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Saturday 30 January 2016

जीवनी-शक्ति

जीवनी-शक्ति 
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जीवन की कशिश में खोया हूँ 
खड़ा हूँ कहाँ, मंज़िल है कहाँ ?

अज़ीब सी है स्थिति यह जीवन भी 
कभी हँसने का आलम बनता है, कभी रोने का। 
चाहकर भी अनुकूल परिणाम लाने में असमर्थ 
फिर क्या करूँ, शायद किस्मत है बस ढ़ोने की। 

सोचा था कि बड़ी आसान है जीवन की डगर 
लेकिन जिए तो लगा, इतना आसान न सफर। 
फिर भी झुकने का तो मन नहीं 
युद्ध के लिए स्वयं को तैयार करना है। 

क्यों इतना क्षीण बन जाता, शक्ति का ज्ञान नहीं 
क्यों न आत्मिक रोशनी से, अन्तर को देख पाता ? 
क्या इतना कमज़ोर हूँ एक थपेड़े से घबरा गए 
इतना आभास तो है, मानव में अदम्य-अक्षीण शक्ति है। 

क्यों एक ही मौत से खुद को मृत मानने लगे हो 
यहाँ तो हर पल मर कर जीना पड़ता है। 
हौंसला एक बार पस्त होने का अर्थ यह तो नहीं 
कि दोबारा आशा का सहारा नहीं ले सकते। 

सबके साथ ऐसा होता है, किंचित कुछ न्यूनाधिक  
संसार-नियम ही कुछ ऐसा है कि सहना पड़ता ही है। 
 यह लड़ाई अपनी ही है, स्वयं से ही लड़नी पड़ेगी 
घबरा कर बैठ गए तो मंज़िल तक कैसे पहुँचोगे ?

बहुत कठिन है डगर पनघट की 
मानसिक व्यथा का भी गहरा प्रभाव है। 
पर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है जीवनी-शक्ति 
इसके सहारे हर चट्टान से टकरा जाओगे। 

मन को करो सुदृढ़, शक्ति को संचित करो 
अपने को स्वयं के क़ाबू कर, मन एकाग्र करो। 
मन को ख़ुद के क़रीब लाओ 
मित्र अपने को तुम बना पाओगे। 

पाओगे इस कष्ट में भी कितना आनंद है 
फिर दिन तो ढ़लती-फिरती छाया है। 
सभी दिन सबके एक जैसे नहीं होते 
लेकिन आंतरिक ईमानदारी ही बड़ा संबल है। 

मैं अपने को उठा दूँ इस अज़ीब घुटन से 
आज़ादी की एक साँस लूँ, मन में आनंदानुभूत करूँ। 
जगत से क्या घबराना, वह मात्र अपना काम कर रहा है 
यह तो मैं ही हूँ, जो स्व-छाया से घबरा रहा है। 

दोस्त, स्व को इतना वीभत्स मत समझो 
जानो कि परम-पिता परमेश्वर की महान संतान हो। 
तुम्हारे अंदर भी उसके समस्त गुण विद्यमान है 
उसपर विश्वास से जीवन में मुक्ति-अहसास करो। 

पवन कुमार,
30 जनवरी, 2016 समय 22:11 रात्रि 
(मेरी डायरी दि० 21.07.2001 समय 8:20 से)  

Thursday 14 January 2016

दीप-प्रकाश

दीप-प्रकाश 
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किस भंवर में फँसा हूँ, निकलूँ कैसे जँजाल से इस  
चक्रव्यूह तो पूर्व-रचित, अर्जुन की शक्ति वाँछित।   

अभिमन्यु अपने अल्प ज्ञान कारण तोड़ उसे न पाता  
खेल-दाँव सीखने जरूरी, वरन अति सफल न होता। 
मन की शिक्षा, तन की वीरता नर को बढ़ाए आगे ही 
बाधा आती हटने हेतु, हतोत्साहन कोई विषय नहीं। 

मैं सार्वभौमिक मन-प्रकृति स्वामी, सर्वत्र उचित घड़ा
सीखें अनेक आयाम मैंने, अनुभव जय-पराजय का। 
आत्म-गुरु तो अकथन समर्थ , ज्ञान अन्य ही  सिखाते 
विश्व एक विशाल चक्र सम, सब परस्पर हैं टकराते। 

मौलिक हाड़-माँस का पुतला, लिए हूँ कुछ ऊर्जा-चेष्टा 
हर जीवन-कला का पारखी, मन -धारण कुछ विद्वता। 
नहीं बिताया अपना समय यूँ, बस सोकर व खाकर ही 
अपितु स्वयं संग नित श्रम किया, वृद्धि अपने स्तर की।  

