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Saturday 7 December 2019

महद तंतु

 महद तंतु
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अवकाश दिन संध्या काल, कुछ मनन प्रयत्न से सुविचार आए 
आविर्भूत हो मन-देह, सर्वत्र विस्तृत दृष्टिकोण से सुमंगल होए। 

बहु श्रेष्ठ-मनसा नर जग-आगमित, समय निकाल निर्मल चिंतन 
 उन कृत्यों समक्ष मैं वामन, अत्यंत क्षुद्र-सतही सा ही निरूपण। 
कोई तुलना विचार न संभव, मम काल तो स्व-जूझन में ही रत 
शायद प्रथम श्रेणी प्रारूप, चिन्हित-विधा अपरिचय, अतः कष्ट। 

प्रकृति देख नव-विचार उदित, शब्द-बद्ध कर विश्व-सम्मुख कृत
स्व-विस्मृति उपरांत ही निर्मल-संपर्क, शब्द-रचना हुई सर्वहित। 
मनुज के निर्मल रूप से ही ऊर्ध्व-स्तर, मृदु बनो उठे स्वर-लहरी 
 कालजयी ग्रंथ समाधि-रूप ही चिन्त्य, यति वृहद-मनन सक्षम ही। 

कुछ तो एकांत-चिंतन है महानुभावों का, मन उच्च-द्रष्टा यूँ तो न 
जग-अनुभव उर-रोपित, सर्वमान्य उद्धरणों द्वारा निज-उद्घोष।
अति-विपुल मनन, सर्व-ब्रह्मांड हो निज-कर, कई वर्ण-सम्मिलित 
विनीत-शैली, नर-कष्टों से करुणा, सर्वोदय हो सके यही योजित। 

कैसे विपुल-कथाऐं उनके मन-उदित हुई, वे भी  थे सामान्य नर
 किञ्चित आदि तो तत्र भी अल्प से ही, सततता से पार दुर्गम पथ।
दीर्घ-चिंतन एक विशेष में, सर्व-उद्वेग शमित व उच्च-स्तर लब्ध
विषय-प्रकृति दृढ़-पाशित, सब चरित्र स्व के  प्रारूप समाहित।

उस उच्च-अवस्था गमन प्रयास, पर कब लब्ध यह तो प्रकृति-कर
मन निर्मल, सततता हो ध्येय, कुछ नव-प्रारंभ हो सके यही जप।
पूर्व में तो धृति ही न थी उदित, संभव किसी महद रचनार्थ प्रयास
दैव सम प्रारब्ध का भी निज काल, आशा यह हो शीघ्रातिशीघ्र।

प्रयास-मति इन क्षणों की आवश्यकता, अध्याय से हो मधुर संपर्क
निज-हस्त आ सकें कोई महद तंतु, जिससे सफल हों अग्र चरण।
अनेक कथाऐं सदा विस्तृत दृश्यों में, बस एक पकड़ों दो परिभाषा
कोई न कर में कलम पकड़ाऐ, स्व-यत्न से ही सुलेखन-आकांक्षा।

उद्योग-प्रणेता, एकाग्रचित्त बन एक आदि करने का कर संकल्प
फूटेंगी नव-कोंपलें तुम रुक्ष तरु पर ही, अविचलित भाव तो भर।
जो असहज अभी दर्शित, वही देगा पथ जिसपर होगे तुम गर्वित 
एकाग्र-चित्त से दृष्टि-विस्तृत करो, अनेक विषय होओगे विस्मित।


पवन कुमार,
७ दिसंबर, २०१९ समय १०:३२ सायं
(मेरी डायरी ०१ दिसंबर, २०१९ सायं समय ९:१९ अपराह्न)

Thursday 21 November 2019

संभव उदय

संभव उदय
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कितना ऊर्ध्व शिशु उदय संभव, इस मनुज के अल्प वय-काल 
चेष्टा से ही संपूर्ण कार्य परिणत, अनुरूप परिस्थिति मात्र सहाय। 

देश-काल में एक समय अनेक जन्म, आवागमन का ताँता सतत 
सबका तो निज समय व्यतीत, पर क्या उच्च स्तर से भी संपर्क ?  
मानसिक-भौतिक की उच्च श्रेणी से निष्णात घड़ित विद्वान-समृद्ध
उन्नत स्तर तो कुछ ही जन्म से, उनमें से अत्यल्प ही पाते सँभल। 

संपन्न-राजकुल जन्मा बालक, पूर्वज-योग्यता प्राप्त हो न आवश्यक 
प्रायः अपघटित कभी वृद्धि भी, निज प्रयास-परिस्थिति भाग अहम।  
कालिदास के रघुवंश में दिलीप-रघु, दशरथ-राम की गुरुता दर्शित
पश्चाद वाले शनै सुख-ऐश्वर्य में मस्त, व महान वंश हो गया विनिष्ट। 

उच्च महत्त्वाकांक्षी कुशल-चेष्टालू ही चाहिए, महत्त्वपूर्ण है प्रतिपल 
मुफ्त में न यश-श्लाघा प्राप्त, यदि भी तो अप्राकृतिक बस अनर्थ। 
योग्य तो बनो एक पद-स्तर के, हो मन में कुछ स्व-आश्वासन भाव 
हाँ अनेक कृत्रिम आत्म-मुग्ध, लघु मूढ़-कूप में ही लगाते छलाँग। 

किससे है निज  तुलना, एक स्तर देखोगे तो ही पाटन-दूरी ज्ञात 
कितनी ऊर्जा-वृद्धि  वाँछित, चरम-स्तर चूमने का लक्ष्य महान। 
अधुना काल में अनेक विज्ञान-अविष्कार, संचार-क्षेत्र अति-प्रगति 
वीडियो-दूरदर्शन, सोशल-मीडिया, अचरज-करतब सतत कई। 

कलाकार अति परिश्रम करते, उच्च अवस्था तो स्वतः ही न प्राप्त
अडिग यावत न वाँछित फलन, पूर्ण झोंके बिना तो न कोई बात। 
खेल-प्रतिभाऐं कठोर अभ्यास-परिश्रमी, अनुशासित लाभार्थ कुछ 
व्यर्थ तज ध्येय में रूचि, ऊर्जा-संघनन से सहसा विक्रम-पौरुष।  

क्यों मद्धम अवस्था में ही मुदित, जब खुले अनेक प्रगति-आयाम 
त्याग अति निद्रा-तंद्रा, घातक निम्न-प्रवृत्ति, तब  अति-दूर छलाँग। 
किसी दिशा बढ़ लो स्वरूचि अनुरूप, भाँति-२ के कुसुम-विस्मय 
अपने को कुछ प्राप्त ही, व्यर्थ सुस्ती छूटे व मिलें विकास आयाम।

अवसर मम  चेष्टा का ही स्वरूप, चलेंगे तो चक्षु दूर तक दर्शन
मन में  नवीन विचार, कई संभावनाओं का नृत्य-गायन प्रस्तुत। 
यदि कुछ जँच जाता, अग्र बढ़कर होता उस हेतु प्रयास आरंभ 
प्रगाढ़ इच्छा - बंद कपाट भी खुलें, लहरों से भीत तीर ही तिष्ठ। 

अपरिचित से तो सत्य-डर, शनै-२ आयाम सीख लो तो सौहार्द 
यह यथोचित प्रशिक्षिण, परिचय से पूर्ववत विस्मय लगे सहज। 
भय तो कुछ पलों का ही, उस पार ही तो खुलता विकास पथ 
प्रथम पग तो किंचित कष्टकारी, अभ्यस्तता से सुहानी पवन। 

अनेक व्यवधान, मन-अरुचि, आवश्यक कृत्य, और अन्य कभी 
शीघ्र निबट, मन सहज, कुछ विश्राम से गुणवत्ता-क्षमता वृद्धि। 
लक्ष्यार्थ जुट जाओ, थोड़ा-२ बढ़ने से ही है महद दूरी जाती पट
पूर्ण-स्पंदिन न अकस्मात, कई शनै-प्रक्रियाओं का ही है फल। 

सर्वपल न एक सम, मन जम जाता कभी चाहकर भी न प्रबल 
मन-देह नैसर्गिक प्रक्रिया, दैनंदिन क्षमताओं में वृद्धि-अपघट। 
फिर भी प्राण  चलित, अगर मन में प्रगाढ़ इच्छा है तो गतिमान 
जब दिशा लक्ष्य-इंगित तो क्यूँ डरना, पूरा न तो कुछ ही प्राप्त।  

चंद्र-मंगल आदि ग्रह चुंबन हेतु तो जरूरी फाँदना ही होगा गुरुत्व 
'निकास गति' से अधिक जरूरी, पुनः गुरुत्वाकर्षण से पतन वरन। 
कई विद्या-यंत्र-प्रक्रियाऐं सीखनी पड़ेगी, खगोलज्ञ करते अति-श्रम 
नासा, इसरो, रशियन स्पेस एजेंसी आदि, प्रयोगों से हैं होते सफल।

जन्म पर अदने से, पालन-पोषण-शिक्षण-स्वाध्याय से कुछ योग्य 
 परिष्करण एक सतत प्रक्रिया, जीवन संवारना है अपना दायित्व। 
लोहा तप्त रखना ही होगा, अवसर मिलते चोट, उपकरण फिर 
यंत्र सक्षम, पैदल से साईकिल, कार-वायुयान गतिमान अधिक। 

निश्चित ही भौतिक-मानसिक क्षमता-वर्धन से उच्च स्तर तक पहुँच 
जग में विशाल संख्या-प्रचलन, अल्प का ही उनसे आत्मसात पर। 
तन-कोशिका, मस्तिष्क-सूत्रयुग्म, केश-श्वास, प्रायः अगणित नक्षत्र 
पर सामान्य मन न सोचता, वह तो अल्प परिवेश में ही मस्त-व्यस्त।

पर महद-कर्मी दैनंदिन कार्यशैली में ही उद्देश्य हेतु पूर्ण समर्पित 
प्रेरणाओं का पीछे से सहारा, सुप्रबंधन प्रक्रियाओं का संग नित। 
कुछ शीघ्र ही अति-विकसित, जो असंख्य आजीवन भी असमर्थ 
कुछ तंत्र-विज्ञान जरूर इसके पीछे, किसी मंत्र से अग्र संवर्धित। 

अनेक चिंतक-प्रेरक-सज्जनों का प्रोत्साहन, पर सब श्रोता तो असम 
प्रवृत्ति 'खाया व मलरूप त्यागा', सुपाचन से न उपयोग हर अवयव। 
प्रचलित विचार-धाराओं व पूर्वाग्रहों से ऊपर उठ, नव-नियम स्थापन 
विश्व उनके पदचिन्ह चलता, उनका उद्देश्य मुख्यतया स्वहेतु ही पर। 

न्यूटन-आर्किमिडिज-एडिसन-आइंस्टीन-गैलीलियो-डार्विन से अनेक 
सुकरात-बुद्ध-कृष्ण-कबीर-हजरत-जीसस-लेनिन से हैं युग प्रवर्त्तक। 
व्यास-कालि, शेक्सपीयर- टेनीसन, टॉलस्टॉय-डांटे से  कवि-लेखक 
सिकंदर-चंगेज, अशोक-अकबर, सोलोमन-नेपोलियन से योद्धा-नृप।

पेले-ध्यानचंद, तेंदुलकर-फ्लेप्स, मुहम्मद अली-बोल्ट सी प्रतिभा-खेल 
विदुर-चाणक्य, मैकियावली, 'आर्ट ऑफ़ वॉर' के सुन तजू कूटनीतिज्ञ। 
ब्रूसली से स्फूर्त, बीरबल-चार्ली चैपलिन से विदूषक, निपुण जैफरसन  
प्लेटो-सिसिरो, अंबेडकर से विधिज्ञ, अर्थशास्त्री मार्क्स-आडम स्मिथ। 

