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Thursday 31 December 2015

कुमार-सम्भव :उमा सुरत वर्णन

कुमार-सम्भव 
अष्टम सर्ग : उमा सुरत वर्णन 
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पाणि-ग्रहण उपरांत शैलराज-दुहिता

हर के प्रति यकायक चित्ताकर्षक*।

काम-सुख संवर्धक पुष्पादि के इत्रों से मन में

उठते विभिन्न रस-भावों द्वारा हुई ग्रसित।१।

 

चित्ताकर्षक* : मनोहर

 

वह पार्वती पुकारने पर भी प्रत्युत्तर न देती थी 

अवलम्बित* अंशुकों* की ही इच्छा करती थी। 

तब भी पिनाकी* के रति सुख हेतु वह

सती, उसके संग शयन करती थी।२। 

 

अवलम्बित* : प्राप्त; अंशुक* : वस्त्र; पिनाकी* : हर

 

कुतूहल से जब कभी वह हर

 दृष्टि डालता, सुप्त पार्वती के मुख पर। 

तो वह मुस्कुराते हुए चक्षुओं को खोलती और तुरंत

     लज्जाते हुए बिजली गति से कर लेती है लोचन बंद।३।

 

 नाभि-प्रदेश गया शंकर का कम्पित हाथ  

उस पार्वती द्वारा हटा दिया जाता है। 

 उसके बाद उसके वस्त्र का अत्यंत दुष्कर

     नीवीं-बंधन स्वयं खोल दिया जाता है।४। 

 

हे सखी! शंकर का यही रहस्य है, 

इसी प्रकार निर्भय होकर सेवा करो। 

सखियों द्वारा इस उपदेश से आकुल, वह पार्वती प्रिय में

  पूर्णतया अभ्यास करते हुए, न भूलती थी समर्पण को।५।

 

वार्तालाप हेतु यदि तुरंत वह अनंग हर

काल्पनिक विषयों संबंधित कोई पूछता प्रश्न।

तो दृष्टि से ही सहमति दिखाते हुए लज्जा-स्वरूप

अपना सिर हिला कर ही देती है उत्तर।६।  

 

प्रिय द्वारा दोनों हथेलियों से हटाए गए अंशुकों को,

वह पार्वती चुपके से कुछ यत्न से वापस खींचती है।

उस शूलिन* को ललाटलोचन* में देखती और

रहस्य* से कुछ विचलित सी हो जाती है।७।

   

शूलिन* : शंकर; ललाटलोचन* : तृतीय नेत्र; रहस्य* : अंदर

 

निदर्यी आलिंगन में स्तब्ध* वह चुंबनों में

कर द्वारा चुपके से अधर-दान* लेती हटा।

प्रभु* का अपनी नवोढ़ा को नख-दंत द्वारा प्रगल्भ* दंश व

     प्रणय-सम्भोग करते देख मन्मथ* भी भर जाएगा लज्जा।८।

 

स्तब्ध* : सन्न; अधर-दान* : ओष्ट; प्रभु* : हर; प्रगल्भ* : तीखा; मन्मथ* : कामदेव

 

रति-क्रिया में अक्षत* अधरों का मुख-चुंबन

व खरोंच-रहित अंग नखों द्वारा काटने से।

और प्रिय के इस अति-प्रचंड प्रेम को सहन अक्षम

 वह पार्वती, कोई विपरीत बात नहीं है इसमें।९।

 

अक्षत* : कोमल

 

कुतूहल-वश रात्रि का सुरत-वर्णन

जानने को उद्यत सखीजनों को विभात* समय।

निराश नहीं करती थी और लज्जावश

    हृदय से त्वरित अनुभव करती थी वह।१०।

 

विभात* : प्रभात

 

और मुकुर* में प्रिय द्वारा पृष्ठभाग में छोड़े गए

परिभोग नखक्षत आदि सम्भोग-चिह्न देखती।

और अनेक स्थानों पर स्थित ये-२ अंग सँवारने की

     इच्छा से स्व-प्रतिबिम्ब देख लज्जा से भर जाती।११।

 

मुकुर* : दर्पण

 

नीलकण्ठ द्वारा पार्वती का यौवन-आनंद लेने को

देखकर, जननी मेना पुनरुज्जीवित सी हो गई।

निश्चय ही वधूजन व पति-वात्सल्य द्वारा

माता मानस* में शोक-मुक्त हो गई।१२।

 

मानस* : मन

 

स्थाणु* किसी बहाने से प्रायः दिवसों* में भी

प्रिया पार्वती संग सुरत-कर्म में रहते व्यस्त।

वह भी शनै कामसुख आस्वादन करती हुई,

       प्रेम प्रतिकूल शील-भाव त्याग गृहस्थ* हुई प्राप्त।१३।

 

