प्रोत्साहन-मनन
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मनन यह क्या मनन हो, निर्मल-चित्त तो वृहत-आत्मसात कहते
हम सब उसीके ही भिन्न अवयव, पूर्णता से जुड़ पूर्ण ही बनेंगे।
लेखन भी है अद्भुत विधा, कुछ न भी दिखे तथापि पथ ढूँढ़ लेती
कलमवाहक को मात्र माध्यम बना लेती, उकेरेगा जो यह चाहती।
माना लेखक की सोच का पुट होता, पर शक्तिमान तो कलम ही
यह परिवर्तित करती कर्ता को भी, उसके भावों को सुदृढ़ करती।
चलते हैं इसके संग आज, नवीन-प्राचीन या भावी अथाह में कुछ
जो समक्ष आएगा उकेरा जाएगा, निज का न कोई है विशेष पक्ष।
मात्र कलम संग एकीकरण, परस्पर-वार्ता से निकलेंगे कुछ सुर
हेतु ये क्षण अति-महत्त्वपूर्ण-अमूल्य, इनमें स्थित हो हुआ निर्मित।
अवसर तो जीवन देता हर पल, आवश्यक मात्र संजीदा हो विचारें
क्या हम वर्तमान नियुक्ति में, या जीवन-यापन है सफल समृद्धि में।
कैसी भी स्थिति में तो होंगे, सर्व - दिशाऐं आव्हान करती निमन्त्रण
हर पल अनुभव ही जीवन,चलो ज्ञानेन्द्रियों से करो प्रकृति-स्पंदन।
आशान्वित होना अग्रिम-पलों में, मानव को देता सदा गति-प्रेरण
हाँ सब पल तो एकसम न, पर न चलेंगे तो निश्चित ही रहेंगे मन्द।
मन-देह का न पूर्ण उपयोग, स्थिर-जल बहु-सम्भावना सड़न की
चलेंगे-भिड़ेंगे, घर्षण-संघर्ष, प्रक्रिया में ही बनेंगे गोल-उपयोगी।
पाषाण-शैल सम निश्चल, यूँ तटस्थ प्रकृति-निकट ही दर्शन
अनेक जीवन-पादप पोषक, सूर्य-चन्द्र-तारक-ऋतु आत्मसात।
अनेक सर-सरिताऐं देह से गुजरते, प्रवाह अनेक अवयव संग
तव मिलन सागर साथ, दिशा-पवन सुनाती सुदूर के सन्देश।
माना प्रकृति अचलता की, विपुल देह संग चलना अति-दुष्कर
कमसकम प्रकृति-कारकों से साहचर्य-प्रवृत्ति, तभी हो जीवन्त।
जब कुछ त्याग सकोगे, तभी तो रिक्तता बनेगी नव-ग्रहण की
चाहिए आदान-प्रदान प्रक्रिया, परस्परता से पूर्णता-राह बनेगी।
अनेक अवयव निश्चल से, सूक्ष्म-दर्शन से होती उनकी गति स्पष्ट
स्पंदित, प्रकृति-रस आस्वादन सदा, सहयोग से चलाऐ ब्रह्माण्ड।
भले अदर्शित पर हर की पूर्ण-भागीदारी, अनुपस्थिति से मूल्य ज्ञात
अतः आवश्यकता परस्पर-सम्मान की, सहभागिता से बनती बात।
तथापि कुछ अति-चलायमान भी, अनेक निश्चलों में भी प्राण भरते
अवयवों के आदान-प्रदान में सहायक, निम्न की भी गुणवत्ता बताते।
सर्वत्र एक सम्भावना-उदय, मैं अति-दूर से आया तुम भी सकते जा
विश्व में अनेक स्थल है प्रगति, नेत्र खुलेंगे तो मन-विकास भी होगा।
अनेक नव-अविष्कार नित, सहभागिता दिखाओ नव-निरूपण
और कर रहे तुम क्यों न, अनावश्यक नकल बनाओ निज कुछ।
क्यों सोचते हो स्वीकृत न होवोगे, चलोगे तभी तो सुराह दिखेगी
नव-अनुभव से गतिमान, स्थिरता से तो कारकों से घिसोगे ही।
