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Saturday 12 December 2015

कुमार सम्भव : उमा परिणयो

कुमार सम्भव 
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सप्तम सर्ग : उमा परिणयो 
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औषधिपति* के वृद्धि* पक्ष में जामित्र* के

सप्तम ग्रह के सुगुणों की सत्यता गणना करके।

विवाह-तिथि निश्चय पश्चात् बन्धुओं संग सुता

       संबंध-दीक्षा पूर्व विधियाँ पालन की हिमवत ने।१।  

 

औषधिपति* : चन्द्र; वृद्धि* : शुक्ल; जामित्र* : ज्योतिष-चक्र 

 

विवाह-अनुष्ठान* हेतु योग्य कौतुक में

 अनुराग से पुरन्ध्री* वर्ग व्यग्र था हर निवास में । 

और हिमवत का बाह्य पुर और अन्तःपुर* 

 प्रतीत हो रहा था एक कुल के रूप में।२।

 

अनुष्ठान* : संविधान; पुरन्ध्री* : गृहिणी ; पुर* : नगर 

 

महापथ सन्तानक* पुष्पों से छितरित, 

चीनांशुक निर्मित उसकी मालाऐं-ध्वज। 

  काञ्चन* तोरण* प्रभा से हो रहा उज्ज्वलित 

     ऐसे आभासित जैसे स्वर्ग-स्थानान्तरित कृत।३।

 

सन्तानक* : कल्प-तरु; काञ्चन* : सुवर्ण; तोरण* : द्वार

 

यद्यपि उनके अनेक पुत्र थे, मात्र उमा ही

सत्य थी जैसे कोई मृत्यु से जीवित हो खड़ा,

जैसे एक चिरकाल बाद दे दिखाई।

  अपने अभिभावकों की विशेष प्राणभूत*

     बन गई, अब पाणिग्रह करने जा रही थी।४।

 

 प्राणभूत* : स्नेहपात्र

 

मण्डन-उद्घोषणा के संग ही वह आशीर्वादित

इस अंक* से अन्य जाने लगी, मण्डन* से आनन्दित।

यद्यपि गिरि-कुल के विभिन्न संबंधियों का

स्नेह मात्र भी उसमें ही था केंद्रित।५।

 

अंक* : गोद; मण्डन* : आभूषण

 

इसके बाद सूर्योदय पश्चात मैत्र* मुहूर्त में शशि जब

योग में चला जाता है उत्तर फल्गुनी नक्षत्र संग।

बन्धु-पत्नियाँ अपने पति एवं पुत्रों सहित

उसके शरीर पर लगाती हैं प्रसाधन।६।

 

मैत्र* :मित्र देवता

 

गौरी-वस्त्र तेल से भीग जाते और सुंदरता उसकी

सफेद सरसों-बीज व दूब घास-तृण से और भी बढ़ जाती।

नाभि ऊपर ही कपड़ा पहना जाता व हाथ में एक बाण उठाती,

उसकी अंग-रमणीयता से वस्त्र-सुंदरता और बढ़ जाती।७।

 

और वह बाला विवाह पूर्व दीक्षा विधि पर

बाण-सम्पर्क में आ ऐसे प्रकाशमान हो थी रही।

मानो कृष्ण-पक्ष पश्चात ज्वलित सूर्य किरणों से

प्रेरित शशांक रेखा है चमकती।८।

 

नारियाँ अंग-तेल को सुगन्धित लोध्र चूर्ण से उतार

उसके अंग केसर चूर्ण से मसल, कुछ पोंछने पश्चात।

और उसे अभिषेक* योग्य वस्त्र पहनाकर, ले जाती 

स्नान हेतु चतुर्स्तम्भ-गृह के स्नानागार।९।

 

अभिषेक* : स्नान

 

इसके शिलातल* वैदूर्य* जड़े हुए और जड़ी

मोतियों की अलंकारिक पंक्तियों से हैं बहुरंगी।

इसमें रखे अष्टधातु-कलश जल से वे पार्वती को,

   जब मधुर तूर्य-संगीत बज रहा, स्नान कराती।१०।

 

शिलातल* : फर्श; वैदूर्य* : नीलमणि

 

मंगल-स्नान से विशुद्धगात्री और वर समीप जाने

योग्य वस्त्र पहने, वह वसुधा भाँति थी कान्तिमान।

जिसने अभिषेक किया है वर्षा जल से

      और प्रफुल्ल काश पुष्प किए हैं धारण।११।

 

और उस स्थान से पतिव्रता स्त्रियों द्वारा वह

अंक में भरकर लाई गई विवाह-वेदी मध्य।

जो चतुष्कोणीय मण्डप था और जिसमें

बनाया गया था एक आसन।१२।

 

