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Sunday 30 December 2018

श्री बाणभट्ट कृत कादंबरी (प्रणय-कथा) : परिच्छेद -५ (भाग -१)

परिच्छेद - ५  (भाग-१)
  
"जैसे अतएव दिवस गमन हुए, चंद्रापीड़ को युवराज के रूप में अभिषेक को उत्सुक महाराज ने अंतःपुर-रक्षकों को इसके हेतु सभी वस्तुऐं एकत्रण हेतु नियुक्त किया; और जब यह निकट था, कुमार की महिमा-वर्धन के अभिलाषी, उतनी महान जितनी पूर्ववत ही है, शुकनास ने अपनी यात्राओं में से एक के मध्य विस्तार से यूँ कहा : 'प्रिय चंद्रापीड़, यद्यपि तुमने जो जाननीय को जान रखा है, और सभी शास्त्र पढ़ लिए हैं, तुम्हारे हेतु कुछ अन्य जानना अशेष है। क्योंकि सत्यतया नवयौवन तिमिर प्रकृति से उदित अति-घन है, यह तो प्रभाकर द्वारा छेदित है, ही रत्न-कांति विदीर्ण है, ही दीपक-ज्योति द्वारा त्याज्य है। लक्ष्मी-उन्माद वीभत्स है, और प्रौढ़ायु में भी नष्ट नहीं होता। एक अन्य अंधता राजसत्ता की है, वह पाप किसी अन्य औषधि द्वारा उपचारित भी नहीं है। गर्व-ज्वार अति-उच्च भागता है, और कोई शीतल उपकरण उसको शमन कर सकते हैं। इंद्रियों के विष-पान से वर्धित मूढ़ता हिंसक है, और मूलों अथवा मंत्रों द्वारा प्रतिकारित है। अनुराग-कलंक की कालिमा कदापि स्नान अथवा पवित्रीकरण से नष्ट होती है। अनेक राजन्य-सुखों की निद्रा सदैव भयावह है, और निशांत कोई जागरण नहीं करता है। अतः तुमको प्रायः विस्तार से बताना चाहिए। जन्म से भी स्वामित्व अभ्यागत, नव-यौवन, अतुल्य-सौंदर्य, अपौरुषेय-गुण, यह सब व्याधियों की एक दीर्घ परंपरा है। इनमें से प्रत्येक पृथक-रूप से दर्प का एक निकेतन है; उनके समाहार से कितना होगा। क्योंकि नव-यौवन में मस्तिष्क प्रायः अपनी शुद्धता खो देता है, चाहे इसे शास्त्रों के विशुद्ध जल द्वारा ही निर्मल क्यों नहीं किया जाए। तरुण के नेत्र उद्दीप्त रहते हैं, चाहे उनकी स्पष्टता पूर्णतया नष्ट हुई हो। जब मदहोशी का पवन-चक्र (भवंडर) चढ़ता है तो प्रकृति भी तारुण्य में एक मनुज को अपनी इच्छाओं पर ले जाती है, जैसे एक शुष्क पल्लव वात पर। आनंद की मृग-तृष्णा (मरीचिका), जो इंद्रियों को ऐसे पाशित करती है जैसे कि ये मृग हों, सदैव कष्ट में ही समाप्त होती है। जब अभिनव-यौवन द्वारा मस्तिष्क-संज्ञा (चेतना) कुंठित (मंद) हो जाती है, बाह्य जगत के सुलक्षण जल सम पतित हो जाते हैं, इससे भी अधिक मधुर अभी अस्वादित किए जा रहे। इन्द्रिय-सुखों से अत्यधिक चिपके रहने से मनुष्य नष्ट हो जाता है, उसकी धारणाऐं अज्ञानता सम उसे भ्रमित करती है। लेकिन तुम्हारे तुल्य मनुज शिक्षा हेतु सुपात्र हैं क्योंकि अकलंक एक मन हेतु उत्तम-परामर्श सुगमता से प्रवेश कर जाता है, जैसे कि एक शशि-स्फटिक पर इंदु-रश्मि। गुरु-वचन यद्यपि पवित्र होते हैं, तथापि जब वे दुर्जन के कर्णों में प्रवेश करते हैं तो पीड़ा देते हैं, जैसे कि अंबु करता है, जबकि अन्यों में वे एक उन्नत चारुता उत्पन्न करते हैं, एक गज पर कर्ण-आभूषण सम। वे अनेक पापों की घन-कालिमा को विनष्ट कर देते हैं, जैसे तेजप्रभा में चंद्रमा। गुरु-शिक्षा शांताकार है और यौवन-त्रुटियों को उनके गुणों में परिवर्तित करके नष्ट करती है जैसे प्रौढ़ायु जटाओं (केशों) के कृष्ण वर्ण को श्वेत करती हुई हटा देती है। यह काल तुम्हें शिक्षण करने का है, जब तुमने इंद्रिय-सुख का अभी तक का आस्वादन नहीं किया है। क्योंकि शिक्षा काम-बाण प्रहार से शीर्ण (भग्न) एक हृदय में जल सम