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Saturday 1 December 2018

श्री बाणभट्ट कृत कादंबरी (प्रणय-कथा) : परिच्छेद -४ (भाग - १)


परिच्छेद

त्रिलोक-जन्मक (स्रष्टा, विधाता), पोषक और संहारक महाकाल एवं प्रमथ-स्वामी द्वारा अपना निवास बनाई जैसे कि यह एक द्वितीय वसुंधरा ही हो, सुवर्ण-युग का एक आवास, पृथ्वी का महानतम गौरव उज्जैयिनी नामक नगर है। वहाँ भास्कर प्रतिदिन महाकाल को श्रद्धा-सुमन चढ़ाता है क्योंकि इसके अश्व विशाल श्वेत प्रासाद में संगीत-गोष्ठी में गायन करती वनिताओं के मधुर-गान की रमणीयता (चारुता) से अपनी ग्रीवा नत करते हैं, और उसकी पताका उसके समक्ष झुक जाती है।

"वहाँ अंधकार कभी नहीं होता, और रात्रियाँ चक्रवाक-युग्ल हेतु कोई विरह नहीं लाती; ही उनको किन्हीं दीपकों की आवश्यकता है क्योंकि वे सुनहली कामिनियों के चमकते आभूषणों से प्रातः अरुणोदय के सुनहले प्रकाश में निकलते हैं, जैसे कि कामाग्नि से विश्व ज्वलित हो रहा है। वहाँ अनंत जीवन मात्र रत्न-जड़ित दीपकों में हैं, तरंगे मात्र मुक्ता-कण्ठहारों में, विभिन्नता मात्र मृदंग-ध्वनि गीत में, युग्ल-बिछोह केवल चक्रवाकों में, वर्ण-जाँच मात्र सुवर्ण-खंडो में, विचलता मात्र पताकाओं में, सूर्य-कुत्सा केवल निशा-कमलों में, धातु-छुपाव मात्र खड़ग की मयान में है। मैं क्या अधिक कहूँ क्योंकि वह जिसके चमकीले चरण देवों असुरों के रत्न-जड़ित विभूषित मुकुट-किरणों द्वारा चूमे जाते हैं, विश्व-संहार हेतु ज्वाला के सेहरे संग भरी जिसकी अलकों में लुप्त गई स्वर्गिक गंगा है, वह अंधक-रिपु है; वह पावन जिसने कैलाश पर अपने आवास हेतु मोह त्याग दिया है; वह जिसका नाम महाकाल है, ने अपने लिए आवास वहाँ बनाया है। और इस नगर में एक नृप तारापीड़ था जो महान राजाओं नल, नहुष, ययाति, दुन्धुमर, भरत, भागीरथ और दशरथ की भाँति था; अपने बाहुबल से उसने समस्त विश्व विजित कर लिया था, वह तीन शक्तियों के फल-भुक्त करता था; बुद्धिमान एवं कृत-संकल्प, राजनीति-विज्ञान में एक अमंदित बुद्धि संग, और विधि-पुस्तकों के गहन अध्ययन से उसने सूर्य एवं चंद्र सहित अपनी आभा महिमा निर्मित की थी। उसका रूप अनेक यज्ञों से पावनित था, उसके द्वारा संपूर्ण विश्व-विपदाऐं विश्राम में चली जाती थी; अपने उत्पल-उपवनों को त्यागकर और नारायण-उर में अपनी निवास-प्रसन्नता को घृणा कर, लक्ष्मी उसको खुलकर गले से लगाती थी, वह कर में कमल रखती है और सदा नायक-प्रतियोगिता में आनंद करती है। वह सत्य-स्रोत था सदा साधु-कुल द्वारा सम्मानित, जैसे विष्णु-पद स्वर्गिक गंगा-धारा से।

महिमा उससे ऐसे उदित थी जैसे चंद्र समुद्र से, क्योंकि उसकी आभा उष्मा-रहित थी, अपने अरियों का भक्षण कर लिया था; सतत भ्रमण करता था; निष्कलंक, अपने शत्रुओं की विधवाओं की मृणाल-आनन चमक को धूमिल कर दिया था; श्वेत, सभी वस्तुओं को हर्षित कर दिया था। वह न्याय-अवतार था, विष्णु का एक रूप था और अपनी प्रजा का सर्वदुःख-संहारक था। "जब वह सिंहासनारूढ़ हुआ, जो अनेक रत्न-किरणों से सुशोभित था और मुक्ता-मंडल द्वारा लटकाया गया था, जैसे कल्प-वृक्ष के पास आता दिग्गज, जैसे भ्रमर-भार से झुकी लताऐं, व्योम की सभी वृहद्-दिशाऐं महाराज के समक्ष झुकती थी; और मैं सोचता हूँ कि यहाँ तक कि इंद्र भी उससे ईर्ष्या करता था। उससे अनेक गुण उत्पन्न होते थे जैसे क्रोञ्च-पर्वत से एक हंस-दल, भूतल को ज्योतिर्मय करता हुआ और तभी मानव-हृदयों को पुलकित करता। उसकी प्रसिद्धि भ्रमण करती थी, अतएव दस-दिशा चहुँ ओर गुँजित होता था, देवों एवं असुरों के लोक को सुंदर बनाती, मंदर द्वारा उछाली गई सुगंधित मधुर क्षीर-तरंगिणी के फेन की एक धारा भाँति।

