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30 जनवरी, 2016 समय 22:11 रात्रि
Every human being starts his life's journey with perplexed, enchanted sight of world. He uses his intellect to understand life's complexities with his fears, frustrations, joys, meditations, actions or so. He evolves from very simple stage to maturity throughout this journey. Every day to him is a challenge facing hard facts of life and merging into its numerous realms. My whole invigoration is to understand self and make it useful to the vast humanity.
बाहर सरसरा सा देखता हूँ, तो कुछ विशेष न आता नज़र
मात्र सूखते हुए कुछ कपड़े
हैं, अस्त- व्यस्त वही बिस्तर॥
कुछ खुला खिड़की-भाग है,
चार्जर के साथ रखा लैपटॉप
कक्ष की आवश्यकता है, कुछ
रोचक सुव्यवस्था हो साथ।
बाह्य तो नहीं अति-प्रेरक,
मात्र साधन बिताना कुछ समय
माना कार्य जीविकोपार्जन
हेतु जरूरी है, पर अंतर शून्य॥
निकलता नहीं स्वतः ही कुछ,
लगता बिता समय रहे बस
सार्थकता कर्मों को न मिलती,
अति दूर है वस्तु तो परम।
बाह्य अनुभव अंदर जाकर,
बुद्धि-कोष्टकों में बनाता जगह
समय पर उपस्थिति जता, अन्यों
से जोड़े हैं मन-उपकरण॥
समय काटना प्रायः बड़ा उबाऊ,
अनुभूति अल्प- उपयोग
बेचैनी बढ़े अन्यान्य दृश्यों
हेतु, अपेक्षाकृत है प्रेरक-समृद्ध।
अनेक दृश्य, पर मैं क्या देख
रहा हूँ, यह स्वयं पर ही निर्भर
कोई खिड़की से कीचड़ ही देखता
है, समक्ष राज-मार्ग पर
कोई नभ में कांतिमान
चंद्र-तारकों पर ही लगाए है नज़र॥
कोई किस्मत-रोना रोता, कोई
रवि देख कवि ही बन जाता
सतत उद्योग महद लक्ष्य,
कालिदास सा अनुपम कर जाता।
इसी माहौल में क्या मैं भी,
कुछ अप्रतिम सा हूँ पाता निहार
बहुत उपलब्ध यदि उचित दृष्टि
है, देखो कितने भरें रोमांच॥
प्रकृति देख अनेक आमजन भी, बनें
हैं प्रणेता व परिभाषक
सर्वस्व निकला है यहीं से,
सोच बैठा, संग्रह से बना उपयुक्त।
कुछ दिशा बदलो, खिड़की- द्वार
खोलो, प्रकाश करो दुरस्त
हल्के रंगी दीवार पर पड़ती, भानु-रश्मि निर्मित
चित्र ही देख॥
रोशनदानों से भिन्न प्रकाश-
मात्रा का, विविध है रूपावलोकन
मेज़ पर रखे प्लास्टिक जग व
पारदर्शी ग्लासों में दीप्त-सौंदर्य।
फर्श-टाइल पर अर्ध-खुली
खिड़की से आती, कांति-छटा देख
कभी बहुत प्रभाकर-प्रयोग,
इसी क्षण भिन्न धरातलों पर देख॥
डायरी नीचे रखे तकिए-कवर पर
बनी डिज़ाइन-संरचना देख
कंबल पर विभिन्न
सफेद-रक्तिम-कृष्ण वर्णी पट्टियों को देख।
किनारों पर लाल गाढ़े वर्ण
वस्त्र-मोल्डिंग में देखो छुपा सौंदर्य
किनारों के साथ जोड़ा इसका
बॉर्डर, लगता है बहुत मनोरम॥
क्या कभी ध्यान से देखा है,
भूरी-धारियों वाली ऊपरी मेज़-तल
गहरे भूरे- कृष्णवर्णी
किनारा-पट्टी, पायों साथ लगे अति सुंदर।
सज्जित- तराशे ४ पायें हैं,
ऊपर दो काटों में लगे चाँदी से वलय
नीचे एक और तल है
बहु-प्रयोगार्थ, अभी रखी खाने की प्लेट॥
सामने सामान रखने का एक
कपबोर्ड रखा, आधे-खुले हैं द्वार
हल्के पीत- वर्णी खिड़कियाँ,
बाह्य तल व अंदर है श्वेत-रोगन।
उस पर हैं एक बैग, कुछ कपड़ें,