प्रवाहित होती है। कुल एवं पावन परंपरा दुराग्रही अनुशासनहीन को प्राप्य नहीं है। क्या चंदन-काष्ट को पाकर एक अग्नि नहीं जलाती ? जल में लगी बाड़वाग्नि प्रचंडतर नहीं होती जो सहजता से नहीं बुझती ? परंतु एक गुरु के वचन, बिना जल का एक स्नान है, जो मनुष्य के सभी कलंक निर्मूल करने में सक्षम है; वे परिपक्व हैं जो अपने केशों को श्वेत करने हेतु परिवर्तित नहीं होते हैं; वे बिना स्थूलता बढ़ाऐ भार देते हैं; हालांकि सुवर्ण में नहीं ढले हैं, वे एक असामान्य कर्ण-आभूषण हैं; बिना प्रकाश के वे कांतिमय हैं, बिना विस्मित किए वे जागृत करते हैं; (२०९) क्योंकि भीत से, मनुष्य नृपों के वचन का एक गूँज सम पालन करते हैं, और अतएव अपने गर्व में असंयत और अपने कर्ण-विवर को पूर्णतया निरुद्ध करके वे उत्तम परामर्श  भी नहीं सुनते जबकि अर्पित किया गया हो; और जब वे मतंग (हस्ती) सम अपने कर्णों को बंद करके कभी सुनते भी हैं तो वह अपनी कुत्सा (तिरस्कार) प्रदर्शित करते हैं; और शिक्षकों को कष्ट देते हैं जो उन्हें उत्तम सलाह भेंट करते हैं। क्योंकि नृप-प्रकृति गर्व-ज्वर की मूढ़ता द्वारा कृष्ण हुई, भ्रमित है; उनका वैभव अहंकारी और असत्य-स्वाभिमान उत्पन्न करता है; उनकी राजन्य-महिमा राजसी-सत्ता के विष द्वारा अकर्मण्यता पैदा करती है। प्रथमतया, जो आनंद-सुखों हेतु प्रयास करता है, लक्ष्मी को देखता है। क्योंकि यह लक्ष्मी, जो अब एक नग्न- कृपाण वृत्त उत्पल-कुञ्ज पर मधु-मक्षिका सम विश्राम करती है, क्षीर-सागर से उत्पन्न हुई है, मूंगा-वृक्ष की मुकुलों से अपनी दीप्ति ली है, अपनी कुटिलता इंदुकला से, अपनी उद्विग्नता उच्चैश्रवा अश्व से, अपनी माया कालकूट विष से, अपनी उन्मत्तता सोम (सुधा) से, कौस्तुभ रत्न से अपनी कठोरता। अपने सखा की मित्रता के स्मरण संग अपनी इच्छा को चिंता-मुक्त करने हेतु, इन सबको उसने शेष रुप में ले रखा है। इस लोक में कुछ भी इतना क्षुद्र समझा नहीं गया है जितना कि इस अधम लक्ष्मी को। वह जब विजित होती है, उसे रख पाना दुष्कर है; जब पराक्रम की सुदृढ़-रज्जु द्वारा दृढ़ता से उसे बाँधा जाता है, वह अंतर्ध्यान हो जाती है; जब उसकी एक सहस्र भीषण सूरमाओं द्वारा, धमकती कृपाणों के पिंजरे में रक्षा की जाती है, वह तब भी पलायन कर जाती है; जब उसे मद-वर्षा से कृष्ण महद गज-बल द्वारा रक्षित किया जाता है, तो भी वह भाग जाती है। वह मित्रता नहीं रखती है; वह कुल को कोई सम्मान नहीं देती है; वह सौंदर्य का कोई ध्यान नहीं करती है; वह एक परिवार-समृद्धि का अनुसरण नहीं करती है; वह चरित्र पर नहीं देखती है; वह पटुत्व (निपुणता) की गणना नहीं करती है; वह पावन ज्ञान श्रवण नहीं करती है; वह धर्म संग नहीं जाती है; वह दानशीलता (उदारता) को आदर नहीं देती है; वह प्रज्ञा को मूल्य नहीं देती है; वह शील की परवाह नहीं करती है; वह सत्य को नहीं समझती है; वह मांगलिक संकेतों को अपना पथ-प्रदर्शक नहीं बनाती है; एक आकाशस्थ (नभस्थ) नगर की बाह्य सीमा सम, वह उड़ जाती है जबकि हम उसे देख रहे होते हैं। वह मंदर पर्वत द्वारा निर्मित गर्गर (भँवर) के आवर्त द्वारा उत्पन्न भावना से अभी तक विमूढ़ है। जैसे कि वह एक उत्पल-शय्या की घटती-बढ़ती गति से उत्पल-आधार (डंठल) का सिरा हो, वह कहीं भी दृढ़ चरण नहीं जमाती है। चाहे प्रासादों में महद-प्रयास से दृढ़ बाँधी जाती हो, वह लड़खड़ाती है जैसे कि मद पिए अनेक वन्य-मतंगों सम। वह खड़ग-धार पर निवास करती है जैसे कि