दिवसों* : दिन; स्थाणु* : शम्भु; गृहस्थ* : मध्यम-अवस्था

 

वह प्रिय सखज* में हृदय गाढ़-आलिंगन करती

प्रिय द्वारा प्रार्थित मुखमन* को मना है करती।

मेखला* में प्रणय परिचय हेतु सुहृद के चंचल हाथ को

लज्जा-भाव से रोकती हुई, शिथिल सी हो जाती।१४।

 

सखज* : मित्र; मुखमन* : चुम्बन; मेखला* ; कमरबंध

 

तब उन दोनों का अन्योन्य* अभूतपूर्व गूढ़-प्रेम

दिवसों* में इच्छा किया जाता किसी भी भाँति। 

परस्पर चाटुकारिता करते कदाचित, अदृश्य अप्रिय

        कटाक्ष निक्षेप* से क्षणमात्र वियोग से हो जाते कातर*।१५।

 

अन्योन्य* : परस्पर; दिवस* : स्वर्ग; निक्षेप* : भाव; कातर* : भीरु

 

यथा आत्म-सदृश हो वह वधू, वर के प्रति अनुरक्त हो जाती

तथैव वर उसके प्रति प्रेम-सिक्त हो जाता, निश्चित ही जैसे।

जाह्नवी* सागर से अपृथक, वैसे ही उसके अग्र-सलिल* के

आस्वादन से वह समुद्र हो जाता एक परम निवृत* है।१६।

 

 जाह्नवी* : गंगा; अग्र-सलिल* : मुखरस;  

वृतिभाक्*: आस्वादन; निवृत* : आनंदित

 

एकांत में शंकर की निधुवन-उपदेश* की

शिष्यता प्राप्त करके वह युवती पार्वती।

निपुण-कौशल शिक्षित* हो गई, और

उस प्रकार गुरु-दक्षिणा देने लगी।१७।

 

निधुवन-उपदेश* : सुरत-मैथुन विद्या; शिक्षित* : अभ्यस्त

 

अधरोष्ट दंश-मुक्त कर, पल्लव सम करों वाली वह अंबिका,

वेदना को क्षणमात्र ही में शांत करती है निज शीतलता से ।

जैसे क्रोध में शूली* का मौलिचंद्र उन्हें शीतता देता है।१८।

 

शूली* : शंकर   

 

शंकर ने भी चुम्बन लेते समय

अलक* हट जाने पर व खुल जाने से ललाट-नेत्र।

मुख द्वारा कमल-गंध उच्छ्वास करते फुत्कार भरी,

पार्वती वदन* से भी निकलती सुगंध है।१९।

 

अलक* : लट; वदन* : मुख

 

इस प्रकार वृषध्वज* ने उमा संग

शैलराज भवन में एक मास वास किया।

अतैव उन द्वारा ऐन्द्रिय-सुख मार्ग-परिभोग से

मन्मथ* अनुग्रहीत हो पुनरुज्जीवित हुआ।२०।

 

वृषध्वज* : हर; मन्मथ* : काम

 

अनुमान कर वह आत्मभू*

हिमवंत-मन में पुत्री प्रति विरह-दुःख का।

अपने वृषभ द्वारा नाना-२ देशों की

अनंत यात्रा पर गतिमान हुआ।२१।

 

आत्मभू* : शिव

 

पार्वती-स्तनों से पुरस्कृत कृती* तीव्र

मरुत-गति से मेरु पर्वत निकट पहुँच।

और सुवर्ण-पत्र युक्त शिला-खण्ड को शैया*

बना रात्रियों में सुरत* हेतु हुआ तत्पर।२२।

 

कृती* : हर; शैया*: बिस्तर; सुरत* : काम-क्रीड़ा

 

सागर-मंथन समय प्राप्त पवित्र सुधारस पान करते

जैसे शेषनाग वलय पर शैल सम स्थित है पद्मनाभ*।

और वैसे ही पार्वती के वदन-कमल को चूमते हुए वह

शिव भ्रमर मदरांचल कटकों* में करता है वास।२३।

 

पद्मनाभ* : विष्णु; कटक* : शिखा

 

कैलाश उत्पाटन* समय दशानन रावण की

भीषण ध्वनि से भीत उस पार्वती-कंठ को।

मृदु बाहु-बंधन में ले जगदगुरु, एकपिंगल*-

      गिरि* में विशुद्ध* शशिप्रभा* संग लेता मोद।२४।

 

उत्पाटन* : उत्पीड़न; एकपिंगल* : कुबेर; गिरि* : अलकापुरी;

विशुद्ध* :निर्मल; शशिप्रभा* : चन्द्रिका

 

जैसे मलयाचल प्रदेशों में दक्षिण-अनिल* देवकुसुम* एवं

केसर संग चंदन-तरु वन-शाखाओं को करता कम्पित*।

वैसे ही कदाचित सुरत श्रम से क्लांत* प्रिया को

वह चाटुकारिता से है करता शीतल*।२५।

 

