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Wednesday 28 September 2022

मन विचलन

  मन विचलन 

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मन विचलन एक स्वाभाविक प्रक्रिया, बहु विरोधाभासों का प्रारूप 

यह उचित है या वह, स्व मन-संशय, अन्य-अपेक्षाऐं या कहें कटाक्ष। 

 

यह कैसे वाक्युद्ध है  निरत जनों में, रह-रहकर नश्तर रहते चुभते ही 

कदापि तो पूर्ण-सहमति संभव , किंतु निज पक्ष-कथन अधिकार भी। 

दूजे का सम्मान भी  बचना चाहिए, उद्देश्य तो निवारण उस विषय का  

पूर्ण-पक्ष देख ही हो टिपण्णी, जरूरी तो अपेक्षाऐं समक्ष कर लो मनवा। 

 

एक संबंध सब जीवों का परस्पर, और स्वार्थ हेतु अन्यों से आशा अतीत 

जब भी कुछ अवरोध स्व-अनियंत्रित, यकायक प्रतिक्रिया स्वाभाविक। 

चाहे अन्य अपराधी हो, तुम यदि कुछ वरिष्ठ हो करे समक्ष ही कटाक्ष 

अन्यथा संतोष करते हैं, अन्यों के समक्ष या एकांत में निकाल भड़ास   

 

मन-प्रक्रिया में कुछ असहजता से ही तिलमिलाहट, मन होता है उचाट 

पर हमीं तो हैं पोषक, स्वयं पर भी घटती, तथापि करते वैसा व्यवहार। 

अन्य-मन को अनावश्यक कष्ट देकर क्या लब्ध, जाँचो परोक्ष प्रयोजन 

यदि मंशा उदार तो सर्वस्व सहन, हाँ तब भी कटु-वचनों से है  पीड़न। 

 

क्या माने इसे हर दिन का ही सिलसिला, कह ही देते जो आए मन में 

चाहे हमें बात सुकथन का ढंग हो, प्रतिक्रिया तो हर समय ही देते। 

दर्शन में चाहे साधु ही  प्रतीत, पर प्रति प्रकार के मनोभावों से गुजरते 

अनेक मूढ़ों में, कभी जब निज चिंतित तो दूजों पर खुंदक निकालते। 

 

पर मात्र रुदन- मुदन में ही रहें, सब एक जैसे हैं पहलवान निज में 

कमबल पर तो सहज क्रोध, साहस तो सामना करने का बलतर से। 

अधीनस्थ तो है सह लेता वरिष्ठ-वाग्दंड भी, पीछे से जितना ले भुनभुना 

कालांतर विस्मृत भी, एक पूर्णरूप समक्ष, आदर-सहोकार तथानुसार। 

 

प्रथमतः स्मरित काल स्व- दर्शन में, कोई दिवस तो है व्यवधान-रिक्त 

स्व-उलझन, अन्य कुंठा-उपेक्षा-क्रोध-वैमनस्य-ढीठता आदि नित समक्ष। 

हमारी इच्छा से भी क्या बड़ा होता, कौन चाहेगा मन पर हों कष्ट-बादल 

पर जग को कुछ महा प्रयोजन, उसी को पेलना जो जाए समक्ष। 

 

कभी ध्यान से देखो तो किन पर जुल्म, वे निर्बल-बेचारे-शरीफ़ ही बहुदा 

धृष्ट तो छुप जाता सुरक्षित गुफा में, डर तो उसे भी वरन खुले में घूमता। 

कई बार आका-अनुकंपाओं से अभय भी, रोती तो रोती रहे आम प्रजा 

जब रक्षक ही भक्षक तो अत्याचार ही, बस काल-हस्त कौन शुद्ध करेगा। 

 

कुछ भेद सहज नितचर्या में रुक्ष-असहमतिविरोध जुल्म-हिंसा प्रत्यक्ष 

सरिता चलती तो जलकणों में गति होगी ही, स्वाभाविक परस्पर घर्षण। 

एक होड़ से मची है आगे निकलने की, समक्ष बाधा आई निबटो तुम ही 

राह में दुर्घटना है पर कुछ ही रुकते, अन्यों को तो कोई प्रयोजन भी। 

 

पत्ते हिलते द्रुत पवन-गति से, गिरते भी, झंझावत में उखड़ें महा-वृक्ष 

पीड़ा तो है सिहरने में, कौन सहज-आराम स्थिति छोड़ चाहेगा कष्ट। 

प्रथम न्यूटन-नियम तो सर्वत्र लागू, स्व-स्थिति में ही चाहते रहना सब 

जब तक धकेला, रोका-टोका जाए, स्वतः मूल-स्थिति परिवर्तन। 

 