उसकी राजसी महिमा ने एक क्षण हेतु भी अपनी छत्रछाया को अन्य ओर नहीं किया था, क्योंकि आभा की ऊष्मा-जलन को सहना दुष्कर था। उसकी उपलब्धियाँ, वैभव-समाचार सम जनश्रुत थे, एक गुरु-शिक्षा भाँति ग्रहण की जाती थी, एक शुभ-संकेत सम मूल्यांकन की जाती थी, एक मंत्र सम बुदबुदाई जाती थी, और एक पवित्र-ग्रंथ सम स्मरण की जाती थी। और जब वह नृप था, यद्यपि पर्वतों की उड़ान ठहर गई थी, विचार-डयन स्वतंत्र थी; प्रत्यय मात्र निर्भर थे, प्रजा किसी शत्रु से भीत थी, मुकुर (दर्पण) को छोड़कर कोई उसका सामना नहीं कर सकता था, दुर्गा का दुर्भाग्य मात्र शिव-मूर्ति को दिया था; धनुष केवल मेघों द्वारा पहना जाता था; ध्वजाओं को छोड़कर कोई उपद्रव थे, सायकों (धनुष) को छोड़कर कोई मोड़ थे, बाँस पर मधु-मक्खियों को छोड़ कोई बाण गृहों में शीघ्रता करता था, कोई बलित भ्रमण नहीं मात्र यात्रा में देव-मूर्तियाँ, कोई कारावास नहीं अपने बाह्य-दलपुंजों में कुसुमों को छोड़ कोई निग्रह नहीं; वन्य-गज सीमा में प्रवेश करते हैं परंतु किसी अन्य को जल की कठिन परीक्षा में बाहर जाना पड़ता था; प्रखरता मात्र खड्ग-धार में थी; परीक्षा-धैर्य मात्र तपस्वियों था; तुला (राशि) से गुजरना मात्र नक्षत्रों द्वारा था; घातक-बाढ़ों को नियंत्रण करना अगस्त्य-उदय में था; कम काटना मात्र केश-नखों में था; मात्र मलिन वस्त्र वर्षा-दिवसों में गगन में था; नग्न रखना मात्र रत्नों का था की गुप्त-मंत्रणाओं का; रहस्य मात्र धर्म-संबंधित थे; कुमार-प्रशंसा में बाधित तारक को छोड़कर कोई प्रकाश को नहीं पकड़ सकता था; वृश्चिक राशि में जन्मे चंद्र को छोड़कर कोई नव-शिशु पर से गुजर सकता था; किसी ने महाभारत को छोड़कर अवज्ञाकारी नहीं सुना था; कोई प्रौढ़ावस्था को छोड़ दंड नहीं पकड़ता था; तलवार द्वारा पिधान (म्यान) को छोड़कर कोई एक घातक वस्तु से नहीं चिपकता था; उदारता-धारा गज-मद को छोड़ बाधित होती थी; किन्हीं भी वर्गों को तिरस्कृत किया जाता था मात्र शतरंज-वर्गों को छोड़कर।

उस राजा का शुकनास नामक एक ब्राह्मण मंत्री था जिसकी बुद्धिमता साम्राज्य के सभी विषयों पर स्थित थी, जिसका मस्तिष्क कला शास्त्रों में गहन निमग्न था, और जिसका नृप प्रति प्रखर-वात्सल्य शैशव से ही परिवृद्ध था। राजनीति-विज्ञान के विधानों में निपुण, विश्व-प्रशासन का कर्णधार, दुष्करतम विघ्नों द्वारा अविचलित, वह निरंतरता का हर्म्य (प्रासाद) था, स्थिरमति की स्थली, विशद (शुभ्र) सत्य का वेणी (सेतु), समस्त सत्क्रियाओं का मार्गदर्शक, शीलवान, विश्व-भार को धारण-कर्ता, समुद्र भाँति जीवन-पूरित था; जरासंध सम युद्ध एवं शांति को मूर्तरूप देता था; शिव भाँति दुर्गा से मिलनसार था; युधिष्ठर भाँति धर्म का एक अरुणोदय, वह वेद-वेदांगों का ज्ञाता था, और साम्राज्य-समृद्धि का सत्व था। वह सुनासिर के लिए बृहस्पति सम था; वृषपार्वन के लिए शुक्र; दशरथ हेतु वशिष्ठ; राम हेतु विश्वामित्र; अजातशत्रु हेतु धौम्य; नल हेतु दमनक। अपनी ज्ञान-शक्ति से वह सोचता था कि लक्ष्मी-विजय दुष्कर है, यद्यपि वह नारायण के वक्ष-निष्ठ थी जो पाताल-असुरों के शल्यों के क्षत-चिन्हों (घाव) से भीष्म, और मंदर पर्वत के दारुण (क्रूर) संपीड (दबाव) द्वारा एक बलवान स्कन्ध लिए था जैसे कि यह इधर-उधर हिलता था। उसके समीप ज्ञान बहु-विस्तृत हो जाता था, अनेक लताओं से घण (गाढ़), और एक तरु निकट एक लता सम विजित देशों से प्राप्त हुए फल सम दिखता था। उसके लिए सर्व-भूतल, चार समुद्रों की परिधि द्वारा मापे गए थे, और अनेक सहस्र-गुप्तचरों के यहाँ-वहाँ जाने से भरे थे, और नृपों की प्रत्येक फुसफुसाहट का ज्ञान रहता था जैसे कि यह उसके अपने ही प्रासाद में उवाच की जा रही हो।