उस तन्वी* को पूर्व ओर मुख कराके

 बैठाकर, वे नारियाँ उसके सम्मुख बैठ गई।

उसकी यथाभूत* शोभा द्वारा उनके नेत्र-आकर्षित होने से कुछ

    विलम्ब हो गया, यद्यपि प्रसाधन-सामग्री संग ही थी रखी।१३।

 

यथाभूत* : वास्तविक; तन्वी* : पार्वती

 

सुगंधित-धूम्र से आर्द्र केश सुखा एक प्रसाधिका ने

उसके केशों के अंत में बनाया एक जूड़ा सुंदर।

लगाई जिसके मध्य दूर्वा घास में पीत मधूक

      पुष्प-माला, जिससे बन सके एक रम्य बन्ध।१४।

 

उन्होंने लगाया उसकी देह पर शुक्ल-अगरु लेप

और इस पर गोरचना* से बनाए अलंकृत चित्र।

अतएव वह त्रि-स्रोत गंगा-कान्ति को भी मात दे रही थी,

      जिसके रेत-तीरों पर चक्रवाक पक्षियों के चिन्ह हैं अंकित।१५।

 

गोरचना* : पीत वर्ण

 

पद्म में तल्लीन द्विरेफ* अथवा चन्द्र को ढाँपती

मेघ लेखा से भी बढ़कर अलका सजे उसके श्रीमुख ने।

उसकी सुंदरता समकक्षता की बात तो छोड़ ही दो,

तुलना हेतु भी कोई अवसर न छोड़ा।१६।

 

  द्विरेफ* : भ्रमर

 

उसके कर्ण अर्पित* उत्कृष्ट-वर्ण यव* अंकुर,

लोध्र चूर्ण से रुक्ष व गोरचना से चित्रित;

उसके अत्यंत गोरे कपोलों पर लटक रहे

जो दर्शक-चक्षु कर लेते हैं बँधित।१७।

 

अर्पित* : पहनाए; यव* : जौ

 

सुशंस्लिष्ट* अवयवों वाली पार्वती के

 अधरोष्ट को एक मध्य-रेखा सम-विभक्त करती है,

 जो किंचित मधु-लेपन से अति-विशिष्ट वर्णी हो गए हैं।

और जो उनके स्पंदन से फलित निकट लावण्यता से

अति-शोभनीयता प्रदान कर रहे हैं।१८।

 

सुशंस्लिष्ट* : सुडौल, सममित

 

चरणों को लाक्षारस रंजित करने जब सखी

परिहास से कहती - अपने पति-शीर्ष की;

चन्द्र कला को यूँ मन में इससे स्पर्श करो,

       तो वह निर्वचन* उसे माला द्वारा पीट देती।१९।

 

निर्वचन* : बिना बोले

 

प्रसाधिकाऐं उसके नयन-निरीक्षण करती,

 कि वे सुजात उत्पल*-पत्रों सम हैं शोभित।

कृष्ण-अञ्जन उसके चक्षुओं में इसलिए न डालती कि

      इससे उसकी सुंदरता बढ़ेगी, अपितु कि है मांगलिक।२०।

 

उत्पल* : कमल

 

जब सुवर्ण आभरण उसको पहनाए जाने लगे, वह

लता से फूटते नाना-वर्णी कुसुम सम दमकने लगी।

जैसे रात्रि में नक्षत्र उदय होते हैं और जैसे एक नदी

      उसमें लीयमान* चक्रवाक विहंगों द्वारा है चमकती।२१।

 

लीयमान* : आश्रय लिए

 

निश्छल नेत्रों से अपनी देह की शोभा

देखकर, वह व्यग्र थी हर प्राप्ति को।

निश्चय ही स्त्रियाँ के वेशों का फल अपने

       पतियों द्वारा निहार लिया जाना है होता।२२।

 

तत्पश्चात माता ने स्वच्छ-आर्द्र हरीतिका* व लाल-संखिये का मिश्रण

तर्जनी उँगलियों में लेकर, मंगलार्थ उसका मुख उठाकर,

जिसके कर्णों से दो चमकती बालियाँ लटक रही थी,

किसी भाँति विवाह-दीक्षा हेतु उसके माथे तिलक लगाया।

दुहिता उमा-स्तनों के प्रवृद्ध उभार को माता मेना ने

प्रथम बार मन में अनुभव किया।२३, २४।

 

हरीतिका* : हल्दी

 

आनन्दामृत-आकुल अश्रुमयी दृष्टि लिए उसने

विवाह का ऊर्णामय* सूत्र उसके पाणि* में बाँधा।

जो भूल से कहीं अन्य स्थान पर रख दिया गया था, परन्तु

  धात्री* ने अपनी उँगलियों से उचित स्थान पर धकेला।२५।

 