स्वयं-सिध्दि मनुष्य का लक्ष्य, जीवन वृद्धि हेतु प्रेरक  
मिला समय जितना भी यहाँ, सदोपयोग है अपेक्षित। 
किसी ऋतु के अंदर जाकर, महीनता करें अनुभव  
तभी तो अन्य से भिन्नता, मन-मस्तिष्क करे समृद्ध। 

लुप्त इस स्व-चिंतन में, अपने  भँवर में गया फँस सा 
अपने गिर्द आवरण-लेश लपेट, जँजाल सा बन गया। 
  ज्ञान सर्व-विधि होने पर भी, काटन इसका है दुष्कर    
तथापि साहस न त्याग, कारवाँ चलाने को प्रतिबद्ध। 

मैं जैसे औघड़ सा हूँ, कुछ होश नहीं कृत्य-अकृत्य  
स्व-निर्मित लघु विश्व में  विलुप्त, कुछ सम ही मृत्य। 
भूल जाते बिछुड़ने  वालों को, सब स्व में ही व्यस्त  
अपना मन-साम्राज्य, मस्त यावत अन्य न करें तंग। 

कुरेदना, प्रश्न, बात कहना, आंदोलन, दहाड़ना, चीखना 
आरोप, डाँट, परिवेश-प्रबंधन, स्व एवं अन्यों को प्रेरणा। 
सब कूप-मण्डूकता निकास यंत्र, यदि कर सके ग्रहण  
झझकोरें दुर्बल-पक्ष निरोध मारक-व्याधि, कुछ राहत। 

कैसा है यह शोक-गीत, अपनी  ही टीसों से सुबकाता 
कैसी यह बाँसुरी-धुन, अचेतना राग सुनाए निर्गम का। 
तथापि नेत्र अर्ध-बंद किए, न जाने कहाँ हुआ विलुप्त   
ओझा-सयाना सा देवी-ध्यान में, निज न कोई अवगत। 

कैसी मेरी है मन-चेष्टा यह और क्या कर्त्तव्य वाँछित 
क्यों मुझे स्व-ज्ञान की सूई, न आ रही घूमती  नज़र। 
सब नरों में मस्तिष्क, अनंत संभावनाऐं हैं अंतर्निहित 
ज्ञानमूल सर्व सुख-दायक, प्रयत्न  सदा कृत  सुफल। 

जीवन का क्या मूल, या मात्र प्रमत्त बहकी बातें  करना 
या पूर्ण चेतना-रत, कर्म-योग सिद्धांत संचालित करना। 
ज्ञान-रश्मि कैसे इस अकिंचन तक, कौन सा स्रोत वह  
निज-कोटर से बाहर निकल, प्रकाश से करना मिलन। 

इस अध्याय के कुछ वाक्य पढ़ा दे, मुझे स्व से मिला दे 
कुछ महामानवों से संपर्क करा, तौर-तरीके समझा दे। 
खोया हूँ सुध-बुध पूर्णतया, कोई आकर गुरु से मिला दे 
देवी-प्रकाष्ठा दीवाली पर्व में, अंतर्कक्ष -प्रकाश करा दे। 


पवन कुमार
14 जनवरी, 2015 (मकर-सक्रांति) समय 21:34 रात्रि 
(मेरी डायरी दि० 21.10.2014 समय 9:15 प्रातः से)   
    

Sunday 10 January 2016

अवलोकन

अवलोकन 
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बाहर सरसरा सा देखता हूँ, तो कुछ विशेष न आता नज़र

मात्र सूखते हुए कुछ कपड़े हैं, अस्त- व्यस्त वही बिस्तर॥

 

कुछ खुला खिड़की-भाग है, चार्जर के साथ रखा लैपटॉप

कक्ष की आवश्यकता है, कुछ रोचक सुव्यवस्था हो साथ।

बाह्य तो नहीं अति-प्रेरक, मात्र साधन बिताना कुछ समय

माना कार्य जीविकोपार्जन हेतु जरूरी है, पर अंतर शून्य॥

 

निकलता नहीं स्वतः ही कुछ, लगता बिता समय रहे बस

सार्थकता कर्मों को न मिलती, अति दूर है वस्तु तो परम।

बाह्य अनुभव अंदर जाकर, बुद्धि-कोष्टकों में बनाता जगह

समय पर उपस्थिति जता, अन्यों से जोड़े हैं मन-उपकरण॥

 