"अब तारापीड़ ने, यद्यपि जब वह बाल्यावस्था में ही था, अपने इंद्र के गज-शुण्ड सम मोटी भुजबल से सप्त-द्वीपों परित संपूर्ण वसुंधरा विजित कर ली थी, और उसने साम्राज्य-भार शुकनास नामक अमात्य (मंत्री) को सौंप दिया था, और अपनी प्रजा को पूर्णतया संतुष्ट कर, वह किंचित अन्य अशेष कार्यों का अन्वेषण करता था।

"और जैसे कि उसने निज-रिपु मर्दन (दमन) किए थे और भय के सभी कारण नष्ट कर दिए थे, और विश्व के राज-कृत्यों के आयास (कष्ट) किंचित शिथिल पड़ गए थे, अधिकांश समय उसने यौवन के सामान्य विषय-सुखों में रुचि प्रारंभ कर दी।

"और जब नृप को यौवन-कामसुखों को भोग करते हुए और अपने अमात्य को राज्य-विषय सौंपे हुए कुछ समय बीत गया, और एक समय पश्चात उसने अन्य जीवन-सुख लेने बंद कर दिए, और मात्र जो उसने प्राप्त नहीं किया था वह था उससे उत्पन्न पुत्र की दृष्टि, अतएव उसका अन्तःपुर बिना फल के मात्र कुसुम दिखने वाली ईख (नरकुल) सम था; और जैसे यौवन बीतता जा रहा था उसके अंदर निस्संतान होने से एक पश्चात्ताप पैदा होता था, और उसका मन इन्द्रिय-सुख कामना से हट गया था, और वह अपने को एकाकी अनुभव करता था, यद्यपि एक सहस्र प्रवीरों (राजकुमार) द्वारा परिकृत (घिरा हुआ) था; अंध यद्यपि दृष्टि-सक्षम; असहाय, यद्यपि विश्व-सहाय था।

"किंतु इस राजा का सर्वाधिक रूपवान आभूषण उसकी रानी विलासवती थी, जैसे कि शिव-अलकों पर बाल-चन्द्र, जैसे कैतुभ-अरि (विष्णु) के वक्ष पर कौस्तुभ-मणि भव्यता, जैसे बलराम की वन्य-मालाऐं, जैसे महासागर-तट, जैसे द्रुम-लता, जैसे वसंत में पुष्प-विकसन, जैसे राकेश-चाँदनी, जैसे सरोवर की मृणाल-पंक्ति; जैसे गगन में नक्षत्र-राशि, जैसे मानसरोवर में हंस-वृत्त; जैसे मलय पर्वत पर मलयज (चंदन, श्रीखंड) की अवली, जैसे शिव का भूषित चूड़ा (केश), अतएव वह अपने स्वामी हेतु थी; वह अन्तःपुर में अद्वितीय थी, और त्रिपुरों में विस्मय उत्पन्न करती थी, यद्यपि वह सभी स्त्री-सुलभ गुणों का एकमात्र स्रोत थी।