फिर क्या करें, कहें या कहें, जबकि  मात्र हानि ही तो मौन बैठने से

क्या सदा अन्य सहज-शांत भावनाऐं ही सहें, सच जीवन तो ऐसे चले। 

जीवन तो है सतत संघर्ष-परिणाम, सबके मन की तो हो सकती यहाँ 

टोकने से यदि कोई सुधर जाए तो सुभीताश्रेयस दृष्टि अति दूर ले जाना। 

 

इसे दो भागों में वर्गीकरण, अनावश्यक त्राण-तंज या निर्मल उद्देश्यार्थ 

जब हम सार्वजनिक हित में बोलते, निश्चिततया उसके पीछे नेक मंशा। 

हाँ समक्ष वाले को किंचित बुरा भी  लगता हो, यद्यपि यह व्यक्तिगत  

तो तर्ज में संवेदना चाहिए, बिना व्यक्तिगत कटाक्ष के भी दें बात कह। 

 

यह और  बात उसे फिर भी जँचेक्योंकि निज पीड़ा ही दिखती सर्वत्र

कुछ व्यक्तिगत ही, क्योंकि पिछड़े तो वरिष्ठ का भी सुधारने का दायित्व। 

तो रह-रहकर उसकी बात मस्तिष्क में, कुचेष्टा पालकर दिल में लेते लगा  

स्वयं को अतएव कुरेदना असहन-शक्ति पक्ष, हर बात का उत्तर ही देना। 

 

हमें अन्य -पक्ष भी समझना चाहिए, आवश्यक नहीं तुम हो उचित सदा 

जीवन विकसित जब समेकित स्वरूप-दर्शन, पर-टिपण्णी भी अनिवार्य। 

यदि कुछ टोका-रोका-विरोध हो, तो जग पूर्णतया  रहता अव्यवस्थित 

क्योंकि हर निज लोभ अनुसार काम करेगा, अन्यों की कुछ परवाह न। 

 

मेरा जीवन  भी इन्हीं उलझनों का पुञ्ज, एक से निपटो तो अन्य प्रकट  

कैसे सभी को समझाए, कौन चाहता भी , सुनकर नेत्र मूँद लेते बस। 

कैसे सभी से लड़ाई यहाँ तो सदा पराजय ही, निज प्रकृति-स्वामी सब 

मात्र श्रवण हृदय-बदलाव दो पृथक पक्ष, कुछ राय-मशवरा देते जन। 

 

तो अवश्यमेव पूर्ण स्वतंत्र, इस धरा-निवासी होने से सबकी अपेक्षाऐं 

चाहे कथन-ढंग उचित हो, पर उसका भाव तो हम समझ ही जाते। 

बहु-द्वंद्व सतत चलते मन में एक काल, रह-रहकर यूँ टीस जाता हृदय 

श्रवण-कथन दोनों बने बुरे, बहुदा प्रतिक्रिया-व्याख्या से अति-प्रसन्न। 

 

यह प्राण-निरंतरता सब काल घटित सब संग, तथापि तीर कमान कसे 

जैसे हम यह युद्ध जीत ही लेंगे, कुछ हिंसा भो तो है उचित ही करेंगे। 

भूकंप आता है कहाँ भेद निर्मल-दुर्जनों में, संवेदना देखी जाती मात्र  

फिर न्यायधीश सम मूर्खों को लड़ते देखता, डाँटा-फटकारा बस बंद। 

 

तो उसने कह दी, तुमने उत्तर दिया, उसने गाली दी तुमने लाठी मार दी 

यह शैली तो सदैव चलती रहती, लघु सी चर्चा अति दूरी तय कर लेती। 

मान लें ऐसे  ही, कुछ सहन कर लें कुछ मौका देख पक्ष भी दिया रख 

पर अनावश्यक वैमनश्यता से बचो, कड़ुवाहट से मुख-स्वाद खराब। 

 

पर इससे बढ़कर हम विशाल-हृदयी बने, लोगों को चाहिए क्षमा करना 

तब बड़े बनना चाहते अगले वाला लघु, बड़ों की वीरता देती निर्भयता। 

प्रत्येक बात  पर तू-तू मैं, संभव स्व-मौन से दूजा करे आत्म-निरीक्षण 

उसे भी अपराध-बोध हो पर स्थिति समझो, यथाशीघ्र सहजता जीत तव। 

 

मैं भी अतएव  कवायदों से गुजरता, दुःखी भी, क्या करूँ एक जीव-क्षुद्र 

तथापि जीना सीखना, अन्यार्थ निजार्थ ही, सोना तपकर ही बने कुंदन। 

बुरा मानो, वरिष्ठ हो तो मान करना सीखो, खीझता-घृणा पूर्ण दो त्याग 

प्रयास हो अनावश्यक का मौका  दो, स्वानुरूप बना लो परिवेश सुधार। 

    

    

पवन कुमार,

२८ सितंबर, २०२२, बुधवार, समय १९:४२ बजे सायं 

(मेरी जयपुर डायरी जनवरी, २०१७ शुक्रवार, :१९ बजे प्रातः से )