जीवन में नित प्रायः एकसम घटित, लगता है इस हेतु ही जन्म
व्यापन में मौलिक-समर्पण जरूरी, हो लाभ उपस्थिति का तव।
हाँ परिवर्तन यकायक प्रकटन हैं, चाहे प्रसन्न या न जँचे उपयुक्त
वृहद विश्व-प्रणाली में तुम मात्र पुर्जे, चाहने से ही न सब संभव।
ध्यान से देखो, प्रयास भी, पर प्रवाह संग रहो तो सुदूर-गमन
क्यों विपरीत-बहाव, ऊर्जा-क्षय, हाँ अत्यावश्यक तो करो वह।
न अपुण्य-विचार में हाँ मिलाओ, तुम्हारी मौलिकता निज पूँजी
विरोध का भी सभ्य-प्रकार, उचित को लोक की हृदय-स्वीकृति।
बहु-कारण हैं गति-शैली निर्माणार्थ, अपने को तो पूर्ण जीना ही
जीवन ने सँवारा अमूल्य देह-अंग-मन द्वारा, जो स्वतः अद्वितीय।
विपुल समृद्धि - उपयोग मद्धम, कोई सुविज्ञ कहे प्रयोग अत्यल्प
यत्न से इस कल को चला, जो निज कर में - उसको सँवारो प्रथम।
आगे का किसको ज्ञात क्या होना, वर्तमान में तो झोंक दो सर्वस्व
विश्व-सहायता उत्तम-वहन में, बहुकाल से प्रतीक्षा कर रहा तव।
निज-संग समय भी अनुरूप दिशा-चरण, मनन से कानन सुवासित
कर्म तो मनन संग स्वतः ही, मत सोचो अल्प-वृहद से जाओ जुड़।
देखना प्रारम्भ करो अति-दूर तक, तभी स्व-लघुता का हो अहसास
व्यर्थ शिकायत-बकवादों में न उलझो, सुविचार से लो उत्तम-राह।
कार्य-क्षेत्र सदा प्रतीक्षा कर रहा, आगे बढ़ करो सब विभ्रम ध्वंस
श्रम से निश्चित सुपरिणाम, न रुद्ध किञ्चित, सहयोगी का लो संग।
लोग भी तुम सम अपने से सोचते, मन व्यथित होता यदि न रुचे
पक्ष समझाओ विराट-समर्पणार्थ, स्व-लोभ तो त्याग करने पड़ते।
परिश्रम किस हेतु कर रहे हों, ग्राहक को चाहिए मूल्य ज्ञात होना
यदि सम्मान दें तो अति-सुंदर, अन्यथा भी तो है कर्त्तव्य करना।
ध्यान से देखो नर कितने हैं घोर दुःखी-असन्तोषी व विवह्लित
नकारात्मकता सदा मन में, माना समस्त विश्व-दुःख उन संग।
विलोप सकारात्मक पक्ष का भी, समय बीतता खुलता नव-पथ
जीव को निस्वार्थी बनना चाहिए, आत्म-ज्ञान से ही राह प्रकट।
सकारात्मक-परिवेश नित-आवश्यक, सब प्राणियों का सहयोग
किसी को भी नगण्य न समझो, सहयोग से अति-करणीय सक्षम।
बोलो मृदु-वाणी, मन-संगीत फूटे, हर्ष में लोग ज्यादा काम करते
हटा परदा भ्रम-शिकायतों का, उज्ज्वल पक्ष देखो, सहयोग करेंगे।
बस विराम आज की वार्ता में, निर्मल-चेष्टा हेतु सदा रहो प्रयासरत
अन्यों की बहुत अपेक्षाऐं तुमसे, सारी न सही तो कुछ तो करो पूर्ण।
माना निज हेतु भी समय-ऊर्जा चाहिए, प्रतिबद्धता कार्यक्षेत्र में भी
आशा लाओ सहयोगियों के मन से, सदा उत्तम हेतु करो प्रोत्साहित।
पवन कुमार,
५ फरवरी, २०१७ समय २३:२९ म० रा०
५ फरवरी, २०१७ समय २३:२९ म० रा०
(मेरी डायरी दि० २३ सितम्बर, २०१७ प्रातः ८:५० से )