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Wednesday 21 November 2018

श्री बाणभट्ट कृत कादंबरी (प्रणय-कथा) : परिच्छेद -३ (भाग -२)

परिच्छेद – ३ (भाग -२)
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तब शबर नीचे आया और भूमि पर छितरित नन्हें तोतों को एकत्रित किया, उसने उन्हें शीघ्रता से एक पर्ण-कंडील (टोकरी) में एक लता-रज्जु से बाँधा, और अपने नेता द्वारा गमित पथ द्वारा शीघ्र कदम भरते हुए उसने उस क्षेत्र प्रस्थान किया। मैंने इसी मध्य जीवन-आशा प्रारंभ कर दी, किन्तु मेरा दारुण हृदय अपने तात की नवनीत-मृत्यु से शुष्क हो गया था; मेरी वपु अपने दीर्घ-पतन से पीड़ित थी, और डर कारण मुझे भीषण तृषा लगी थी, जिससे मेरे अंगों में अति-वेदना थी। तब मैंने विचार किया, पापजीव (दुर्जन) अब कुछ दूर तक चला गया है", अतः मैंने शीर्ष कुछ ऊपर उठाया और चहुँ ओर भय से कम्पित नेत्रों से देखा, सोचते हुए कि यदि दूर्ब का एक तृण भी हिलता था तो लगता वह दुष्ट वापस गया। मैंने उसे एक- कदम पर जाते हुए देखा, और तब तमाल वृक्ष की मूल को त्याग मैंने सरोवर निकट रेंगकर जाने का महद प्रयास किया। मेरे पग दुर्बल थे, क्योंकि मेरे डैने अर्थात पंख अभी उगे नहीं थे, और मैं पुनः- अपने मुख पर गिर पड़ता था; मैंने अपने को एक पंख पर सहारा दिया; मैं भूमि पर विसर्पण और अभ्यास-अल्पता कारण श्रांत से निर्बल था; प्रत्येक कदम पश्चात मैं अपना शीश ऊपर उठाता था और जोर से हाँफता था, और जैसे मैं सरक रहा था मैं रज-धूसरित हो गया। 'सत्य ही कठोरतम परीक्षा में भी' मुझे चिंतन हुआ, "जीवित प्राणी कभी भी जीवन प्रति असावधान बनते। विश्व में सर्व-सर्जित जीवों को जिंदगी से अधिक कुछ प्रिय नहीं है, देखकर कि जब एक शुभ-चयनित नाम मेरा आदरणीय तात मृत है, मैं तब भी अक्षुण्ण-चेतना सहित जिंदा हूँ ! मुझे लज्जा (धृत) आनी चाहिए कि मैं इतना निष्ठुर, क्रूर कृतघ्न हूँ ! क्योंकि मेरा जीवन अपने पिता की मृत्यु-दुःख में निर्लज्जता से इतनी आसानी से बहा जा रहा है। मैं किसी करुणा का सम्मान नहीं करता हूँ, सत्य ही मेरा हृदय खल है। मैंने इतना भी भी बिसार दिया है कि जब मेरी माता स्वर्ग सिधार गई थी, मेरे पिता ने ही अपना कटु-कष्ट नियंत्रण किया, और मेरे जन्म-दिवस से यद्यपि वे वृद्ध थे, अपने गहन-वात्सल्य में महद-कष्ट में प्रत्येक दायित्व से मेरा पालन-पोषण किया ! अधमतम मेरा यह प्राण है जो अपने तात-पथ का सीधा अनुसरण नहीं करता है, मेरा पिता जो मेरे लिए इतना अच्छा था ! निश्चित ही ऐसा कुछ नहीं है जिसे जीवन-तृष्णा कठोर बना सके, यदि जल-तृषा मुझे मेरी इस वर्तमान दुर्दशा में कष्ट लेने को बाध्य करती है। मैं सोचता हूँ कि जल पीने का विचार पूर्णतया हृदय-क्रूरता है क्योंकि मैंने अपने पिता के मृत्यु-दुःख को अल्प लिया है। अभी भी सरोवर बहुत दूर है। क्योंकि जल-परियों के नूपुरों भाँति कलहंस-क्रंदन अभी अति-दूर है। सारस-सुर अभी मंद हैं, उत्पल-कुञ्जों की सुवास घसीटे जा रहे शून्य में से कभी-कभार ही आती है, क्योंकि दूरी बहुत अधिक है, मध्यान्ह को सहना दुष्कर है क्योंकि अर्क (सूर्य) आकाश-मध्य है, और अपनी मयूखें एक धधकती-अग्नि से अबाधित अंगार-रज की सम बरसा रहा है, और मेरी तृषा को और भयंकर बना रहा है; अपनी गरम मोटी धूल वाली पृथ्वी पर चलना कठिन था, मेरे अंग एक अल्प दूरी तय करने में असमर्थ थे, क्योंकि वे अत्यधिक तृषा-क्लान्त थे, मैं अपना स्वामी नहीं हूँ; (७४) मेरा हृदय डूबता है; मेरे नेत्र कृष्ण पड़ गए हैं। और वह क्रूर दैव अब मृत्यु को ला देगा जबकि मैं अभी चाहता नहीं हूँ।"