"और एक बार अचानक ऐसा हुआ कि अपने हर्म्य में जाते हुए उसने एक शय्या पर आसन्नपात हुई प्रमुक्त-कंठ (बुरी तरह से) विलाप करती हुई महाराज्ञी को देखा, जो पीड़ा-मूक एक दासी द्वारा घिरी हुई, उनकी दृष्टि विचार में जड़ित, और अन्य सेविकाओं द्वारा सुश्रूषा की जा रही, जो जिज्ञासु-विचार में अविचलित नयनों से बहुत देर से प्रतीक्षा कर रही थी, जबकि अन्तःपुर की वृद्ध-स्त्रियाँ उसको सांत्वना-दान का प्रयास कर रही थी। उसके रेशमी वस्त्र अनवरत अश्रुओं से आर्द्र थे; उसके आभूषण एक ओर रखे हुए थे; उसका कमल-मुख उसके वाम हस्त पर स्थित था; उसके केश खुले हुए थे और अस्त-व्यस्त थे। जैसे ही वह उसके स्वागत में उठी, नृप ने उसे पुनः शय्या पर बैठा लिया और स्वयं भी वहाँ बैठते हुए उसके रुदन-कारण से अनभिज्ञ, और अति-चकित हो उसके कपोलों से अपने हाथों द्वारा अश्रु पौंछे और कहा : ‘मेरी नृप-वल्लभा, इस रुदन का क्या अर्थ है, तुम्हारे उर में भारी संताप के वहन से ध्वनि-शून्य मद्दम क्या छुपा है ? क्योंकि तुम्हारी पलकें पिरी हुई हैं जैसे कि वे गिरते आंसूओं के मणि-माला हों। तनुगात्रा, क्यों तुम आभूषण रहित हो ? और गुलाबी मृणाल-मुकुलों पर भोर अरुण-दीप्ति सम तुम्हारे चरणों पर लाक्षरस क्यों नहीं बह रहा है ? और क्यों तुम्हारे मणि-जड़ित नूपुर जिनकी खनखनाहट प्रेम-सरोवर के कलहंसों जैसी है, तुम्हारे कमल-चरणों से कृपापात्र नहीं हो रहें ? और यह तुम्हारी कटि तुम्हारे द्वारा एक ओर रख दी गई मेखला के संगीत से विहीन है ? और इंदु पर शश सम तुम्हारे वक्ष पर कोई आकृति क्यों चित्रित नहीं है ? और ललिताङ्गी राज्ञी, स्वर्गिक मन्दाकिनी द्वारा शिव-भ्रू पर सजे बालचन्द्र सम तुम्हारी पेलव (कोमल) ग्रीवा मुक्ता-माला से क्यों सजित नहीं है ? और अन्यथा प्रमुदित, तुमने मुख वृथा बना रखा है जिसका मण्डन (अलंकरण) बहते अश्रुओं द्वारा धुल गया है ? और क्यों पल्लव सम कोमल उँगलियों का समुच्चय कर्ण-आभूषण बन गया है जैसे कि यह गुलाब-कली हो ? और क्यों जिद्दी नारी, तुमने अपनी सीधी भ्रूऐं बिना गोरचना-चिन्हों से आभूषित किए उठा रखी है, और उलझी लताओं से घिरी हुई है ? क्योंकि तुम्हारी पुष्प-विहीन बिखरी अलकें मेरे नेत्र उद्विग्न करती हैं जैसे कि कृष्ण-पक्ष में चाँदनी बिना गहन पीड़ा द्वारा मेघमय। मेरी रानी, दयालु बनो और मुझे अपना व्यथा-कारण बताओ। क्योंकि यह आह-झंझावत जिससे तुम्हारा वक्ष-अंशुक काँप रहा है, एक सुर्ख लता-तंतु सम मेरे हृदय पर बाण चलाता है। क्या मेरे द्वारा या तुम्हारी सेवा में अन्य किसी द्वारा कोई त्रुटि हुई है? मैं अपने को ध्यान-परीक्षण पर पाता हूँ कि मेरे द्वारा तुम्हारे प्रति कोई चूक नहीं है क्योंकि मेरा जीवन और साम्राज्य संपूर्ण तुम्हारा है। मेरी रमणी रानी, अपने दुःख-निमित्त (कारण) बताओ।‘

परंतु अतएव संबोधन करने पर विलासवती ने कोई उत्तर नहीं दिया, और तब उसने उसकी सेविकाओं की ओर मुड़ते हुए उसके प्रवर्धित संताप का कारण पूछा। तब उसका ताम्बूल-पत्र वाहिका मकारिका ने, जो सदा उसके निकट थी, महाराज से कहा : "मेरे स्वामी, आपके द्वारा चाहे कितना भी छोटा ही क्यों हो, कैसे त्रुटि हो सकती है? और कैसे आपकी उपस्थिति में आपका कोई अनुचर अथवा अन्य कोई भी उल्लंघन कर सकता है ? रानी का कष्ट है कि राजा संग उसका योग निष्फल है, जैसे कि उसको राहू द्वारा ग्रसित कर दिया गया हो, और एक लंबे काल से वह सहन कर रही है। क्योंकि प्रथमतया हमारी देवी एक तो महद कष्ट में होने से और ऊपर से दिवस के सामान्य कार्यों में अपनी सेविकाओं की व्यवस्था से आपद (कठिनाई) से ग्रसित थी हालाँकि वे जितने भी उपयुक्त थे जैसे शयन, स्नान, भोजन, श्रृंगार, आभूषण पहनना, इत्यादि और भूलोक-लक्ष्मी सम अनवरत दैवी-प्रेम की भर्त्सना करती थी। परन्तु मेरे स्वामी-हृदय के संताप लेने की अपनी चाह में उसने अपना दुःखद परिवर्तन दर्शित नहीं किया। अभी यद्यपि अपनी सेविकाओं द्वारा सादर अनुनय-विनय की  थी, भोजन में कोई रस नहीं लेती थी और ही अपने आभूषण पहनने में व्यस्त होती है, हमें प्रत्युत्तर देने की कृपा करती है; वह मात्र रुदन करती है, और उसका मुख सदा बहने वाली अश्रु-वर्षा से आवरित है। नाथ ने सुन लिया है, और न्याय अवश्य करें।' ऐसा कहकर उसने विराम लिया, और एक दीर्घ एवं भावुक आह संग नृप ने उवाच किया :