अनेको-अनेक नाम उज्ज्वलित हैं विश्व में, जितने चाहो उतने लो खोज 
महामानव इस धरा पर सब ओर छितरित, आदर्शों की कोई कमी न। 
बिल गेट्स-वारेन बुफे-अंबानी, इलोन-मस्क, जुकेरबर्ग व स्टीव जॉब्स  
कैसे अल्प से इतने अधिक अग्र-वर्धित, कल्पना से ही खड़े जाते रोम। 

आज चिंतन-विषय स्व-वृद्धि, सब उन भाँति न तो स्व-रूचि अनुसार ही 
जीवन न मिलगा दुबारा, जो पूर्ण-उपयोग, कुछ ऊँचाई चूमो तुम भी। 

पवन कुमार,
२१ नवंबर, २०१९ समय १८:३५ सायं 
(मेरी डायरी दि० २७ नवंबर, २०१६ समय १२:३० अपराह्न से)   

Monday 4 November 2019

ऊर्ध्व-जिजीविषा

ऊर्ध्व-जिजीविषा 
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अजीब सी हैं ये सुबहें भी, ख़ामोशी से बैठने ही देती न 
कुछ पढ़ो, प्रेरक लोगों में बाँटो, बैठो जैसा हो दो लिख। 

यह निज संग सिलसिला पाने-बाँटने का, कुछ करने का 
अन्य साधु उपयोग थे संभव, पर अभी वैसा जैसा भी बने।
बकौल रोबिन शर्मा प्रातः ५ बजे वाले क्लब में होवों शामिल
अभी तो खास न हो सका, तथापि जैसा बनता करता निर्वाह
कभी अवसर मिला तो शायद वह भी या और उत्तम होगा। 

न एकलक्षित, कुछ पूर्व सोचा सीधा लेखन पर आ जाओ 
मन बोला कुछ प्रेरक पढ़ो, व्हाट्सएप्प आत्मीयों में बाँटो। 
अवश्य कि पढ़कर ही अग्रेसित, बिन समझे तो है अनुचित
ट्विट्टर जोड़ता कुछ अनूठे व्यक्तियों से, छापते उत्तम नित्य। 

अनेक भली चीजें बिखरी सर्वत्र, वाँछित उठाने का इच्छा-बल 
माना लब्ध सीमित समय-ऊर्जा, तो भी सोचकर कुछ चयन। 
अनेक सहयोगों से ही सार्थक परिवर्तन, अन्यों हेतु भी उद्देश्य 
जीवन निजोपरि होना चाहिए, जब नहीं रहूँगा मेरे होंगे शब्द। 

कैसा दिग्गजों का जीवंतता प्रयास, बाद भी देह-प्राण गमन
क्या सहज पथ या व्यक्तित्व शैली, बलात तो बड़ा न संभव। 
न कोई होड़ आगे निकलने की, जिसकी जो समझ रहा कर
तथापि शक्ति अनुरूप क्रियान्वित, समयाधीन तो परिणाम।

विटप से अंकुर -पादप, फिर सुरक्षित-स्वस्थ  पूर्ण वृक्ष रूप
कई अवस्था, नित-संघर्ष, अनेक आत्मसात, निर्वाह कठिन। 
प्राकृतिक साधन, भला परिवेश है तो गति संभावना अधिक 
अन्यथा अनेक स्व ही हट रहें या हटाए जाते, निर्बल बेबस। 

कली-पुष्पन, सूर्योदय संग विकसन, साँझ ढ़ले पँखुड़ी निमील 
प्रकृति सुगंधि, परिवेश सुरुचिर-प्रयास, स्व ओर से न कसर।
नैसर्गिक या अदम्य प्राण-शक्ति, पूर्ण झोंकूँ हेतु जग-निखरण
यह हर अंतः-गुह्य, वे भली जाने अभी  स्वयं की करता बात। 

अवश्य सब निज भाँति कुछ कहते, ख़ामोशी-मस्ती मशगूल 
क्या उससे अच्छा था संभव या उनके व्यक्तित्व का प्रयत्न।  
कमतर प्रयास भी न, उपलब्ध ऊर्जा से  कर सकते अधिक 
जिजीविषा है ऊर्ध्व की, अनुपम-मिलान का प्रयास किञ्चित। 

कोई यत्र मस्त, कोई तत्र उसमें, निज प्रयास पूर्ण निखरण का 
प्रयास भी एक बड़ा शब्द, मन से जुड़ स्व से जूझना सिखाता।
जैसी स्थिति भी उत्तम करना, ऊर्जा सहेज कर जाना अनुपम
दिल से जुड़न निखरण-प्रक्रियाओं से, खुलें विकास के पथ। 

प्रथम अंतः-प्रेरणा ही, तभी प्रातः जल्द जग अन्न -जल प्रबंधन 
स्वजनों का ध्यान, तन को गतिमान रखने को उचित व्यायाम। 
पड़ोसियों-समाज से हो सहयोग, मेरा सा व्यवहार वे भी करेंगे
फिर बाँटूँगा तभी मिलेगा, स्व सहेजा  सबके काम का बनते। 

अनेक प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संग जुड़े, अपने में धुरंधर मान लो तुम 
यदि न करूँ तो भी भले-चंगे, किसके जाने से रुका यह जग। 
पर जीवन कैसे फलीभूत, अकर्मण्य रहकर यूँ बीत गया यदि  
औचित्य प्रमाण प्रथम आत्म से, अन्य भी आँकेंगे किसी भाँति। 

जग के सहज-चलन में सहायतार्थ, हृदय-गति समझनी होगी 
उचित संवेदन-उकेरन-व्यायाम से स्वयं प्रतिपादित यत्न-गति। 
ये चेष्टाऐं सक्षम स्व-निर्माण हेतु, नियम-कायदे तो सीखने होंगे 
कैसे महक सकती जग-बगिया, माली-पुष्प बन सहयोग करें। 

चलो मानते निज नितांत भी न चिंता, हूँ पूर्णतया जग-समर्पित 
जो भी हूँ इससे ही, इस हेतु व गणतंत्र भाँति इसका ही अंश। 
कोई न एक विशेष इकाई, स्वस्थित होते भी कण विश्व-ब्रह्मांड 
संभव योगदान सुनिर्वाह में, न झिझकूंगा, मेरी भी सीमाऐं हाँ। 

इस  कार्यशैली से ही पथ अग्रेसित, कालजयी न सही तो कुछ 
सब कालों में था, हूँ, हूँगा, पर अभी है बात चेतना आधार पर। 
इस संज्ञा-रूप जन्म का महद काल विसरण व हेतु ही प्रयास 
सब पूर्वज, अद्य सखा-सहयोगी, भविष्य के कर्मठ भी स्वरूप। 

एक वृहद में सब लुप्त, सागर में जल-कण क्या श्रेष्ठ या निम्न 
सर्व-मिलन से अनुपम जलराशि, सार्थकता में स्वयमेव निज। 
प्रति वाष्पकण सहयोग, वही पुनः-२ भिन्न रूपों में लौट आता 
जग-सुनिर्वाह में पूर्ण न्यौछावर, सार्थकता है अस्तित्व हमारा। 

कैसे हो सुबुद्धि-विसरण, यदि दक्ष तो क्या औरों में  सकता बाँट 
एक आयाम-योग से अन्य प्रभावित, पर सीमा में ही संभव काम। 
प्रयास से है सीमा वर्धन, जब चलोगे तो कुछ अन्य हो ही लेंगे संग 
अन्यथा भी भला आरोग्य हेतु, ज्ञान-प्रवाह ही तुम्हे बनाएगा उत्तम। 

सहज ही ये अनूठे शब्द उदित, मस्तिष्क में कुछ तो महाप्रयाण 
यह विपश्यना कैसे संभव, सुघड़-विचरण स्वतः ही है प्रस्फुटित। 
बुद्ध, सुकरात, महावीर की चेतना में भी रहे होंगे प्रयोग अनेक
कुछ असहज क्षण ही पकड़े होंगे, समेकित कर अनुपम बाहर। 

मेरा लेखन भी स्व से ही झूझना, चित्त हो निर्मल तो सब द्वेष बाहर
प्रयास जग हो मधुर-सुंदर, जितना बन सकेगा,  जान दूँगा लगा। 
दायित्व बहु-आयामों का इर्द-गिर्द, पूरा करने में न कोई हिचक 
कैसे हो गण-जीवन सुभीता, न मात्र  रुदन, संभावनाऐं तलाश। 

सेवी दिल से समझो अबलों प्रति दायित्व, सबकी अवस्थाऐं विभिन्न
वे भी कल्पतरु बनेंगे, शुभ्र सौंदर्य, सबकी मनोकामना पूर्ण समर्थ। 
पर तभी संभव जब निज का ही उभरन-प्रयास, फिर न कोई बवाल
तब स्वयमेव परस्पर संगी-प्रेरक, जग-आगमन होगा कुछ सार्थक। 


पवन कुमार,
४ नवंबर, २०१९  ७:४० सायं 
(मेरी जयपुर डायरी दि० २९ दिसंबर, २०१६ समय ८:२६ प्रातः से)  


Saturday 19 October 2019

जननी-कार्य

जननी-कार्य
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 प्रकृति से एक मूर्त मिली, सब अंग-ज्ञानेन्द्रियाँ, बुद्धि से युक्त 
खिलौना तो है सुनिर्मित, पर अज्ञात कैसे हो रहा है प्रयोगित। 

विधाता-बुद्धि है सशक्त, एक अच्छा कलाकार इतनी सामग्री 
अपनी ओर से न कसर, सब चर-चराचर उसी की कलाकृति। 
माना पूर्ण-निर्माण हर विधा में, यहाँ-कहाँ विसंगतियाँ भी कुछ 
कमोबेश सब हैं पूर्ण स्वतंत्र, चाहे तो आराम से जीवन व्यापन। 

विज्ञान भाषा में मानव व अन्य जीव-वनस्पति विकसित यहीं 
प्रक्रिया अति जटिल, विकास पर आज एक धारणा है बनी। 
विधाता या ईश्वर का न कोई स्थान, सर्व समय-परिवर्तन देन 
शनै-२ युगों बाद अद्यतन  स्वरूप, अग्र भी ढंग से ही निज।

कुछ कहो ईश या प्राकृतिक कारण, रचना हेतु जीव-मनुज
हम न मात्र उपकरण, सच वृहद चेतना का ही विपुल अंश।
स्वतंत्र मनन-विचरण हेतु, चाहे तो निज-स्थिति सकते बदल
जरूरी न बस एक जगह पड़े रहो, जग-भूमि तव  ही सब।

संघर्षशील बाह्य-वातावरण, वर्चस्व बचाने हेतु मारे फिरते
हमीं सर्व धन-संसाधन घेर लें, और कहाँ जाते न पता हमें।
व्यक्तिगत या सामूहिक-संस्थागत, पाटन-प्रवृत्ति पृथ्वी-वक्ष
मन में तो हूक चाहे न सक्षम, महत्त्वाकाँक्षा गुण नैसर्गिक।

कुछ जीव हैं तन-बली, दुर्बल-जीव भी युक्ति से हराते पर
खाली बैठा तो भूखा ही रहेगा, या अन्य द्वारा होगा भक्षित।
एक होड़ सी है श्रेष्ठता-सिद्धि की, येन-केन प्रकारेण सफल
सब तीस-मार ख़ाँ, पर बहुदा पराजय देख कम करते यत्न।

जग-चर्या की क्या कहूँ, प्रायः घुटती उदासीनता ही दर्शित
कुछ नर तो अति-त्वरित, पर अनेक तंद्रा से न बहिर्गमित।
देह-मन थकन एक शुल्क लेती, कथन से ही न सब संभव
नेत्र बंद तो कलम भी कंपित, कैसे भला ऐसे उम्दा उदित।