मैंने ऐसा विचार किया परंतु जाबालि नामक एक तपस्वी जो सरोवर से अदूरस्थ एक तपोवन में रहता थे, उनका एक नवयुवक तापसी-पुत्र हरित मृणाल-सर में स्नान करने हेतु रहा था। वह ब्रह्मा-सुत सम था और सर्व-ज्ञान सहित एक पवित्र-मना था, वह उसी पथ से रहा था जहाँ मैं, उसके हम-वय अनेक पवित्र युवाओं संग, था; द्वितीय-भास्कर सम, अपनी महद-तेजस्विता कारण उसका रूप देखने में दुष्कर था; वह उगते सूरज से लिए गए एक अंश सम था, और चपला (बिजली) से सँवारे उसके अंग थे और एक मूर्त जो पिघले-सुवर्ण से वर्णित थी; वह अग्नि पर जलते काँच की सुंदरता लिए था, अथवा शीघ्र सूर्य-किरण दिवस सम, अपनी बाह्य-प्रसारित हुई स्पष्ट कपिल-ज्योति के कारण; तप्त-लौह सम उसके स्कन्धों पर रक्तिम अनेक पवित्र-सरों की फुहारों से पावन उसकी उलझी लटाऐं झूल रही थी। उसकी शिखा बँधी हुई थी जैसे कि वह एक युवा ब्राह्मण-वेश में अग्नि हो जिसकी इच्छा खाण्डव वन जलाने की हो; तपोवन-देवी के नूपुरों सम उसने अपने दक्षिण-कर्ण से शुभ्र स्फटिक-माला पहन रखी थी, और जो सभी भौतिक-काजों को एक ओर रखकर धर्मादेश-वृत्त सदृश दिख रही थी; उसने अपनी भ्रू पर भस्म से एक त्रिपुंडरक-चिन्ह लगा रखा था, जैसे कि यह तिगुना सत्य (मनसा, वचसा, कर्मणा) हो; जैसे कि स्वर्ग-पथ की ओर दृष्टि हेतु कंठ सदा ऊपर की ओर किए हुए, उसने अपने वाम कर में एक स्फटिक-कलश पकड़ रखा था, जैसे कि एक सारस आकाश की ओर देख रहा है; वह अपने कंधों से लटकती एक कृष्ण मृग-चर्म द्वारा आवरित था, जो नीलपाण्डु-चमक लिए पुनः निर्गम हेतु गहन-धूम्र सम था जिसे प्रायश्चित हेतु तृषा में निगल लिया था; उसने अपने वाम स्कंध पर एक याज्यिक सूत्र पहन रखा था जिसके अल्पभार से वह अति नव मृणाल-पल्लवों द्वारा सँवारा हुआ लगता था और पवन में ऐसे लहर रहा था जैसे उसकी माँस-रहित पसली-संरचना को गिन रहा हो; उसने शिव-आराधना हेतु एकत्रित लता-पुष्प से पूर्ण एक पर्ण-टोकरी इसके ऊपरी सिरे पर धारण किया एक आषाढ़ दण्ड अपने दक्षिण-पाणि में पकड़ा हुआ था; स्नान-स्थल से कुरेदी मृदा को अपने श्रृंगों पर अभी तक धारण किए, तपोवन से ही एक मृग उसका अनुसरण कर रहा था, जो तपस्वियों से बिल्कुल हिला-मिला था, धान-ग्रासों पर निर्वाह करता था, अपने लोचन कुश-तृण, पुष्प-लताओं हेतु चहुँ ओर घूमने देता था; एक द्रुम भाँति वह मृदु-चर्म आवृत था; एक पर्वत सम वह एक मेखला-परित (घिरा) था; राहु सदृश वह प्रायः सोम (चन्द्र) का ग्रास करता था; एक दिवस-उत्पल कुञ्ज सम वह सूर्य-किरण पान करता था; नदी ओर के एक वृक्ष सम उसकी जटिल अलकें निर्बाधित स्नान द्वारा पावन थी; एक युवा दंती सम उसके दंत चंद्र-कमल पंखुड़ी-भागों सम श्वेत थे; द्रोणी सम कृपा सदा उसके संग थी; ज्योतिष-चक्र सम वह चितकबरी कुरंग-चर्म धारण से आभूषित था; पावस ऋतु सम उसने अन्ध वासना-रज शांत कर ली थी; वरुण सदृश वह जल पर (पीकर) निर्भर था; कृष्ण सदृश उसने नरक (असुर) भय निर्मूल कर दिया था; संध्या प्रारंभ भाँति उसके नेत्र उषा-दीप्ति सम कपिल थे; सूर्य-रथ सदृश मार्ग में वह नियंत्रित था; उसने एक उत्तम नृप सम अरियों के गुप्त-रहस्य शून्य (अर्थात तप द्वारा नष्ट करना) कर दिए थे; समुद्र सदृश उसके कर्ण (कनपटियाँ) ध्यान द्वारा गुहामय थे; भागीरथ सम उसने प्रायः गंगा-अवतरण बाँधा था; एक भ्रमर भाँति वह प्रायः पुष्कर (कमल-कली) में जीवन-आनंद लेता था; यद्यपि एक वनवासी, उसने एक विशाल-गृह (ब्रह्मलीन) में प्रवेश कर लिया था; यद्यपि निरंकुश, वह मुक्ति-कामना करता था; यद्यपि शांति-कर्मों की अभिलाषा लिए, उसने एक दण्ड धारण कर रखा था; यद्यपि सुप्त, वह अभी तक जागृत था; यद्यपि दो उत्तम-स्थापित नेत्र लिए उसने अपनी कुटिल (अशुभ) नयन का उन्मूलन कर दिया था। ऐसे उसने मृणाल-सरोवर में स्नानार्थ प्रवेश किया।