'मेरी राज्ञी, दैव-विधित विषयों में क्या किया जा सकता है ? इस रुदन का कारण पर्याप्त मूल्यांकन परे है क्योंकि यह हम नहीं हैं कि देव अपने अनुग्रह प्रदान के आदी हों। सत्य में हमारा मानस उस सुधा-पान अर्थात अपने लाड़ले को अंक में लेने के आशीर्वाद लेने हेतु भाग्यशाली नहीं है पूर्व-जन्म में कोई उज्ज्वल-कृत्य नहीं किया गया है, क्योंकि पूर्व-जन्म में किए कर्म ही पृथ्वी पर मानव-जीवन में फल देते हैं, और एक विद्वैतम नर भी दैव को नहीं बदल सकता है। हमसे जो इस नश्वर जीवन में संभव है, करें। गुरूओं का अधिक सम्मान करें; देव-आराधना दुगुनी कर दें; उत्तम कृत्य ऋषियों की तुम्हारी अर्चना में दिखें; क्योंकि ऋषि एक बलयुत आराध्य हैं, और यदि हम अपनी पूर्ण-शक्ति से उनकी सेवा करते हैं, वे हमारी उर-कामना की पूर्ति हेतु वर देंगे यद्यपि यह प्राप्त करना कठिन है। क्योंकि कथा है कि कैसे मगध में नृप बृहदर्थ चंड-कौशिक की शक्ति द्वारा एक जरासंध नामक पुत्र पाने में विजित हुआ जो विष्णु-विजेता, पराक्रम-अद्वितीय, अरियों के लिए घातक था। दशरथ ने भी, जब वह प्रौढ़ायु था, महर्षि विभांदक के पुत्र ऋषिश्रृंग के प्रसाद द्वारा चार पुत्र प्राप्त किए जो नारायण-भुजाओं सम अविजित थे और महासागरों की सुतल (गहराई) सम अविचलित थे। तथा अन्य अनेक राजसी साधुओं के प्रसाद से एक पुत्र-दर्शन का सुधापान-सुख प्राप्त किया, क्योंकि संतों को दत्त आदर कदापि पारितोषिक-विहीन नहीं है।"

"और अपने हेतु अपनी दारा को पुत्र-धारणार्थ तत्पर पाऊँगा जब वह पूर्ण-शशि के उदय के निकट १४वीं रात्रि सम पीत है; और मेरे पुत्र-जन्म के महद उत्सव-आनंद को कठिनता से सहते हुए पुरस्कार-पूर्ण मंजूषा (पिटक) ले जाऐंगे? कब मेरी रानी पीत-अंशुक पहन और अपनी भुजाओं में एक पुत्र को लेकर मुझे प्रसन्न करेगी जैसे गगन नवोदित अरुण और शीघ्र प्रकाश से। और कब एक सुत मेरे उर को आनंद देगा ? अपने अनेक पादपों द्वारा पीत, घुँघराले केशों संग, उसके तालू पर सरसों मिश्रित कुछ भस्म जिसपर एक रक्षा-कवच घृत की एक बूंद डली है, और जैसे वह अपनी पीठ पर लेटता है उसके कंठ के गिर्द पीत-वर्णी चमकता एक सूत्र और अपने दंत-रहित नन्हें से मुख से मुस्कुराता है, कब यह शिशु पीत-वर्ण कपिल चमकती हुई अंतः-पुर सेविकाओं द्वारा एक से दूजे को देते हुए सभी प्रजा द्वारा स्वागत होगा। और कब वह मेरे उर नयनों द्वारा अनुसरित होता आंगन-रज से भूरा आंगन को सुशोभित करता हुआ घुटनों के बल चलेगा; और कब वह एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाएगा और गति-बल उसके जानूओं (घुटनों) में होगा जिससे कि वह सिंह-शिशु सम पालतु भुल्लक-शिशु को स्फटिक भित्तियों के पृष्ठ (पीछे) जवनिकी (पटल) से पकड़ने  का प्रयास करेगा ? और कब आंगन में स्वेच्छा से दौड़ते हुए अन्तःपुर-नूपुरों की झंकार को संग लिए वह पालतु हंसों के पीछे दौड़ेगा, और अपनी धाय को थका देगा जो उसकी सुवर्ण मेखला-नूपुरों का ध्वनि-अनुसरण करते हुए उसके पीछे शीघ्रता करेगी; और कब वह एक वन्य-हस्ती की हरकतों की नकल करेगा और उसके कपोल कृष्ण-अगरु में मद सम रेखाओं से सुशोभित होंगे,  अपने मुख में रखी घंटी-नाद से पूर्ण-प्रसन्न, अपने ऊपर उठे कर द्वारा बिखेरी चंदन-काष्ठ चूर्ण से भूरा, मुड़ी ऊँगली-संकेत से अपना शीर्ष हिलाता; और कब वह अपनी माता के चरणों को रंजित करने से शेष लाक्ष-रस को हाथ में लेकर प्रौढ़-दासियों के मुख-रूप बदल देगा; और कब जिज्ञासा में व्यग्र-नयनों संग वह रत्न-जड़ित फर्शों पर अपनी दृष्टिपात करेगा; और कब जब मैं अपने सभाकक्ष में खड़ा हूँगा, सभा के मध्य पेट के बल सरक कर चलेगा, आभूषण-रश्मि द्वारा उसके नयन घूमते हुए विभ्रांत होंगे, और उसके आगमन का सहस्र नृपों के समक्ष फैली हुई भुजाओं द्वारा स्वागत होगा ? अतएव शतों कामनाऐं मनन करते हुए मैं रात्रियाँ कष्ट में बिता देता हूँ। मुझमें भी शिशुओं की अपनी इच्छा से दिवस-रात्रि एक अग्नि सम संताप उठता है। लोक शून्य प्रतीत होता है, मैं अपने साम्राज्य को निष्फल देखता हूँ परंतु ब्रह्मा के विरुद्ध मैं क्या कर सकता हूँ जिसमें कोई पुनर्विचार नहीं है?
अतः मेरी राज्ञी, अपना निरंतर-शोक त्याग दो। अपने उर को धैर्य एवं कर्त्तव्य में समर्पित करो। क्योंकि आशीर्वाद सदा उनके निकट रहते हैं जो अपना मनन कर्तव्य पर स्थित करते हैं।'