एक उत्तम उपकरण मुझे भी मिला, पर कैसे प्रयोग हो रहा
यह मैं हूँ या प्राकृतिक-चेतना, जो स्वयमेव रखे चलायमान।
क्या हूँ जो स्व ही चाहूँ, जब निर्माण-लक्ष्य बहुदा सार्वजनिक
यहाँ स्थिति भिन्न, बना तो लोकहित हेतु पर मैं मात्र स्वार्थरत।

किसका श्रमिक, किसको कार्यकलाप का लेखा-जोखा देना है
 मन चंगा पर कौन डंडा हाँकता, निज ढंग काम स्वछंद क्षण में।
निज-विश्व स्वयमेव निर्मित, समस्त कार्यक्षेत्र-चोंचले खड़े किए
अभी मर्जी से कलम-कागज लिए बैठा, सदा प्रेरित ही चेष्टा से।

किसके प्रभाव से अद्य-परिस्थिति में, उसमें मेरा कितना अंश
क्या यत्न, हाँ कोई न अपना कहेगा यदि समय कठिन घटित।
तथापि कुछ तो सराहनीय प्रयास, यदि सकारात्मक परिवर्तन
हर ईंट-जोड़ से ही गृह-निर्माण, निर्माता-निर्मित दोनों ही मैं।

विराट प्रश्न पूर्वैव-इंगित, क्या हूँ पूर्ण-स्वतंत्र, परतंत्र या मध्यम
दर्शनों के भिन्न निज-तर्क, पर सक्षम को कर्म के कई अवसर।
माना बहुत जग टाँग-खिंचाई, सत्य में लोगों पर होते भी जुल्म
तथापि नर में अदम्य-शक्ति, चाहे तो विश्व-भाग्य पलट सक्षम।

तो क्या स्वयमेव भाग्य-विधाता, अमूल्य उपकरण मुझे प्राप्त
कुछ मूरतें विश्व-हित चिन्हित, निज न कुछ बस वेला-व्यापन।
पर जितना है समय-ऊर्जा, सार्वजनिक हित में होउपयोग-पूर्ण
कई भाग्य बदले यहाँ तुम भी सकते, चेतन हो लो कर्मठ-पथ।

माता-पिता पाल-पोस पाँव पर खड़ाकर गमित परम-धाम
क्या लक्ष्य था निर्माण का, या सब जैसे बस संतान उत्पन्न।
एकदा हास में माँ से कहा, स्वाद में पैदा किए इतने बालक
युवा-सुख में गर्भधारण, पर प्रमुख उद्देश्य रूप निज सम।

यही निरंतरता की अदम्य-इच्छा, जग-रचित अनेक प्रपंच
विवाह, यौन-संबंध, संतति-पोषण उसी प्रक्रिया में चरण।
अभिभावकों का संतान-मोह, यत्न से पाल-पोस बनाते अर्हत
हम कुछ दिवस के प्रहरी, भविष्य इनका ही व भी दायित्व।

सबको समय क्रीड़ा-मस्ती का, लड़ना-भिड़ना, लेने को पंगा
तुम्हें भी मिला ढंग से जीतो, न शिकायत सब प्रकृति समक्ष।
पर इसी स्वतंत्रता में है तव दायित्व भी, अपने हेतु ही न मात्र
जीव-निर्माण एक महद उद्देश्य हेतु, पर अपना मूल्य तो जान।

जिन वस्तुओं में तव है जीवंतता, शायद वही जीवन-मापदंड
सीमा महद करो अद्य लघु-कोटर से आगे, जग ही कार्य-क्षेत्र।
जहाँ जाओ अमिट छाप छोड़ दो, निज दृष्टि में ही कमसकम
जितना मुझसे संभव उतना तो किया, चेष्टा करूँ और उत्तम।

परियोजना की भी योजना, सर्व भाँति का वाँछित ऊर्जा-साहस
यदि वर्तमान से अग्र दर्शन-शक्ति, निश्चिततया परम-यश लब्ध।
लोगों को मिलाना प्रयासों में, उनका बल-संबल अति महत्त्वपूर्ण
पर पूर्ण-जागृति आत्म-जाग से ही, अन्यों का तो मात्र सहयोग।

पर नर-योग्यता में तुम श्रद्धा करना सीखो, वे कर देंगे अचंभित
मुस्करा कर श्लाघा-प्रेरणा-प्रोत्साहन से, काम निकलवा सीख।
वे तुमको सुपर्द काम लेना तेरा हुनर, माना सबमें कुछ तो कमी
बस ठीक कर पथ बनाते चलो, मंजिल निकट शीघ्र ही मिलेगी।

यह जीवन मेरा ही, स्वयं हेतु निर्मित, मैं संचालक, प्रकृति-दूत
बड़ी अपेक्षा, जननी-कार्यों में प्रयास-सहयोग हो, करो सार्थक।
देश-समाज-विभाग कर्मियों से विदित, दो एक उत्तम वातावरण
जब अन्यों को आदर  देना शुरू कर दोगे, बनोगे कुछ सार्थक।

एक उत्तम-स्थल रखा प्रकृति ने किंचित, पर अपेक्षित अति-महद
हर दिन महत्त्वपूर्ण त्वरित प्रक्रिया हेतु, कसौटी समय-सदुपयोग।
जिससे बात करनी हो करो, संसाधन-विकास, पूर्ण-उत्पादक स्थल
कर्मयोगी बन सब संगी-जाति-विभाग-ग्राह्य का नाम करो उन्नत।


पवन कुमार,
१९ अक्टूबर, २०१९ समय ५:५१ बजे सायं
(मेरी डायरी दि० ३०.०३.२०१७ समय ९:०७ सुबह से) 

Monday 30 September 2019

कलम-यात्रा

कलम-यात्रा 
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चिंतन-पूर्व भी चिंतन, एकजुट देह-आत्मा समर्पित महद-लक्ष्य 
समय-ऊर्जा भुक्त, पर यथाशीघ्र मंजिल-प्राप्ति हेतु हो तत्पर।  

मनन-विषय अहम प्रारंभ-नियम, पर यावत न तिष्ठ कुछ न निकस
एक चित्तसार, सुखासन-प्रकाश, देह-मन सहज, एकांत-निरुद्ध। 
अहं-त्याग, वृहद-संपर्क चित्ति, पठन-पाठन से भी बहु -एकाग्रता
मन पूर्ण-बल तत्काल संभव, जब एक यथोचित परिवेश मिलता। 

देखते ऊँट किस ओर बैठता, कहाँ-किस विषय मन की होगी यात्रा 
यही सखा-वाहन या पथ-प्रदर्शक, विस्मयों से चेतन-संपर्क कराता। 
कोई वजूद न यदि न पूर्ण-तत्पर, समय-ऊर्जा माँगती यात्रा न्यूनतम 
फिर थकन, मध्य-विश्राम, अग्रिम तैयारी, गंतव्य-अन्वेषण-संपर्क। 

सब चाहते सुखद-मनोहर, ज्ञानद-मधुर यात्रा, अग्रिम तो अल्प-ज्ञात 
न्यूनतम जोखिम भी जरूरी, उचित अपेक्षा, तैयारी बनाती सुयोग्य।
फिर यथा समझ तथैव दर्शन, जरूरी तो न सदा ही  रोचक-संपर्क
सब कुछ तो विश्व-थाती, न जानेंगे तो कैसे कुछ कर सकेंगे हित। 

पर यात्रा में भीषण-स्थल छोड़ते, गाइड रोचक-स्थल ही लाते प्रायः 
ज्ञान सर्वत्र पर मुख्य-स्थल संघनित, एकदा गमन से भी विषय ज्ञात।  
कथन-समझ सुलभता, संग्रहालय बनते, अधिकाधिक दर्शक-भ्रमण 
राजा-महाराजा, दरबारी-प्रजा की कथा, दर्शक भी रोमांचित होते। 

कौन आवास-गृह जाते गत-काल बाद, जब इतिहास से आए बाहर 
चाहे कितने ही निरंकुश-दुधर्ष, पर कुछ महत्त्वपूर्ण-चर्चित था नाम। 
महल-बावड़ी, अद्भुत पच्चीकारी उस नृप-निर्मित, सार्वजनिक अब
माना अनेक-सहयोग महद कृति में, नाम-गुणगान तो नेता का पर। 

दूर-देश पथिक हर सम-विषम से गुजरता, माना सुगमता तगाजा 
तथापि अरुचिकर आ ही जाएगा, आवश्यक न शुभ-संपर्क सदा।
सब दृष्टांत ही निज अल्प-विश्व खोलते, दूर-दर्शन न हो घर बैठे तो
सर्व-विश्व भिन्न-रसज्ञता हेतु उद्यमित, किसी दूर-यात्रा चल पड़ो। 

एक झलक हेतु ही तो सब अन्वेषण, कब दर्शन हों भविष्य-गर्भ में 
 छवि अनुभव परम-दृश्य की, सब मौन-भिन्न ढंगों से प्रयास करते। 
जीवन-सार संभव चरम-अनुभूति से, सब मध्य-यात्राऐं हेतु ही उस 
जितने अधिक दृश्य-अनुभव, सत्यमेव चरम भी उतना श्रेयस्कर। 

कथन देव का उत्तम ही वहन, पर क्या परिभाषा उत्तम-अधम की 
  कुछ तो निस्संदेह शोभनीय, कुछ भीषण-दुष्कर, दुराह-कष्टकारी। 
जहाँ सुखी जलवायु-भृत्ति वहाँ बहु-संख्या, विषम स्थल प्रायः निर्जन
सब प्राण-देह हेतु अल्प कष्ट चाहते, सुगम जीवन हो कयास बस। 

पर खोजी को भीड़-भाड़ में अरुचि, इच्छा दुर्गम कौशल-आत्मसात
निज देह-मन पर कई प्रयोग, कितना आगे बढ़ सकें, पूर्ण प्रयास। 
न अति-संतुष्टि मात्र दैनिक खान-पान में, आगे बढ़ो चूम लो गगन 
सब सुख-साधन-ऐश्वर्य तज, एक फकीर सम  जीने में न हिचक। 

सर्व-विश्व निज तो विक्षिप्त-वनवासी, भीषण-त्रस्तों से क्यों दूरी है 
कहीं न कुछ अपेक्षा कर दें, अंततः सब न्यूनतम सुविधा चाहते। 
  जरूरी तो न दुःखी ही, नर अल्प साधनों संग बहुकाल से जीता    
 प्रकृति-पुत्र, उस संग दिवस-रैन  रिश्ता, गुजर-बसर कर लेता। 

किंचित अंत्यजों से क्यूँ दुराव, इहभाव से कदापि न बड़ा-हित 
विश्व एक-स्रष्टा प्रारूप, महा-घटना उदित, समस्त तत्व निहित। 
कुछ को उत्तम-प्रयोग माने, कुछ अपशिष्ट, यह दृष्टिकोण-गत 
विवेकी ही उत्तम-अधम भेद-सक्षम, आम जन पूर्वाग्रह-ग्रसित। 

अभी विषय न सम-विषम, पर भाव नर वृहद-नजरिया अपनाए
सब स्वीकृत, निज-रूचि अनुरूप जिसे चाहें लें, पर घृणा न करें। 
ध्येय हो हर का समग्र-सम्मान, कैसे मिल-बैठकर बात सकें कर 
प्राण कठिन, प्राणी का बलानुरूप समायोजन, अतः न प्रतिवेदन। 

पर नर यात्री ही तो इस वृहद-सृष्टि में, जितना संभव उतना देख 
ज्ञानेन्द्रियों की सदैव स्वस्थता-संभाल से तो, देख सकोगे विराट। 
जीवन-पूर्णता तो अनुभव से ही  संभव, सार मिलेगा सुचिंतन से 
न घबराना कटु-अनुभवों से कभी, निज-काल में सशक्त करेंगे। 

कवि की क्या वर्तमान-चाह, समय कम पर सारांश तक न गमन 
एक शुरू-यात्रा तो पूर्ण हो, अनुभव लेखनी से निरूपण लें कर। 
मनोदित दार्शनिक भाव स्वतः ही उदित, पर कब लब्ध न ज्ञात 
पर इतना जरूरी चरम-अभिलाषा, कितना निखरे विधाता हाथ। 