'अब उत्तम-जन का मन सहज बोध से सदा करुणामय कृपालु अभ्यस्त होता है। उसी कारणवश मेरी दुर्दशा देखकर वह करुणा-पूरित हो गया और निकट खड़े एक अन्य तापसी से कहा : यह नन्हा अर्ध-उड़ने योग्य शुक उस वृक्ष-शिखर से किसी भाँति नीचे गिर गया है, अथवा किञ्चित एक बाज के मुख से। दीर्घ-पतित होने के कारण इसमें मुश्किल से ही कोई प्राण बचा हो; उसके नेत्र निमील (बंद) हैं; और वह सदा अपने मुख पर गिरता है और हिंस्र रूप से हाँफ रहा है, और अपनी चुञ्च खोलता है, वह अपनी ग्रीवा ऊपर नहीं उठा सकता है। तब आओ, इसके प्राण-पखेरु उड़ने से पूर्व उसे ले चलें। उसे जल समीप ले जाओ।" ऐसा कहकर वह मुझे सरोवर-तीर पर ले गया, और आकर उसने अपना दण्ड कलश जल के निकट नीचे रख दिया, और अपने आप मुझे ले जाते हुए, जबकि मैंने तभी सभी प्रयास छोड़ दिए थे, उसने मेरा मुख ऊपर उठाया, और अपनी ऊँगली से कुछ जल-बूंदे मुझे पिलाई, और जब मैं जल द्वारा छिड़काव किया गया और नव-प्राण प्राप्त हो गया, उसने तीर पर मुझे नव मृणाल-पल्लव की छाया में रख दिया और स्नान के नित्य-अनुष्ठान हेतु चला गया।

उसके उपरांत उसने प्राणायाम और अघमर्षण द्वारा निज-शुद्धि की, और तब वह उठा और, स्तुति करते मुख संग एक कमल-पत्र चषक से ताजे चुने लाल-उत्पलों को अर्क (सूर्य) को अर्पण किया। एक पवित्र श्वेत-वस्त्र पहने वह संध्या-काल की चंद्रप्रभा की संगति दिए मरीचिमाली (सूर्य) प्रकाश की कांति सम था, उसने अपने केशों को हाथों से रगड़ा जब तक कि ये चमक गए; और अभी नव-स्नान से आर्द्र (गीले) केशों वाले तपस्वी-युवाओं के दल द्वारा अनुसरण होते मुझे लिया और धीरे से तपोवन ओर चला गया। और जाने के थोड़ी देर पश्चात, मैंने पुष्प-फलों से समृद्ध घन-वन में छिपे तपोवन का ध्यानपूर्वक अवलोकन किया।

इसके सीमा-प्रांत (अहाते) वेद बुदबुदाते और ईंधन, कुश-तृण, पुष्प एवं मिट्टी लिए शिष्यों द्वारा अनुसरित सभी दिशाओं से प्रवेश करते मुनियों द्वारा प्रवेशित थे।