 ऊर्णामय* : ऊनी; पाणि* : कर;  धात्री* : धाय

 

वह नव-रेशम के शुभ्र वस्त्र पहन एक नव

दर्पण हाथ में ले लग रही थी अतीव सुंदर।

जैसे क्षीर सागर का तट फेन-पुञ्ज से

या शरत रात्रि का चन्द्रमा पूर्ण।२६।

 

ऐसे अवसरों में दक्ष माता ने उस गौरी को कुल-प्रतिष्ठा

अवलंबन गृह-देवों को प्रणाम करके अर्चना हेतु कहा।

और उसी क्रम में पतिव्रता सतियों के

चरण स्पर्श करने को।२७।

 

उस नम्र* उमा को ऊपर उठाते उन सतियों ने

'पति का अखंडित प्रेम प्राप्त करो', कहा ऐसे।

उसके द्वारा उस शिव का अर्ध-शरीर साँझा करने

         पश्चात तो बंधुजन-आशीर्वाद भी छूट जाऐंगे पीछे।२८।

 

नम्र* : प्रणाम करती

 

अति-उत्सुक और विनीत कार्यों में दक्ष अद्रिनाथ

उस (पुत्री) हेतु शेष कार्य उचित रूप से कर निपटा।

साधुजन एवं बंधुजनों की  सभा में

       वृषांक* आगमन-प्रतीक्षा करने लगा।२९।

 

वृषांक* : अंक में वृष (बैल) जिसके अर्थात शिव

 

कुबेर-नगरी कैलाश में दैवी माताओं द्वारा

आदर सहित हर के पूर्व विवाह भाँति।

अनुरूप प्रसाधन सामग्री पुर-संहारक

     तब तक शिव समक्ष प्रस्तुत की गई।३०।

 

तब ईश्वर द्वारा माताओं* के आदर हेतु उन 

शुभ प्रसाधनसंपत को मात्र किया गया स्पर्श। 

उस विभु* का स्वाभाविक वेश तो भस्म-कपाल आदि

      ही हैं, यह रूपांतर तो मात्र वर -रूप में हेतु है सज्ज ।३१।

 

(*सात दैवी माताऐं : ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, माहेन्द्री,

वाराही एवं चामुण्डा); विभु* : शिव

 

भस्म ही उसकी वपु का शुभ्र-गंध अनुलेप,

कपाल ही उसका निर्मल शेखर* श्री*।

गज-चर्म ही उसके रेशमी दुकूल* हैं, जिसकी

      किनारियों पर हैं गोरचना-चित्र अंकित भी।३२।

 

शेखर* शीश; श्री : आभूषण; दुकूल* : वस्त्र

 

मस्तक-स्थित तृतीय नेत्र उसका जिसकी,

कनीनिका* एक तारक सम दमकती है।

उसके निकट ही एक तरफ हरिताल* से

तिलक करने हेतु स्थान निश्चित है।३३।

 

कनीनिका* : पुतली; हरिताल* : शंखिया, हल्दी

 

भुजंग-ईश्वर* का शरीर, आभरणों से मात्र

उपयुक्त स्थलों पर किया गया रूपांतर।

उनके फणों की रत्न-शोभा तो

      वैसे ही है, जैसे ही थी पूर्ववत।३४।

 

भुजंग-ईश्वर* : शिव

 

हर-चूड़ पर मणि रखने का क्या उपयोग

जिसकी मौलि अभिन्न है, नित्य चन्द्र से।

जिसकी मरीचि* दिवस में भी चमकती है, जो मात्र बाल

होने के कारण भी प्रतीतमान न एक लाँछन* रूप में।३५।

 

मरीचि* : काँति; बाल : अल्प, तनु; लाँछन* : अदृश्यमान कलंक

 

जो सामर्थ्य से नेपथ्य में विधि से

इन विचित्र प्रभवों* का है विधाता।

उसने समीप खड़े गण द्वारा लाई गई एक खड्ग में

    वीर पुरुष भाँति अपना संक्रान्त प्रतिबिम्ब देखा।३६।

 

प्रभव* : प्रसिद्ध वेश

 

व्याघ-चर्म पहने नन्दी-भुजा का अवलम्बन लेकर

कैलाश ओर देखते हुए देव हुआ उसकी पृष्ठ-आरूढ़।

उस गोपति* ने भी भक्ति सहित निज विशाल

 पृष्ठ को संक्षिप्त संकुचा कर किया प्रस्थान।३७।

 

गोपति* : वृषभ

 