मेरा मात्र प्रयोग मन-कलम से, कैसा परिणाम होगा भविष्य-गर्त 
न पूर्वाग्रह किसी भाँति का, यदि समय हो तो जितना चाहे चल। 
दृष्टि निस्संदेह प्रखर चाहिए, उसे देखना अभी वर्तमान क्षणों में 
मन भी दाँव-पेंच लगाता, कलम-माध्यम से कुछ उकेरन करे। 

जीवन चलना अति-दूरी, जिज्ञासा प्रगाढ़ मन-देह बनाए रखना 
कभी तंद्रित न हो जाना कर्त्तव्यों में, महद हेतु दीर्घ जगे रहना।
प्रतिबद्धता सघन-विस्तृत हो, सर्व-मनुजता में फूँक सकूँ प्राण 
सब विश्वास करें परस्पर, व्यर्थ-विवाद हटा राह में हो सार्थक। 

भौतिक-मनस भ्रमण बढ़ाओ, जब संभव निकलो अज्ञात तरफ 
संपर्कों से ही अंतः-कोष वर्धित, विकास के कई प्रदान अवसर। 
महाजन महद सक्षम अनुभव-संपर्कों से, विवेक सदा संगी रहा 
तभी जग में नाम, जन जुड़ना पसंद करते, रहें स्मरित दृष्टांत। 

मन-देह स्वास्थ्य अपनी जिम्मेवारी, सहेजना यत्न से सब अंग 
नित्य-व्यायाम आदि से सकुशल, सामंजस्यता न जाना भूल। 
समुचित अनुरक्षण व काम, सृजनता-गुणवत्ता-क्षमता वर्धन 
ध्यान रखना सामान का, जो भी उपलब्ध हो उपयोग-पूर्ण। 

कहाँ से चले कहाँ पहुँचे, कलम-यात्रा विचित्र-अदृश्य ओर 
मन बहु-आयाम समक्ष, गुह्य-अध्यायों से ही है सुपरिचय। 
मैं तो जीवन का दास, कहाँ-किस धाम जाना तुझे ही ज्ञात 
कुछ यात्रा-अनुभव, कयास-प्रयास, ओ मौला हो रहमत। 


पवन कुमार,
३० सितंबर, २०१९ समय ६:२३ प्रातः
(मेरी जयपुर डायरी २३ नवंबर, २०१६ समय ९:२२ प्रातः से)   

Sunday 15 September 2019

'यह जग मेरा घर'

यह जग मेरा घर
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हर पहलू का महद प्रयोजन, ऐसे ही तो जिंदगी में न कहीं बसते 
नव-व्यक्तित्वों से परिचय, नया परिवेश निज-अंश बन जाता शनै। 

कुछ लोग जैसे हमारे हेतु ही बने, मिलते ही माना प्राकृतिक मिलन 
जैसे अपना ही कुछ बिछुड़ा सा रूप, मात्र मिलन की प्रतीक्षा-चिर। 
धीरे-२ आत्मसात भी, यदा-कदा विरोधाभास तो बात अति सहज 
खुद पर भी कभी क्रोधित-खीजते, अंतरंगों से भी तो क्या अचरज?

जीवन में कुछ सीमित पड़ाव ही मिलते, बस कब आ जाते अज्ञात 
उन्हीं में कुछ समय जिंदगी बस जाती, चाहे पसंद करें या तटस्थ। 
स्थानांतरण हो जाता वहाँ कौन मिलेंगे, नाम-गाँव का न पता कुछ
धीरे-२ वही एक शरणालय, पूर्व-अपरिचित अब सहयोगी अंतरंग। 

किसको जानते थे जब जग आए, पर धीरे से एक दुनिया ली बना 
लोग जुड़े या हम उनसे एक बात, तात्पर्य सौहार्द एक निजता सा।  
एक अपरिचित से परिणय हो जाता, फिर बन जाते जन्मांतर-संगी 
दो देहों में एक आत्मा वास, उसके सब कष्ट लूँ यही इच्छा रहती। 

नव-स्थल आगमन पश्चात शनै मकान-सड़क-गलियों से अपनापन 
कालोपरांत नए चेहरे निज रूप ही लगते, जंतु-पक्षियों से भी प्रेम। 
क्या यह सहज प्रवृत्ति, आसानी से ही हम एक दूजे को लेते अपना 
नेत्र-भाव-व्यवहार भाषा प्रधान, यदि वाणी-मिलन तो और सुभीता। 

अपने ही काल देखूँ तो कुछ निश्चित जगहों पर ही अद्यतन कार्यरत 
कुछ वर्ष एक जगह व्यतीत, एक अमिट छाप जीवन संग चिपक। 
निज मर्जी से तो कोई न आया बस धकेला सा गया, समझौता फिर 
वहीं करना-खाना, खुश हो रहोगे तो ज्यादा तन-मन से स्वस्थ भी। 

पर शुरुआत थी संपर्कों का हमारे जीवन में है एक विशेष उद्देश्य
लोग पुनः टकरा ही जाते, स्मृति नवनीत, लगता कल की ही बात। 
निकट-नरों का हम पर गहन असर, किंचित हमारा भी उन पर 
आदान-प्रदान से शनै सब एक सम, चाहे बाहर से पृथक-दर्शित। 

हमारे घर अचानक पूर्व-विचार के मेरी बेटी ले आई लूना पिल्ली 
शुरू में अच्छी, पर बाद में उसकी पोट्टी-मूत्र से घृणा होने लगी। 
लगभग एक वर्ष उसकी हरकतें सही, अब है घर की सदस्या सी
अब उसके बिना कुछ भी पूरा न, पशुओं से प्यार हो सकता भी। 

यह आवश्यक न जिनको हम जानते, सभी को दिल से चाहते 
पर जैसे भी पूर्व-स्वीकृति के न, बस यूँ कहें हमपर धकेले गए।
उनका भी असर हम पर, उनके हेतु भाव अंतः-प्रभावित करते 
न चाहते भी न्यूनतम रिश्ता, अनुभव-भावों का स्थायी प्रभाव है। 

जिंदगी में कई व्यक्तित्वों से योग, गूढ़-संपर्क चाहे काल-सीमित
अमिट असर, प्रतिक्रिया स्वभावानुसार, परिणाम हो जाता निज। 
पर प्रश्न कि विशेष संपर्क में आते ही क्यूँ, यदि वे न तो सही और 
या वृहद विश्व नियम-रोपित, निश्चित अवधि पर ही अमुक मिलन। 

अनेक भाग्य-सिद्धांत विद्वान-निर्मित, बहुत अधिक तो विश्वास न 
या किसी अच्छे से अभी तक न संपर्क, जो पूर्वाग्रह कर दे दूर। 
जब स्वयं अंध तो सर्व तमोमय ही, प्रकाश-अभाव ही अंधकार 
स्वयं अपढ़ तो शिक्षा व्यर्थ प्रतीत, महत्त्व संपर्क-साधन से ज्ञात। 

   'तू नहीं तो कोई और सही', सब हैं एक परम-पिता का न अंश    
 सहोदरों से रक्त-रिश्ता, सम अभिभावक अंड-शुक्राणु मिलन। 
बंधु जो माता-पिता व भाई-बहन संपर्क से जुड़े, वे भी भाग होते 
प्रश्न है अन्यों से कैसे संबंध हों, न साँझा हमारा रक्त-कण उनसे।

वृहदता से देखें तो सब मानव सीमित अभिभावक-संतति किंचित 
उनके ही रज-कण बिखरें, समस्त मानव जाति से रिश्ता है अटूट। 
यहाँ-वहॉं बिखर गए तो क्या, बीज एक से तो पादप तथैव अंकुरित 
कोई विरोधाभास न समरूपता में, स्वसम से होता संपर्क जल्द। 

मानव-समूह चाहे विलग प्रतीत, भिन्न अभिभावकों में समाए सम 
सब संतति-गुण सहज मिलते, एक अपनापन है उदित यकायक।  
श्रेष्ठता-अहंभाव नरों में अप्राकृतिक, कुछों छद्मियों ने दिया समझा 
गरीब-धनी में कुछ न विभेद, जीवन-संघर्षों से किंचित कर्कश हाँ। 

बड़ा प्रश्न क्यूँ अमुकों से ही मिलन या पूर्व-अपरिचित स्थल-गमन
क्या उनसे कोई पूर्व-संबंध, या जग में कुछ न कुछ रहता घटित। 
गुजारा स्थान-परिवर्तन से, समायोजन करना होता, शनै प्यार भी 
सत्यमेव एक निज भाग बन जाते, उनसे निकसित प्रयोजन भी। 

जीवन में भी है बहुल नूतन संपर्क, लोग मिल रहें, कुछ रहें बिछुड़
निश्चित बहु जीवंत भाग निर्मित, अपनों से मिलना भी आवश्यक। 
संपर्क हमारे रिश्ते सुदृढ़ करते हैं, सुहृदों को न कभी त्यागो अतः 
'आँखों से दूर मन से भी दूर है', रिश्ते मरते नहीं देते हैं मार हम। 

जिस पर ध्यान होगा वही बढ़ेगा, अतः संपर्कों का योजन संभव 
जहाँ जन्म है वहाँ भी ध्यान दो, उनको भी मिलना चाहिए लाभ। 
बात याद रखो जहाँ जाओ अमिट छाप दो, बन जाय स्मृति-अंश 
  चाहे कुछ की बात, संपर्क-क्षेत्र बढ़ाओ, विविध-मिलन से समृद्ध।  

'यह जग मेरा घर' जितना संभव, खुली अक्षियों से दर्शन का प्रयास 
जिन नव-स्थलों पर गमन संभव, जाओ, निज जैसों से और परिचय। 
जहाँ कुछ सहायता कर सकते, करो, अंततः है यह अपना ही हित 
सब कुछ निज ही, मात्र संपर्क-साधन की देर, सब दूरी जाती मिट। 
  

पवन कुमार,
१५ सितंबर, २०१९ समय ११:३९ मध्य रात्रि  
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० ३० मई, २०१७ समय ९:३२ प्रातः से)

Monday 2 September 2019

नवीन-भाव


नवीन-भाव 
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एक नवीन-भाव पल की आवश्यकता, स्थापन्न कागज-पटल 
लेखनी माध्यम, मन-विचार डायरी में, बहिर्गमन से विस्तृत। 

चलो आज नवीनता-वार्ता करते, माना सनातन को पुनरुक्त 
वे ही विचार पुनः-२ उदित, चाहे शब्द-लेखन में कुछ भिन्न। 
नव-साहचर्य से मन-उदय, अनुभव खोले प्रकटीकरण-राह 
बहुदा स्व ही लुप्त, निज उबासी-कयासों से न आते बाहर। 

सच है कि जग अति-विशाल, दर्शन-मनन एक सीमा-बद्ध 
मन-कंप्यूटर प्रोसेसर गति सीमित, अल्प ही काल-प्रकट। 
इकाई बायट प्रति सेकंड, लब्ध समय प्रयोग तो बड़ा संभव
निकट सुपर-कंप्यूटर पर प्रयोग न, कुल काम तो ही शून्य।  

अर्थ यदि गति कुछ कम भी, अधिक समय में बड़ी दूरी तय 
विश्व-कोष में बड़ी संख्या विवरण, पर कुछ से ही परिचय।  
चलेंगे तो दूरियाँ पटेगी, नव-अनुभव ग्रहण, मन-रवें सुदीप्त 
नवीनता स्व-स्थित, समय प्राप्त तो कागज पर भी उकेरित। 