वहाँ कलशों के भरण-नाद को उत्सुकता से कपालियों (मयूर) द्वारा सुना जाता था, वहाँ ऐसा प्रतीत होता था कि यह धूम्र के छद्म-वेश में ऋषियों द्वारा देव-पद उन्नति हेतु की जाने वाली दौड़-प्रतियोगिता हेतु लहराता स्वर्ग-गमन का एक पुल हो जबकि अग्नियों द्वारा अभी तक वपुओं में अबाधित घृत-आहूति देने से संतुष्ट थे; निर्मल सूर्य-रश्मियों की पंक्तियों द्वारा अपनी तरंगों संग घिरे चारों ओर जलाश्य थे जैसे कि वे तपस्वी-स्पर्श से विश्राम करते थे, उनके तप-दर्शन को आए , और रात्रि को एक विकसित चंद्र-कमल कुञ्ज उठाते हुए, ऋषि-सम्मान हेतु एक ज्योतिष (राशि)-मंडल से नीचे उतरते सम सप्तर्षि-वृत्त द्वारा छलाँग लगाए जाते हैं; पवन द्वारा उनके मुड़े शिखर वन्य-लताओं और तपोवन-सत्कार पाते थे, और परस्पर-गुँथी शाखाओं की अँजुलि लिए द्रुमों द्वारा आधारित था, कुटियों के चारों ओर आँगन में भुने-अनाज छितरित थे, और हरीतिका, आँवला, मुक्ताफल, बेर, नागदामिनी, आम्र, कटहल ताड़ों के फल एक-दूसरे से दबे पड़े थे; युवा ब्राह्मण वेद-उच्चारण में निपुण थे; शुक-दौड़ यज्ञ-प्रार्थनाओं से वाचाल थी जिनको उन्होंने निरंतर सुनकर सीख लिया था; सुब्रमण्य अनेक सारिकाओं (मैनाओं) द्वारा सुनाया जाता था; देवार्पित चावल-गोले वन्य-काकों द्वारा भक्षण किए जाते थे, और जंगली-धान की भेंट निकट जलाशयों के शिशु-कलहंसों द्वारा खाई जाती थी। ऋषियों के भोजन-स्थल चारों ओर छितरित भस्म-प्रदूषण से रक्षित थे। मुनियों की होम-यज्ञाग्नि अपने  मित्र मयूरों के पंखों द्वारा वात की जाती थी; मकरंद-निर्मित हव्य (आहुति) की मधुर गंध, अर्ध-पक्य यज्ञ-पिंड (मालपुआ) की सुवास चहुँ ओर विस्तृत थी; एक अबाधित मदिरा-धारा के अर्पण में चटकती अग्नियाँ स्थल को गुंजायमान कर रही थी; बहुत से अतिथियों की प्रतीक्षा की जा रही थी, पितरों को आदर दिया जाता था; विष्णु, शिव और ब्रह्म पूजे जाते थे। श्राद्ध-मंत्रों की कार्यान्यन-विधि सिखाई जाती थी; बलि-विज्ञान विस्तार से बताया जाता था; उचित व्यवहार (चरित्र) के शास्त्र परीक्षण किए जाते थे; सभी प्रकार की उत्तम-पुस्तकों का उच्चारण होता था; और शास्त्रार्थ-विचार होता था। पर्ण-कुटियाँ शुरू हो रही थी; आँगन गोबर से लीपे गए थे, और कुटियों के अन्तः-भागों को साफ किया गया था। ध्यान दृढ़ता से पकड़ा जाता था, मन्त्र सम्यक रूप से आव्हान जाते थे, योग-अभ्यास होता था, और वन्य-देवों को भेंट अर्पित की जाती थी। मूंज घास से ब्राह्मण-मेखला बनाई जा रही थी, छाल-वस्त्र धोए जा रहे थे, ईंधन लाया गया था, मृग-चर्म सजाऐ गए थे, घास इकट्ठी की गई थी, कमल-बीज सूखे थे, माला गुँथी थी और भविष्य की आवश्यकता हेतु त्रिदंडक (अब साधु ब्राह्मण संसार त्याग देता है) बाँस (बेंत) तरतीब से रखे गए थे। यायावरी मुनियों का सम्मान किया जाता था, और कलश भरे थे।

वहाँ मलिनता यज्ञ-धूम्र में पाई जाती थी कि कलुषित-चरित्रों में; लालिमा शुक-मुखों में कि क्रुद्ध-पुरुषों में; चपलता कुश-पर्ण धार में, कि व्यवहार में; तरंगे कदलीफल (केला) पल्लवों में कि मनों में; रक्त-नेत्र केवल कोकिला में; कण्ठ-ग्रहण मात्र कलशों में; मेखला-बंधन व्रतों में कि वैज्ञानिक-विमर्श में; भ्रमण सोमग्नि गिर्द दक्षिणा करने में, कि शास्त्र-त्रुटि में; वसु-वर्णन शास्त्रों में कि वैभव-आकांक्षा में; रुद्र हेतु ही मणिऐं गिनना, किन्तु वपु की कोई गणना करनी; यज्ञाभ्यास में साधु-जटाओं का ह्रास, किंतु मृत्यु द्वारा उनके बालकों की कोई हानि; रामायण-पाठ द्वारा राम-आराधना, युवक द्वारा नारियों की नहीं; वृद्धायु में ही मुख-झुर्रियाँ, कि समृद्धि-गर्व में; शकुनि (चिड़िया)-मृत्यु मात्र महाभारत में; भ्रामक कथाऐं केवल पुराणों में; दंत-हानि मात्र प्रौढ़ायु में, कि वैभव-गर्व में; शिथिलता मात्र चंदन-द्रुम वन में; केवल अग्नियों में भस्म-परिवर्तन; केवल मृग को ही गायन-श्रवण में रूचि; नर्तन-ध्यान मात्र मयूरों में; फण-धारण केवल भुजंगों में, फल-कामना मात्र कपिलों में; अधोगति-प्रवृत्ति मात्र मूलों की है।

वहाँ एक लाल अशोक वृक्ष की छाँव नीचे नव-पुष्प अर्पण से रमणीय, ताजे गोमूत्र (गोम्य)-लेप से पावनित, कुश घास और तपोवन कन्याओं द्वारा छाला की बाँधी पट्टियों द्वारा माल्यार्पित; मैंने अनेक साधुओं द्वारा घिरे पुनीत जाबालि को जैसे युगों तक देखा, जैसे प्रलय-दिवस को त्रि-अग्नि धारकों द्वारा सूर्य-त्याग, उत्तम पर्वतिकाओं द्वारा सुवर्ण पर्वत, अथवा महासमुद्र द्वारा पृथ्वी।

और जैसे ही मैंने उनको देखा, विचार किया : 'आह ! तप-बल कितना महान है ! उसका रूप, जैसे कि यह शांत है तथापि पिघले कंचन सम पवित्र को वशीभूत कर लेता है, जैसे यामिनी अपनी चमक से नेत्र-ज्योति चुँधियाँ देती है।