क्रूरता सीखने हेतु। वह नारायण-वपु पर चिपकती है जैसे कि स्वरूप का सतत परिवर्तन सीखने हेतु। चंचलता-पूर्वक वह एक नृप को भी त्याग देती है जो मित्रों, न्यायिक-सत्ता, वैभव एवं क्षेत्रों से साधन-संपन्न हैं; जैसे वह दिवसांत पर एक अरविन्द को छोड़ देती है, जबकि इसकी मूल, आधार, मुकुल और चौड़े-विस्तृत पटल (पल्लव) हैं। एक लता सम, वह सदा एक परजीवी है। गंगा अनुरूप, यद्यपि समृद्धि उत्पन्न-कर्ती, वह बुदबुदों से उत्तेजित है; अरुण (सूर्य) मरीचियों सम, वह एक के बाद दूसरी वस्तु पर चढ़ती रहती है; पाताल के गव्हर सम, वह गहन-कालिमा से पूर्ण है। हिडिम्बा राक्षसी सम उसका उर मात्र भीम के साहस से विजित है; पावस ऋतु सम वह मात्र क्षणिक बौछारें प्रेषित करती है; एक दुष्ट असुर सम, अनेक नरों की ऊँचाई सम वह क्षीण मन को उन्मादित करती है। ईष्यालु सम वह, उसको कंठ नहीं लगाती है जिसको विद्या ने अनुग्रहित किया है; वह गुणी-पुरुषों का स्पर्श नहीं करती है जैसे कि वे अशुद्ध हैं; वह कुलीनों का सम्मान नहीं करती है जैसे व्यर्थ हो। वह एक शिष्ट नर पर ऐसे लपकती है जैसे कि एक भुजंग हो; वह एक नायक का एक कंटक भाँति परिवर्जन करती है; वह एक दुःस्वप्न सम एक दाता का विस्मरण कर देती है; वह एक शीलवन्त नर से दूर रहती है जैसे कि वह एक खलनायक हो; वह बुद्धिमान का उपहास करती है जैसे कि एक मूढ़ हो; वह जग में अपने पथ प्रकट करती है  एक कुहनिका (माया) में अपवादों को योग करती क्योंकि यद्यपि वह सतत ज्वर (दर्प) उत्पन्न करती है, वह एक शीतल (मूढ़) बनाती है; यद्यपि प्रशंसनीय नर, वह आत्मा-निम्नता को प्रकट करती है; यद्यपि जल-उत्पन्न, वह तृष्णा जगाती है; यद्यपि स्वामित्व प्रदान करती, वह एक अयोग्य प्रकृति दिखाती है; यद्यपि नरों को शक्ति-पूरित करते हुए, वह उन्हें वहन (बल) से च्युत कर देती है; यद्यपि सुधा-भगिनी है, वह एक कटु-स्वाद छोड़ती है; यद्यपि भौमिक वपु (विग्रहवती) है, वह अदृश्य है; यद्यपि पुरुषोत्तम से जुड़ी है, वह निम्न को प्रेम करती है; रज-प्राणी सम, वह पावन को भी दूषित करती है। इससे भी बढ़कर, इस एक तरंग को जैसे वह चाहे चमक लेने दे, तथापि वह दीपक सम, मात्र काजल ही अग्र-प्रेषित करती है। क्योंकि वह ऐषणा के विष-वृक्ष को पोषित करती वर्षा है, मृग-इन्द्रियों हेतु व्याध का लुभावना गीत, गुण-मूर्तियों हेतु प्रदूषण करता धूम्र, सम्मूढ़ता (मूर्च्छा) के लंबे शयन की सुखभोगी शय्या, असुरों के गर्व संपन्नता की प्राचीन पर्यवेक्षण बुर्ज (मीनारें) वह शास्त्रों द्वारा दीप्त चक्षुओं पर एकत्रित नेत्र-पटल (मोतिया-बिंद) है, असावधान का ध्वज, क्रोधित-मगरों की देशीय (जन्मज) निर्झरी (प्रवाह); इंद्रिय-माधुर्य की मधुशाला, लुभावने नृत्यों का संगीत-मंडप, पाप-विषधरों की माँद, उत्तम-कृत्यों को बाहर करने हेतु दंड। वह गुणवान कलहंसों हेतु असामाजिक वर्षा है, वह अपमान-छालों का अड्डा, कपट-स्वाँग का आमुख (प्रस्तावना), वासना-गज की चिंघाड़, उत्तमता की वध्य-शिला (घात-स्थल), पुण्यता-इंदु हेतु राहु-जिव्हा। मैं किसी को उस द्वारा उन्मत्त आलिंगन किया हुआ नहीं देखता हूँ जबकि वह अभी तक उससे अज्ञात है, और उस द्वारा अभिवंचित (छला) किया गया हो। सत्य में, वह चित्र में भी चलायमान है; पुस्तक में भी वह ऐंद्रजालिक आचार करती है; वह एक रत्न की काट में भी छल करती है; जब उसको सुना जाता है तब भी वह भ्रांत करती है; जब उसे मनन भी किया जाता तथापि वह विश्वासघात देती है।