खुले चक्षु-मन से दर्शन-मनन है, कार्यशाला-मोड की उत्कंठा
भ्रमण से नव पथ-स्थल दर्शन, प्रवास-संपर्क से नई-सूचना।   
हर जन पृथक स्थल से, भिन्न सूचना-पुञ्ज, क्यों न करें ही बात 
परस्परता से सघनता बढ़ेगी, जितना जुड़ेंगे उतने लाभान्वित। 

मानव-यात्रा कुछ वर्ष-यापन, कितना मनन-गति से बिताया समय 
एक मोटी पोथी बनते प्रक्रिया में, सभी कुछ तो प्रयोग पर निर्भर।  
कोल्हू-बैल भी गतिमान नेत्र-पट्टी बांधे, वृत्त-गिर्द  करता दूरी तय 
यहाँ नव दिशा-स्थलों से परिचय, अन्यथा तो अपने में ही सिकुड़। 

क्या पथ सुप्राप्ति का या तो बैठे रहें, कुछ पास आऐंगे ही परिचय भी 
यह निज-निर्भर, किनको कितनी अपेक्षा, कितना करते संपर्क ही। 
जलपुरुष निकट तृषित आऐंगे ही, यदि मृदु बर्ताव और भी सुभीता 
उसपर निर्भर कितना रूबरू, कुछ पूछकर सूचना-ज्ञान व लाभ। 

एक सूत्र टूटना पुनः उसे जोड़ना, निश्चित ही कुछ समय-ऊर्जा माँग 
एक द्रुम पूर्व-स्थिति में न गमित, हर पल बदलते रहते हैं मन-भाव। 
तथापि वृहत-ग्रंथ लिखे जाते, एक ही दिवस-निष्ठा से काम न बनता 
अपने को पुनः पथ पर स्थापन, कुछ विचित्रता भी पर काम चलेगा। 

विषय नवीनता मनन-दर्शन में, जो बहु आयाम-प्रतिभाऐं करें युग्म 
मति-कोष्टकों की भी स्मरण क्षमता, अनुपम-रमणीयता करें एकत्र। 
जीवन का तो घटित हो जाना सत्य, समृद्धि कितने उत्तमों से संयोग 
हाँ आज का नवीन भी प्राचीन हो जाएगा, तो भी सदा बढ़ें उस ओर। 

संपर्क-ज्ञान संग विस्मृत, सीमित स्मरण-क्षमता, सर्वस्व न समाहित 
कंप्यूटर की अति स्मरण-क्षमता जैसे 1TB, वह भी शनैः पड़ती कम। 
अनेक पुरानी फाइल-दस्तावेजों, चित्र हटाने पड़ते हेतु स्पेस-लब्धता 
अन्यथा शीघ्र-पूरित सब स्पेस, कितनी हार्ड-डिस्क रखें सब-सहेजना। 

पर समय-तकनीकों संग कंप्यूटर-प्रोसेसिंग क्षमता-मैमोरी भी वर्धन 
चाहे यकायक न दर्शित, नर का बौद्धिक-दैहिक विकास समय संग। 
माना न सम, मोबाईल-फोन, कंप्यूटरों की भिन्न क्षमताओं के मॉडल 
जितनी जरूरत, क्रय-शक्ति ले लो, रूचि-हैसियत अनुसार व्यवहार। 

मानवों में प्रज्ञान की क्या भिन्न अवस्थाऐं, या मात्र निजानुसार प्रयोग 
वैज्ञानिक व कमेरे की बौद्धिक-क्षमता सम, बस एक द्वारा सुप्रयोग। 
बचपन से देखते कुछ भिन्नता लोगों में, जैसे समझना-परिभाषा देना 
शुरू में अल्प, कालांतर में एक का  प्रयोग-त्याग, गतिमय है दूजा।  

यथा प्रयोग, तथा वर्धन, हाँ कभी अति-प्रयोग दुष्परिणाम भी गोचर  
वृतांत सब तरह के, पर निश्चित अप्रयोग से नितांत पड़ जाता ठप्प। 
कार्यशालाओं हेतु लोग यंत्र खरीद लेते, अप्रयोग से पुराने व व्यर्थ  
धन-साधन नष्ट, चाहे किञ्चित-प्रयोग, समुचित तो निश्चितेव श्लाघ्य। 

कोई न इतना निपुण बस जोड़े ही, पीछे मुड़कर भी न देखे संग्रह 
या देख-समझ सुरुचिपूर्ण सृजन, अपनी हर वस्तु की करता कद्र। 

निज-वस्तु संभाल स्व-जिम्मेवारी, हाँ कालांतर में उपयुक्तता घटित 
अमुक काल जैसा न सार्थक, प्रिय-अमूल्य, अब नव-संदर्भ जरूरत। 
फिर सृजनशीलता, नव-भाव संग्रहीता, मूढ़ से प्रवीण में रूपांतरण 
यह भी तुलनात्मक निज संदर्भ में, पूर्ण ज्ञान संदर्भों में अति-दोयम। 

कोई किसी विधा प्रवीण अन्य में अनाड़ी, पर अर्थ न कि मूढ़ है वह  
अर्थ यह भी संभव एक हर जगह न पारंगत, मन-देह की सीमा निज। 
पर न विरोध उन्नति हेतु, कमसकम जहाँ रूचि वहाँ हो प्रयास अधिक 
अन्य-विधा रूचि भी समृद्धि, तो भी पूर्ण का कुछ अंश ही दर्शन संभव। 

फिर अर्थ क्या है हम जैसे भी, कमसकम निकट का करें प्रयोग पूर्ण
आवश्यकता बढ़ेगी तो हाथ-पैर भी मारोगे, क्षमता हेतु पूर्ण तब यत्न। 
अन्य को भी समझा सकोगे -सुवृत्ति दान दो, वृहदता स्व में दर्शन  
जीवन-यंत्र प्राप्त अति कष्ट से, पूर्ण प्रयोग से करें सार्थकता सिद्ध। 

प्रथम-कक्षा छात्र को एक कायदा या शुरू-पाठों की ही आवश्यकता 
लेकिन प्रख्यात विद्वान-गृह तो बहु-विधाओं की पुस्तकों से होता भरा। 
अर्थ कि वह सब काल ऐसा न था, प्रथम श्रेणी से बढ़ पहुँचा यहाँ तक 
भली-भाँति ज्ञात वह अत्यल्प, अनेक ज्ञान-आयाम हैं यावत अस्पर्श। 

कौन मानव-स्वरूप हमारे गिर्द छितरित, सब भाँति के नमूने दर्शित 
सब शून्य से अनंतता के किसी सोपान -तल, कुछ चढ़ ऊपर तिष्ठ। 
ज्ञात अभी बड़ा कर्म अपूर्ण, ऊर्ध्व से ही दूर दर्शन - प्रेरणा मिलेगी 
इसका मूल उद्देश्य अंतः-दर्शन ही, अग्र-ऊर्ध्व बढ़े तो हो संतुष्टि। 

नवीनता सुमृदु भाव बहु-आयाम योगी, मन-चक्षु खोल जिज्ञासु बन
जितना संभव सृजनात्मक बनो, लब्ध काल में अधिकतम  संग्रह। 
प्रखरता आएगी, निज संग अनेकों में सकारात्मक परिवर्तन संभव
लक्ष्य दूर पर मन सुग्राह्य, पैरो में शक्ति, दृष्टि प्रखर, लाभेव अतः।  

आगे बढ़ो अनवरत, योग अनुभवों से, उत्तम तो जाएगा ही ठहर 
जिसकी जब जरूरत प्रयोग कर, धैर्य रखो, सबसे मित्रता-भाव। 


पवन कुमार,
२ सितंबर, समय ६:३२ सायं 
(मेरी डायरी दि० १६ व १७ दिसंबर, २०१६ समय ११ :२८ प्रातः से) 
   

Thursday 15 August 2019

युग-द्रष्टा

 युग-द्रष्टा
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एक युग-द्रष्टा हेतु अनुशासन जरूरी, बहु-आयाम साक्षात्कार 
सर्व-मनुजता एकसूत्रीकरण दुरह, धैर्य-श्रम व दृढ़ता ही सखा। 

उच्च-लक्ष्यी ऊर्ध्व-पश्यी, स्वप्न संभावना का मूर्तरूप-परिवर्तन 
न स्व-मुग्धता अपितु अंतर्स्थित, ज्ञात गंतव्य निम्नता निर्वाणार्थ। 
एक-२ ईंट से भवन निर्माण, अनूठी परियोजना हो रही साकार 
महद आत्म-बल बाधाऐं स्वयं दूर, पौरुष अनुरूप ही छेड़छाड़। 

स्वार्थ-लिप्त मनुज की क्या परिणति, न चाह वृहद मानव-हित 
लघु-बड़े विषयों में ऊर्जा-क्षय, अधूरा ही बीता जीवन सीमित। 
एक विश्वविद्यालय या देश-निर्माण, कोई एक दिवस-कर्त्तव्य न
अतिश्रम, दिवा-स्वप्न, साहस-ललकार, न मिथ्या प्रशंसा-गृह। 

माना नर-वय अल्प पर इतनी भी न कि महद-आकांक्षा न कर 
३०-४० वर्ष में श्रम से बड़े संघ बने, सत्ता-पूँजी ली अपने कर। 
अनेक संगी बनाए, एक-२ से ग्यारह, महाबल संग्रह पूँजी निज 
हृदय से नर-संग तो वृहत-हित ही, एकता से नव-पथ चिन्हित। 

समग्र-चेतना सह उच्च ध्येय-उत्साह, नर कई कष्टों से निकल 
सभ्यता-विकास मात्र न एक वार-कर्म, प्रतिपल महादर्थ युग्म। 
आदर्श समाज कल्पना, शिक्षित परिवेश, पर्याप्त, पूरक-परस्पर 
वैज्ञानिक सोच, आदर्श नृप-स्थिति, प्रजातंत्र, सब भाँति प्रसन्न। 

 विश्व-विसंगतियों मानव अल्प-विद्या कारण, दूभर प्राणी-जीवन 
व्याधि-अकाल-भूख-अशिक्षा-दुर्गति-वैषम्य-संशय घोर व्याप्त। 
पर निदान हर व्याधि का, हाँ यथोचित शक्ति विषय विचारणीय 
जब बाधा दूर वाहन गति पकड़ेगा, जीवन में सुघड़ता भासित। 

मानव समर्पण हेतु क्या चिंतन, हर आयाम से प्राण आत्मसात 
विश्व-सुपरिवेश संभव, लोग परस्पर भले लगेंगे, होगा सम्मान। 
निवेश-लाभ उचित पर लोभ-विरक्ति, धन दान में हो अनापत्ति 
 सुरक्षार्थ नियम-पालन हो, स्वतंत्रता पर अन्य का पथ अबाधित। 

 निर्मल हृदयों का दायित्व, अब सब विभेदों का निर्मूल-प्रयत्न  
युग-द्रष्टा का केंद्र-बिंदु प्राणी, मानव उसका बस पुञ्ज एक। 
ब्रह्मांड-वासी पर बहु-अवयवों से अपरिचय, बनाऐं क्षुद्र हमें 
प्रथम कर्त्तव्य स्वरूप से योग, जो अपने से उठे महान बने। 

युग-द्रष्टा का कर्त्तव्य प्राथमिकताऐं चिन्हन व प्राप्तार्थ श्रम 
वाँछित संसाधन-उपस्थिति सुनिश्चित, प्रारूप सा समक्ष। 
न अज्ञात-भय अपितु श्रद्धा, परिस्थिति अनुरूप अनुकूलन  
महद लक्ष्य बड़ा संघ जरूरी, सब अनुज-अग्रज का संग। 

कैसा द्वंद्व यह न अंतः-कूक, जग भूल-भुलैया में ही व्यस्त 
प्रायः नर व्यवधान-पाशित, मात्र गाल बजाने में ऊर्जा क्षय। 
पर उच्च-लक्ष्यी सक्षम विराट स्वप्न, रूपांतरण निजीकरण  
जरूरत विटप-रोपण की, सुंदर वाटिका साकार ही जल्द। 