अनिल* : मारुत; देवकुसुम* : लवंग; कम्पित* : शांत;

क्लांत* : थक गई; शीतल*: प्रसन्न

 

तरंगिणी* में जलक्रीड़ा समय प्रिय द्वारा कनक*-कमलों

द्वारा ताड़ित करने एवं कर द्वारा करने से अम्बु*-क्षिप्त।

मुकुल* सम चक्षु बंद कर लेती है, तब मीन*-पंक्तियों से

उमा की कटि-मेखला होती है दो बार प्रदर्शित।२६।

 

तरंगिणी* : नदी; कनक* : सुवर्ण; अम्बु* : जल; मुकुल* : कली; मीन* : मछली

 

अयुग्मनेत्र* उस पुलोम* तनया*-अलकों को

सुचयनित पारिजात*-कुसुमों से है सजाता।

नंदन वन में सुर-वधुएँ उसे देखकर

चिरकाल तक करती हैं ईर्ष्या।२७।

 

अयुग्मनेत्र* : त्रयंबकम, त्रिनेत्र, शिव; पुलोम* : प्रसन्न;

तनया* : तन वाली; पारिजात* : चाँदनी


अतएव गन्धमादन गिरि में शंकर पार्थिव* व अभौम*

सुखों को अनुभूत करता हुआ वनिता सखी* संग।

सूर्य के ताप में स्नान करते हुए लोहित*-

वर्ण का हो जाता है कदाचित।२८।

 

सखी* : उमा; पार्थिव* : लौकिक; अभौम* : दिव्य; लोहित* : लाल

 

वहाँ गन्धमादन में वह भगवान कांचन* शैल* तल में

आश्रय लिए भास्कर* का नेत्रगमन* करता है।

सहधर्मिणी* को दायीं भुजा में आश्रय दिए

बहाने से उसको देखता है।२९।

 

कांचन* : सुवर्ण; शैल* : चट्टान; भास्कर* : सूर्य;

नेत्रगमन* : दर्शन; सहधर्मिणी* : पत्नी

 

तेरे नेत्र-क्षिप्त होने से ही अरुण*

तीसरे भाग में रह पद्म-शोभा धारण कर लेता है।

जैसे प्रलयकाल में प्रजेश्वर*, दिवस को अहर्पति* से

हरकर जगत का ही संहार कर देता है।३०।

 

अरुण* : सूर्य; प्रजेश्वर* : शिव; अहर्पति* : सूर्य

 

विवस्वान* किरणों द्वारा जल-बिन्दु संयोग से,

शून्यता एक इन्द्र-चाप* परिवेश धारण लेती कर।

हे अवनते* ! जैसे तुम्हारे व मेरे पिता हिमवत् ने

निर्झर* का कर दिया है गमन।३१।

 

विवस्वान* : सूर्य; इन्द्र-चाप* : धनुष; अवनते* : पार्वती; निर्झर*: प्रवाह

 

किञ्जलक* को सुखपूर्वक आधा खाकर

बिछौह पर कर्कश कंठ में करते हैं क्रंदन।

दैव के अधीन* चक्रवाक-मिथुन सरोवर में

अल्प-व्यवधान* से ही होते अति-व्यग्र।३२।

 

किञ्जलक* : पद्म कुसुम; अधीन* : निघ्न; अल्प-व्यवधान* : अंतर

 

प्रतिदिन प्रभात में स्थल परित्याग कर

दन्ती* सुरभित प्रिय लताओं के पल्लव।

और षट्पद* संग खिले रुह* युक्त

करते हैं जल ग्रहण। ३३।

 

दन्ती* : गज; षट्पद* : भ्रमर; रुह* : कमल

 

हे मितकथे* ! पश्चिम-दिशा गत विवस्वान*

सेतुबंधन निर्मित सरोवर में व्याप्त।

सुवर्णमेव कांतिमय निज-प्रतिबिम्ब

को देखता है दीर्घ काल तक।३४।

 

मितकथे* : मितभाषिणि;  विवस्वान* : सूर्य

 

सूर्य के अति-तीक्ष्ण ताप से सरों में

अल्प-जल कारण अति-पंकिल* को, यदि वहाँ।

मृणाल* अंकुर हैं, तो यथापूर्व एक दंष्ट्री* वन-वराह*

यूथप अपने कुटिल दन्तों द्वारा देता है उखाड़।३५।

 

पंकिल* : कीचड़; मृणाल* : कमल; दंष्ट्री* : दंतधारी; वराह* : शूकर

 

हे पीवरोरु* ! वृक्ष शिखर में लताऐं

गोल-चमकते सूरज से काञ्चनमयी ललित हैं।

दिवस अंत में ऊष्मा शनै-२ क्षी हो जाती है

यद्यपि मयूर बहुत जाता थक है।३६।

 

