक्टूबर, 2014 समय 17:02  
(मेरी डायरी दि० 4 अक्टूबर, 2014 ब्रह्म-महूर्त 4:48 से )

  

Saturday 18 October 2014

यायावरी उत्कण्ठा

यायावरी उत्कण्ठा 

वह अद्भुत मन का स्वामी, खुली आँखों से विश्व - भ्रमण करता 
एक ही जगह नयापन कम होता पर घुम्मकड़ी तो सदा ताज़ा रखती। 


एक स्थान रहते-2 हम वातावरण से सामंजस्य बनाते 
प्रकृति से एक-रूप होते और अपने लिए कुछ स्थान बनाते। 
सबसे जुड़ा तो तब भी नहीं संभव फिर भी तो अपनापन लगता 
और हम अपनी छोटी सी दुनिया को ही, समस्त जग समझ बैठते। 

पर यायावरी घुम्मकड़ के लिए तो समस्त विश्व अपना क्षेत्र है 
वे निकल पड़ते मन में साहस लिए नवीनता से संसर्ग करते। 
उनका दृष्टिकोण सर्व-व्यापी है और मानवता-समर्पित होता  
नए लोगों, वातावरण से सम्पर्क, वृहदता को बढ़ावा देता। 

कितना अल्प है हमारा स्व, ज्ञात होता जब गोता महासमुद्र में लगाते 
आँखें विस्मृत हो जाती और नव-अनुभव रोमांच बढ़ाते। 
विचित्र नजारें मन-मस्तिष्क आन्दोलित करते और स्मृति प्रखर होती 
सबसे जुड़ने की चाह तो और अधिक स्फूर्ति बढ़ाती। 

देखने का सामर्थ्य समस्त ब्रह्माण्ड को और इसकी प्रक्रिया समझना 
समस्तता में अपनी भी भागीदारी, उन्हें पूर्ण विश्व-नागरिक बनाती। 
वे कण-कण में विद्यमान हैं अनन्तता के और उसे महसूस करते 
जीवन सभी का उनका ही है, इसी से उन्हें सन्तुष्टि मिलती। 

मेल-जोल अन्य सहचरों से यात्रा को सुगम बनाता 
एक-दूसरे से सहयोग और प्रेम रिश्तों में मधुरता लाता। 
वे बनते एक-दूजे के पूरक क्योंकि यात्रा अति-कठिन है 
वे हिल-मिल जाते जल्द ही नव-प्रकृति में और सब एक सार लगता। 

जीवन भी अद्भुत यात्रा है और कितने रहस्यों से अवगत कराता 
आकाश-पाताल-धरा सब कुछ ही तो इस यात्रा का क्षेत्र होता। 
ज्ञानेन्द्रियाँ इसमें सहायक होती और प्रबल निडरता आगे बढाती 
विविधताएँ विस्तरित स्थान-स्थान पर, अपनी प्रगति में सहायता करती। 

अल्प-जीवन पर जिजीवाषा अति-तीक्ष्ण, एक पल विश्राम न लेने देती 
आंदोलित कराती मन-प्राण को और सम्पूर्णता निकट का प्रयत्न करती। 
दिन-रैन नए विषयों का अध्ययन और मानव-विस्तार से रूबरू होने का 
अपना क्षेत्र कैसे बढ़े बौद्धिकता में, इसी पर समस्त मन्त्रणा होती। 

सभ्यता एक तुलनात्मक स्थिति है और निस्सन्देह मात्राऐं भिन्न हैं 
पर मानव मन तो अमूमन, सर्वत्र एक जैसा ही विकसित हुआ है। 
कुछ रखते खुले नेत्र प्रकृति का मनन, बखान करने को 
माना सब सच नहीं भी होता तो भी मन से प्रयास करते हैं। 

बहुत गहरा रिश्ता है हम सबका, आओ कुछ और मित्र बनाऐं 
नए लोग, नया साहित्य, नए क्षेत्र और नई संस्कृतियों से सम्पर्क बनाऐं। 
     आओ बाँटें एक-दूजे के अनुभव और परस्पर जीवन महकाऐं 
अपने समर्थों का करें सम्मान और क्षीणों की मदद को आऐं। 

विशाल मन के बनों स्वामी और रखो सब कृपणता, अधमता दूरी पर 
होवों निर्मल मनों के संगी और कुछ दुष्टता तो कम करों। 
बहुत जवाबदेही है इस जग में, आए हो किसी परम-उद्देश्य हेतु 
चल पड़ों अपनी मंज़िल की खोज़ में, ढूँढने उपकरण सुधार के। 

राहुल सांकृत्यायन का 'घुम्मकड़ -शास्त्र ', गत दो-तीन दिनों से पढ़ रहा हूँ 
बहुत मानव बनाने का प्रेरक यह महामानव, सदा आगे बढ़ने को प्रोत्साहित करता। 
मैं भी बनूँ कुछ योग्य, अन्य नहीं तो अपनी नज़र में ही 
तोड़ दूँ सब बंधन वे जो कहीं भी जकड़े रखे हैं। 

पवन कुमार, 
18 अक्टूबर, 2014 समय 22:23 
(मेरी महेन्द्रगढ़ डायरी दि० 8 अक्टूबर, 2014 समय 9:35 प्रातः से )