यद्यपि प्रथम-दृष्टया यह सौम्य, अपनी अंतर्निहित तेजस्विता से आह प्रेरित करता है। उन मुनियों की आभा, जो अभ्यास करते हैं किंतु तत्काल सूखे सरकंडों, कुश-घास अथवा कुसुमों पर तत्काल पतित अग्नि सम अल्प-तपश्चर्या प्रकृति सुलभता से उत्पन्न हो जाती है। तब इन जैसे पवित्र नरों की कितनी अधिक होगी जिनके चरण समस्त विश्व द्वारा प्रतिष्ठित किए जाते हैं, जिनके अभिरंजक (कलंक) तप द्वारा शमित हैं, जो समस्त पृथ्वी को दिव्य-दृष्टि से देखते हैं जैसे कि यह कर में एक श्रीफल हो, और सब पाप परिमार्जन कर देते हैं। क्योंकि एक महर्षि का उद्धरण मात्र ही इसका पुरस्कार है; तब उसको दर्शन कहीं अधिक ! वह तपोवन धन्य है जहाँ यह ब्राह्मण-नृप निवास करता है ! इससे भी अधिक उस द्वारा चरण रखने हेतु समस्त वसुधा ही धन्य है जो पृथ्वी का ब्रह्मा ही है ! सत्य ही ये ऋषि अपने पुण्य कृत्यों के पारितोषिकों का आनंद लेते हैं जिनमें वे निशा-दिवस कोई अन्य कर्तव्य होने से उसकी सेवा करते हैं, पावन-कथाऐं सुनते हैं और सदा उस पर अपनी अविचलित दृष्टि लगाए रखते हैं जैसे कि वह द्वितीय ब्रह्म हो। सरस्वती धन्य है जो उसके चमकते दंतों द्वारा वृत्त है, और जो उसकी कमल-आनन (मुख) समीपता का सदा रस लेती है, मानस-सर पर एक हंस भाँति इसकी अथाह गांभीर्य सौम्यता की पूर्ण-धारा संग उसके निर्मल-मन में आवास करती है। चतुर्वेद जो ब्रह्मा के चार उत्पल-मुखों में दीर्घ-काल से निवास करते हैं, यहाँ पर अपना सर्वोत्तम एवं सबसे उपयुक्त आवास पाते हैं। लौह-काल की पावस ऋतु में पंकिल हुए समस्त विज्ञान जब उसके पास पहुँचते हैं तो पावन हो जाते हैं, जैसे कि तरंगिणियाँ (नदियाँ) शरद (हेमंत) काल में हो जाती है। निश्चित ही पवित्र धर्म ने लौह-युग के कलह शांत करके अपना आवास यहाँ बना लिया है, और अब सुवर्ण-युग स्मरण की नहीं सोचता। उसके द्वारा पृथ्वी पर चरण रखते देखकर स्वर्ग अब सप्तर्षियों द्वारा निवास किए जाने के कारण गर्वित नहीं होता। वृद्धायु कितनी बलिष्ठ दुस्साहसी है जो उसकी सघन जटाओं पर पड़ने से नहीं डरती जो चंद्र-रश्मि सम पीत है और प्रलय-दिनेश्वर (सूर्य) की मरीचियों (किरणों) सम जिनको देखना दुष्कर है। क्योंकि यह उस पर फेन-कणों से श्वेत शिव पर पड़ती गंगा सम पड़ती है, अथवा अग्नि पर दुग्ध की एक आहुति सम। यहाँ तक कि सूर्य-किरणें भी तपोवन से दूर रहती हैं जैसे कि साधु की महानता से भयभीत हो जिसका तपोवन अनेक यज्ञों के सघन धूम्र द्वारा कृष्ण हो गया है। अग्नियाँ भी उसके प्रेम हेतु मंत्रों द्वारा पवित्र हव्य प्राप्त करती है, क्योंकि उनके ज्वालाऐं पवन द्वारा परस्पर दबा दी गई हैं जैसे सम्मान हेतु हाथों को उठाया जाता है। वायु स्वयं डरते हुए उसके पास आती है, मात्र उसके क्षौम (सन) एवं वल्क (छाल) के वस्त्रों को आडोलित करती है, तपोवन के मधुर लता-पुष्पों से सुवासित और गति में मृदु। तथापि अवयवों की महिमा-शक्ति हमारे प्रतिरोध से परे अभ्यस्त है ! इस सज्जन द्वारा चलने से पृथ्वी दो भास्करों सम कांतिमयी है। उसकी सहायता में विश्व दृढ़ खड़ा है। वह करुणा-सरिता है, क्षण-भंगुर महासागर वेणी (सेतु) है, और धैर्य-जलों का आवास है; लताओं के वन-मार्ग हेतु कुठार है; तृप्ति-सुधा का महासमुद्र है, सिद्धि-पथ में नायक, पर्वत जिसके पीछे असद्ग्रह (बुराइयों) का ग्रह अस्त होता है, तितिक्षा-वृक्ष का मूल, विवेक-चक्र की नाभि, धर्म-ध्वज का दंड, सर्व-ज्ञानावतरण हेतु एक पवित्र स्थल, आशा-समुद्र की तोयाग्नि, शास्त्र-आभूषणों की पारसमणि, अनुराग-मुकुलों को परिभक्षण (पूर्ण-समाहित) करने वाली ज्वाला, क्रोध-भुजंग विरुद्ध स्नेह, भ्रम-तिमिर निर्मूलन हेतु भास्कर, नरक-द्वारों के कीलकों का बंधक, पुण्य-कृत्यों का आवास, सुप्रसाद-संस्कारों का मंदिर, अनुराग-ह्रास हेतु वर्जित-भूमि, उत्तम-पथ हेतु दिशा-संकेत, पुण्यता की जन्म-स्थली, प्रयास-चक्र का नेमि (साथी), शक्ति-आवास, लौह-युग का अरि, तप-निधि, सत्य-सखा, नेकनीयती की जन्मज-भूमि, परिवर्धित-गुणवत्ता का श्रोत, ईर्ष्या हेतु बंद-द्वार, आपदा-शत्रु।