 पीवरोरु*: उत्कृष्ट माँसल देह वाली

 

प्राची* क्षितिज में अंधकार प्रसार से

विसरित पंक हो जाता एक सम है।

जैसे सूर्य-आतप* से हृत जल से आकाश व

   सरोवर किंचित एक भाँति ही दृष्ट हैं।३७।

 

प्राची* : पूर्व; सूर्य-आतप* : ऊष्मा

 

अस्पष्ट रूप से पर्णशाला-आँगन में मृग घूमते हैं,

स्त्रियाँ वृक्ष-मूलों को जल द्वारा सिंचित करती हैं।

वनों से अग्निहोत्र हेतु, गाय प्रवेश करने से आश्रमों में

          अग्नियों द्वारा प्रसन्नता-उदीरित* की प्रतिद्वन्द्विता सी है।३८।

 

उदीरित* : व्यक्त

 

बद्ध कोश* वाला मुकुलित शतपत्र* कमल भी

अपनी अवशेष मुख-विवर को क्षणमात्र खोल।

खड़ा हो जाता है, अवकाश हेतु यह षट्पद* को

प्रीति-भाव से ही निवास करने देगा ग्रहण।३९।

 

कोश* : फल; शतपत्र* : कुशोशय; षट्पद* : भौरा

 

प्रतीची* के दूर लग्न* में भानु* द्वारा निकसित

सम परिमित* रश्मियाँ लोहित*-वर्णी केसर*।

एक कन्या के मस्तक पर बन्धुजीव* का

      तिलक लगाने जैसा हो रही हैं प्रतीत।४०।

 

प्रतीची* : पश्चिम दिशा; लग्न* : मुहूर्त;  भानु* : सूर्य; लोहित* : लाल-वर्णी;

केसर*: किञ्जलक; परिमित* : कुछ-मात्र; बन्धुजीव* : जीवकुसुम-बंधूक

 

भानु-अग्नि के परिकीर्ण* तेज को जैसे महर्षि

अश्वरथ सम अति गहन हृदयंगम करके।

सहस्रों बार सामवेद-ऋचाऐं गाते हैं,

   किरणों की ऊष्मा को पी जाते हैं।४१।

 

परिकीर्ण* : विस्तृत

 

अतः जैसे दिवस में महासागर-सन्निधता में यह

भानु कुटिल तरंगें आने पर अस्त सा हो जाता है।

तथैव गगन-अवतरण पश्चात् पीतवर्णी मेघ,

हस्ती-कर्णों को कर्दप*-माला सी पहनाकर,

क्षण मात्र में ही विघटित हो जाते हैं।४२।

 

कर्दप* : कौड़ी

 

रवि अस्त होने की स्थिति में व्योम*

प्रसुप्त हो जाता, महातेज ऐसी गति चला जाता।

यावत रवि उत्थित, प्रकाश करता है और तावत

   तमस भी निश्चित ही संकोच से दूर ही रहता।४३।

 

व्योम* : आकाश

 

संध्या द्वारा भी रवि के वन्द्य* पद

पर्वत-शिखरों में अस्त होकर हो जाते समर्पित।

प्रातः पुनः उसके उदय होने पर पुरस्कृत होते हैं,

       तो कैसे अस्त-समय तम का न करेंगें अनुसरण?।४४।

 

वन्द्य* : पूज्य

 

हे कुटिलकेशी पार्वती! तुम देखोगी कि

संध्या-वेला में रक्त-पीत-कपिश* वर्णी पयोमुच*।

अपने अश्रुओं की चित्र-शलाका द्वारा ही विभिन्न

भाँति के अति-सुंदर दृश्य करते हैं प्रस्तुत।४५।

 

कपिश* : भूरा; पयोमुच* : बादल

 

हे पार्वती! सांध्य समय स्वयमेव विभक्त* अस्तंगत

सूर्य आतप* को देखो, सिंह की केसरी जटाओं में।

पृथ्वी द्वारा धारित पर्वतों में, पल्लव-प्रसवों में,

तरुओं में, पर्वत-शिखरों में और आत्म* में।४६।

 

विभक्त* : पृथक-भावों में; आतप* : प्रकाश; आत्म* : स्वयं

 

संध्या होने पर वे तपस्वी वसुधा को

पादुकामूलों* से मुक्त करते हुए खड़े होकर।

अञ्जलि में पावन अम्बु* ले क्रिया करते हैं, वे

         माननीय विधिसम्मत गूढ़ ब्रह्म*-मंत्र करते जप।४७।

 

पादुकामूल* : ऐड़ी; अम्बु* : जल; ब्रह्म* : गायत्री

 