इस प्रकार कहकर, एक नूतन लता-पल्लव सम एक कर से उसने वारि ग्रहण किया और उसके अश्रु-पूरित मुख को पोंछा, जो एक खिलते-कमल सम प्रतीत हो रहा था; और उसको पुनः-पुनः अनेक प्रेमालिंगनों संग अनेक मधुर वचनों से सांत्वना दे कष्ट-निवारण में निपुण कर्तव्य प्रति पूर्ण-आज्ञा देकर अंत में उसने उसको छोड़ा। और जब वह चला गया, विलासवती का दुःख कुछ शांत हुआ, और वह अपने सामान्य नित्य-कृत्यों हेतु चली गई जैसे कि अपने आभूषण पहनना। और उस समय के बाद वह देवों को प्रसन्न, ब्राह्मणों का सम्मान और सभी पवित्र-पुरुषों की आराधना करने हेतु अधिकतम निष्ठावान थी; किसी भी स्रोत से जो भी संस्तुति वह सुनती थी, वह संतान-इच्छा में पालन करती थी, वह किसी थकन की गणना नहीं करती थी चाहे वह जितनी महद हो; वह सतत जलते गुग्गल-धूम्र से कृष्ण, दुर्गा-मंदिरों में ही सोती थी, हरित-तृण से आवरित चारपाई पर सोती थी, व्रत करती थी, शुभ्र-दुकूल में उसका पवित्र रूप वेष्टित था; वह मांगलिक-संकेत धारण की हुई धेनुओं के नीचे स्नान करती थी, गोशालाओं में वृद्ध-ग्वालों की भार्याओं द्वारा आयोजन हेतु श्रृंगार करती थी, जो सभी प्रकार के मणि-रत्नों से जड़ित सुवर्ण-कलशों सहित जो पीपल-शाखाओं से अलंकृत थे और विविध फल-कुसुम जड़ित और पावन जल से भरे थे; प्रतिदिन वह उठकर प्रत्येक मणि से विभूषित कञ्चन-सरसों ब्राह्मणों को दान देती थी; वह स्वयं महाराज द्वारा खींचे गए एक वृत्त में खड़ी रहती थी, एक चौराहे में, कृष्ण-पक्ष की चौदहवीं रात में, और स्नान के मांगलिक-संस्कार आयोजन करती थी, जिसमें दिशा-देव विभिन्न अर्पित यज्ञों से प्रसन्न होते थे; वह सिद्धों के तीर्थ-स्थानों (समाधियों) का आदर करती थी, और निकटवर्ती मातृक-गृहों को खोजती थी जिसमें लोगों द्वारा विश्वास प्रकट किया जाता था, उसने सभी प्रसिद्ध सर्प-सरों में स्नान किया था; सूर्य-मुखी पीपल अन्य तरुओं की वह पूजा करती थी जिनमें आदर दिखाया जाना चाहिए; स्नान पश्चात झूलते कंगनों से वृत्त करों द्वारा वह स्वयं रजत-पात्र में पक्षियों को दही संग उबले चावल अर्पित करती थी; वह प्रतिदिन देवी दुर्गा को हव्य भुने-चने, उबले चावल, तिल-गुड़, मालपुए, लेप, धूप कुसुम अर्पित करती थी; वह आराधना में एक दण्डवत-मन से सिद्ध-नाम धारण किए अपने द्वारा भरे भिक्षा पात्रों वाले नग्न-व्यावरी (भ्रमण करते) नागा-साधुओं की विनती करती थी; वह ज्योतिष-निर्देशों का बड़ा सम्मान करती थी; संकेत-पारंगत सभी भविष्य-वक्ताओं के पास जल्द-जल्द जाती थी; वह उन सबको सम्मान प्रदर्शित करती थी जो पक्षी-शकुन समझते थे; वह पूज्य-संत परंपरा में सभी रहस्यों को स्वीकार करती थी; एक पुत्र-दृष्टि कामना हेतु वह अपनी उपस्थिति में आए हुए ब्राह्मणों से वेद-मंत्र गवाती; वह निरंतर पुनरावृत्त पावन कथाऐं सुनती, पीत-वर्णों में भोज-पत्रों की पेटिका रखती, औषधि-पादपों के सूत्र कवच-बद्ध करती थी; यहाँ तक कि उसकी सेविकाऐं प्रासंगिक ध्वनियाँ सुनने हेतु बाहर जाती थी तो उनसे उठते संकेत ग्रहण करती थी; वह सायं में शृगालों हेतु मांस के टुकड़े फेंकती; पंडितों को अपने स्वप्न-विस्मय सुनाती और चतुष्मार्ग पर शिव को अर्घ्य अर्पण करती थी।

