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Sunday 17 January 2021

मूल जीव-गठन

मूल जीव-गठन 

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क्या आजीवन बदलते रहते, या यूँ ही किंचित भौतिक परिवर्तन सा 

देह वर्धित आकार शिथिलित, यौवन-बल, दीर्घकाल सुदृढ़ दिखते। 

 

बाह्य-स्थलों पर अनेक नवीन-संपर्क, स्व-स्थिति अनुसार व्यवहार भी 

पर अंतर्निहित मूलतत्व बाहर ही जाता, निज को करता प्रदर्शित भी।

कई  बार मौन का अभिनय भी, कहते कि रख लिया मन मसोसकर 

जब समय तो कुंठा बाहर कर दी, एक बोली से ही अंतः-अनावरण। 

 

स्थिति अनुसार गंभीर-मुद्रा भी, अवसर पर तो नंगेपन में झिझक  भी  

यदि पता कि समक्ष वाला बली, तो प्रतिक्रिया कुछ सोच-समझकर ही। 

हम वचन पूर्व अन्य को जाँच रहे होते, कुछ अति पुण्य-अपुण्य अंतर्लुप्त 

जहाँ ज्ञात कि प्रथम पुरुष अल्प-बल, तो हेंकड़ी, समक्ष रखते बलपूर्वक। 

 

जब  हम अपने मित्र-बंधुओं से मिलते, कमोबेश पुरा-रूप में आगमन 

तमाम जग से वही शिकायतें, पुरानी बातें स्मरण, सम विचार पुनर्पाठ। 

निज बुद्धि अनुसार विषयों पर चिंतन, शायद अन्य भी रहा कुछ समझ 

सौहार्द-भाव से ही प्रतिक्रिया या उचितीकरण, बुरा मानते लेते सह। 

 

हमारा बहु गठन जन्म के कुछ प्रथम वर्षों में ही, मन अनेक वहम पालता 

अति गहराई में पैठकिञ्चित पश्चात में संघनित या सुधरते भी यदा-कदा। 

तथापि एक स्थायी प्रभाव व्यक्तित्वों पर, मनुज बदल पाता चाहकर भी 

कुछों प्रति अति स्नेह या सहज भाव, कुछ नापसंद, एक स्थायी सी दूरी। 

 

आत्म वस्तुतः कुछ विचार-पड़ाव ही, संघनित  हो एक व्यक्तित्व-गठन 

किञ्चित स्वयं भी ज्ञात ऐसे हैं क्यूँ, प्रयास के  बावजूद भी सुधरते न। 

पुनर्पुनः उसी पुरा-शैली में आगमन, चाहे अन्य को कितनी भी आपत्ति 

या शक्ति देख बदलने का अभिनय भी, फिर मौके पर वही मन-ग्रंथि। 

 

स्वयं की ५३ वर्ष उम्र इतनी कम भी , कि  हो सके निज-परीक्षण 

अल्पाधिक मन में शायद १५-१६ वर्ष अवस्था जैसे ही पाले हूँ वहम। 

हाँ बोल-विचार में काफी परिवर्तन, पर प्रतिपल  दुहराता सा प्रतीत 

माना उस परिवेश में गमन, महद पूर्वेव अब भी द्रुत-परिवर्तित। 

 

निज में मैं नितांत एकाकी, अपने संग ही बिताना होता एक- पल 

कब तलक दूजे को व्यवधान करूँ, उनके काम-जिंदगी है निज। 

सदा मन कुछ असार्थक सोचता, संभवतया मनन-कला जानता 

पर चिंतित रहने की कला में दक्ष, व्यस्त होने हेतु कुछ ढ़ूँढ़ लेता। 

 

अन्य प्रति स्थायी सा भावचाहे मिथ्या स्वयं पर औरों से अपेक्षा उचित

आप स्वयं सब सुविधाऐं लेते, जब औरों को लब्ध तो होती सी जलन। 

पूर्वाग्रह अन्यों पर थोपते चाहे अनुचित ही, अन्यों का भी जिद्दी चरित्र 

एक सतत घर्षण व्यक्तित्वों में, हाँ विद्या-प्रशिक्षण से कुछ परिवर्तन। 

 

पर शैली सुधार जरूरीयदि भूत उत्तम भी  तथापि सही सदा ढ़ोना

दुनिया में अनेक शख़्सियत ऐसी हुई, तमाम आयु आत्म को है सुघड़ा। 

रुक बैठना ताल सड़ना सा, मन तरल है, रेखाऐं पुनः अंकित सकती हो

उचित संदर्भ में देखना-समझना सीखो, कोई कारण कि सुधार हो।  

 