उस कारण से संध्या विधि-नियमों हेतु प्रस्तुत कर

मुझको भी विश्वास में लेकर होना तुम सक्षम

हे मन्जु*-भाषिणी ! विनोद-निपुण* सखियाँ

तब विनोद करेंगी तुम संग।४८।

 

मन्जु* : वल्गु, मृदु; विनोद-निपुण* : मसखरी

 

तब वह शैलराज सुता पार्वती, पति-वचनों की

अवज्ञा परे कुटिलता* से होठों को चबाते हुए।

असहाय सी अपनी सखी विजया के समीप

जाकर वार्तालाप लगी करने।४९।

 

कुटिलता* : शरमा कर

 

ईश्वर ने भी उचित विधि द्वारा

सायंकाल मन्त्रों से संन्ध्या-अनुष्ठान किया।

और बिना बोले कुटिल* इच्छा से पार्वती समीप

पुनः आकर, स्मित* संग पुनः उवाच किया।५०।

 

कुटिल* : शरारत; स्मित* : मुस्कान

 

हे अनियमित*-कोपिनी पार्वती ! क्रोध त्याग दो, मैं तुम्हें

संध्या द्वारा प्रणाम करता हूँ, किसी अन्य प्रकार से नहीं।

क्या तुम मुझे चक्रवाक पक्षी सम प्रवृत्ति वाले तेरे संग

धर्म के साथ चलने वाला नहीं हो जानती ?।५१।

 

अनियमित* : अकारण

 

हे सुतनु* पार्वती ! पूर्व समय में स्वयंभू* द्वारा

कृश शरीर से निर्मित पितृ* तन करके प्राप्त।

प्रातः-सायं उसकी पूजा करते हैं, हे मानिनी,

      उस ब्रह्म द्वारा मेरा भी यहाँ संध्या में है गौरव।५२।

 

सुतनु* : सुगात्री; स्वयंभू* : चतुरानन, ब्रह्म; पितृ* : अग्नि, वायु, आदि

 

इस संध्या के अब तिमिर प्रवृत्ति से

पीड़ित भूमि की भुक्ता सम स्थिति है।

देखो, तट पर तमाल वृक्ष पक्तियाँ

        एकत्र हो नदी सम प्रतीत हो रही हैं।५३।

 

सांध्य समय सूर्यास्त होने पर शेष प्रकाश

पश्चिम दिशा में दिखता एक रक्त-रेखा सम।

जैसे कृपाण के इधर-उधर चलाने से

     हो जाती है युद्ध भूमि रक्त-वर्णित।५४।

 

हे दीर्घनयिनी पार्वती ! यामिनी* एवं दिवस के

संधि-समय अर्थात संध्या में सुमेरु पर्वत द्वारा।

सम्भव तेज* हटा लिया जाता, दिशाओं में अबाधित

    अंधकार से ऐसे तमस का आवरण विस्तृत हो जाता।५५।

 

यामिनी* : रात्रि; तेज* : प्रकाश

 

न ऊर्ध्व* दृष्टिप्रसार होता है, न नीचे भी,

न पार्श्व*, न मुखपृष्ठ* में और न पीछे ही।

यह लोक निशा में प्रचुर* तिमिर* आवृत होने से

       जैसे गर्भ में निवासित हो, ऐसे हो रहा प्रतीत ही।५६।

 

ऊर्ध्व* : ऊपर; पार्श्व* : बाजुओं में; मुखपृष्ठ* : सामने;

प्रचुर* : दीर्घ; तिमिर* : अंधकार

 

शुद्ध एवं आबिल* का, स्थावर एवं जंगम का

और कुटिल व आर्जव* का, जो गुण परस्पर जुड़े हैं।

तमस से सब ही समीकृत* हो जाते हैं, हट है जाता

      महत्त्व व असाधन अंतर, धिक्कारा जाता जिसे है ।५७।

 

आबिल* : मलिन; आर्जव* : सरल; समीकृत* ; एकरूप

 

अब यज्वानों* के प्रिय शर्व* का तमस

तो निषिद्ध होने हेतु ही होता है उदित।

हे पुण्डरीकमुखी*! देखो पूर्व दिशा भाग में,

   कैतक* वृक्ष पराग-आवृत हो रहे हैं प्रतीत।५८।

 

यज्वान* : पवित्र विधि वाला; शर्व* : हर; 

पुण्डरीकमुखी* : कमलमुखी; कैतक* : देवदारु

 

मंदर पर्वत पृष्ठ दूर छिपा गोल शशभृत*

सितारों संग निशा में पीछे से वचन सुनेगा।

और मेरे द्वारा प्रिय सखियों से समागत*,

तुम पार्वती को निहारेगा।५९।

 

शशभृत* : चन्द्र; समागत* : घिरी

 

