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Monday 19 October 2015

श्री कालिदासकृत कुमार-सम्भव : रति-विलाप

कुमार-सम्भव
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चतुर्थ सर्ग : रति-विलाप
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इसके पश्चात नव-वैधव्य की असह्य

वेदना प्रतिपाद* करने को विवश।

मोह-परायण कामवधू सती रति

   वह विधि द्वारा की गई जागृत।१।

 

प्रतिपाद* : अनुभव

 

प्रलय* अन्त में उसने नेत्र खोले,

ध्यान से देखा, परन्तु थी अज्ञात।

कि सदा हेतु दर्शन-विलुप्त हो गया है

        अतृप्त दर्शनीय, उसका अति-प्रिय काम।२।   

 

प्रलय* : मूर्च्छा

 

ओ मेरे जीवन-स्वामी ! क्या तुम जीवित हो? 

यह कहते हुए उठ गई वह। 

लेकिन भूमि पर हर-कोप अनल से भस्मित 

पुष्प-आकृति मात्र भस्म-ढ़ेर पड़ा है वह।३। 

 

तब वह पुनः दुःख से विव्हल,

वसुधा-आलिंगन से उसके स्तन धूसरित।

मूर्धा* अस्त-व्यस्त, विलाप करती जैसे

     वनस्थली प्राणी दुःख में हों सम्मिलित।४।

 

मूर्धा* : केश

 

तेरी कान्तिमयी देह जो

विलासियों हेतु उपमान* थी अभी तक। 

वह अब इस दशा को प्राप्त हो गया, निश्चय ही

अब स्त्रियों का हृदय विदीर्ण हो होगा वज्र।५।

 

उपमान* : प्रारूप 

 

क्षण भर में अभिन्न सौहार्द भुला, मुझे छोड़कर

कहाँ चले गए, जिसका जीवन तुम पर निर्भर?

जैसे सेतु-बंध क्षत होने से प्रचण्ड जल-धारा

नलिनी को कर देती है निर्मूल।६।    

 

हे काम ! तुमने ऐसा कुछ न किया, जिससे मैं अप्रसन्न होवूँ, 

मैंने भी तेरी इच्छा विपरीत कोई कार्य किया है नहीं। 

फिर क्या कारण है कि विलपती अपनी इस रति को

एक दर्शन झलक भी दिखाते हो नहीं।७। 

 

ओ स्मर* ! स्मरण करो, जब तुम

मुझे गलत नाम* से पुकारते थे। 

मैं तुम्हें अपनी मेखला-डोर से बाँध थी देती,

या कर्ण-बालियों में प्रयुक्त उत्पलों* से पीटती 

     जिसके क्षिप्त परागकण तेरे चक्षुओं को दुखाते थे।८।

 

स्मर* : कामदेव; गलत नाम* : अन्य स्त्री के; उत्पल : कमल

  

जानती हूँ, तुम जो मुझे प्रसन्न करने हेतु बोलते थे

कि "तुम मेरे हृदय बसती हो" - यह था असत्य। 

जैसे यह मात्र झूठी प्रशंसा नहीं थी, तो अब तुम

     अनंग* हो, कैसे यह रति क्षति से सकती बच?।९।

 

अनंग* : अदेह 

 

मैं भी तेरा पथ-अनुसरण कर परलोक प्रवास करुँगी पर

विधि ने लोक को इसके आनंद से कर दिया है वंचित। 

प्राणियों का देह-सुख तो वास्तव में

तुम पर ही करता है निर्भर।१०। 

 

ओ प्रिय ! जब नगर-मार्ग रजनी-तिमिर से

 आवृत हैं, कौन शक्त है सिवाय तुम्हारे?

घन-गर्जन भीत अभिसारिकाओं* को 

उनके कामी प्रेमी-घर पहुँचाने में।११।

 

अभिसारिका* : प्रिया 

 

अब जब तुम न हो तो प्रमदाओं* का

मद्य-मद होना विडंबना हो गई एक है। 

पहले पग-२ पर अरुण नयन मटकते थे,

लड़खड़ाते वचन थे।१२।

 

 प्रमदा* : कामुक नव-यौवना 

 

यह जानकर ओ अनंग* ! तेरे प्रिय सखा

निशाचर*-वपु अब मात्र रह गई है कथा। 

और व्योम में उसका उदय अब निष्फल है 

बड़े क्षोभ से स्व-तनुता त्यागता है जबकि

कृष्ण-पक्ष भी बीत है गया।१३।

 

अनंग* : कामदेव ; निशाचर* : चन्द्र 

 

कहो, अब किससे लाल-हरित पल्लवों का

चारु-बंधन नव-आम्र द्वारा प्रसव* होगा?