"और जैसे समय बीतता गया, ऐसा हुआ कि निशांत-निकट एक वृद्ध के भूरे कपोल सम नभ में जब मात्र कुछ सितारे ही शेष थे, महाराज ने विलासवती के मुख में पूर्ण-शशि को प्रवेश करते हुए देखा, जैसे वह अपने श्वेत-प्रासाद में विश्राम कर रही थी, जैसे कि कमल-पुष्पों का गुच्छ करि (हस्ती) के मुख में चला जाता है। उसके बाद वह जागा, और उठकर अपने प्रसन्न चक्षु-विवार (विस्तारण) द्वारा अपनी आवास-रमणीयता त्यागकर उसने सीधे शुकनास को बुलाया और उसको स्वप्न बताया; जिससे अपर यकायक प्रमोद से भर गया और उत्तर दिया : 'महाराज, हमारी आपकी प्रजा की कामनाऐं अंततः पूर्ण हो गई हैं। कुछ दिवस पश्चात मेरा स्वामी निशंक ही एक सुत के कमल-मुख धारण के कल्लोल (सुख) को अनुभूत करेगा; क्योंकि मैंने भी इसी रात्रि एक स्वप्न में देव सम दिखते और शांत-प्रवृत्ति के शुभ्र-अंशुक पहने एक ब्राह्मण को मनोरमा (शुकनास-भार्या) की गोद में शत खुलें शुभ्र-पटल (पल्लवों) सहित मृणाल रखते हुए देखा जो मधु-बिंदु बौछार कर रहा था, और एक स्फुरित पुंकेसरों से जिसकी संरचना थी। अब हम तक आए सभी शुभ-संकेत निकट-आगामी आनंद-भविष्यवाणी कर रहे हैं, इसके अतिरिक्त खुशी का क्या कारण हो सकता है ? क्योंकि रात्रि-अंत में देखे गए स्वप्न सत्य में फलदायक होते हैं। निश्चित ही महारानी एक पुत्र को जन्म देगी जो मंधात्री सम सभी राजसी ऋषियों में एक नायक होगा और समस्त विश्व हेतु प्रसन्नता कारण होगा; और महाराज, वह आपका उर प्रसन्न करेगा जैसे शरद में अपने नूतन-उत्पल खिलने से मृणाल-सरोवर गजराज (राजसी) को प्रसन्न करता है; उसके द्वारा आपका राजन्य-कुल विश्व-भार वहन करने में सशक्त बनेगा, और इसकी निरंतरता में अबाधित रहेगा जैसे एक वन्य-गज की मद-धारा। जैसे ही उसने अतएव कहा, महाराज ने उसका हाथ पकड़ कर अंतः पुर में प्रवेश किया और दोनों अपने स्वप्नों से प्रसन्न हुए। और कुछ दिवस पश्चात देव-कृपा से विलासवती को एक शिशु-आशा हुई, जैसे सरोवर पर शशि-प्रतिबिंब, और इससे वह अतिरिक्त महिमा-मंडित हो गई जैसे कल्प-तरु संग नंदन-वन की पंक्ति, अथवा कौस्तुभ-मणि से विष्णु-वक्ष।