पूर्व दिशा में दिवस क्षय पर सायं में पूर्व-दृष्ट

तनु चन्द्रिका की स्मित* है बाह्य-निर्गमन।

यथा चन्द्रवृत्त के मृदु गूढ़ का रहस्य-ज्ञान सायं को ही होता,

       तथैव रात्रि होने पर सखी* के ये मर्म मम हेतु होते उद्गिरत*।६०।

 

स्मित* : मुस्कान; सखी* : उमा; उद्गिरत* : प्रकाशित

 

पक्व फलिनी* और फलों की शोभा से जल-

सरोवर में अति-दूरस्थ नभ में हिमांशु* द्वारा।

प्रतिबिम्ब चिन्हित करके चक्रवाक-मिथुन*

परस्पर स्पर्धा है करता।६१।

 

फलिनी* : फली; हिमांशु* : चन्द्र; मिथुन* : जोड़ा

 

ओषधिपति* के कर* तेरे

कर्णवतंस*-रचना करने में सक्षम।

अकठोर* यवांकुर* तेरे नखों के

      अग्र-भागों* को सजाने में निपुण।६२।

 

ओषधिपति* : इंदु, चन्द्र; कर* : हाथ; कर्णवतंस* :आभूषण;

अकठोर* : कोमल; यवांकुर* : जौ नव-पादप; नख-अग्र* : उँगलियाँ

 

उँगलियों द्वारा ही शशि केश संचयन हेतु

मरीचियों* द्वारा तिमिर को ग्रहण करके।

सरोजलोचन* की कली बनाकर

      वदन को चूमता है रजनी* के।६३।

 

मरीचि : रश्मि, किरण; सरोजलोचन* : कमलनयन; रजनी* : यामिनी, रात्रि

 

हे पार्वती ! नव-इंदु रश्मियों द्वारा नभ-तल में

तिमिर* को आंशिक रूप से हटता देखो।

द्विरद* क्रीड़ा से कलुषित मानस-

      सरोवर जल को शांत होते ही देखो।६४।

 

तिमिर* : तम; द्विरद* : गज

 

उदय समय के रक्तिम* भाव को त्याग

चन्द्रमा शीघ्रता से परिशुद्ध* मंडल* हो जाता है।

निश्चित ही निर्मल प्रकृति वालों में काल के दोष के कारण

जो विकार पैदा होते हैं, वे चिर-स्थायी नहीं रहते।६५।

 

रक्तिम* : लालिमा; परिशुद्ध* : शुभ्र; मंडल* : गोल, वृत्त

 

हिमालय के उन्नत शिखरों में शशि* प्रभा स्थित है

निम्न स्तर संश्रयों* में निशा का तम ही दर्शित है।

वेधस* के गुण-दोष प्रकल्पना* निश्चित ही

    आत्म-सदृश की प्रवृत्ति* के अनुसार है।६६।

 

शशि* : चन्द्र; संश्रय* : स्थल; वेधस* : वीर; प्रकल्पना* : बखान; प्रवृत्ति* : गति

 

इंदु द्वारा जनित किरण-विसरण* से

गिरि में जल-बिंदु चन्द्र जैसे ही कांत* लगते।

तरु-अंचल में निद्रित मयूर, चटका* आदि

    असमय ही वर्षा-भय से जाग जाते हैं।६७।

 

विसरण* : प्रसार; कांत* : प्रिय; चटका* : चिड़ियाँ

 

हे अविकल्प* सुंदरी ! अमृतांशु*

अब कल्पतरु शिखाओं में प्रस्फुर* है।

कुतूहलवश वृक्ष-लम्बित* मोती-मालाओं की

परिगणना हेतु उसकी किरणें उद्यत हैं।६८।

 

अविकल्प* : अविवादित; अमृतांशु* : शशि; प्रस्फुर* : चमक; लम्बित* : लटकते

 

इस गिरि के उन्नत-अवनत* भागों में

तिमिर सहित चन्द्रिका भक्ति-भाव से।

मत्त हस्तियों सम बहु-विधानों से

 करती सम्पदा न्यौछावर है।६९।

 

उन्नत-अवनत* : ऊँचे-नीचे

 

इस चन्द्र की नूतन निर्मल पीत किरणों से कुमुदों में

भृंग* प्रवर्तित* भाव से नाद करते हैं यकायक।

गुनगुनाते हैं, जैसे ननिहाल में रहने वाला

       अक्षम बालक ले लेता, वहाँ का प्रभार।७०।

 

भृंग* : भ्रमर; प्रवर्तित* : मुक्त

 

हे अत्यंत-कोपिनी चण्डी* ! मात्र मरुत* चलने से

कल्पतरु की लटकती शाखा, पल्लव आदि।

अंशुक सम प्रकट होते, शुद्ध ज्योत्सना* द्वारा

      जैसे जनित रूप का होता है संशय ही।७१।

 

चण्डी* : पार्वती; मरुत* : पवन; ज्योत्सना* : प्रभा

 