"जब यह अधन्य (दुष्ट) पापक प्राणी दैव-इच्छा से महद प्रयास उपरांत नृपों को विजित करती है; वे असहाय हो जाते हैं, और प्रत्येक लज्जित कृत्य की निवास-भूमि बन जाते हैं। क्योंकि राज्याभिषेक के तत्क्षण ही जैसे कि मांगलिक अम्बु-कलशों द्वारा उनकी भव्यता धुल जाती है; उनका उर यज्ञाग्नि-धूम्र द्वारा कृष्ण हो जाता है; उनका धैर्य ऋत्विक (पुरोहित) की कुश-मार्जनी (बुहारी) द्वारा ही विनष्ट हो जाता है; प्रगामी (वर्धित) आयु का उनका स्मरण ऊष्णीय (पगड़ी, पटु) पहनने द्वारा ही संवृत्त किया (छिपाया) जाता है; अग्र-लोक का दृश्य छत्र-वृत्त द्वारा दूर रखा जाता है; सत्य को कर्दपों (कौड़ियों) की वात से हटाया जाता है; गुण को सत्ता-दंड से बहिर्गमन कराया जाता है; उत्तम के स्वर 'जय हो !' नादों द्वारा डुबोए जाते हैं और महिमा-पताकाओं द्वारा निरादरण किया जाता है।