समय काटना प्रायः बड़ा उबाऊ, अनुभूति अल्प- उपयोग

बेचैनी बढ़े अन्यान्य दृश्यों हेतु, अपेक्षाकृत है प्रेरक-समृद्ध।

अनेक दृश्य, पर मैं क्या देख रहा हूँ, यह स्वयं पर ही निर्भर

कोई खिड़की से कीचड़ ही देखता है, समक्ष राज-मार्ग पर

कोई नभ में कांतिमान चंद्र-तारकों पर ही लगाए है नज़र॥

 

कोई किस्मत-रोना रोता, कोई रवि देख कवि ही बन जाता

सतत उद्योग महद लक्ष्य, कालिदास सा अनुपम कर जाता।

इसी माहौल में क्या मैं भी, कुछ अप्रतिम सा हूँ पाता निहार

बहुत उपलब्ध यदि उचित दृष्टि है, देखो कितने भरें रोमांच॥

 

प्रकृति देख अनेक आमजन भी, बनें हैं प्रणेता व परिभाषक

सर्वस्व निकला है यहीं से, सोच बैठा, संग्रह से बना उपयुक्त।

कुछ दिशा बदलो, खिड़की- द्वार खोलो, प्रकाश करो दुरस्त

 हल्के रंगी दीवार पर पड़ती, भानु-रश्मि निर्मित चित्र ही देख॥

 

रोशनदानों से भिन्न प्रकाश- मात्रा का, विविध है रूपावलोकन

मेज़ पर रखे प्लास्टिक जग व पारदर्शी ग्लासों में दीप्त-सौंदर्य।

फर्श-टाइल पर अर्ध-खुली खिड़की से आती, कांति-छटा देख

कभी बहुत प्रभाकर-प्रयोग, इसी क्षण भिन्न धरातलों पर देख॥

 

डायरी नीचे रखे तकिए-कवर पर बनी डिज़ाइन-संरचना देख

कंबल पर विभिन्न सफेद-रक्तिम-कृष्ण वर्णी पट्टियों को देख।

किनारों पर लाल गाढ़े वर्ण वस्त्र-मोल्डिंग में देखो छुपा सौंदर्य

किनारों के साथ जोड़ा इसका बॉर्डर, लगता है बहुत मनोरम॥

 

क्या कभी ध्यान से देखा है, भूरी-धारियों वाली ऊपरी मेज़-तल

गहरे भूरे- कृष्णवर्णी किनारा-पट्टी, पायों साथ लगे अति सुंदर।

सज्जित- तराशे ४ पायें हैं, ऊपर दो काटों में लगे चाँदी से वलय

नीचे एक और तल है बहु-प्रयोगार्थ, अभी रखी खाने की प्लेट॥

 

सामने सामान रखने का एक कपबोर्ड रखा, आधे-खुले हैं द्वार

हल्के पीत- वर्णी खिड़कियाँ, बाह्य तल व अंदर है श्वेत-रोगन।

उस पर हैं एक बैग, कुछ कपड़ें, ताला व उतार रखा टैप-नल

कंबल-केस अलमारी पर, दूजा-अर्ध नीचे दायें हाथ में दर्शित॥

 

फिर एक छोटा सामान रखने का डब्बा, दूजी ओर है दिखता

नीचे बायें हाथ रखा है, सुबह सैर के जूतों का पोलीथीन बस्ता।

ऊपर खूँटी पर कोट लटका है, बाकी ५ खूँटियाँ खाली दिखती

बिजली का स्विचबोर्ड साथ, ऊपर छत से कुछ नीचे ट्यूब लगी

काले रंग का कंड्यूट पाइप ट्यूब नीचे, फिर छत श्वेत दिखी॥

 

लकड़ी-कपाट, अंदर से श्वेत रंग-रोग़न, चौकट प्रस्तर-निर्मित

दो चिटकनी-एक हैंडल हैं, तीन कब्जें एक में चार नट-बोल्ट।

दीवार-नीचे फर्श से मिलता टाइल-झालर, भित्ति रंग से है मैच

 ऊपर द्वार संग स्तंभ-टाइल में पर्दे का डंडा, बढ़े स्नानघर तक॥

 

स्नानघर में लगी टाइलों पर, ऊपर-नीचे गाढ़े- भूरे रंग का बॉर्डर

नीचे भी टाइल लगी उसी रंग की, जो विषमता देने हेतु चयनित।

इसी तरह से, अभी बंद दो पंखों सहित मैं छत को सकता देख

बहु गुह्य दर्शन संभव यदि समय हो, पर अभी चलो कार्यालय॥

 