शशिप्रभा*-लव* शाखाओं के नीचे

पतित हैं जर्जर पेशल* पुष्प-पत्र।

तेरी उँगलियों द्वारा उदधृत* केश*-

   बद्ध सम भ्रम से होते हैं प्रतीत। ७२।

 

शशिप्रभा* : चन्द्रिका; लव* : टुकड़े; पेशल* : कोमल;

उदधृत* : पकड़े गए

 

 हे चारुमुखी* पार्वती ! जैसे स्फुरित* शशि-मण्डल

योग-तारे संग शीघ्रता से वैसे ही जुड़ जाता है।

जैसे वर नवदीक्षा द्वारा भय से काँपती हुई

कन्या संग शीघ्रता से चला जाता है।७३।

 

चारुमुखी* : उज्ज्वल-आनिनी; स्फुरित* : कम्पित

 

हे चन्द्रबिम्बर्निहिताक्षि*! चन्द्रिका प्रतिबिम्ब द्वारा

प्रदीप्त यह निर्मल-विकसित-गोरा शरकंड*।

 हो रहा है तुम्हारे उभरे गण्डों पर

दो रेखाओं सम उल्लासित।७४।

 

चन्द्रबिम्बर्निहिताक्षि* : पार्वती; शरकंड* : सरकंडा; गण्ड* : गाल

 

लोहित* अर्कमणि* स्फटिक पात्र में अर्पित

कल्पतरु कुसुम-मद्य से अधिदेवता गन्धमादन के।

स्वयं ही विभ्रम होते हैं, जैसे तुम्हारी

उपस्थिति* स्थितिमती* यह है।७५।

 

लोहित* : लाल; अर्कमणि* : सूर्यकान्त; उपस्थिति* : प्राप्त; स्थितिमती* : अवस्था

 

हे विलासिनी पार्वती ! यहाँ तेरे इस

आर्द्र-केसर सुगन्धित मुख व रक्त जैसे।

नयनों के मधु को प्राप्त करके कौन

विशेष गुणों को न देखे ?।७६।

 

अथवा सखीजन भक्ति स्वीकार कर,

इस अनंग दीपक की सेवा में तत्पर।

ऐसा उदार वक्तव्य कर शंकर ने

      अम्बिका* के रूप-मद्य का किया पान।७७।

 

अम्बिका* : पार्वती

 

उस मधु-पान द्वारा उत्पन्न* विकार में भी

पार्वती साधुओं की है चित्तचमत्कारिणी*।

विधि* योगवश अचिन्तनीय* व

       अति-सौरभत्व* को प्राप्त आम्र-भाँति।७८।

 

उत्पन्न* : सम्भव; चित्तचमत्कारिणी* : मनोहरी; विधि* : दैव;

अचिन्तनीय* : अवर्णनीय; सौरभत्व* : सुरीलेपन

 

तत्क्षण वह सुवदना* लज्जा निवृत कर

प्रवृद्ध अनुराग से शयन सुख को हो गई प्राप्त।

     और दोनों शूली* की कामाग्नि के अधीनकृत।७९।

 

सुवदना* : पार्वती; शूली* : शंकर

 

भ्रमित नयन और स्खलित* वचन से

स्वेद* युक्त अकारण मुस्कुराते मुख द्वारा।

ईश्वर तब तक तृष्णा से चिरकाल उमा के

 मुख को मदपार* वश चूमता रहता था।८०।

 

स्खलित* : लड़खड़ाते; चक्षु* : तृष्णा; मदपार* ; वासना

 

हर उस पार्वती को तपते हुए कटिसूत्र* में असहनीय 

त्वरित जंघाभार से संकल्पमात्र सिद्धि द्वारा।

सम्पूर्ण मणिशिला वाले गृह में

      भोगसाधन हेतु प्रवेश है कराता।८१।

 

कटिसूत्र* : मेखला

 

वहाँ मणिभवन में सर्दी में वह शंकर प्रिया संग

हंस सम धवल* चादर ओढ़कर शयन करता है।

जैसे रोहिणीपति* जाह्नवी* के रेतीले तीरों के चारु-

     दर्शनार्थ शर्मीले मेघ द्वारा आच्छादित हो जाता है।८२।

 

रोहिणीपति* : चन्द्र; धवल* : शुभ्र; जाह्नवी* : गंगा

 

हर द्वारा निर्दयता से केश कर्षण* से क्लिष्ट

भाल-चन्द्र क्रोध में हो सुधबुध खो है देता ।

उसके अर्पित नख आसानी से मेखला-बंधन देते हटा

   अतैव पार्वती-रत हुआ वह शंकर, अतृप्त ही रहता।८३।

 

कर्षण* : खींचना

 