ताला व उतार रखा टैप-नल
कंबल-केस अलमारी पर,
दूजा-अर्ध नीचे दायें हाथ में दर्शित॥
फिर एक छोटा सामान रखने का
डब्बा, दूजी ओर है दिखता
नीचे बायें हाथ रखा है, सुबह
सैर के जूतों का पोलीथीन बस्ता।
ऊपर खूँटी पर कोट लटका है,
बाकी ५ खूँटियाँ खाली दिखती
बिजली का स्विचबोर्ड साथ,
ऊपर छत से कुछ नीचे ट्यूब लगी
काले रंग का कंड्यूट पाइप
ट्यूब नीचे, फिर छत श्वेत दिखी॥
लकड़ी-कपाट, अंदर से श्वेत
रंग-रोग़न, चौकट प्रस्तर-निर्मित
दो चिटकनी-एक हैंडल हैं, तीन
कब्जें एक में चार नट-बोल्ट।
दीवार-नीचे फर्श से मिलता
टाइल-झालर, भित्ति रंग से है मैच
ऊपर द्वार संग स्तंभ-टाइल में पर्दे का डंडा,
बढ़े स्नानघर तक॥
स्नानघर में लगी टाइलों पर,
ऊपर-नीचे गाढ़े- भूरे रंग का बॉर्डर
नीचे भी टाइल लगी उसी रंग
की, जो विषमता देने हेतु चयनित।
इसी तरह से, अभी बंद दो
पंखों सहित मैं छत को सकता देख
बहु गुह्य दर्शन संभव यदि
समय हो, पर अभी चलो कार्यालय॥
कुछ ऐसा भी आवश्यक है,जब भी
समय मिले, विविधता हेतु कोशिश करो॥
अग्नि- शिखा सा है वह
प्रचेता, विदग्ध करे हृदय की दाह
सकल चिंतन से एकत्रण, इच्छित
अनुपम है ज्ञान-प्रवाह॥
काञ्चन-वर्ण, मुखारविंद,
कमलचक्षु, सुबाहु, उन्नत-भाल
नासिका शुक सी, कदम हरिणी
से, स्वस्थ तन-मन ढ़ाल।
उदर निम्न, सुदृढ़ तन, विकसित
वक्ष-स्थल, व लम्बी ग्रीवा
कोमलांग, कृष्ण-केश,
श्वेत-दंत, पूर्ण-युवा, गात्र-सजीवा॥
स्नेह निर्झर, मुस्कान- मधु,
ललित, धीर-वीर सा परिधान
देख उसे विश्वास जागता,
सक्षम जग का कुछ कल्याण।
सुशिक्षित, सत्य-परीक्षक,
सर्व-विधा कुशल, प्रखर-चिंतन
ज्ञानमूर्ति, मनस्वी,
क्षमासागर, कलानिधि तथापि विनम्र॥
एकाग्र-चित्त, तपस्वी त्राटक
लगाता, बन्धु हैं सभी चराचर
ध्रुव-तारक सा एक-दिशा स्थित
है, निश्चल परम धराधर।
अरसिक पर-निंदा,
सर्व-हितैषी, ज्ञानग्राही, व सस्नेह-उदार
स्वावलंबी, परंतप,
मूल-चिंतक, कुंडलिनी से साक्षात्कार॥
ब्रह्म-निवासी, हर्ष
मुख-मुद्रा, सर्वत्र-सर्वज्ञ पर समायोजक
समन्वयक सर्व-भूत,
चित्त-अक्लांत, मनु सम है संयोजक।
दूर-दृष्टि, संयत-कर्मी, रत
चित्त-वृद्धि, परमानुभूति में लक्ष्य
हरपल परंपरा है रचना-कर्म
में, जीवन शाश्वत हेतु संग्रह॥
कर्म-निष्ठ, विज्ञान-भिक्षु,
गौतम बुद्ध सम चिंतन क्षेम-संसार
समूह-उत्थान हेतु
युक्ति-कर्ता, न मात्र ही है प्रवचन आधार।
शीर्ष-शिखर का पथिक,
सत्य-परिवर्त, व सकारात्मक दिशा
निपुण विधा, विद्यार्थी सदा,
परम-चेष्टक व है अमल-शिखा॥
बलवान-ललित तन, निर्मल-मन,
मर्मज्ञ, योग उद्यमी बनाऐ
प्रयत्नशील, अध्येता,
नियोगी, दुर्लभ है पर सकल हेतु ध्याऐ।
विश्वरूप का आदर्श- कर्मठ
प्रतिबिंब, संगम है सब रंगों का
मुमुक्षु, अति मन-भावन वह,
तब हरेक चाही मधुर-संगों का॥
चंचल चितवन, मुख अरविंद, अंग
अभिराम, व आभा-अखंड
समग्र, सक्षम, शाश्वत,
निपुण, धृतिमान, सकल रूप-विसरण॥
कैसे प्रादुर्भाव हुआ जग में
मेरा, किन प्रणालियाँ से हूँ गुजरा
क्या यह वर्तमान स्वरूप ही
है, अथवा पुरातन की भी चेतना।
कितने रूपों से गुजर गया,
जिनसे प्रतिभा का हुआ है प्रसार
अनेक अनुभवों से आत्मसात, सब
मिलकर ही हुआ विकास॥