उस देव का अनुसरण करते हुए स्व-वाहनों के

 चलने से, रहे थे माताओं के कर्ण-कुण्डल क्षोभित* हो।

उन्होंने आकाश को पद्म-कालीन सा बना दिया, जिसकी

      चक्रित रेणु*-प्रभामंडल से गया था उनका मुख गोरा हो।३८।

 

क्षोभित* : आंदोलित; रेणु* : परागकण

 

उन कनक प्रभाव वालियों के पीछे महाकाली

सफेद कपाल-आभरण पहने ऐसे रही थी चमक।

जैसे नील पयोदरों* में सारस-पंक्ति, जो दूर से ही

अग्रदूत दामिनी सम रही थी दमक।३९।

 

पयोदर* : मेघ

 

तदुपरांत शूलभृत*-पुर के अग्रसर गणों द्वारा

मंगल वाद्य ध्वनि किया गया उदीरित*।

विमानों के शृंग* से आव्हान करते कि

यह सुरों हेतु है सेवा-अवसर।४०।

 

शूलभृत* : पिनाकी, शिव; उदीरित * :उद्घोषित; शृंग* : शिखरिखा

 

सहस्ररश्मि* ने उस हर हेतु

त्वष्ट्रा* द्वारा नव-आतपत्र* बनवाई एक।

उत्तम अंग में गंगा धारे रेशमी-वस्त्र छत्र से वह हर दूर से

    ऐसे प्रतीतित, मानो वह उसके मौलि पर रही हो गिर।४१।

 

सहस्ररश्मि* : सूर्य; त्वष्ट्रा* : विश्वकर्मा; आतपत्र* : छत्र, छतरी

 

गंगा-यमुना भी अपनी मूर्त में

चँवर लेकर देव-सेवा कर रहती थी।

मानो सागर-विलोम दिशा कारण रूप परिवर्तित

और वे हंस-उड़ान भाँति लक्षित हो रही थी।४२।

 

आदि देव विधाता व वक्षस्थल श्रीवत्स लिए

विष्णु साक्षात् आए उस महादेव के निकट।

और 'जय हो' कह इस ईश्वर की महिमा बढ़ायी

     जैसे यज्ञ में घृत-आहूति देने से हो अग्नि वर्धित।४३।

 

 वह एक ही मूर्ति है जो तीन ब्रह्म, विष्णु व महेश में

विभाजित है, यह प्रथम वरीयता-भाव सामान्य है।

कभी विष्णु हर से प्रथम, कभी हर विष्णु से, कभी ब्रह्म

               उन दोनों से और कभी वे सृष्टिजनक ब्रह्म से भी वरिष्ठ हैं।४४।        

 

उस नंदी ने शतपत्र*-योनि ब्रह्म को मूर्धा*

हिलाकर सम्मान दिया, हरि को वाणी द्वारा।

इंद्र को मंद-मुस्कान द्वारा और शेष सुरों को

      प्रधानता* अनुसार मात्र एक दृष्टिपात द्वारा।४५।

 

शतपत्र*: शतकमल; मूर्धा* : शीर्ष; प्रधानता* : वरिष्ठता

 

प्रथम सप्तर्षियों द्वारा उस हेतु मंगलकामना कही गई,

'तुम्हारी जय हो' और उसने मुस्कान संग कहा उनको।

इस विवाह-यज्ञ में जो यहाँ शुरू हो गया है, तुम पूर्वेव

 मेरे द्वारा कार्यवाहक पुरोहित रूप में नियुक्त हो।४६।

 

तामसिक विकारों से स्तुति अलंघ्य

ताराधिपखण्डधारी* एवं त्रिपुर-संहारक की।

 दैवी-वीणा प्रवीण गन्धर्व विश्वासु के नेतृत्व में

 गाते हुए पथ के निकट से गुजरे तभी ही।४७।

 

ताराधिपखण्डधारी* : चंद्रशेखर, शिव

 

वह नंदी वृषभ प्रसन्नता से सुवर्ण लघु-घंटियाँ बजाते हुए

व अपने शृंग पुनः-२ हिलाते हुए, मेघों को चीरता हुआ।

आकाश-विचरण करता ऐसे प्रतीत हो रहा था, जैसे

       पर्वत-सीमा टकराने से वह पंक-आवृत कर है लिया।४८।

 

नगेन्द्र* द्वारा रक्षित नगर में, जिसने अभी तक शत्रु-आक्रमण

अनुभव नहीं किया था, वह नंदी मुहूर्त भर में ही पहुँच गया।

 औषधिपुरम पर हर की तृतीय नेत्र दृष्टि इस प्रकार पड़ी

मानो आगे सुवर्ण सूत्र खिंचे रहे हैं जा।४९।

 

नगेन्द्र* : हिमालय

 