सत्य ही उसमें अनादर हेतु कोई स्थल नहीं था; क्योंकि वह गर्व का परांग-मुख (विरुद्ध) था, अधमता द्वारा अदायिक (लावारिस), क्रोध द्वारा अदासित, और आनंदों द्वारा अनाकर्षित। इस पुण्य-पुरुष की दृष्टि मात्र से तपोवन ईर्ष्या-मुक्त शत्रुता-शांत है। एक पवित्र-आत्मा की शक्ति महान है। यहाँ अपनी निरंतर-शत्रुता त्याग कर, वे ही पशु शांत हैं और एक तपोवन-जीवन के प्रमोद को सीखते हैं। क्योंकि सूर्य से क्लांत यहाँ एक भुजंग भयमुक्त हो प्रवेश करता है जैसे कि नूतन-तृण में, मयूर पंखों में, विकसित उत्पलों की एक वनिका शत चारु-अक्षियों सहित एक मृग-अक्षियों की भाँति वर्ण में परिवर्तित होती है। यहाँ एक शिशु-कुरंग (हरिण) अपनी माता को छोड़कर सिंह-शावकों संग मित्रता करता है जिनके केसर अभी नहीं उगे हैं, और सिंहनी के विपुल-वक्ष से दूध पीता है। यहाँ एक शार्दूल (सिंह) अपने नयन बंद कर देता है और अपने शशि सम शुभ्र-केसरों को गजों द्वारा खींचे जाने पर प्रसन्न होता है, जो उसे भ्रम से उत्पल-तंतु समझ लेते हैं। यहाँ कपि-गण अपनी चंचल-हृदयता त्याग देता है और उनके स्नान पश्चात युवा मुनियों द्वारा फल पाते हैं। वहाँ हस्ती भी, यद्यपि उत्तेजित, कोमल-हृदय हैं और अपने मस्तकों पर बैठी मधु-मक्खियों को अपने कर्णों से हटाते नहीं हैं और उनको मत्त-पान करने हेतु बैठे रहने देते हैं। परंतु और की क्या आवश्यकता है ? वहाँ अचेतन वृक्ष भी मूलों एवं प्रसूनों (फलों) संग वल्क-अंशुक में और उनके हेतु यज्ञ-धूम्र की शनै- ऊपर चढ़ती उनके लिए सतत निर्माण करती कृष्ण-मृग चर्म सम वर्ण से विभूषित, इस पवित्र मनुज के सखा-तपस्वियों सम ही देखते हैं। तब चेतनामय प्राणी कितने अधिक प्रभावित होंगे।

और जब मैं इस प्रकार विचार कर रहा था, हरित ने मुझे अशोक वृक्ष की छाया में कहीं रख दिया और अपने पिता के चरण-स्पर्श कर कुशासन पर उनके निकट ही बैठ गया।

परंतु जब उसने किंचित विश्राम कर लिया तो सन्यासियों ने मुझे देख कर पूछा, "कहाँ से इस नन्हें शुक को लाए हो ?" उसने उत्तर दिया, "जब मैं स्नानार्थ गया था, मैंने इस बाल-तोते को मृणाल-सरोवर तीर पर एक गुल्म में एक नीड़ से पतित पाया जो ऊष्मा से मूर्च्छित था, ऊष्म-रज में लेटा हुआ था और गिरने के कारण कम्पित हो रहा था और उसमें कुछ थोड़े ही प्राण बचे थे। और क्योंकि मैं उसके घौंसले में प्रतिस्थापित नहीं कर सकता था, मैं इसे करुणा से यहाँ ले आया। अतः, यद्यपि उसके पक्ष (पंख) नहीं उगे हैं और वह आकाश में नहीं उड़ सकता है, उसे किसी तपोवन-वृक्ष के कोटर में रहने दो, फल-रसों उसके हेतु लाए हमारे तथा युवा-तापसियों द्वारा लाए गए अंजलि-बद्ध चावलों का उसे भोजन करने दो। क्योंकि यह हमारे सम्प्रदाय का नियम है कि निर्बल की रक्षा की जाय। परंतु जब उसके पक्ष उग जाऐंगे और वह नभ में उड़ सकेगा, वह जहाँ चाहेगा वहाँ चला जाऐगा। और शायद जब यह हमको भली-प्रकार से जान जाएगा, वह यहाँ रह लेगा।" पवित्र जाबाली ने इसे मेरे बारे में अन्य कथन सुनते हुए, किंचित उत्सुकता से अपने शीर्ष को थोड़ा झुकाया, और एक अति-शांत दृष्टि जो मुझे पवित्र-जलों द्वारा पावनित करती हुई प्रतीत हुई, उसने मुझे काफी समय तक देखा और तब पुनः- मुझे देखा जैसे कि वह मुझे पहचानने का प्रयास कर रहा हो, और कहा : "यह अपने कु-चरित्र का फल भोग रहा है। क्योंकि तप-शक्ति द्वारा दिव्य अंतर्दृष्टि संग साधु भूत, वर्तमान भविष्य देख सकता है, और विश्व को जैसे उसने कर की हथेली पर रखा हो, देख सकता है। वह पूर्व-जन्मों का ज्ञाता है। वह आगामी वस्तुओं के बारे में बताता है। वह अपनी दृष्टि में प्राणियों की दिवस-दीर्घता उद्घोषण करता है।

