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Sunday 23 December 2018

यक्ष-प्रश्न उत्तर

यक्ष-प्रश्न उत्तर
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मानव की क्या बुद्धिमता, समर्पित हो  प्रदत्त कार्यों में ही रहे व्यस्त
बस स्वामी-आदेश, कर्म अधिकार, अधिक अग्रिम-चेष्टा मत कर। 

जो काम दिए जाते निर्वाहार्थ, क्या वे ही हमारी व्यक्तित्व-पराकाष्टा  
क्या प्रदत्त भृत्ति से न अग्र चरण, या निकट गुत्थियों में ही  उलझा?  
निश्चित परिवेश में ही व्यय, रज-कण में विश्व-दर्शन की न सुबुद्धि   
फिर क्या हो मानव की बृहत-गुण, सर्व सीमाओं से बाहर मुक्ति। 

इतना तो मानना ही पड़ेगा कि जिंदगी कठिन, कुछ तो बड़े कष्ट में 
माना कई जीवन सुखी भी, पर अनेक निर्धनता-डायन के पाश में। 
वंचितों की प्राण-शक्ति कमाने में खपती, निर्मल-विचारार्थ न समय  
फिर कैसे व्यक्तित्व निखरेगा, जब सब पहलूओं पर होगा ध्यान न। 

क्यूँ मानव सिकुड़ा मात्र कर्म ही, हाँ जीवनार्थ कुछ श्रम आवश्यक  
यह पूर्ण-कर्त्तव्यों का मात्र अंश हो, अन्य पहलू निखार भी वाँछित।  
हर पुष्प को पूर्ण-विकसन का हक, प्रत्यक्ष में अधखिला ही रह गया 
संपूर्ण व्यक्तित्व निखरण अधिकार, प्रश्न कितने बढ़ पाते उस दिशा। 

प्रश्न कदाचित क्या मात्र भृत्ति-कर्त्तव्यों से भी ऊपर उबरते या चाहिए 
क्या यक्ष-प्रश्नों का हल न अन्वेषण,  या प्रश्न करना सीखना न चाहिए। 
क्या यथा-संभव आंदोलन न शुरू चाहिए, जहाँ संकोच से बाहर सब 
क्यों कोने में दुबका रखा, कुछ धरातल दो प्रत्येक हो लें प्रगति-पथ। 

सभी को पता अनेक व्याधियाँ जग में, लेकिन स्वार्थ में रखते बंद नेत्र
कभी वे न जान जाऐं निज मानवेतर अधिकार, व हिस्सा माँगने लगे। 
लोगों को अंध-मूर्ख रहने दो, आँखें  खुलेंगी  तो अपना पक्ष देख लेंगे 
वसुधैव-कुटुम्बकम सिद्धांत सत्य-पारित हो, एक वृहद सोच उभरे। 

प्रश्न हैं नस्ल-जातिवाद, क्षेत्रवाद, विधर्म,  चरमपंथी राष्ट्रवाद व अन्य 
सभी किसी भाँति पीड़ित, तथापि खुले  मन से त्याग का प्रयास न।  
एक तुलनात्मक स्थिति निश्चित मानव-जाति में, हत्प्रद सा लेता मान 
दुहाई धर्म-ग्रंथों के ऋषि-कथन की अतः सत्य, अवमानना न प्रश्न। 

हम चुलबुली ग़ज़ल लिखते, शेरो-शायरी, किसी की प्रशंसा श्रुतिवाद  
प्रकृति पर्वत-नदी-झरनों के सौंदर्य में व्यस्त, भुलाते मूल मानव-प्रश्न। 
माना ज्ञात पर प्राथमिकता नहीं, मृदु-क्षीण चिंतन में ही समय यापन 
अल्प ही संवाद, पाप कृत्य  चुपचाप सहो, फिर  तुम कुछ सुरक्षित। 

जब कोई अन्य वैसा करता जैसा हम खुद करते, तो कु-उपाधि दान 
पर जब वैसा या जघन्यतर स्वयं करें, मात्र दोहरा चरित्र ही भासित। 
क्यूँ मानव-अधिकारों प्रति  उदासीन, स्वयं पर पड़े तो बिलबिलाना 
अनिज पर कोई क्रूरता, समस्त शक्ति व्यवस्था कोसने में देते लगा। 

असम-सामाजिक व्यवस्था की प्रवृत्ति तो निश्चित ही अनुचित व हेय
और भी हास्यास्पद, जब  भेदभाव मिटाने हेतु न  की बड़ा प्रयास। 
प्रावधानों चलते कुछ जीवन सुध रहे, अधिक गति तो पर अदर्शित 
मन-विचार, प्रत्यक्ष व्यवहार में न सुधार, जटिलता पाल रखी व्यर्थ। 

एक समरसता परस्पर-आदर संग चाहिए, एक कुटुंब मानवता सर्व
भेद भुला कंठग्रह हेतु संकल्पित, दूरी हेतु पुरातन का न लें आश्रय। 
संप्रदाय-प्रमुख ही यदि विभेद-विचार बढ़ाऐं, प्रजा और अधिक मूर्ख 
अद्यतन स्वयं को उच्च-निम्न माना, प्रगति हेतु वाँछित दृष्टिकोण-नव। 

पर क्या करते मूल-विषयों से भटका कर, बस बातें इधर-उधर की 
जो कुछ अच्छा-बुरा घटित, सह लो, प्रतिक्रिया न, आगे सब भला ही। 
'जिसकी लाठी उसकी भैंस', सदियों से जन ढ़ोते अव्यवस्था-अत्याचार 
मूर्ख अधिकार-अज्ञानी, दमित होने से हटा दिया स्वतंत्र चिंतन-विचार। 

पर क्या कर्त्तव्य पढ़ा-लिखा होने से, कुछ मद्धम-स्तर का भी चिंतन  
पर सर्वार्थ परस्पर-समझ, समता-विचार जनमानस में प्रयास रोपण।
कुछ का प्रयास भी, जनचेतन पर सकारात्मक डालो प्रकाश - मनन
कुछ लाभान्वित शामिल होंगे मुहिम में, आमूल-परिवर्तन सुलभ न। 

अपने को अधिक कर्त्तव्यमुखी बनाओ, पहचान भी तो न भीत होवों 
सुरुचिपूर्ण बनो, बिना किसी को अप्रसन्न किए अपनी बात कह दो।


पवन कुमार,
२२ दिसंबर, २०१८ समय १२:०० मध्य-रात्रि 
(मेरी डायरी ०७ अप्रैल, २०१७ समय ०८:५६ प्रातः से)       

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