घननील* सम कण्ठ वाला,

स्व-बाण चिन्हित मार्ग से उतरते हुआ।

पुर निवासियों द्वारा उन्मुख दृष्टि से कुतूहलता से

        देखा जा रहा वह देव, भूमि सतह पर आसन्न हुआ।५०।

 

घननील* : नीला मेघ

उस शिव-आगमन से हृष्ट* गिरि चक्रवर्ती*

ऋद्धिमान*-बंधुजनों संग गज पर हो आरूढ़।

स्त्री-नितम्ब सम विकसित कुसुम वाले प्रफुल्ल

      वृक्ष-आच्छादित मार्ग से गया हर के स्वागत ।५१।

 

हृष्ट* : प्रसन्न; चक्रवर्ती* : हिमवान; ऋद्धिमान* : समृद्ध

 

दूर से पहुँचने की हड़बड़ी में देव एवं

हिमवानों के दो वर्ग पुर द्वार पर मिले।

जैसे दूरगामी घोष* वाली दो भिन्न धाराऐं

एक ही सेतु से निकलती हैं।५२।

 

घोष* : शोरगुल

 

त्रिलोक द्वारा वन्दनीय हर द्वारा प्रणाम

किए जाने पर, भूमिधर* संकोच से गया लजा

क्योंकि न जानता था कि उस हर की महिमा से

उसका सिर पूर्व से हुआ है बहुत झुका।५३।

 

भूमिधर* : हिमवान

 

प्रीति सहित चमकते श्रीमुख वाले

हिमवान ने जामाता का पथ किया नेतृत्व।

और उसे समृद्ध मंदिर* में प्रवेश कराया

        जानुओं* तक पुष्प छितरित थे जिसके आपण*।५४।

 

मंदिर* : नगर; आपण* : बाज़ार; जानु* : घुटना

 

उसी मुहूर्त प्रासाद-पंक्तियों में पुर-सुंदरियाँ

लालसा से हेतु ईशान* के उत्तम सन्दर्शन*।

सभी कार्य-व्यापार छोड़कर

उधर ही हुई उन्मुख।५५।

 

ईशान* : शिव;  सन्दर्शन* : झलक

 

 गवाक्ष* से दर्शन करने की शीघ्रता में

किसी एक रमणी ने खुले केशों को अपने।

बाँधने को बिल्कुल भी नहीं सोचा, जो

माला* से खुले थे और लटक रहे।५६।

 

गवाक्ष* : खिड़की; माला* : जूड़े

 

किसी स्त्री ने प्रसाधिका द्वारा पकड़े

आर्द्र-अलक्तक लगे अग्र पाँव को खींच लिया।

और गति* सुंदरता त्याग जालीदार खिड़की तक

   अपने पदों द्वारा लाक्षारस-चिह्न दिए बना।५७।

 

गति* : कदम

 

एक अन्य नारी ने दक्षिण* लोचन में अञ्जन

लगाकर वाम* नेत्र इसके बिना दिया त्याग

तभी हाथ में श्लाका* पकड़े वह अति-

शीघ्रता से वातायन* के गई पास।५८।

 

दक्षिण* : दायीं; वाम* : बायीं; श्लाका* : कूची; वातायन* : खिड़की

 

एक अन्य वनिता जालांतर* में दृष्टि-पात हेतु जल्दी में

वस्त्र-ग्रंथि* बाँधना भूल गई; किन्तु खड़ी होकर।

अंतर्वस्त्र हाथ में पकड़े रही, जिसके चमकते

सुवर्ण आभरण* नाभि में रहे थे घुस।५९।

 

जालांतर* : खिड़की; वस्त्र-ग्रंथि* : नींवी, नाड़ा; आभरण* : कंगन, आदि

 

एक अन्य नारी जो अति-तत्परता से उठी,

अपने अर्द्ध-गुँथे* मेखला-बंद से भ्रमित हर पग पर।

पिरोए मणियें* नीचे गिर रहे थे; बाद में उसका सूत्र ही

शेष रह गया जो बंधा हुआ था अंगुष्ठ-पद।६०।

 

अर्द्ध-गुँथे* : बाँधे; मणियें*: रत्न

 

अति कुतूहलमयी अन्तर तक मद्य-गंध व्यापित

व भ्रमर सम-विचलित* अक्षी वाली वनिताओं से।

गवाक्ष-जालियाँ भरी हुई थीं, ऐसे दिख रही मानो

वे कमलपत्र आभरण से सुसज्जित हैं।६१।

 

सम-विचलित* : मचलती

 

तभी उस अवसर इंदुमौलि* ने ध्वज* आकुल*

उच्च सुसज्जित तोरण राजपथ में आगमन किया।

इससे प्रासाद-शिखर दिवस में भी द्विभान्ति कांतिमान थे

       क्योंकि उन्होंने शशि-ज्योत्सना से भी अभिषेक* था किया।६२।

 