जिसको पुंस* कोकिल कुहुँ-२ ध्वनि से है

सूचित करता व उसका बाण बनेगा।१४।

 

प्रसव* : अंकुरित; पुंस* : नर   

 

अनेक बार तेरे द्वारा धनुष हेतु

नियोजित* अलि* पंक्ति डोर रूप में।

जैसे वे इस गुरु शोक में सांत्वना रखते,

 गुनगुनाते हैं अब करुण स्वर में।१५।

 

नियोजित* : प्रयोग; अलि* : भ्रमर 

 

हे काम ! अपने मनोहर शरीर को

प्रतिपद्य* कर एक बार कोकिला को।

जो अपने मधुर आलाप गीत में चतुर है,

    पुनः सुरत* दूती पद पर आसीन करो।१६।

 

प्रतिपद्य* : प्राप्त; सुरत* : वसंत

 

ओ स्मर ! एकांत में सिर झुका याचित सी

गूढ़ प्रणय-आनन्दों का अपने व तेरे।

स्मरण करके काँप सी जाती हूँ,

कोई भी शांति न है मुझे।१७।

 

ओ रति-पंडित !* इस वसंत में मैं तेरे द्वारा

कुसुम-प्रसाधनों से सजाए अंगों में स्वयं अवस्थित।

लेकिन तेरी चारु वपु* न है कहीं नज़र दर्शित।१८।

 

रति-पंडित* : प्रणय-विषय निपुण; वपु* : देह

 

तुम दारुण* देवों द्वारा

स्मरण कर लिए गए हो बुला।

उसकी सजावट से पूर्व आकर मेरे

      बाऐं चरण को राग-रंग लगा जा।१९।

 

 दारुण* :  क्रूर

 

ओ प्रिय ! जब तक तुम चतुर

सुर-कामिनियों द्वारा न जाते हो ठग।

मैं पतंगे की भाँति जलकर एक बार

 तुम्हारे अंक* में ही लूँगी आश्रय।२०।

 

अंक* : गोद

 

हे रमण*! मदन-च्युत कृत मैं रति

यद्यपि क्षण मात्र ही रहूँगी जीवित।

सती होऊँगी, तेरा अनुसरण करुँगी

मेरा यह वचन रहेगा अडिग।२१।

 

रमण* : प्रिय

 

मुझसे कैसे परलोक सिधारे 

तेरा हो सकेगा अंतिम मंडन?

जब तुम एक साथ अंगों व जीवन में एक 

अतर्कित* मरण गति हो गए प्राप्त।२२। 


अतर्कित* : आशा-विपरीत 


मधु* सहित 
तेरे मुस्कानमयी 

आलाप* का मैं करती स्मरण। 

और नेत्र-कोनों से उस मधु को देखती, जैसे 

      गोद में धनुष ले तुम शर को रहे सीधा कर।२३। 


मधु* : वसंत; आलाप* : हँसी-ठिठोली 


तेरा हृदयंगम सखा मधु कहाँ है, जो तेरे 

कार्मुक* को कुसुम-नियोजित है करता? 

या दुर्भाग्य ! ऐसा तो न संभव कि वह भी 

        पिनाकी के उग्र-कोप से सुहृद-गति हुआ।२४। 


कार्मुक* : धनुष   


उसके पश्चात आहत मधु ने उन 

विलाप-वचनों से हृदय-दिग्ध* शर सम। 

स्व को आतुर रति पर अनुग्रहार्थ आत्मा से 

आविर्भूत* हुआ पाया उसके समक्ष।२। 


हृदय-दिग्ध* : विष-युक्त; आविर्भूत* : दर्शित


उसको देख वह बुरी तरह रो पड़ी और 

 निज स्तन-नितम्ब पीटने लगी निर्दयता से।

बाढ़-कपाट खुलने सम दुःख निश्चित ही 

स्वजन समक्ष उमड़ पड़ता है।२६।  


दुःखिता, वह उसको देखकर बोली-

ओ वसंत! तेरे सुहृद को क्या हो गया?