उसकी क्षमता से परिचित सभी तपस्वियों की सभा इन वचनों पर यह जानने कि मेरा पाप-कृत्य है, जिज्ञासु हो गई, और क्यों और कहाँ न्यस्त किया, और मैं एक पूर्व-जन्म में कौन था, और साधु को यह वचन कहते हुए अनुरोध किया : "महोदय, कृपया हमें बताऐ कि किस प्रकार के दुष्कृत्य से वह मन्थर (परिणाम) भोग रहा है। वह एक पूर्व-जन्म में कौन था, और कैसे वह एक खग-रूप में पैदा हुआ ? उसका नाम कैसा है ? आप हमारी जिज्ञासा शांत करो, क्योंकि तुम सभी विस्मयों के सूत्र हो।"

"इस प्रकार सभा द्वारा अनुरोध किए जाने पर महर्षि ने उत्तर दिया : "यह अद्भुत कथा अति-दीर्घ है, दिवस लगभग बीत गया है, हमारा स्नान-समय निकट है, जबकि देव-पूजन की वेला बीत रही है। अतः खड़े होवों, इस मिलन हेतु प्रत्येक अपने कर्तव्य पूरा करें। अपराह्न में तुम्हारे मूल फलाहार (पिष्टी) उपरांत जब तुम शांति से विश्राम कर रहे होंगे, मैं तुम्हें पूर्ण-कथा आदि से अंत तक सुनाऊँगा - वह कौन है, उसने अन्य जन्म में क्या किया और कैसे वह इस जन्म में पैदा हुआ। इस मध्य, उसे भोजन द्वारा तरोताजा किया जाए। निश्चित ही वह स्वप्न-दृष्टि स्मरण कर लेगा जब मैं इसके पूर्व-जन्म की संपूर्ण कथा सुनाऊँगा।" अतएव कहकर वह उठ खड़ा हुआ, और साधुओं के साथ स्नान किया और अपने अन्य नित्य-कर्तव्यों का निर्वाह किया।

'अब दिवस समाप्त होने जा रहा था। जब साधु अपने स्नान से उठे, और यज्ञार्पण कर रहे थे, मरीचिमाली हमारी नयन समक्ष भूमि पर अर्पण करते अपने गगन में रक्तिक चंदन-काष्ट वर्ण सहित ऊपर जाता प्रतीत हो रहा था। तब उसकी दीप्ति मद्धम हो गई और विलुप्त हो गई, उसकी महिमा की निःस्त्रवण मुख उठाऐ और नेत्र उसके वृत पर गड़ाए उष्मपासों द्वारा पी लिया गया था, जैसे कि वे तपस्वी हों; और वह पंडुक (कपोत) के पग सम और सप्तर्षि-स्पर्श से बचने हेतु जैसे वे उठे थे, अपनी मयूखों को खींचते गुलाबी नभ से फिसल गया।