इंदुमौलि* : शिव; ध्वज* : पताका; आकुल* : परिपूरित; अभिषेक* : स्नान

 

ईश्वर पर दृष्टिपात कर नारियों के नयन अति-तृष्णा से

देख रहे थे, विचार-अक्षम थी किसी भी अन्य विषय*।

इन शेष इन्द्रियों के वृत्ति रस सम्पूर्णतया

     अतएव चक्षुओं में ही गए थे प्रवेश कर।६३।

 

विषय* : इन्द्रि

 

पेलव* होते हुए भी अपर्णा ने उसके

 हेतु दुष्कर तप करके उचित ही किया।

वह नारी धन्य, जिसे मिले उसकी सेवा*-सौभाग्य, फिर

उसकी तो क्या कहे, जो पा सके उसकी अंक-शय्या।६४।

 

पेलव* : कोमल; सेवा* : दासी बनने का

 

यदि स्पृहणीय* मिथुन* का

यह परस्पर मिलन न होता।

तो प्रजापति ब्रह्म द्वारा दोनों का यह

    रूप-विधान* यत्न विफल हो जाता।६५।

 

स्पृहणीय* : ईर्ष्य; मिथुन* : जोड़ी; रूप-विधान* : सौंदर्य-निर्माण

 

निश्चित ही कुसुमायुध* देह हर द्वारा न हुई दग्ध

इस देव को देख क्रोध आरूढ़ हो गया था उसपर।

मैं सोचता हूँ कि यह लज्जा से था कि

  काम ने स्वयमेव की थी देह त्यक्त।६६।

 

कुसुमायुध* : काम

 

हे सखी*! सौभाग्य से मनोरथ-प्रार्थित

ईश्वर संग इस संबंध को करके लब्ध।

पूर्व से ही क्षिति*-धारण से उन्नत मस्तक

   हिमालय-मूर्ध्ना* हो जाएगा उन्नततर।६७।

 

सखी* : आलि; क्षिति* : पृथ्वी; मूर्ध्ना* : शीर्ष

 

अतएव ओषधिपुरम-विलासिनियों* की मधुर कथा

कर्णों से सुनते त्रिनेत्र ने हिम-आवास किया आगमन।

जहाँ मुष्टियों द्वारा फेंकी गई लाजा*

     भुजबंदों द्वारा हो रही थी चूर्णित।६८।

 

विलासिनी* : स्त्री; लाजा* : उबाले सूखे चावल, खील

 

वहाँ अच्युत* द्वारा दत्त हस्त-अवलम्बन से वह वृषभ* से

अतएव उतरा, मानो शरत-घन* से निकला दीधितिमान*।

उसने हिमालय के अंतः प्रासाद में प्रवेश किया

जहाँ पूर्व से ही कमलासन* थे विद्यमान।६९।

 

अच्युत* : विष्णु; वृषभ* : नंदी; घन* : मेघ; दीधितिमान* : सूर्य; कमलासन* :ब्रह्म

 

और अनन्तर इंद्र-प्रमुखता में देव, परमर्षि

सनकादिक व उनसे पूर्व सप्तर्षि, शिव-गण।

गिरिराज आलय में पधारे, जैसे उत्तम अर्थ*

प्रशस्त* आरम्भ का करते हैं अनुसरण।७०।

 

अर्थ* : प्रयोजन; प्रशस्त* : प्रकृष्ट, अमोघ

 

तदुपरांत ईश्वर ने वहाँ आसन ग्रहण कर

पूजा-भेंट स्वीकृत की नगपति द्वारा सब।

रत्न-मधु-मधुपर्क-गव्य* व दो नव-वस्त्रों की,

 पवित्र मंत्र किए जा रहे थे उद्गीत जब।७१।

 

गव्य* : मक्खन-दधि

 

रेशमी-वस्त्रों में वह हर महल के विनीत-दक्ष

कंचुकों* द्वारा, वधू समीप अतएव गया लाया।

ज्वार समीपता में नव-चंद्रिकाओं द्वारा सागर का

 श्वेत* फेन व जल जैसे तट पर लाया है जाता।७२।

 

कंचुक* : रक्षक; श्वेत* : स्फुट

 

शरत-ऋतु की चन्द्र-कान्ति सम

लोक के प्रवृद्ध* आनन* कुमारी पार्वती के उस।

प्रफुल्लित कमलनयनों के अद्भुत सृजन देखकर

शिव-चित्त भी मृदु सलिल सम हुआ प्रसन्न।७३।

 