अंततः क्या उद्देश्य जिंदगी का, संयत पुरुष हो विश्व-हितार्थ कार्य करें 

प्रायः वहम गलत, अतः सँवारकर मृदुल भाषा में स्व-अविष्कृत करें। 

नितांत व्यथित होना व्यर्थ-संवादों में, निज को झझकोरे क्या उचित 

जीवन धन्य कर सकें तो पुरुषार्थी, अन्यथा बीतेगा पशुवत नैसर्गिक।  

 


पवन कुमार,

१७ जनवरी, २०२१ रविवार, समय :४३ बजे प्रातः 

(मेरी डायरी  मार्च, २०२० मंगलवार १०:३६ बजे सुबह से

 


Sunday 10 January 2021

निर्मल धारा

निर्मल धारा 

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थोड़ा प्रकाश भी आवश्यक एक आशा हेतुअंधकार में प्राणी सशंकित ही रहता 

एक पथ प्राप्त गति हेतुमन कुछ आशान्वितचलो अधिक खतरा  अब दिखता। 

 

एक रोशनी-किरण भी अँधेरा चीरने में सक्षमअतः हममें आशा जगनी चाहिए ही 

नित सकपकाए-भीत-निराश-असमंजस  रहेंअंततः जीवन-पर्याय ढूँढने जरूरी। 

माना कई जग-व्यवधानलोग बहु-क्लेशग्रसितगरीबी-शोषण-अशिक्षा व्याप्त अति 

पर साहसी  समस्याओं से निबट लेतेजीवन सरल होतास्थिति सुधरती ही रहती। 

 

देखिए दुनिया विकास पथ परअनेक प्राण सुधर रहेलोग बढ़िया खा रहेंजी रहें दीर्घ

घोर निर्धनता घट रहीशिक्षा का स्तर-प्रसार बढ़ासंचार-तंत्र सशक्तजन निर्भीकतर। 

विभिन्न क्षेत्र-राज्य-राष्ट्रया अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कई संगठनआम मनुज की करते बात

किसी को दबाना अब कठिन, शासनों को उत्तर देना पड़ताअसहनीय अन्याय आज 

 

मैं मानता वर्तमान जग-व्यवस्था ऐसी जहाँ सब लोग शामिलवे अपनी नज़रों से देख रहे 

पहले से अधिक जागरूकसब शासकीय-देशीय-अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं से परिचित रहते। 

कई तरह के विचार-आयाम समक्ष आतेपरिपक्व बनातेएक निर्मल धारा में बहने लगते 

तब अड़ियलपनव्यर्थ श्रेष्ठता-भावबल-ज्ञान गर्व दुर्बल आरंभ,  नर परस्पर पास आते। 

 

एक आशा प्रबल चाहिए सब व्यवधानों से निर्गम संभवअब तक भी तो जैसे-तैसे जीवित

तुम जीवन कदापि हेय  समझोहाँ कई आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियाँ करे व्यथित। 

पर घबराने की किंचित भी  आवश्यकताकोई करुण सहाय  ही जाएगा समय पर 

हाँ निज हाथ जगन्नाथ चाहिएजब स्वयं खड़े होवो तो भाग्य भी खड़ा होगाजागो अतः। 

 

हमें व्याप्त थोड़े अंतरों का आदर करना चाहिएछोटी-मोटी पहचान की कद्र भी जरूरी  

हाँ निज को एक सम्मानित  पटल पर लाने हेतु बड़ी पहल होसस्ते  में  बैठना चाहिए। 

विश्व में लघु प्राणियों को भी स्व अधिकार रक्षा करते हुएदेखा जा सकता ही बड़े सहज 

कुत्ता भी अपनी गली में शेरनीड़ निकट जाने पर पक्षी शोर मचातेस्वार्थ समझते सब। 

 

यहाँ दबी-कुचली-त्रसित-दमित-संतापित-प्रताड़ित-निम्न जीवन बहुल मानवता खंड को क्या संदेश 

कि वे कदापि निज को  कमतर आंकेंमाना परिस्थितियाँ आज विषमपर भाग्य परिवर्तित सदैव। 

तुम्हें अंतः-स्थल में एक पूर्ण विश्वास रखना होगासुयोग्यों को प्रेरक मार्गदर्शक रूप में होगा देखना 

अपने दुराग्रह-ईर्ष्या-द्वेष-संकीर्णता तजएक उच्चतर मानव रूप में स्व-स्थापन निज दायित्व समझ

भली आशा का दामन पकड़उन्नतिपरक सकारात्मक दिशा में उत्साह-मनोबल संग बढ़ते है जाना। 

 

 

पवन कुमार,

१० जनवरी२०२१ रविवार समय :२३ बजे प्रातः। 

(मेरी डायरी २० अक्टूबर२०२० मंगलवार समय सुबह :०१ बजे से)