Kind Attention:

The postings in this blog are purely my personal views, and have nothing to do any commitment from Government, organization and other persons. The views in general respect all sections of society irrespective of class, race, religion, group, country or region, and are dedicated to pan-humanity. I sincerely apologize if any of my writing has hurt someone's sentiments even in the slightest way. Suggestions and comments are welcome.

Saturday 8 August 2015

विकास-सिद्धांत

विकास-सिद्धांत  
---------------------




गणना-पत्रक है समक्ष, क्यूँ सशंकित परिणाम उपलब्ध से 
जीवन-स्पंदन शनै प्रक्रिया, लेकिन माप तो होगा कर्म से। 

कर्म-विज्ञान पर है अति-चिंतन, हर जीव का भाग्य करते तय  
ज्योतिषियों की बात छोड़ भी दें, क्या मंथन हो सकते विषय ?  
कहते हैं सब गत-कर्मों का फल, हम जो भी हैं प्रारब्ध स्वरूप 
कैसे अन्य का भविष्य तय सक्षम, जब निज में ही नहीं सक्षम ? 

भिन्न भौतिक-मानसिक स्थितियाँ, प्राणी-जगत में कौन निर्धारक 
कितने उत्तरदायी वर्तमान हेतु, परोक्ष परिस्थिति या वातावरण ? 
कितना चिंतन वाँछित स्व-स्थिति हेतु, कितना सुधार संभावित 
कितने जन-समूह परिवर्तन सक्षम, अतिश्योक्ति है अन्य रीत। 

उदाहरण किसी अमुक नर का लें, मान लो है अशिक्षित-निर्धन 
ऊपर से अपाहिज़, भिक्षुक सम, मन में नहीं है विशेष उमंग। 
भाग्य कोसता, परम-असंतुष्ट, पाता अपने को असहाय-विवश 
कौन कारक उस स्थिति हेतु उत्तरदायी या स्वयं में ही है दोष। 

एक पाशविक प्रवृत्ति ने भंग की मर्यादा, अवाँछनीय हुआ जन्म 
यदि होता स्वभाविक वैवाहिक बंधन से, इसे कहते तब सामान्य। 
एक मनुज का कितनों से संपर्क संभव, माना वास्तव में है पार   
कितनी बार नस्लों का समन्वय, गुणों का बहुत होता विस्तार।  

'कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा'
- किम विश्व सत्य-रूप 
कोई मिल गया और बनी सृष्टि, या फिर विधाता का व्यूह। 
मानव समूह कहाँ से कहाँ विस्थापित, भिन्नों से हुआ संपर्क
जीव-जंतु का स्थान परिवर्तन, बहुत तरह से होता मिलन। 

कई प्राकृतिक-कृत्रिम दुर्घटनाऐं, व्याधियों से है बहु हटाव  
कितनों  की अकाल-मृत्यु होती, कितने असमय गर्भपात ? 
कितने शिशु काल-गर्त समा जाते, अण्डे लिए जाते हैं खा     
फल कच्चे तोड़े जाते, बीज़ न बनता, रुध अग्रिम संभावना। 

यह हैं तो इसके बहुत कारण, नहीं है तो भी परोक्ष प्रभाव 
जो है क्या भाग्य-प्रदत्त या सकारात्मक कारक - समन्वय। 
विश्व में अनेक रूप उपलब्ध, क्या वे सफलों का जमावड़ा 
जो नहीं - वे प्रतिभागी न बनें, किंचित वर्तमान ने पछाड़ा। 

एक सतत युद्ध, कुछ पिछड़-बाहर हुए, नए आ मैदान गए 
उनकी परिस्थिति सहयोगी, तभी तो सफ़ल होकर निकले। 
यह क्या खेल स्वतः ही चालित, या संचालित सोचा-समझा 
प्रजा भोली है मान लेती सिद्धांत, जो विद्वानों ने दिए बता। 

सूक्ष्म-ज्ञान डार्विन का 'सतत प्राकृतिक चयन' विकास-सिद्धांत  
यहाँ बहु-कारक प्रभाव यथा जलवायु-विकिरण, समय-स्थान। 
शनै-2 स्वरूप भी बदलते रहते, जीव प्रारम्भ से बहुत हैं भिन्न 
पर सब हैं एक निरंतरता के मिश्रण, जुड़े आपस में अभिन्न। 

मेरा प्रश्न जो अब लिख रहा, अपने से या कोई दैवी-प्रेरणा 
या परिस्थिति ने ऐसी प्रेरणा दी, कारक बहुत महत्त्वपूर्ण ? 
क्या अन्य आइंस्टीन बन पाता यदि अभिभावक न संयोग 
या दूजे कारक, अपढ़ रखते, विलोम-दशा अक्षम-निखरण। 

क्या कोई अन्य का स्थान ले सकता, ब्रूसली की जगह और  
या था एक दैवी चुनाव या परिस्थितियाँ स्वयं करती मिलाप। 
कितने तरह के मिलन संभव, यह कारक हटा तो आया दूजा 
हर मसाले का एक विशेष स्वाद, यह खाने पर चलता पता।  

इतना बड़ा जीवन रण-युद्ध, जीवित प्राणी हैं सौभाग्यशाली 
परिस्थिति भी विचित्र, उसकी परवरिश पूर्णतया बदल जाती। 
राजा का लड़का राजा बने, प्रजा को सिखाए सेवक-धर्म पाठ  
धनी माया बटोरते, संपत्ति न सांझी, अन्यों का छीने अधिकार।  

निर्धन-लाचार को निश्चित ही बाधा, पर बनना होगा मन-साहसी 
रुग्ण-अपंग, हतोत्साहितों के प्रति, जग-कर्त्तव्य है सहानुभूति। 
जीवन अनमोल - आदर सब करें, और करो चेतना का विकास
अमर फल तव संग, करो प्रयोग, बहुदा खुद ही हो जिम्मेवार। 


पवन कुमार,
8 अगस्त, 2015 समय 16:31 अपराह्न  
( मेरी डायरी दि० 13.05.2015 समय 8:40 प्रातः से )

No comments:

Post a Comment