कुछ ऐसा भी आवश्यक है,जब भी समय मिले, विविधता हेतु कोशिश करो॥



पवन कुमार, 
10 जनवरी, 2015 समय 12:00 म० रा०  
(मेरी डायरी दि० 29 जनवरी, 2015 समय 9:21 प्रातः से)

Thursday 7 January 2016

विश्वरूप

विश्वरूप 
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अग्नि- शिखा सा है वह प्रचेता, विदग्ध करे हृदय की दाह

सकल चिंतन से एकत्रण, इच्छित अनुपम है ज्ञान-प्रवाह॥

 

काञ्चन-वर्ण, मुखारविंद, कमलचक्षु, सुबाहु, उन्नत-भाल

नासिका शुक सी, कदम हरिणी से, स्वस्थ तन-मन ढ़ाल।

उदर निम्न, सुदृढ़ तन, विकसित वक्ष-स्थल, व लम्बी ग्रीवा

कोमलांग, कृष्ण-केश, श्वेत-दंत, पूर्ण-युवा, गात्र-सजीवा॥

 

स्नेह निर्झर, मुस्कान- मधु, ललित, धीर-वीर सा परिधान

देख उसे विश्वास जागता, सक्षम जग का कुछ कल्याण।

सुशिक्षित, सत्य-परीक्षक, सर्व-विधा कुशल, प्रखर-चिंतन

ज्ञानमूर्ति, मनस्वी, क्षमासागर, कलानिधि तथापि विनम्र॥

 

एकाग्र-चित्त, तपस्वी त्राटक लगाता, बन्धु हैं सभी चराचर

ध्रुव-तारक सा एक-दिशा स्थित है, निश्चल परम धराधर।

अरसिक पर-निंदा, सर्व-हितैषी, ज्ञानग्राही, व सस्नेह-उदार

स्वावलंबी, परंतप, मूल-चिंतक, कुंडलिनी से साक्षात्कार॥

 

ब्रह्म-निवासी, हर्ष मुख-मुद्रा, सर्वत्र-सर्वज्ञ पर समायोजक

समन्वयक सर्व-भूत, चित्त-अक्लांत, मनु सम है संयोजक।

दूर-दृष्टि, संयत-कर्मी, रत चित्त-वृद्धि, परमानुभूति में लक्ष्य

हरपल परंपरा है रचना-कर्म में, जीवन शाश्वत हेतु संग्रह॥

 

कर्म-निष्ठ, विज्ञान-भिक्षु, गौतम बुद्ध सम चिंतन क्षेम-संसार

समूह-उत्थान हेतु युक्ति-कर्ता, न मात्र ही है प्रवचन आधार।

शीर्ष-शिखर का पथिक, सत्य-परिवर्त, व सकारात्मक दिशा

निपुण विधा, विद्यार्थी सदा, परम-चेष्टक व है अमल-शिखा॥

 

बलवान-ललित तन, निर्मल-मन, मर्मज्ञ, योग उद्यमी बनाऐ

प्रयत्नशील, अध्येता, नियोगी, दुर्लभ है पर सकल हेतु ध्याऐ।

विश्वरूप का आदर्श- कर्मठ प्रतिबिंब, संगम है सब रंगों का

मुमुक्षु, अति मन-भावन वह, तब हरेक चाही मधुर-संगों का॥


पवन कुमार,
7 जनवरी, 2016 समय 21:51 रात्रि 
(मेरी डायरी दि० 9 मई, 2015 समय 10:25 प्रातः से)

  

Saturday 2 January 2016

एकरूपता

एकरूपता 
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चंचल चितवन, मुख अरविंद, अंग अभिराम, व आभा-अखंड

समग्र, सक्षम, शाश्वत, निपुण, धृतिमान, सकल रूप-विसरण॥

 

कैसे प्रादुर्भाव हुआ जग में मेरा, किन प्रणालियाँ से हूँ गुजरा

क्या यह वर्तमान स्वरूप ही है, अथवा पुरातन की भी चेतना।

कितने रूपों से गुजर गया, जिनसे प्रतिभा का हुआ है प्रसार

अनेक अनुभवों से आत्मसात, सब मिलकर ही हुआ विकास॥

 

बहुत स्थानों से गुजरा, उनके ही अन्न-जल, प्राण-वायु से पला

असंख्य-सहयोग निर्माण में, अत्यधिक तो निशुल्क ही मिला।

कितनी जगह से वायु प्रवाह होकर, मेरे श्वास से चलाती प्राण

दूर महासागर- जल बरसें मेरे आँगन, नीरद हैं उसके वाहन॥

 

