जीवनी-शक्ति
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जीवन की कशिश में खोया हूँ
खड़ा हूँ कहाँ, मंज़िल है कहाँ ?
अज़ीब सी है स्थिति यह जीवन भी
कभी हँसने का आलम बनता है, कभी रोने का।
चाहकर भी अनुकूल परिणाम लाने में असमर्थ
फिर क्या करूँ, शायद किस्मत है बस ढ़ोने की।
सोचा था कि बड़ी आसान है जीवन की डगर
लेकिन जिए तो लगा, इतना आसान न सफर।
फिर भी झुकने का तो मन नहीं
युद्ध के लिए स्वयं को तैयार करना है।
क्यों इतना क्षीण बन जाता, शक्ति का ज्ञान नहीं
क्यों न आत्मिक रोशनी से, अन्तर को देख पाता ?
क्या इतना कमज़ोर हूँ एक थपेड़े से घबरा गए
इतना आभास तो है, मानव में अदम्य-अक्षीण शक्ति है।
क्यों एक ही मौत से खुद को मृत मानने लगे हो
यहाँ तो हर पल मर कर जीना पड़ता है।
हौंसला एक बार पस्त होने का अर्थ यह तो नहीं
कि दोबारा आशा का सहारा नहीं ले सकते।
सबके साथ ऐसा होता है, किंचित कुछ न्यूनाधिक
संसार-नियम ही कुछ ऐसा है कि सहना पड़ता ही है।
यह लड़ाई अपनी ही है, स्वयं से ही लड़नी पड़ेगी
घबरा कर बैठ गए तो मंज़िल तक कैसे पहुँचोगे ?
बहुत कठिन है डगर पनघट की
मानसिक व्यथा का भी गहरा प्रभाव है।
पर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है जीवनी-शक्ति
इसके सहारे हर चट्टान से टकरा जाओगे।
मन को करो सुदृढ़, शक्ति को संचित करो
अपने को स्वयं के क़ाबू कर, मन एकाग्र करो।
मन को ख़ुद के क़रीब लाओ
मित्र अपने को तुम बना पाओगे।
पाओगे इस कष्ट में भी कितना आनंद है
फिर दिन तो ढ़लती-फिरती छाया है।
सभी दिन सबके एक जैसे नहीं होते
लेकिन आंतरिक ईमानदारी ही बड़ा संबल है।
मैं अपने को उठा दूँ इस अज़ीब घुटन से
आज़ादी की एक साँस लूँ, मन में आनंदानुभूत करूँ।
जगत से क्या घबराना, वह मात्र अपना काम कर रहा है
यह तो मैं ही हूँ, जो स्व-छाया से घबरा रहा है।
दोस्त, स्व को इतना वीभत्स मत समझो
जानो कि परम-पिता परमेश्वर की महान संतान हो।
तुम्हारे अंदर भी उसके समस्त गुण विद्यमान है
उसपर विश्वास से जीवन में मुक्ति-अहसास करो।
पवन कुमार,
30 जनवरी, 2016 समय 22:11 रात्रि
30 जनवरी, 2016 समय 22:11 रात्रि
(मेरी डायरी दि० 21.07.2001 समय 8:20 से)
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