"क्योंकि कुछ महेंद्र अनिश्चित सफलता द्वारा ठगे जाते हैं जैसे की क्लान्ति से शिथिल हुए काँपते विहंग-चंचु, और जो यद्यपि क्षणिक प्रभाकीट (पतंगा) की चमक सम सुखकर है, बुद्धिमानों द्वारा निंदनीय है; वे अल्प-वैभव अर्जन के गर्व में अपने जन्म को भूल जाते हैं, और वासना-आक्रमण द्वारा उत्पीड़ित हैं जैसे परिसंचित व्याधियों द्वारा लाए गए एक रक्त-विषदूषण द्वारा; वे इंद्रियों द्वारा पीड़ित हैं; जो यद्यपि पाँच हैं, प्रत्येक सुख-आस्वादन की अपनी उत्सुकता में एक सहस्र बन जाते हैं; वे मन द्वारा व्याकुलित हैं जो मूल-चापल्य में अपनी ऐषणा अनुसरण करते हैं, और मात्र एक होने के कारण अपने परिवर्तनों में एक लक्ष (शत-सहस्र) का बल प्राप्त करता है। अतएव वे अत्यंत असहायता में पतित होते हैं। वे असुरों द्वारा अधिग्रहण किए जाते हैं, दैत्यों द्वारा विजित किए जाते हैं, माया-यंत्रों (सम्मोहक) द्वारा पाशित, राक्षसों द्वारा पकड़े जाते, पवन द्वारा उपहास किए जाते, पिशाचों द्वारा निगल लिए जाते हैं। काम-सायकों (कामबाण) द्वारा भेदित, वे एक सहस्र विकृतियाँ निर्माण करते हैं; लोलुपता द्वारा झुलसे वे तड़पते हैं; क्रूर-प्रहारों द्वारा आक्रमण से वे डूब जाते हैं अर्थात उनके अंग गिर जाते हैं। कर्कटों (केंकड़ों) सम, वे वक्र (तिरछे) चलते हैं; पाप से टूटे (विकल) कदमों से अपाहिजों भाँति, वे अन्यों द्वारा असहाय से मार्ग दिखाए जाते हैं; असत्यता के पूर्व-पापों से स्खलित स्वर से बोलने वालों (हकलाने वाले) सम वे कठिनता से बबड़बा सकते हैं; सप्तच्छद-द्रुमों सम जो उनके निकट हैं, उनमें सिर-दर्द पैदा करते हैं; मृत-मनुजों सम, वे अपने बंधुओं को भी नहीं जानते हैं; मंद-दृष्टि पुरुषों सम, वे उज्ज्वलतम गुण भी नहीं देख सकते हैं; एक प्राणहर घड़ी में वधित नरों सम वे शक्तिशाली इंद्रजालों (मंत्रों) से भी नहीं जागृत किए जा सकते हैं, लाख के आभूषणों सम वे अधिक ऊष्मा (अग्नि) नहीं सहन कर सकते; स्वाभिमान-स्तंभ से दृढ़ता से बाँधे गए दुष्ट मतंगों सम, वे शिक्षा को मना कर देते हैं; लोलुपता-विष द्वारा पगलाऐं, वे सभी वस्तुओं को सुवर्णमयी ही देखते हैं; घर्षण से प्रखर किए गए शरों सम जब वे अन्यों के हाथों में हैं तो विनाश करते हैं; अपने दण्डों (कर) से वे ऊँचे उगने वाले फलों भाँति महान-कुलों को भी परास्त कर देते हैं; अकालिक पुष्पण सम, यद्यपि बाह्य रूप से सुंदर हैं, वे विनाश ही करते हैं; वे चिताग्नि-भस्म सम प्रकृति में वीभत्स हैं; वक्र-दृष्टि नरों सम, वे दूरी नहीं देखते हैं; वशीभूत पुरुषों सम उनके निकेतन राजसी विदूषकों द्वारा शासित किए जाते हैं; मृत्युतूर्य सम, जब कभी उनको सुना जाता है तो वे भयभीत ही करते हैं; जब कभी भी उनको विचारा जाता है, एक नश्वर पाप करने की इच्छा लिए सम, वे महद विपदा लेकर ही आते हैं; प्रतिदिवस पातकों से पूरित किए जाने से वे पूर्णतया आत्म-संतुष्ट (फूले हुए) हैं। इस दशा में, एक शत पातकों से स्वयं की संधि करके, वे एक वल्मीक (बाँबी) पर तृण सिरे पर लटकती जल-बिंदुओं सम हैं, और बिना इसे भेदे पतित हो जाते हैं।