केवल प्रियतमा की दया से ही

उस ईश्वर की सुरत-क्रिया थी अनवरत।

उसके कसे स्तनों को पकड़ ईश्वर ने नक्षत्रों को पंक्तियों में

         एक ओर पीछे झुका दिया, नेत्र-कुतूहल* से हुए जाते हैं बंद।८४।

 

नेत्र-कुतूहल* : निद्रा

 

वह उचित स्त्रोत में विद्वान शंकर

कनकपद्म सरोवरों की भाँति प्रसन्न।

प्रभात समय में किन्नरों द्वारा गाए जाने वाले

     मंगल प्रेम रागों द्वारा मूर्च्छा से होता जागृत ।८५।

 

 तभी पद्म पहचान में निपुण मारुत गन्धमादन

वन के अंत में मानस सरोवर द्वारा रचित।

उर्मि रूप में आलिंगन में शिथिलित उस

         दम्पत्ति के सम्मान हेतु हैं उत्थित।८६।

 

तत्क्षण मारुत-झोंकें समय आकृष्ट-नयन

वह हर पद-पंक्ति की उँगलियों द्वारा।

प्रियतमा की उरुमूल* को संयम करके

       ढाँप देता है प्रशिथिल*-वस्त्रों द्वारा।८७।

 

उरुमूल* : जांघ; प्रशिथिल* : ढीले, खुले

 

अधरों के कहीं भी गाढ़-दंत से क्षत एवं

अलकों* में जागती रहती आकुल रक्त-नेत्र व।

विभिन्न तिलक* बने प्रिया पार्वती का मुख देख

       उतावला एवं मदहोश हो जाता है वह हर।८८।

 

अलक* : केश; आकुल रक्त-नेत्र* : कषाय-लोचन; तिलक* : चिन्ह

 

निर्मल प्रभात होने पर भी चरण के लाक्षारस से

लाँछित* ओढ़े गए उत्तरच्छद* के मध्य शयन में।

एकत्रित अस्त-व्यस्त मेखला-सूत्र के बावजूद, उस

     हर द्वारा निर्लज्जता से पार्वती को न विराम है।८९।

 

लाँछित* ; चिन्हित; उत्तरच्छद* : चादर, प्रच्छदपटी

 

पार्वती-सखी विजया द्वारा सेवा-इच्छा निवेदन पर भी

दिवस-निशा प्रिया के मुख का मदिरापान करता।

और अतिशय सुख वृद्धि कारण से प्रियतमा प्रेम में

   अदृश्य सा हुआ, वह हर दर्शन नहीं है देता।९०।

 

दिवस-निशा में समान रूप से शम्भु ने, पार्वती संग

वहाँ परस्पर शत* ऋतुऐं अर्थात बिता२५ वर्ष।

समुद्र-अंतः धधकती ज्वाला से जल-प्रवाह सम ही

     उसकी सुरत-सुख तृष्णा* न होती थी शांत।९१।

 

शत* (सौ); तृष्णा* : अभिलाषा

 

इति श्री कालिदास कृतौ कुमारसम्भवे महाकाव्ये 

उमासुरत वर्णनम् नाम अष्टमः सर्गस्य हिन्दी रूपांतर। 

 

 

कुमार-सम्भव मनोभावों का एक अति-रमणीय एकत्रण हैं। ऐसा लगता है कि महाकवि ने अपना सम्पूर्ण यहाँ झोंक दिया है। उनके प्रकृति-सौंदर्य एवं मानव-मन के अत्यंत महीन भाव बहुत ही शालीनता से प्रस्तुत होते हैं। कहीं ऐसा नहीं लगता है कि विरोधाभास है। देवों की मानस-स्थिति मानव सम ही है,  बशर्ते मानव उर्ध्व-प्रयास करें और निम्नता की दलदल में न फँसे। कुमार-सम्भव की परियोजना ९ अगस्त, २०१५ को प्रारम्भ होकर ३१ दिसम्बर, २०१५ को पूर्ण हुई। इसमें कुल ६१३ श्लोक हैं और उमा-उत्पत्ति से उमा-सुरतवर्णन तक ८ सर्ग हैं। उमा व महेश के अतिरिक्त अन्य विभिन्न चरित्रों जैसे हिमवत, मेना, ब्रह्म, इंद्र, कामदेव, रति, सप्तर्षि, आदि की मनो-स्थिति व कार्यशैली का बहुत सुंदर वर्णन हैं। इसके अध्ययन से निश्चित ही पाठकगण अपने सौंदर्य-भाव में वर्धन कर पाऐंगे, ऐसा मेरा मानना है। मैंने रूपांतरण का प्रयास किया है, गुणवत्ता का निर्णय पाठक के हाथ में है। 

धन्यवाद।

  

पवन कुमार,

३१ दिसम्बर, २०१५ समय २३:४४ म० रात्रि

(रचना काल - १८ नवम्बर से ३१ दिसंबर, २०१५)