"एक स्मरणीय दिवस नृप एक अन्तः-मंडप में गया हुआ था जो एक-सहस्र दीपों से परित था जो सुवासित तैल से उज्ज्वल प्रदीप्त थे, वह सितारों मध्य एक पूर्ण-चंद्र सम था, अथवा शेषनाग के सहस्र-मणि फण मध्य विष्णु; वह कुछ नृपों द्वारा घिरा हुआ था जिन्होंने राज्य-अभिषेक की फुहार ग्रहण की थी; उसके अपने सेवक कुछ दूरी पर खड़े थे; निकट ही अल्प आभूषण संग श्वेत-परिधान में समुद्र की गहराई जैसा विशारद शुकनास एक उच्च आसन पर बैठा था और उसके साथ नृप पूरे विश्वास के साथ, जो उनके साथ वर्धन संग बढ़ा था, अनेक विषयों पर वार्तालाप कर रहा था, जब महारानी की प्रधान-सेविका कुलवर्धना ने प्रवेश किया जो राजसत्ता-निकटता द्वारा उत्तम-प्रशिक्षित सदा सभा-नियमों में निपुण थी, और राजा के कर्ण में विलासवती से संबंधित समाचार फुसफुसाया। अपने कर्णों हेतु नूतन-वचन सुनकर महाराज के अंग जैसे सुधा-सिक्त हो गए, एक रोमहर्ष उसकी संपूर्ण-वपु से गुजर गया, और वह आनंद-घूंट से बेसुध सा हो गया; उसके कपोल एक मुस्कान से स्फुरित हो गए; अपने दंतों की उज्ज्वल चमक के बहाने से उसने अपने उर से अतिरेक (उमड़ती) प्रसन्नता को बाहर बिखेरा, और हर्ष-अश्रुओं से आर्द्र कम्पित पुतली पलकों (अक्षिपक्ष्मण) संग उसके चक्षु शुकनास के मुख पर पड़े। और जब शुकनास ने महाराज की अत्यधिक प्रसन्नता देखी, जो उसने कभी पूर्व-दर्शित नहीं थी, और एक विचक्षण (कांति) स्मित आगत कुलवर्धना-मुख पर देखी, यद्यपि उसने संवाद नहीं सुना था उसे इस समय के उपयुक्त अत्यधिक खुशी का कोई अन्य कारण नहीं दिखा; उसने सब देखा, और अपना आसन महाराज के निकट लाते हुए एक मद्धम स्वर में कहा : मेरे स्वामी, उस स्वप्न में कुछ सत्यता है; क्योंकि कुलवर्धना के नेत्र दीप्त हैं, और आपके दोनों चक्षु महद आनंद के कारण को घोषित करती है, क्योंकि वे विस्फरित हैं और पुतलियाँ कम्पित हैं; और आनंद-उल्लास के अश्रुओं में नहाई हुई हैं, और जैसे वे आपके कर्ण-वल्लियों में शुभ-संदेश सुनने की निज उत्सुकता में विसर्पण करते प्रतीत होते हैं, जैसे नील-कमलों के एक कर्णफूल की सुंदरता लिए हुए हैं। मेरा अभिलाषित उर उत्सव को सुनने को तरस रहा है जो इसके हेतु फूट पड़ा है। अतः मेरे स्वामी, मुझे बताओ कि क्या समाचार है।'

जब वह ऐसा कह चुका, महाराज ने एक स्मित संग उत्तर दिया : ‘यदि यह सत्य है जो उसने कहा है, तब हमारा सब स्वप्न सत्य है; परंतु मुझे इसपर विश्वास नहीं हो रहा है। हम पर इतनी महान प्रसन्नता कैसे पड़ सकती है? क्योंकि हम ऐसे शुभ-संवाद धारण हेतु उपयुक्त नहीं हैं। कुलवर्धना सदैव सत्यवादी है, और यद्यपि मैं इस प्रकार की प्रसन्नता हेतु कितना अनुपयुक्त हूँ, मैं उसको उसकी परिवर्तित प्रकृति (स्वभाव) लिए देखता हूँ। उठो; मैं स्वयं जाऊँगा और महारानी से पूछूँगा क्या यह सत्य है, और तभी जानूँगा।‘ ऐसा कहकर, उसने नृपों को निवृत किया, और जब उसको पारितोषिकों संग कृपापूर्ण विदाई पर, उसने एक गहन सत्कार संग श्रद्धा स्वीकार की जैसे कि उन्होंने अपनी सीधी भ्रू द्वारा भूमि-स्पर्श किया, वह शुकनास संग उठा और अंतःपुर में गया, अत्यंत आमोद-पूरित मन द्वारा और अपनी दायीं नयन फड़कने से प्रसन्न, जो समीर द्वारा आंदोलित एक नीलोत्पल-पल्लव क्रीड़ा की नकल करता प्रतीत होता था। इतनी विलम्ब यात्रा के उपयुक्त वह विरल परिचारकों द्वारा अनुसरित था और आंगन का गहन-तिमिर दसियों द्वारा ले जा रहे दीपकों द्वारा हटाया जा रहा था जो उसके आगे चल रही थी, यद्यपि उनकी सुस्थिर ज्योति वात में झिलमिला रही थी। "

(बाण तब तारापीड़ के पुत्र का बखान करता है, जिसका नाम चंद्रापीड़ रखा जाता है, राजा की चंद्रमा के विषय में स्वप्न से और शुकनास के पुत्र वैशम्पायन का भी।)


......क्रमशः   

हिंदी भाष्यांतर,

द्वारा 
पवन कुमार,
(0२ दिसंबर, २०१८ समय १९:२५ संध्या)



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