"परंतु अन्य ठगों (दुष्टों) द्वारा ठगे जाते हैं, अपने स्वयं के अर्थों की इच्छा किए, वैभव के माँस पकाने की कटाह (कढ़ाई) का लुब्ध, महलों के कमलिनी-सरों के सारस !

"ये कहते हैं, द्युत (जुआ) एक विश्रांति है; परस्त्री-गमन - चपलता का सूचक; मृगया - व्यायाम; मद्यपान - प्रसन्नता; असावधानी - वीरता; भार्या-अवहेलना - आसक्ति से मुक्ति; गुरु-वचन निरादर  - अन्यों की अधीनता के उत्तर में एक अधिकार; भृत्यों की उद्दंडता - सुखकर सेवाओं की सुनिश्चितता; नृत्य, गायन, संगीत दुष्ट-संगति विश्व-ज्ञान है; लज्जालु अपराधों का श्रवण मस्तिष्क की महानता है; कुत्सा (घृणा) का साधारण सहन धैर्य है; आत्म-इच्छा स्वामित्व है; देव-निरादर उच्च-भाव है; चारण-स्तुति महिमा है; अविरामता उद्यम है; विवेक-अल्पता निष्पक्षता है।" इस प्रकार नश्वर-श्लाघाओं से कहीं अधिक, अवगुणों का गुणों में आरोह करते नरों द्वारा महीपाल ठगे जाते हैं जो कपट-अभ्यासरत हैं, अपने हृदयों में हँस रहे, अत्यंत पाजी; और अतएव अपने अचैतन्य कारण इन भूपतियों के मस्तिष्क वैभव-गर्व से उन्मत हैं, और अपने में एक स्थिर मिथ्या-दर्प रखते हैं कि ये वस्तुऐं वास्तव में अतएव हैं; यद्यपि मृत्य-परिस्थितियों के वश में होते हुए भी वे स्वयं को एक अमानुष भाग्य संग दैव-प्राणियों भाँति धरा पर अवतरण हुआ देखते हैं; वे अपने कृत्यों में मात्र देवों हेतु उपयुक्त एक श्री (वैभव) नियुक्त करते हैं और सभी विश्व-जनों की कुत्सा विजित करते हैं। वे अपने अनुचरों द्वारा निज-वंचना (छलने) का स्वागत करते हैं। अपने मस्तिष्कों में अपनी दैवता स्थापित करने के भ्रम से, वे मिथ्या-विचारों द्वारा पराभूत (परास्त) कर दिए जाते हैं, और यह विचारते हैं कि उनकी अपनी बाहु-युग्म ने अन्य युग्म (विष्णु) को प्राप्त किया है; वे कल्पना करते हैं कि उनके मस्तक-त्वचा में शिव भाँति एक तृतीय-नेत्र छिपा हुआ है। वे अपनी दृष्टि को एक अनुकंपा समझते हैं; वे अपनी समीक्षा को एक उपकार सम आदर देते हैं; वे अपने वचनों को एक उपहार विचारते हैं; वे अपने आदेश को एक सुकीर्ति वरदान उद्धृत करते हैं; वे अपने स्पर्श को एक परिष्कार (शुद्धि) समझते हैं। अपनी मिथ्या-प्रभुता के गर्व-भार से दबे, वे तो देवों को श्रद्धा अर्पित करते हैं, ब्राह्मणों का आदर, साधुओं को सम्मान, उनको प्रणाम करते हैं जो प्रणम्य हैं; संबोधनियों को निवेदन करते हैं; ही अपने गुरुओं के स्वागत में खड़े होते हैं। वे सब काम-सुखों को त्याग निरर्थक श्रम में लगे विद्वानों का उपहास करते हैं; वे वृद्धों की शिक्षा को मति-क्षीणता (सठियापा) की विचरती वार्ता के रूप में देखते हैं; वे अपने मंत्रियों (अमात्य) के परामर्श की भर्त्सना करते हैं जैसे कि यह उनकी स्वयं की बुद्धिमता का एक उपहास है; वे उत्तम मंत्रणा-दाता से कुपित होते हैं।

"सभी अवसरों पर, पुरुष जिनका वे अभिनंदन करते हैं, जिसके संग वे वार्तालाप करते हैं; जिसको वे अपने पृष्ठ (पहलू) में रखते हैं; उन्नति कराते हैं; अपने प्रमोदों अपने उपहारों का सखा बनाते हैं; एक मित्र रूप में चुनते हैं, पुरुष जिसकी वाणी वे सुनते हैं, जिसपर वे अनुकंपा बौछार करते हैं, जिसके बारे में वे उच्च-विचार करते हैं, जिसमें वे विश्वास करते हैं, वह है जो दिवस रात्रि कुछ नहीं करता है, किंतु उनको सतत नमन करता है, देव सम उनकी श्लाघा करता है, और उनकी महानता का गुणगान करता है।