 धारक-लेखन लक्ष्य भी युग-द्रष्टा स्वप्न, भला यथाशीघ्र-संभव 
जीव-हित में ही सर्व-जीवन समर्पित, प्रतिपल प्रयोग लक्ष्यार्थ। 
मनसा-वचसा-कर्मणा सर्व-क्रिया, स्व व विश्व सुनिरूपणार्थ  
एकात्मता उर-उदित, सर्व-बल संग्रहित, प्रयोगार्थ ही प्रस्तुत। 

ऐ उच्च मन-स्वामी, कहाँ छुपे, मित्रता से भरो विपुल-भाव मन 
निद्रा-तंद्रा से जगा सक्षमतर करो, युग-द्रष्टा सा ले सकूँ स्वप्न। 
ज्ञान-मन में श्रद्धा सान्निध्य, बस साहस दुःस्थिति का परिवर्तन 
आकांक्षा मानव-जन्म सफलीकरण, तुम साथ देओगे अवश्य। 


पवन कुमार,
१५ अगस्त, २१०९ समय ११:५६ बजे  मध्य-निशा 
(मेरी डायरी दि० २१ जून, २०१९ समय ८:५५ बजे से)


Saturday 10 August 2019

काव्य-उदयन

काव्य-उदयन 
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क्या होंगे अग्रिम पल व गाथा जो इस कलम से फलित 
मन तो शून्य है पर लेखनी लेकर आती है भाग्य निज। 

कैसे निर्मित हो वह काव्य-इमारत, मन तो अभी अजान 
मात्र कलम व कागज हाथ में, शेष सामग्री का है अभाव।
 फिर कुछ यूहीं तो चलता जाता और भर जाते हैं कई पृष्ठ 
    निरुद्देश्य-भ्रमित जीव भूल-भुलैया सी नदी में खेता पोत।   

कहाँ से उदित वे शब्द लेखनी के, जब नहीं अध्याय स्पष्ट 
बस एक विचार कहीं से स्फुटित, उसी के गिर्द दाँव-पेंच। 
पर विषय रचना कैसे फूटती, क्या आती लेकर निज-दैव 
कालजयी कई पद्य-गाथाऐं, पुनः-पुनः करता जग स्मरण। 

क्या वे मनीषी भी सम-स्थिति में थे, चिंतन किया कुछ अग्र 
उद्भवित शब्द स्वयमेव व एक-२ कर निर्मित अति-उत्तम। 
यह शिशु-जन्म सा, अनेक संभावनाओं में से एक मूर्त-रूप 
त्यों ही रचना-निर्माण होता, यद्यपि अनेक आयाम थे संभव। 

तो क्या जन्म  सब प्रत्यक्ष का, कितने को छोड़ अग्र-वर्धित 
एक-२ विचार-बिंदु से ही सर्व-क्रांतियाँ, स्वयमेव रचित पथ। 
फिर क्या हम मात्र हैं विचार-धारक, आकांक्षा शांत-स्वरूप 
दिव्यता स्वतः स्फूर्त, बस उठो, करो तुम उकेरण-निश्चय। 

सब कुछ डूब जाना इस चिंतन में, पार अपने से निकलना 
दृष्टिकोण हो मात्र काव्यात्मकता-रस में, प्रयत्न करने का। 
इंगित तो कुछ भी नहीं होता तो भी अपने को झझकोरना 
इसी झंझावत के उपक्रम में, कुछ उचित ही रचित होगा। 

अद्भुत दर्शन है भविष्य का, जो हमसे कुछ रचवाए जाता 
हम शिल्पकार कुछ काल मात्र के, पर वह शाश्वत रहता। 
उसने देखे हैं असंख्य प्रयोग सृष्टि में, मुस्कुराता रहता बस
जीव सोचता विद्वान-चतुर, पर सब सामग्री प्रकृत्ति-प्रदत्त।  

स्वामी-प्रदत्त आटा-नमक, हम सोचते स्वयं को धनिक  
हमारी अणु-सामग्री तथैव फलित, ऊपर है कदापि न। 
तुम मात्र  विचार-माध्यम उसके व वाँछित अस्त्र-शस्त्र 
प्रेरित करता वह उठो-बैठो व करो एक रचना उत्तम। 

कौन दर्शन-सक्षम पार काल के, किसमें इतना सामर्थ्य 
मनुज सदैव भ्रमित, हमीं चतुर हैं जीवन-चक्र के इस। 
अल्प-बल व अत्युद्दंडता, निज को समझे तीस-मार खाँ    
 व्यर्थ गर्व से जग न चलता, विवेक ही कुछ हल मिलता। 

चिंतन है निज-मर्म ढूँढता, कोशिश कि कैसे हो प्रवेशित 
बेचारा मारा-मारा फिरता, फिर सतत स्वयं से ही युद्ध।  
उसकी सर्व-कृतियाँ निज-तार्किक जीत का ही परिणाम 
श्लाघ्य तो है, क्यूँकि वही सत्य में देह में फूँकता प्राण। 

न मनीषी-दर्शन व वह भी बस कुछ पलों का एकत्रण 
सोचा, कहा, लिखा और हम समझते अति बुद्धिमान। 
कितना ठीक, कहाँ तर्कसंगत, न वर्तमान में कुछ समझ 
मात्र रुचि अनुरूप एक विचार-प्रवाह में, रहता व्यस्त। 

उदयन कुछ शब्दों का, निर्मित करता है अद्भुत संसार 
सर्व-संभावनाऐं निहित पलटने की, सक्षम परम-उद्धार। 
जग-प्राणी स्वयमेव प्रवृत्त, अतः चिंतन कर निज विकास 
काव्य-गाथा ग्रंथ यूँ ही निर्मित, एकचित्त हो करो प्रयास। 

धन्यवाद  और उत्तम प्रयास करो। 
आज अवश्य कुछ सार्थक करो सकारात्मक भाव से। 


पवन कुमार,
१० अगस्त, २०१९ समय ९:३४ सायं 
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० २ दिसंबर, २०१४ समय ९:११ बजे प्रातः से)


Sunday 21 July 2019

एकाकीपन

एकाकीपन 
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विशाल विश्व नर अकेला, बाह्य-शरण भी अल्प-अवधि तक
तन्हाईयों में खुद ही डूबना, बहुदा प्रश्न कैसे काटें समय। 

कदाचित बोरियत-सीमा तक यह नितांत एकाकी पाता स्वयं
किसके पास जाकर व्यथा बाँटें, अपने में संसार जी रहें सब। 
अंतः-स्थिति सबकी एक सी, कुछ कह लेते पर पड़ता सहना 
एक क्षीणता सी अंतः-गृह, तन-बली होकर भी नर दुर्बल सा। 

बहुदा दर्शन नरमुख सड़क पर चलते, कार्यालय में अकेले बैठे 
खेती-मजदूरी करते, बूढ़े प्रतीक्षा में, बेरोजगार खाली भटकते। 
सब कुछ ढूँढ़ते से, बस कह न पाते, मस्तिष्क तो सदा कार्यरत 
बहुदा व्याज बनाता, मात्र कयास जबकि पता सिद्धि न निकट।  

यह क्या छुपा जो सदा-आविष्कृत, शायद निज कष्टों का उद्धरण
या ग्रन्थित प्रहेलिकाओं का हल-ढूँढ़न प्रयत्न, चाहे हस्त में या न।  
बस भ्रांत-दशा कभी यत्र-तत्र है अटके, जीवन शांति से न निर्वाह 
बस कुछ सुनो-कहो किसी से, नजरिया भी सदा बदलता रहता। 

मानव एक विवेकी जीव, सदैव मनन में चाहे अन्यों को न हो रास 
निज-शैलियाँ में एक गुमशुदा सा, अंदर से सुबकता-उबलता सा। 
कभी प्रतिक्रिया, ध्यानाकर्षण हेतु शोर भी, पर ज्ञान अंतः-अबल 
कभी दंबंग-स्थिति भी बनाता, पर प्रायः अपने से ही नहीं फुरसत। 

नर-समूहों में सहयोग भी दिखता, एकजुटता सी पंक्तियों में चलते
पर जमघट हटते ही फिर अकेले, लोकोक्ति कि अकेले आए - गए। 
जीवन में कुछ मेल-जोल रहता बात कर लेते, मन कुछ बहल जाता 
अंततः स्व में ही लौटना, बहु-नर चहुँ ओर तथापि तन्हा से ही रहता। 

 एकाकीपन-उबरन हेतु परस्पर संवाद की अनेक विधियाँ मानव-कृत 
सामान्यतया एक लौकिक, अतः जब भी अकेला बेचैनी सी अद्भुत।  
कला-संगीत, प्रदर्शनी-गोष्ठियाँ, कार्यस्थल-प्रगल्भ, कलह-युद्ध, प्रवचन 
मित्र-सौहार्द, आदर-रक्षा, मान-मनुहार, हाट शोर-गुल व विभिन्न ग्रंथ। 

लेखन भी अंतरंगता हेतु, एकाकी छटपटाहट, तब उपायान्वेषण 
कोई बने मूर्ति-चित्रकार, रंगकर्मी, कोई दार्शनिक या  वैज्ञानिक। 
सब अंतः से एक तरंगता चाहते, रिक्त क्षणों में जीवन कैसे पूरित 
'दिमाग खाली तो शैतानी घर', बल-समन्वय से मूर्त-निर्माण कुछ। 

मेरे मन की भी एक दुःख-सहन सीमा, अधिकता पर छटपटाहट 
ढूँढने लगता पठन-सामग्री, कुछ देर होता मस्तिष्क और व्यस्त।  
ज्वलंत समस्या यदि मन में तो उपाय भी, किसी-२ को भी छेड़ता 
सदा निज व अन्यों को चुनौती, परस्पर संवाद से ही जग चलता। 

क्या हम जो बहिर्प्रतीत वैसे ही, या अंतः का भी कोई अस्तित्व 
कौन सदा सुलगाता-ललकारता, करता भी उदास-व्यग्र-उग्र। 
कौन यंत्र पूर्ण-विवह्लित है कर जाता, नितांत निराश्रय से हम  
छटपटाते औरों को हैं कष्ट देते, कर्म- संनिरीक्षा, स्व पर प्रश्न। 

प्राणी एक महासमुद्र सम पर थाह अज्ञात, किसी कोण दुबका 
 भला यावत अन्यों से एकजुटता, पश्चात विशाल-लुप्त निर्बल सा। 
किञ्चित अज्ञात वृहद-स्वप्न से, बुद्ध-महावीर से खोज हेतु प्रस्थान 
प्रश्नों के उत्तर यहीं पर गोता लगा रत्न चिन्ह व उठाने का साहस। 

सब मानवेतर जीवों में भी एक मस्तिष्क, आत्मसम कोई मनन 
चाहे हमें पूर्ण समझ नहीं , कुछ तो सदा उनमें भी घटित पर। 
अंतर्युद्ध का मात्र किञ्चित ही मुखरित, गह्वर विपुल सागर सम 
सर्व चिंतन-चुनौती आत्मसातार्थ, सिद्धि कितना उत्तम संभव। 

जीव एकाकी जन्म से आमरण, स्वयं ही झेलने सब कष्ट-व्याधि 
यश-तर्जना, स्वीकृति-मूढ़ता, दृष्टिमान सब प्रयत्न-अभिव्यक्ति। 
'आत्म निखरण-परिष्कार'  उत्तम शब्द, उलझनों से जाना पार
संयुक्त-प्रयास व जग-साधनों से एकाकीपन का कुछ उपाय। 

अतः न क्षोभ-स्थिति, सर्व स्ववत, मिल-बैठ बना मधुर-परिवेश 
जब रिक्त-ऋतु एकांत सताऐ, कुछ कलाप्रेमी सा संवारो निज। 


पवन कुमार,
२१ जुलाई, २०१९ समय ८:३२ संध्या 
(मेरी डायरी १४ फरवरी २०१९ समय १०:२३ बजे प्रातः से) 

Monday 8 July 2019

आत्म-निरूपण

आत्म-निरूपण 
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क्या है आत्म-निरूपण जीव का, कालजयी सम संवाद 
सर्वांग-रोम हर्षोन्मादित हर विधा से सफल साक्षात्कार। 

पूर्ण-विकास मानस-पटल का, कैसे लघु जीवन में संभव
सीमाऐं विजित हों, अश्वमेध-यज्ञ तुरंग सा स्वछंद विचरण। 
कोई सुबली पकड़ लेगा साहस से, प्रतिकार राजसत्ता का 
 न करो देश-अतिक्रमण, प्रेम से सहेजा हम प्रबंधन-ज्ञाता। 

एक कोशिश अग्र-चरण बढ़ाने की, देखें कितना है संभव 
पल-२ हर रोज बीत रहा, स्वयं से प्रश्न कितने पाए हो कर?
क्या करते, कितना संभव, कैसे भविष्य-पलों का सदुपयोग 
जीवन किस दिशा गतिमय, किनसे संपर्क व स्व-नियंत्रण? 