प्रवृद्ध* : अति-वर्धित; आनन* : मुख

 

उन दोनों वर-वधू के कातर* नयन यदि

किसी व्यवस्था* से कुछ क्षण हेतु जाते मिल।

तो तत्क्षण लज्जा* भाव से वापस खींच लिए जाते,

परस्पर लोचन मिलाने को हैं अति-उत्सुक ।७४।

 

कातर* : अधीर; व्यवस्था* : भाँति; लज्जा* : संकोच

 

शैलपति गुरु द्वारा पकड़ाने पर अष्टमूर्ति शिव ने उस

पार्वती के ताम्र* उँगलियों वाला पाणि*-ग्रहण किया।

जैसे कि यह स्मर* का प्रथम अंकुर था, जो भयात

गूढ़* रूप से उमा-तन में था छिपा हुआ।७५।

 

ताम्र* : लाल; स्मर* : काम; गूढ़* : गुप्त; पाणि* : हस्त

 

उन दोनों के हाथ मिलने पर उमा की

देह के रोम उद्गम से खड़े हो गए जबकि।

पुंगवकेतु* की उँगलियाँ स्वेद से तर-बतर हो गई,

       मनोभव* वृत्ति दोनों में समान रूप से विभक्त थी।७६।

 

पुंगवकेतु* : शिव; मनोभव* काम

 

जब पाणिग्रहण* समय इन उमा-महेश के सान्निध्य से

अन्य सामान्य वधू-वर की शोभा जाती है अत्यंत बढ़।

तो उन उमा-महेश्वर मिथुन* विवाह में बढ़ी श्री की

 क्या कहें, जब परस्पर सम्पर्क में लाए गए स्वयं।७७।

 

पाणिग्रहण* : विवाह; मिथुन* : युग्म; श्री : कान्ति

 

कृश होती उन्नत-ज्वाला* की प्रदक्षिणा करता यह युग्म

जो अब एक गत था, वर्तमान में ऐसे हुआ कांतिमान।

जैसे मेरु-पर्वत परिसर की परिक्रमा करते दिवस-रात्रि

 चमकते हैं परस्पर गूढ़-मिलन के बाद।७८।

 

उन्नत-ज्वाला* : प्रज्वलित अग्नि

 

अन्योन्य* सम्पर्क रोमांच से नेत्र मींचे उस दम्पति को,

पुरोधा* ने विवाह हेतु अग्नि-गिर्द तीन फेरे लगवाने पश्चात।

वधू से उस दीप्त अर्चि* में लाजों की

समिधा-आहूति करवाई विसर्ज।७९।

 

अन्योन्य* : परस्पर; पुरोधा* : पुरोहित; अर्चि* : अग्नि

 

उस वधू ने गुरु उपदेश से इष्ट* गन्ध-तर्पण हेतु

लाजा-धूम्र अञ्जलि में लेने हेतु मुख को झुकाया।

वह धूम्र उसके कपोलों को छूकर एक मुहूर्त हेतु

सर्पिणी शिखा कर्णोत्प्ल सा था लग रहा।८०।

 

इष्ट* : शुभ    

 

इस धूम्र ग्रहण करने की धार्मिक प्रथा से व

काले-अञ्जन उच्छ्वास* से और नयन प्रवेश से।

वधू मुख व गण्ड* गड्डे किञ्चित आर्द्र-अरुण* हुए

और कर्णों के यवांकुर आभूषण मुरझा गए।८१।

 

उच्छ्वास* : सूंघने; गण्ड * : कपोल; अरुण* : लाल

 

द्विज ने कहा -प्रिय वत्सा! तुम्हारे

विवाह-कर्म की साक्षी है वह्नि* यह।

अपने विचार तक त्याग भर्ता* शिव

संग निर्वाह करो धर्म आचरण।८२।

 

वह्नि* : अग्नि; भर्ता* : पति

 

भवानी द्वारा निज कर्ण आलोचनान्त* तक कर्षण

अर्थात सुने गए अति-ध्यान से गुरु के वे वचन ।

जैसे उष्ण* काल की उल्बण* तपित पृथ्वी 

महेन्द्र का करती है, प्रथम जल ग्रहण।८३।

 

आलोचनान्त* : नेत्रान्त; उष्ण* : ग्रीष्म; उल्बण* : अत्यधिक

 

प्रियदर्शन शाश्वत* पति द्वारा ध्रुव तारक

दर्शनार्थ आदेश से उठाते हुए सिर अपना।

कण्ठ में लज्जा कारण बड़ी कठिनता से

'देख लिया', ऐसा कहा।८४।

 

शाश्वत* : ध्रुव

 

इस प्रकार विधि-संस्कारों में निपुण

पुरोहित द्वारा यह पाणि-ग्रहण सम्पन्न हुआ।

प्रजाओं के दो अभिभावकों* ने पद्मासन-स्थित

पितामह* को झुककर नमन किया।८५।

 

अभिभावक* : उमा-महेश्वर; पितामह* : ब्रह्म

 

विधात्रा* ब्रह्म ने वधू का स्वागत करते हुए

आशी दिया, 'सौभाग्यवती भव, होवों वीरप्रसवा* !