उसकी भस्मित देह के बहुरंगी कण 

        कपोत सम पवन द्वारा उड़ाए रहे जा।२७। 


ओ स्मर ! अब दर्शन दे दो, 

यह प्रिय मधु तेरे हेतु है उत्सुक। 

नरों का स्व-दयिता* प्रेम अल्प हो सकता  

      पर सुहृदों प्रति निश्चित ही ऐसा न संभव।२८।


दयिता* : भार्या 


ओ मदन !
तेरा पराक्रमी धनुष-साम्राज्य लेने हेतु 

यह पार्श्ववर्ती* व सुर-असुर संग सर्व जग बाध्य हैं। 

जिसकी डोरी मृणाल* तंतु हैं 

     और शर कोमल पुष्प-पत्र हैं।२९। 


पार्श्ववर्ती* : मित्र; मृणाल* : कमल


तेरा यह सखा चला गया है, जैसे दीप वायु 

द्वारा बुझा दिया गया व मैं इसकी हूँ बाती। 

तुम देखो, इस असहनीय वेदना- 

अंधकार के धूम्र में लिपटी।३०। 


निश्चय ही विधि ने मुझे छोड़ जबकि 

काम-वध कर केवल आधा ही विनाश किया है। 

जब शरणदाता तरु गज द्वारा भग्न कर दिया जाता  

      तो इसपर लटकी वल्लरी* स्वयं ही नीचे जाती आ है।३१।


 वल्लरी* : लता   


अतः इसके बाद यह एक बंधु का

 कर्त्तव्य है, जो तुम द्वारा किया है जाना। 

हे वसंत! मुझ विवश को पति पास भेज दो, 

       प्रार्थना, चिताग्नि में जलने को अर्पण कर देना।३२। 


चन्द्रिका शशि संग चली जाती है, 

सौदामिनी* मेघ संग विलुप्त हो जाती है। 

जब निर्जीवों द्वारा भी यह स्वीकार कर लिया गया 

    तो प्रमदाऐं* भी पति-मार्ग अनुगमन कर सकती हैं।३३।


 सौदामिनी* : तड़ित; प्रमदा* : स्त्री  


स्तनों को प्रिय की देह से रंजित करके 

मैं अग्नि में इस भाँति जाऊँगी लेट। 

      जैसे यह नव-पल्लवों की हो सेज।३४। 


ओ सौम्य! अनेक बार कुसुम-शय्या पर 

जाने में तुमने की है हमारी सहायता। 

तो अब आकर चिता में समर्पित करो,

कर-बद्ध होकर करती हूँ प्रार्थना।३५। 


उसके बाद मुझे अग्नि-अर्पित कर दो, जिसे 

दक्षिण पवन-संचारण त्वरित ही देगा जला। 

यह तो तुम्हें निश्चित पता ही है कि स्मर, 

 मेरे बिना एक क्षण भी न रह सकता।३६। 


और ऐसा करके हम दोनों को 

एक अंजलि सलिल* चढ़ा देना। 

 तेरा बंधु मेरे सहित अविभाजित 

         जिसे परलोक में पान कर सकेगा।३७।  


सलिल* : जल


 स्मर की मरणोपरांत अन्त्येष्टि में तुम

आम्र-मञ्जरी की कलियाँ झूमती हुई। 

ओ माधव ! अर्पण कर देना क्योंकि 

        तेरे मित्र को चूतांकुर हैं प्रिय अति।३८।  


इस तरह से देह मुक्ति को निश्चित 

रति को एक सरस्वती* ने सांत्वना दी। 

जैसे जलधारा सूखने से विव्हल मीन को 

    प्रथम वृष्टि में ही अनुकम्पा मिल जाती।३९।


सरस्वती* : आकाश-वाणी 


ओ कुसुमायुध काम-पत्नी रति ! दुर्लभ 

नहीं रहेगा तेरा भर्ता चिरकाल तक। 

सुनो, कैसे वह हरलोचन अग्नि में 

      एक शलभ* की गति हुआ है प्राप्त।४०।


शलभ* : पतंगा    


मदन द्वारा इन्द्रिय-उदीरित* प्रजापति ने 

काम-अभिलाषा की थी स्व-सुता सरस्वती पर। 

उसने स्व-उत्तेजना निग्रह कर काम को श्राप दिया 

जिससे अनुभूत हुआ है, तब उसको यह फल।४१। 


उदीरित* : प्रेरित


जब पार्वती-तप द्वारा विजित 

 हर उसे परिणय-वेदी ले जाएगा। 

तब उपलब्ध सुख प्राप्त कर, वह स्मर को 

   पुनः उसकी वपु में नियोजित कर देगा।४२। 


धर्म द्वारा याचना पर, अतएव एक वाणी द्वारा 

स्मर की शाप-अवधि निश्चित की थी ब्रह्म ने। 

वशी व अम्बुधर* दोनों ही अशनि*-अमृत* 

अर्थात शाप-वरदान के स्रोत हैं।४३। 


अम्बुधर* : मेघ; अशनि* : तड़ित; अमृत* : जल


अतः ऐ शोभने! इस वपु की रक्षा करो 

अपनी, जिसका संग होगा तेरे कांत से। 

नदी, जिसका जल रवि-ताप द्वारा पी लिया हो,

 वर्षा ऋतु में पुनः जुड़ जाती नव धारा से।४४।   


अतः किसी अदृश्य रूप भूत* ने रति की 

मरण-व्यवस्था बुद्धि को कर दिया मंद।  

और कुसुमायुध* मित्र ने विश्वास दिलाया

सुचरितार्थ पदों* द्वारा रति को उस।४५। 


भूत* : प्राणी; कुसुमायुध* : मदन; पद* : वाणी


इसके बाद दुःख से कृशित मदन-वधू  

विपद अवधि में प्रतीक्षा करने लगी।  

जैसे चन्द्र लेखा दिवस उदय पर दिखती, 

किरण-क्षय होने से पीली दिखती है 

    और फिर संध्या की प्रतीक्षा करती।४६।


 
अथ श्री कालिदासकृतौ कुमारसम्भवे महाकाव्ये रति-विलापो नाम

चतुर्थ सर्ग का हिंदी रूपान्तर।

 

पवन कुमार,

१९ अक्टूबर, २०१५ समय २१:३० म०रा०

(रचना-काल ८ सितंबर से १२ सितंबर, २०१५)