एक विशाल शैल-राशि के किसी कोण में छुपा लघु हीरक 
व्यर्थ त्याग, अमूल्य लब्ध, ऊर्जा-सदुपयोग है परमावश्यक। 
विपुल जन-समूह सर्वत्र फैला, बहु-अल्प प्रभाव काल नित 
हम भी मन-देह, प्रभावित सदा, कभी कम कभी अधिक। 

क्या विचार-बिंदु जो अनावश्यक त्याग, सार को ही देखें 
प्राथमिकता अल्प-उपलब्ध में, समस्त का ही केंद्र बिंदु में। 
वस्तु-सामग्री कैसे हो विकसित, आना तो होगा तभी सफल 
हर अणु पूर्ण-सार्थक युजित, अपार ऊर्जा-निधि विसरण ?  

कूप में विपुल वैभव-साम्राज्य छुपा, निकालो तो साहस से 
अविश्वासियों हेतु असत्य, पर अनेक खोज में जान लगा देते। 
कैसे संपूर्ण महद उद्देश्यार्थ, बिन मरे तो न मुक्ति-आस्वादन 
द्वारपाल खड़े प्रवेश दुष्कर पर अति-उत्कंठा, न हूँगा उदास। 

चिंतन-कोंपलें फूटने दो, निशा-तिमिर अनावृत हो देगा ही उषा 
घनघोर बदरा, दामिनी डराए, पर उसी के जल से प्राण-प्रवाह। 
बाधाओं से नित सामना, चोट खा-जलकर ही मृदा बनती इष्टक 
एक हीरक कोयले का ही द्विरूप, पर रूप-स्वभाव में भेद महद। 

प्राकृतिक नियम निश्चित अवस्थाओं में, वस्तु-निरूपण है सतत 
भिन्न स्वरूप सर्वत्र बिखरें, निर्माण-पद्धति पुरातत्व को ही ज्ञात। 
क्या निरूपण स्व का भी संभव, अन्य प्रभाव भी अति-सशक्त 
  कैसे स्व को विकसित किया जाए, यह तो स्वयंभू सा किंचित। 

स्व-जनित, अपने से पालन, अपने से ही संहार प्रलय वेला में 
सकल एक बुदबुदा सा क्षणभंगुर,  कहाँ सदा एक रूप में ?
परिवर्तन सतत घटित  स्व का, क्या मैं इसमें आत्मसात पर 
ज्ञात भी तो क्या सक्षम इंगित दिशा-बदलाव में, संभव हित।  

दूर का राही, अनंतता मंजिल, कुछ देर ठहर जाऊँ, गति निश्चित 
मम सीमाओं की भी क्या काष्टा, व क्या वह असीमता-प्रतिबिंब। 
कहते हैं प्रयास-अभ्यास से, जड़मति निरूपण सुजान में संभव 
सब पर भी नियम लागू, फिर क्या कारण कि विकास निम्नतर?

दुनिया में सतत सब बदलाव हो रहें, बिना किसी स्वीकृति के 
मैं भी प्रतिपल बदल रहा, पर इच्छा कुछ अनुकूल हो अपने। 
पर उससे पूर्व ज्ञान आवश्यक, किस मृदु रूप में हो विकास 
विश्व में बहु विचार-धाराऐं, किसे अपनाओगे तुम पर निर्भर। 

यही प्राथमिकता निज लघु स्व का बृहत-संभावनाओं से योग 
ज्ञानान्वेषणार्थ गति आवश्यक, कूप निकट पर उद्यम वाँछित। 
प्रयास होना चाहिए सुमार्ग चुनें, विश्व-दर्शन अभी अति-समृद्ध 
विशारदों ने विमल-चिंतन से पंथ चलाऐं, चुनाव तुमपर निर्भर। 

निरूपण एक निर्मल-सार्थक शब्द, अपनाओ सत्य-निर्वाह में 
जब और बढ़ें तुम क्यों बैठे, पर-छिद्रान्वेषण में व्यस्त अनेक। 
सदैव विश्व-इतिहास दर्शाता कर्मयोगी ही होते हैं चिर-स्मरण 
माना अंत में सब विस्मरित, पर यावत प्राण कर लो अनुभव। 

अनेक धरा-अवतरित, अनेक वर्तमान में, भविष्य में भी बहुत  
एक काल-स्थल में आए हो, कुछ लक्ष्य भी या यूँ ही प्रतिगमन। 
मनुज निज को ही भूल जाता, अन्य की चिंता इस जग में कब 
तव-कष्ट तुम्हारा दायित्व, कुछ कर सको तो साधुवाद के पात्र। 

संसाधन हर पल में उपलब्ध, पर उपयोग सार्थक दिशा में क्या 
आत्म-चिंतन से ही विकास-लड़ियाँ फूटेंगी, कायांतरित हो सदा। 
अरस्तु से मनस्वी जग में, आज पुस्तक 'Ethics' से एक अंक पढ़ा 
विषय साहस-भय का था, नर सब-परिस्थिति अनुकूल कर लेता।

उचित-भय काल-परिस्थिति में उदित होता, न डरने का हो साहस
मूढ़ सम 'जो होगा देखा जाएगा' न ठीक, विवेक से हों सब प्रबंध।
जीवन में अपने से ही अनेक भय, पर उनकी क्या सृष्टि व निदान
खींच लाना उपयुक्त दिशा में ही तो, तभी होगा सार्थक निरूपण।

मम विवेक-मनन उद्देश्य, विकास-संभावनाओं का करूँ अन्वेषण
न किंचित अपघटित हो  पवित्र वस्तु, आई प्रयोग करणार्थ तव।
निज को संभालो, सहेजो, प्रेम करो, उभारो, सब भाँति सुप्रबंधन
 यथाशीघ्र उपयुक्त दिशा चुनो, चल पड़ो पथिक समय है कम।

लिखवा दे मुझसे भी एक बड़ी अवस्था, बढ़ सकूँ सदा अबाधित
अभी तो उलझा हूँ इन्हीं विभ्रमों में, क्या मंजिलें हों चलने को पथ ?
रोबिन शर्मा कहते कोरा-कागज पैंसिल लो, लिखो जो लगे उत्तम
कहते बहुत सरल है प्रयास तो करो, सब कुछ ही तुम्हारे निकट।

मेरी जान-माल रक्षा तुम हाथों में ओ ईश्वर, मृदुतम रूप दिखा दो
अंतः-करण निर्मल करो सब भाँति, प्रकाश से उचित राह दिखा दो।
दिल से प्रयास है एक चिर काल से, जब से जन्मा यही तो रहा सोच
करो कृपा क्यूँ रखते विमूढ़ मुझे, अनेक बैठे अवलोकन में ही रत।

निरूपण संभव जब लक्ष्य ज्ञात होगा, वृहद ऊर्जा का हो संसर्ग
पर ज्ञात है उत्तम दिशा में हूँ, चलता रहा तो पा ही लूँगा कुछ।
स्पर्धा निज की परम रूप से ही, उत्तरोत्तर बनाना अति निर्मल
समस्त साँसत निज प्रयास की, चलते रहो मंजिल है निकट।

पवन कुमार,
८ जुलाई, २०१९ समय १२:३० बजे मध्य रात्रि
(मेरी डायरी दि० ९ अप्रैल, २०१६ से)    

Saturday 29 June 2019

वहम-भग्न

वहम-भग्न
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अद्भुत मन-प्रणाली, उत्तंग चेष्टा, चित्ति वृहत्काया का गुण ज्ञान
सक्षम संभाव्य, सर्व ब्रह्मांड-कण समाहित, तब क्यूँ कम विकास।

मन-विचार क्या क्षणों में, नर का सुंदर रूप हो स्वयं में प्रादुर्भाव
निम्न से उच्च सभी इसी चेष्टा में, कैसे निखरे रूप, हो गर्वासक्त।
सभी तो भरपूर ध्येय में लगे हैं, पूर्ण विकास हेतु ही जद्दो-जेहद
शरीर में तो कोटिशः अणु, कैसे हो उनका अधिकतम प्रयोग।

प्रखरतम दर्द क्या मानव का, निज को न कर पाया सुविकसित
एक खिलौना क्रय किया अति महँगा, पर शेल्फ में पड़ा निष्फल।
कहने को विद्वान-पीएचडी पर खाली बैठे, अति कुछ था हाथ में
इंजीनियरिंग पढ़ाई की है, लेकिन घर बैठकर ही समय काट रहे।

मन क्या उत्तमतम सोच सकता है, बेचैनी तो है पर द्वार न खुल रहें
कोई महद लक्ष्य चिन्हित न कर सका, चिंतन उसी के इर्द-गिर्द में।
विषय महत्वपूर्ण या यूँ ही भटकते, एकाग्रता न तो कैसे ऊर्जा संचय
प्रथम शीर्षक ढूँढ़, दिशा-दर्शन होगा, गति तेज तो लक्ष्य तीव्र-गमन।

उद्देश्य वर्तमान-चिंतन का, कुछ गहन वार्ता स्व से, समुद्र-मंथन सा
पर अवस्था अर्ध-विक्षिप्त सी, चाहकर भी स्वरूप दर्शन न संभव।
अपने में ही लुप्त, निज-शक्तियों से अभिज्ञ, कुँजी कहाँ है न मालूम
कुंभकर्ण निद्रा में, खा-पीकर मस्त, तंद्रामय, बौद्धिक-कर्म अभाव।

पुरा-कथाओं में प्रसंग असुर का, कराया उसका शक्ति-परिचय
यदि उत्तम-रूप दर्शन हो जाए, निस्संदेह कर्म सुभीता करे वह।
अंधे निज कुचेष्टाओं से ही भीत, समाधान निकट ही, पर ध्यान न
रुग्ण-मंदता पार से ही उत्तम संभव, अन्वेषण-पथ चाहिए बस।

कहते हैं सिंह पिंजर-बद्ध, बाहर तो निकालो, शक्ति देखो उसकी
स्वयं को ही घोंटकर रखा कक्ष में, पर अबुद्धि बाहर निकलने की।
निज-जाल में तो फँसे पर न कुचक्र, सारल्य में ही आयाम अजान
पर अंततः परिणाम पर ही सबकी दृष्टि, क्या कर रहे क्षेत्र तुम्हारा।

जग-स्वरूप ज्ञान तो अत्यंत दुष्कर, जब आत्म-ज्ञान में ही इत्ता कष्ट
कैसे खुले मस्तिष्क-रंध्र, स्वच्छ वायु-रक्त प्रवेश तो शुरू हो मनन।
मुफ्त में तो बनता न, श्रम होगा, युक्ति से ही तो उत्पादकता वृद्धि
विचारना भी आना चाहिए, लक्ष्य-निर्माण से चरण हों अग्रसर ही।