वाचस्पति होते हुए भी वह सोच न सकें कि अष्टमूर्ति

शिव के विषय में आशीर्वाद दिया जाए क्या?।८६।

 

विधात्रा* : विधाता;  वीरप्रसवा* :वीर पुत्र माता

 

उस वर-वधू ने नमस्कार पश्चात क्लृप्त*

    पुष्प-सज्जित चतुष्कोणीय वेदी में प्रवेश कर।

कनक* आसन ग्रहण करके लौकिक व्यवहार एवं ऐषणीय

     आर्द्र अक्षत चावलों का रोपण मस्तक पर किया अनुभव।८७।

 

क्लृप्त* : विरचित; कनक* : सुवर्ण

 

लक्ष्मी ने आकृष्ट* मुक्ताफल* जाल उनके ऊपर पकड़ा, 

जो लग्न* जल-बिन्दुओं से शोभित आतपत्र* था।

जिसकी दीर्घ* नाल का ही छतरी-दण्ड

रूप में प्रयोग हो रहा था।८८।

 

आकृष्ट* : आहूत, निमंत्रित; मुक्ताफल* : मोती; लग्न* : जमे हुए; 

आतपत्र* : छतरी; दीर्घ* : लम्बी

 

सरस्वती ने उस मिथुन* की

द्विविधि प्रकार वाङ्गमय से प्रंशसा की।

वर की वरणीय संस्कार-पूत* वाणी से

    और सुबोध भाषा रचना से वधू की।८९।

 

मिथुन* : युग्म ; संस्कार-पूत* : परिष्कृत शुद्ध व्याकरण, शास्त्र-व्युतपत्य

 

उन दोनों ने एक मुहूर्त, एक नाटक का प्रथम खेल देखा, जिसमें

विभिन्न वृत्ति-भेद मुख्य भाग से ललित समन्वित किए गए थे।

विभिन्न भाव-भंगिमाओं के रस में सुविचार* राग-संगीत सहित,

 और जिसमें अप्सराओं के ललित अंग नृत्य में थिरक रहे थे।९०।

 

सुविचार* : प्रतिबद्ध

 

उसके अंत में भार्या से विवाह किए हर को देवताओं ने

अञ्जलि-बद्ध दण्डवत प्रणाम किया और याचना की।

पञ्चसर*-सेवा स्वीकृत हो, शाप-अवधि समाप्ति पर,

जिसने कि निज पूर्ण-मूर्त* प्राप्त कर ली थी।९१।

 

पञ्चसर* : कामदेव; मूर्त* : देह

 

भगवान जिसका क्रोध विगत* हो गया था, ने

उसके बाण निज पर भी चलाने की दे दी अनुमति।

जो व्यापार-नियम जानते हैं, उनके द्वारा अपने स्वामी* को

      कृत प्रार्थना उचित काल पर निश्चित ही सफलता है लाती।९२।

 

विगत* : समाप्त; स्वामी* : भर्ता

 

तदुपरांत इन्दुमौलि उन विबुद्धगणों* को देकर

 विदाई क्षितिधरपति* पुत्री का हस्त लेकर हेतु मंगल।

गया कनक कलश युक्त पुष्प-आभूषण आदि से सुसज्जित

कौतुक-गृह*, जहाँ भूमि पर बिछी हुई थी सेज एक।९३।

 

विबुद्धगण* : देवता; क्षितिधरपति* : हिमवान; कौतुक-गृह* : शयनागार


वहाँ ईश ने गौरी को गूढ़ रूप से हँसाया, 

अपने अनुचर प्रमथों के अनूठे मुख-विकारों की नकल करके,

नव-परिणय कारण लज्जा-आभूषण युक्त शालीन रही लग।

यद्यपि उसका वदन* हर ने अपनी ओर भी खींचा था, और उसने

   किञ्चित कठिनता से संग सोने वाली सखियों को दिया उत्तर।९४।

वदन* : मुख


इति कुमार सम्भवे महाकाव्ये उमा-परिणयो नाम

सप्तम सर्गस्य हिन्दी रूपान्तर।

 

पवन कुमार,

१२ नवम्बर, २०१५ समय १९:५९ सायं

(रचना काल : १६ अक्टूबर से ४ नवम्बर, २०१५)


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