"हम उन नृपों से क्या आशा कर सकते हैं जिनका आदर्श (मानक) एक छद्म-नियम है, इसकी सुभाषिताओं की निर्दयता में अकरुण; जिनके कुल-पुरोहित हैं जो अपने स्वभाव से माया-संस्कारों द्वारा बने निर्दयी हैं; जिनके शिक्षक अन्यों को धोखा देने में निपुण अमात्य हैं; उनके हृदय एक सत्ता पर स्थित है जिसको शतों नृपों ने उनसे पूर्व खोया और पाया है; जिनकी शास्त्र-प्रवीणता मात्र मृत्यु-गमन हेतु है; जिनके भ्राता, जो स्वाभाविक वात्सल्य से उनके उर सम होने चाहिए, मात्र वध्य हैं।

"अतः मेरे कुमार, इस साम्राज्य-पद में, जो सैकड़ों पातकों में वीभत्स हैं और वाम (वक्र) ऐषणाऐं, जो इसे पोषती है, और यौवन की इस ऋतु में जो निरी सम्मूढता (सम्मोह) है, तुम्हें अपनी प्रजा द्वारा घृणित होने हेतु गंभीर-प्रयास करना चाहिए, उत्तमों द्वारा निंदित, गुरुओं द्वारा शापित, ना अपने मित्रों द्वारा तिरस्कृत, ना प्रज्ञों द्वारा चिंतित। प्रयास करो कि तुम धूर्तों द्वारा अनावृत ना किए जाओ, कपटियों द्वारा ना छले जाओ, दुर्जनों द्वारा वध्य ना किए जाओ, वृक (भेड़िया) सभास्थों द्वारा अंशों में फाड़े जाओ, शठों (दुष्ट) द्वारा विचलित हो, वनिताओं द्वारा भ्रमित, दैव द्वारा हत (अभिवंचित), गर्व द्वारा एक वन्य-नृत्य संचालित, ऐषणाओं द्वारा रोगोन्मादित, इन्द्रिय-वस्तुओं द्वारा आक्रमित, मोह द्वारा सिर से आकर्षित, प्रमोदों द्वारा ना घसीटा जाना।

"माना कि प्रकृति से तुम अविचलित हो, और कि तुम्हारे तात की सावधानी द्वारा तुम उत्तम-प्रशिक्षित हो, और इसके अतिरिक्त, कि वैभव मात्र तुच्छ-प्रकृति और विचार-शून्यता वालों को उन्मादित करता है, तथापि तुम्हारे गुणों में अति-प्रसन्नता ने मुझे तुमसे यह विस्तार से कहने को तत्पर किया।

"कृपया यह वाक्य सदा तुम्हारे कर्णों में बजता रहे : 'ऐसा कोई भी इतना ज्ञानी, प्रबुद्ध, विशाल-हृदय, महिमामान, अटल और उद्योगी नहीं है, जिसको निर्लज्ज दुष्ट भाग्य चूर्ण में घिसा सके। तथापि अब तुम सुमंगल नीचे अपने तात के साम्राज्य में अपने यौवन का अभिषेक-सुख ले सकते हो। अपने पूर्व-पितामहों द्वारा धारित तुमको सौंपे शासन को धारण करो। अपने रिपु-मस्तकों को झुकाओ; अपने सखाओं की मेजबानी वर्धित करो; अपने सिंहासन-आरोहण पश्चात विश्व-विजय हेतु भ्रमण करो; और अपने पिता द्वारा नियंत्रित इसके सप्त-द्वीपों द्वारा वसुंधरा को अपने अधिपत्य में लाओ।

"यह समय अपने को महिमा से मुकुटित करने का है। एक तेजस्वी नृप के आदेश एक महा-तपस्वी सम शीघ्रता से परिपूरित होते हैं।

"अतएव उवाच कर, वह मौन हो गया, और उसके वचनों द्वारा ऐसा प्रतीत हुआ कि चंद्रापीड़ अभिषिक्त, जागृत, पावनित, आलोकित, जल-सिक्त, तैलाभिषिक्त, सम्मानित, निर्मलित और कांतिमान हो गया, और प्रमुदित हृदय से वह एक अल्पकाल पश्चात अपने स्वयं के प्रासाद में वापस गया।

......क्रमशः   


हिंदी भाष्यांतर,

द्वारा
पवन कुमार,
(३१ दिसंबर, २०१८ समय २३:२८ रात्रि)