कहाँ का अन्न-जल मुझे है पोषता, खाता फल अनेक स्थल के

माना स्व-क्षेत्र वस्तु बहुल, तथापि अनेक आती इधर-उधर से।

कौन हाथों से अन्न उपजे, किन प्रक्रियाओं गुजर हम तक आता

हर दाने का इतिहास, पर किसे समय है इस भाँति मनन का॥

 

हर रोम में मुहर सर्व-व्यापक की, सकल चराचर में मेल अति

हम अवयव विस्तृत सृष्टि के, सब निर्मित सीमित तत्वों से ही।

अनेक अन्य जीवों का सहयोग जीवन में, नर तो है ही परजीवी

आइंस्टीन कहे `यदि मधु-मक्खी खत्म, ४ वर्ष में नर जीवन विनाश भी।`

 

कितना जुड़ाव भिन्न प्रकृति-रूपों का, बिलकुल ही तो गुँथे-पड़ें

एक-दूजे से भिन्न नहीं कुछ भी, मात्र परस्पर क्षति-पूर्ति करते।

मम जीवन नितांत अन्य-निर्भर है, तनहा क्षण भी न पाऊँगा रह

चेतन-अवचेतन का वृहद योगदान, सम्पूर्ण किए सब मिलकर॥

 

कैसा श्रेष्ठता-अश्रेष्ठता भेद, जब ज्ञात चलता काम परस्पर से ही

प्रज्ञान मन जब विकसित न है, हम रहते व्यर्थ-गर्वानुभूति में ही।

चलायमान यह जीवन होता, अनेक विस्तृत तंतुओं के मिलन से

कभी समय निकाल ध्यानों अन्य-अनुकंपा, जो हमें जिलाए हुए॥

 

क्या निज सुरक्षा-इच्छा एक किले में, जिसे कहें हम सर्व-पूरक

पर क्या यह सर्व-जरूरत पूर्ण करेगा, निज कोटर में कब तक?

यह धरा यदि एक घर मान लें, सकल-ब्रह्मांड जरूरत तो भी है

सूर्य-चंद्र-तारें, पवन-जल, गर्म-सर्द, जलवायु परिवर्त बहु-कारणों से॥

 

क्या व्यक्तित्व-स्वच्छता, निर्मलता, पवित्रता या कहें भाव-श्रेष्ठता

सोचें यदि तो बस विशेष भाव, मन दंभ में ऐसी कल्पना करता।

नर श्रेष्ठ नस्ल- भाव मन में लाता, ऐसा नहीं कुछ जबकि है पता

अपनी-२ जगह हर कोई श्रेष्ठ, आदान-प्रदान से ही जग चलता॥

 

पूर्णाहूति प्राण-पण की, स्व को सम्पूर्णता में समर्पित है करना

सर्वस्व विकास जगत-जरूरत, और अधिक है अनुभव होना।

मैं था, मैं हूँ, मैं हूँगा सदा, स्वरूप में यहीं चराचर के किसी भी

प्रकृति-नियम किंचित न अनिष्ट, रुप परिवर्त स्वाभाविक ही॥

 

कहाँ का खाद-पानी-बीज, कौन सा खेत, कृषक- मजदूर कौन

कौन से फावड़े और टोकरी, बीज रोपते व सफाई करते मौन?

फसल काटते, दाने निकालते, दुकान लाते, आटा पीसते-ढ़ोते

कई स्थितियाँ, भिन्न चेहरे भागी, भक्षण पूर्व बड़ा श्रम वाँछित है॥

 

कहाँ के बर्तन, आटा-चक्की पत्थर, कौन दुकानदार-पीसनहार

कौन खनन-धातु, शैल-रसायन, कहाँ से सब्जी व मसाला-माल?

कहाँ की ईंधन-गैस बिजली, कौन वाहन व निर्माता, क्या मशीन

कौन फैक्ट्री-प्रक्रिया-तकनीक, सामान व निरीक्षक-इंजीनियर॥

 

कौन डायरी, किसने छापी, किस वन से लुगदी-कागज-वायुजल

कौन कलम, कौन निर्माता-आपणिक, कौन से यातायात वाहन?

कौन विचार, कहाँ लेखन - स्थल, क्या मनोस्थिति व उद्भव-परम

कैसा मेल है, कैसी समष्टि बुद्धि, किस हाथ से कैसा कब चित्रण॥

 

अनेक विविधताऐं हैं सर्वत्र व्यापक, पर सब मेरे ही अभिन्न अंग

किंतु सब-मिलन से ही कुछ समुचित, तैल माँगे है ज्ञान-दीपक॥


पवन कुमार, 
2 जनवरी, 2016 समय 20:52 रात्रि 
(मेरी डायरी दि० 1 मई, 2015 समय 10:08 से)