उसका वृत पश्चिमी-महासागर पर गहरी-लाल मयूखों के प्रसार से क्षीर-शय्या पर सुधा उड़ेलते उत्पल सम था; उसकी मरीचियाँ नभ को त्यागकर और कमल-कुंज को कूचकर संध्या को पर्वतिका-शिखा वृक्ष पर खग सम टिकी हुई थी; रक्तिम दीप्ति छींटें एक क्षण हेतु तपस्वियों द्वारा लटकाऐ रक्त-कृष्ण वल्कों सहित द्रुमों को विभूषित करती सी प्रतीत होती थी। और जब सहस्र-रश्मि भास्कर विश्राम को चला गया, संध्या पश्चिम-महासागर से गुलाबी-मूंगों भाँति एकाएक प्रकट हो गई। तपोवन शांत-विचार का आवास बन गया, क्योंकि एक दिशा में पावन धेनुओं का दूध निकालने के मधुर संगीत उठ रहा था, और नव कुशा-तृण अग्नि-वेदी पर बिखरी थी, और व्योम-देवियों का चावल एवं हव्य तपो-आश्रम कन्याओं द्वारा इतर-तितर बिखरा रखा था। और रक्त-नक्षत्र संध्या तपस्वियों को आश्रम में घूमती हुई दिवस-समाप्ति पर रक्त-नेत्र गायों सम प्रतीत होती थी। और जब सूर्यास्त हो गया, मृणाल-पंक्तियाँ विरह-संताप में दिनेश्वर से पुनः-मिलन की आशा में एक व्रत सा लिए प्रतीत हो रही, क्योंकि उसने अपने मुकुल-चषक उठा लिए थे और उसने हंसों के ललित श्वेत-वस्त्र धारण कर लिए थे, और श्वेत-तंतुओं के याज्ञिक-सूत्रों से घिरी हुई थी, और एक भ्रमर-वृत्त माला सम धारण कर रखा था। तथा नक्षत्रीय यजमान (मेजबान) उठा और गगन-विस्तृत हो गया, जब अर्क (सूर्य) पश्चिम-महासागर में अस्त होता है तो लड़ियों की बौछारों सम; और एक अल्प-काल हेतु सितारों से जगमगाता नभ सिद्ध-दुहिताओं द्वारा संध्या-सम्मान में अर्पित कुसुम-जड़ित सा प्रतीत हो रहा था; परंतु एक ही क्षण में कांति की समस्त महिमा विलुप्त हो गई जैसे आकाश ओर अपने मुख उठाऐं मुनियों ने मदिरा द्वारा धो दी हो; और इसकी विदाई पर अपनी हानि से दुःखित रात्रि ने एक गहन-तिमिर पहन लिया है एक कृष्ण-मृग चर्म सम - एक कालिमा जिसने सभी को तमोमय कर दिया केवल मुनि-हृदयों को छोड़कर।

यह जानकर कि दिनेश्वर विश्राम को चला गया है, अनश्वर मरीचिमाली प्रकाश शुद्ध-अल्पता में विशुद्ध महीन अंशुकों की श्वेतिमा में सजा तारा सहित अपनी भार्या-प्रासाद में निवास करता आकाश में चढ़ता है जो तमाल-तरुओं के तिमिर संग रेखांकित थी, सप्तर्षि-मंडल द्वारा अध्यक्षता किया जाता, अरुंधती के भ्रमणों द्वारा पवित्र, आषाढ़ द्वारा घिरा हुआ, अपने कोमल-नयन श्वेत कुरंग सम मूल को दिखाता हुआ जैसे स्वर्ग का एक तपोवन ही था।

हंस सम श्वेत-चाँदनी सागरों को पूरित करते हुए वसुंधरा पर पड़ती थी; जो सितारों के बिखरे टुकड़ों से जड़ित और शशांक सहित विभूषित गगन से शिव-मौलि पर पड़ती गंगा सम थी। तथा श्वेत जैसे एक खिलता कुसुम सम चन्द्र-सरोवर में एक अगतिमान मृग दिखता था जो उत्सुकता में शशि-रश्मियों का जल-पान हेतु नीचे गया था और पकड़ा गया, और जैसे यह अथाह पंक में हो। निशा-उत्पलों के सर-प्रेम से चाँदनी द्वारा भ्रमण किए जाते हैं जैसे वर्षा उपरांत अपनी नव-पावनता में सिन्धुवार-कुसुमों सम श्वेत समुद्र पर हंस। उस क्षण, राकेश (चन्द्र)-वृत्त अपने उदय की सम्पूर्ण-दीप्ति खो देता है जैसे आकाश-सरिता में गोता लगाते समय अपना रक्त-वर्ण धुल गए गजराज ऐरावत के मस्तक सम हो; और महानुभाव शीतलता बिखेरते हुए गगन में ऊँचे शनै- ऊपर चढ़ जाता है, और अपनी आभा द्वारा पृथ्वी को चूने की रज सम श्वेत कर दिया था; खुलते शशि-उत्पलों की सुवास सहित प्रातः-रात्रि की समीर बह रही थी, और प्रसन्नता से मृग द्वारा स्वागत की गई थी जिसने नींद आने के भार से नीची अक्षियों और पलकों के परस्पर मिलने से, जुगाली और मौन-विश्राम करना प्रारम्भ कर दिया था।

अभी रात्रि का मात्र अर्ध-मुहूर्त ही बीता था, जब भोजन-उपरांत हरित ने मुझे लिया और अन्य पवित्र साधुओं संग अपने पिता के पास ले गया जो तपोवन की चंद्र-किरणों से दूधिया नहाए एक स्थल में बेंत की एक चौकी पर बैठा था, जलपद नामक शिष्य द्वारा मंद- वात किया जा रहा था, जिसने दूर्ब-तृण सम सफेद मृग-चर्म का एक चँवर (पंखा) पकड़ रखा था, और कहा : "तात, मुनियों की पूरी सभा हृदयों से इस विस्मय को श्रवणार्थ आपके गिर्द एक वृत्त में है; नन्हें पक्षी ने भी विश्राम कर लिया है। अतः हमें बताओ, उसने क्या किया है, वह कौन था, और अगले जन्म में क्या होगा ?" इस प्रकार कहकर, महर्षि ने मुझे देखकर और अतीव इच्छा से सुनते मुनियों को देखकर, धीरे से उवाच किया : "यदि तुम सुनने पर ध्यान दो तो कथा बताई जाऐ।

......क्रमशः   

हिंदी भाष्यांतर,

द्वारा 
पवन कुमार,
(२१ नवंबर, २०१८ समय ११:०८ रात्रि)