बहुत स्थानों से गुजरा, उनके
ही अन्न-जल, प्राण-वायु से पला
असंख्य-सहयोग निर्माण में,
अत्यधिक तो निशुल्क ही मिला।
कितनी जगह से वायु प्रवाह
होकर, मेरे श्वास से चलाती प्राण
दूर महासागर- जल बरसें मेरे
आँगन, नीरद हैं उसके वाहन॥
कहाँ का अन्न-जल मुझे है
पोषता, खाता फल अनेक स्थल के
माना स्व-क्षेत्र वस्तु
बहुल, तथापि अनेक आती इधर-उधर से।
कौन हाथों से अन्न उपजे, किन
प्रक्रियाओं गुजर हम तक आता
हर दाने का इतिहास, पर किसे
समय है इस भाँति मनन का॥
हर रोम में मुहर सर्व-व्यापक
की, सकल चराचर में मेल अति
हम अवयव विस्तृत सृष्टि के,
सब निर्मित सीमित तत्वों से ही।
अनेक अन्य जीवों का सहयोग
जीवन में, नर तो है ही परजीवी
आइंस्टीन
कहे `यदि मधु-मक्खी खत्म, ४ वर्ष में नर जीवन विनाश भी।`
कितना जुड़ाव भिन्न
प्रकृति-रूपों का, बिलकुल ही तो गुँथे-पड़ें
एक-दूजे से भिन्न नहीं कुछ
भी, मात्र परस्पर क्षति-पूर्ति करते।
मम जीवन नितांत अन्य-निर्भर
है, तनहा क्षण भी न पाऊँगा रह
चेतन-अवचेतन का वृहद योगदान,
सम्पूर्ण किए सब मिलकर॥
कैसा श्रेष्ठता-अश्रेष्ठता
भेद, जब ज्ञात चलता काम परस्पर से ही
प्रज्ञान मन जब विकसित न है,
हम रहते व्यर्थ-गर्वानुभूति में ही।
चलायमान यह जीवन होता, अनेक
विस्तृत तंतुओं के मिलन से
कभी समय निकाल ध्यानों
अन्य-अनुकंपा, जो हमें जिलाए हुए॥
क्या निज सुरक्षा-इच्छा एक
किले में, जिसे कहें हम सर्व-पूरक
पर क्या यह सर्व-जरूरत पूर्ण
करेगा, निज कोटर में कब तक?
यह धरा यदि एक घर मान लें,
सकल-ब्रह्मांड जरूरत तो भी है
सूर्य-चंद्र-तारें,
पवन-जल, गर्म-सर्द, जलवायु परिवर्त बहु-कारणों से॥
क्या व्यक्तित्व-स्वच्छता,
निर्मलता, पवित्रता या कहें भाव-श्रेष्ठता
सोचें यदि तो बस विशेष भाव,
मन दंभ में ऐसी कल्पना करता।
नर श्रेष्ठ नस्ल- भाव मन में
लाता, ऐसा नहीं कुछ जबकि है पता
अपनी-२ जगह हर कोई श्रेष्ठ,
आदान-प्रदान से ही जग चलता॥
पूर्णाहूति प्राण-पण की, स्व
को सम्पूर्णता में समर्पित है करना
सर्वस्व विकास जगत-जरूरत, और
अधिक है अनुभव होना।
मैं था, मैं हूँ, मैं हूँगा
सदा, स्वरूप में यहीं चराचर के किसी भी
प्रकृति-नियम किंचित न अनिष्ट,
रुप परिवर्त स्वाभाविक ही॥
कहाँ का खाद-पानी-बीज, कौन
सा खेत, कृषक- मजदूर कौन
कौन से फावड़े और टोकरी, बीज
रोपते व सफाई करते मौन?
फसल काटते, दाने निकालते,
दुकान लाते, आटा पीसते-ढ़ोते
कई स्थितियाँ, भिन्न चेहरे
भागी, भक्षण पूर्व बड़ा श्रम वाँछित है॥
कहाँ के बर्तन, आटा-चक्की
पत्थर, कौन दुकानदार-पीसनहार
कौन खनन-धातु, शैल-रसायन,
कहाँ से सब्जी व मसाला-माल?
कहाँ की ईंधन-गैस बिजली, कौन
वाहन व निर्माता, क्या मशीन
कौन
फैक्ट्री-प्रक्रिया-तकनीक, सामान व निरीक्षक-इंजीनियर॥
कौन डायरी, किसने छापी, किस
वन से लुगदी-कागज-वायुजल
कौन कलम, कौन
निर्माता-आपणिक, कौन से यातायात वाहन?
कौन विचार, कहाँ लेखन -
स्थल, क्या मनोस्थिति व उद्भव-परम
कैसा मेल है, कैसी समष्टि
बुद्धि, किस हाथ से कैसा कब चित्रण॥
अनेक विविधताऐं हैं सर्वत्र
व्यापक, पर सब मेरे ही अभिन्न अंग
किंतु सब-मिलन से ही कुछ
समुचित, तैल माँगे है ज्ञान-दीपक॥