कौन से परिवर्तन वाँछित इस स्व में, आगे बढ़कर सफलता चुंबन
अध्ययन आवश्यक या फिर मंथन, एक कला तकनीक-शिक्षण।
जब निज से न बने तो सफलों से सीखो, जीवन में रहें वे श्रमरत
आदान-प्रदान सिलसिला, उद्देश्य सबको निखारने का असल।

सिविल इंजीनियर रूप में क्या बेहतर हो, प्रयोग तकनीकें उत्तम
किन पुस्तक-पत्रिकाओं से सदा-संपर्क, ज्ञान शनै-२ बढ़े निरत।
उत्तम विशारदों से संपर्क हो, पर सिद्धि तब जब स्वयं भी पारंगत
अर्जित ज्ञान कैसे कार्यों में प्रयोग हो, तुम्हारी उपलब्धि होगी वह।

परम-रूप पग-अग्रसरण से संभव, विकास है प्रक्रिया-पर्याय एक
जीवन तो सदा चलायमान, अवधि से गुणवत्ता अधिक महत्वपूर्ण।
सर्व-उद्यम गुणवत्ता-वर्धन का, स्वयं को न होता निज-बोध भी पूर्ण
कुछ बाह्य निज-टिपण्णी दे देते, तुलना तो स्वयं न कर सकते तुम।

यह भी एक विचित्र सी स्थिति, निज स्वरूप से ही अभिज्ञता नितांत
तथापि उत्तम-कर्म प्रयास, कुछ सुधरोगे तो होगा छवि-परिष्कार।
पर-दोषारोपण तो यहाँ अध्याय ही न, स्वयं-सुधार ही परम-लक्ष्य
यह भी महत्त्वपूर्ण कि क्या कर्त्तव्य हैं, कौन चरण लूँ दिशा-गमन।

विश्वरूप दर्शन में असमर्थ, कौन से आयाम-अन्वेषण हैं वाँछित
इस व्यग्रता का क्या अर्थ, सत्य-रिक्तता तो संपर्क-पथ की पर।
सबको तो कृष्ण सा सारथी न लब्ध, कौन बताए उठो, करो इदम
या कर्ण को सुयोधन विश्वास, मित्र-दुर्दशा में सहायक भी है श्रेष्ठ।

चलो प्रयास करें आज वहम-भग्न का, निज को ललकारने का
विफलता भले, पर प्रयास सतत, सत्व-निष्कर्ष पर ही विश्राम।

पवन कुमार,
२९ जून, २०१९ समय ११:१४ बजे रात्रि
(मेरी डायरी ८ जून, २०१७ समय ९:०२ बजे प्रातः से)

Sunday 16 June 2019

श्री बाणभट्ट कृत कादंबरी (प्रणय-कथा) : उत्तर भाग परिच्छेद -१३


परिच्छेद१३ 

यह कथा सुनाने के बाद, मुनि जाबालि ने एक तिरस्कार-पूर्ण स्मित संग अपने पुत्र हरित अन्य तपस्वियों से कहा : 'तुम सब देख चुके हों कि कैसे इस कथा में हम सबको और हमारे उरों को इतना दीर्घ बाँधने की शक्ति है। और यह काम-पीड़ित जीव है जो अपने दोष कारण स्वर्ग-पतित हुआ, और पृथ्वी पर शुकनास का पुत्र वैशम्पायन बना। यह वह है जो अपने क्रुद्ध तात के शाप से, और महाश्वेता द्वारा अपने हृदय-सत्य के अनुनय द्वारा एक शुक-रूप में जन्मित हुआ है। जैसे ही उसने अतएव उवाच किया, मैं ऐसे जागृत हुआ जैसे कि निद्रा से, और जैसे कि मैं बालक था, एक पूर्व-जन्म में प्राप्त सभी ज्ञान मेरी जिव्हा के अग्रभाग स्थित थे; मैं सभी कलाओं में निपुण बन गया, मेरे पास एक स्पष्ट मानव-वाणी, स्मृति और एक मानव-वपु के अतिरिक्त सब कुछ था। युवराज हेतु मेरा स्नेह, मेरा अनियंत्रित अनुराग, महाश्वेता प्रति मेरी श्रद्धा, सब प्राप्त हो गए। मुझमें उनके तथा मेरे अन्य सखाओं के विषय में ज्ञान की प्रखर-इच्छा उदित हो गई तथा यद्यपि गव्हरतम ह्री (लज्जा) ही में, मैंने दुर्बलता से जाबालि को प्रश्न किया : 'आशीर्वादित महर्षि, अब कि तुमने मेरा ज्ञान वापस ला दिया है, मेरा उर युवराज हेतु विदीर्ण हो रहा है जो मेरी मृत्यु के दारुण में मरण-प्राप्त हो गया था। कृपया उसके विषय में मुझे बताऐ, जिससे कि मैं उसके निकट जा सकूँ; अन्यथा यहाँ तक कि एक पशु-रूप में भी मेरा जीवन क्लेशित रहेगा। घृणा करुणा से मिश्रित उन्होंने उत्तर दिया : 'क्या तुम अभी भी अपनी पुरातन-अधीरता को नियंत्रण नहीं करोगे ? पूछना, जब तुम्हारे पंख उग आऐं।' तब अपने पुत्र के पूछने पर कि कैसे एक ऋषि-वंश काम द्वारा अतएव दास हो जाता है, उन्होंने उत्तर दिया कि यह दुर्बल अनियंत्रित प्रकृति उनसे सम्बन्ध रखती है, जो मेरी भाँति एक माता से जन्म लेते हैं। क्योंकि वेद कहते हैं, 'जैसे मनुष्य के अभिभावक हैं, वैसे ही वह है', और चिकित्सा-विज्ञान भी उनकी दुर्बलता घोषित करती है। और उन्होंने कहा कि अब मेरा जीवन मात्र अल्प होगा, परन्तु कि जब शाप समाप्त होगा, मैं अनेक वर्षों तक जीवित रहूँगा। मैंने विनय से पूछा कि किन अर्पणों से मैं एक दीर्घतर जीवन प्राप्त कर सकता हूँ, परन्तु उसने मुझे प्रतीक्षा करने का आदेश दिया, और जैसे कि समस्त रात्रि उसकी कथा में अपरीक्षित व्यतीत हो गई, उन्होंने मुनियों को प्रातः-कालीन अर्घ्य अर्पण करने हेतु भेजा, जबकि हरित मुझे ले गया, और मुझे अपनी कुटिया में अपने शयन के निकट रख दिया, और अपने भोर-कालीन कर्तव्यों हेतु चला गया। उसकी अनुपस्थिति के मध्य मैंने व्यथा-पूर्ण विचार किया कि कैसे एक तापसी एक पक्षी से एक ब्राह्मण में उदित होगा, एक मुनि की तो बात छोड़ ही दी जाय, जिसको स्वर्ग के आनन्द हैं। तथापि यदि मैं उन सबसे नहीं जुड़ सकता हूँ जिनको मैं पूर्व-जन्मों में प्रेम कर सकता था, मुझे अभी क्यों जीवित रहना चाहिए ? परन्तु हरित तब वापस गया और बताया कि कपिञ्जल वहाँ है। जब मैंने क्लांत देखा, तथापि सदैव की भाँति चारु, मैं उसके पास उड़ जाने को उद्यत हुआ, अपने को ऊपर उठाते हुए, अब अपने को उसकी गोद में रख दिया, और तब उसकी मूर्धा पर। तब उसने मुझे बताया, 'तुम्हारे तात श्वेतकेतु को अपनी दिव्य-दृष्टि द्वारा तुम्हारी दुर्गति का ज्ञान है, और उन्होंने तुम्हारी सहायतार्थ एक यज्ञ प्रारम्भ किया है। जैसे ही उन्होंने इसे शुरू किया, मैं अश्व-वपु से स्वतंत्र हो गया; परन्तु उन्होंने मुझे अपने पास रखा जबतक कि जाबालि तुम्हें भूतकाल का स्मरण दिला दे, और अब अपने आशीर्वाद देने हेतु मुझे भेजा है, और कहा है कि तुम्हारी माता लक्ष्मी भी यज्ञ में सहायता कर रही हैं। तब मुझे तपोवन-निवास का आदेश देकर, वह यज्ञ में भाग लेने हेतु गगन में उड़ गया। कुछ दिवस पश्चात, किसी प्रकट से, मेरे पक्ष (पंख) उग आऐं, और मैंने महाश्वेता के पास डयन (उड़ जाने) का निश्चय किया, और मैं उत्तर की ओर अग्रसर हुआ; परन्तु शीघ्र क्लांत मुझपर छा गया, और मैं, मात्र एक भीषण चाण्डाल के पिंजर में फँसकर जागृत होने हेतु, एक वृक्ष में शयनार्थ गया। मैंने उससे मुक्ति हेतु अनुरोध किया, क्योंकि मैं अपनी प्रिया के पथ में था, परन्तु उसने मुझसे कहा कि उसने मुझे नव-यौवना चाण्डाल-राजकन्या हेतु पकड़ा है, जिसने मेरे परितोषिकों के विषय में सुना है। मैंने भय से वह सुना कि लक्ष्मी एक महर्षि के पुत्र मुझको यहाँ तक कि बर्बरों द्वारा भी त्यजित एक क़बीले संग रहना पड़ेगा; परन्तु जब मैंने अनुरोध किया कि वह बिना किसी संकट के मुक्त कर सकता है, क्योंकि उसे कोई नहीं देखेगा, वह हँसा और प्रत्युत्तर दिया : 'वह, जिसके हेतु उत्तम अधम के साक्षी लोक के पञ्च-रक्षक (इंद्र, यम, वरुण, सोम कुबेर) भी नहीं रहते हैं, अपने कर्मों के दर्शनार्थ अपनी वपु में रहते हुए, किसी अन्य प्राणी के भय के कारण अपना कर्तव्य नहीं तजेगा।' अतएव वह मुझे दूर ले गया, और जैसे कि मैंने उससे मुक्त होने की आशा में बाहर देखा, मैंने बर्बरों की पल्लि (बस्ती) देखी, पातक-कृत्यों का मात्र पण्य-स्थल। यह सभी दिशाओं में मृगया-रत बालकों द्वारा परित थी, अपने आखेटक-श्वानों को छोड़ते हुए, अपने उत्क्रोशों (बाज) को प्रशिक्षित करते हुए, पाशों का जीर्णोद्धार (मुरम्मत) करते, अपने अस्त्र-शस्त्र ले जाते, और मछली पकड़ते, दैत्यों भाँति अपनी वेशभूषा में भीषण। सघन बाँस-अरण्यों द्वारा छिपे हुए इतर-तितर (यहाँ-वहाँउनके आवासों का प्रवेश-द्वार, हरताल के उठते धूम्र से ज्ञात हो रहा था। सभी ओर बाड़े मुण्डों से बने थे; मार्गों में धूल के ढ़ेर अस्थियों से पूरित थे; झोंपड़ियों के आंगन रक्त-वसा और शर्मित (काटे गए) माँस द्वारा मलिन थे। वहाँ जीवन आखेट-निर्मित था; मिष-भोजन (माँस); वसा-लेप; स्थूल कपड़े के वस्त्र; शुष्क-चर्मों के शयन; श्वानों के पालतु रक्षक; पशु-गऊओं का आरोहण; सुरा-सुंदरी के पुरुषों के व्यवसाय; रक्त की देव-आहुति; गो-बलि। स्थल सभी नरकों का चित्र था। तब पुरुष मुझे चाण्डाल-कन्या के पास लाया, जिसने मुझे प्रसन्नता से ग्रहण किया, और यह कहते हुए एक पिंजर-बद्ध कर लिया : 'मैं तुमसे तुम्हारी समस्त उच्छृंखलता ले लूँगी।' मैं क्या कर सकता था ? यदि मैं उससे अपने को मुक्त करने की प्रार्थना करूँ, जो मेरी वाणी-शक्ति थी, उसे मेरी चहेती बना देगी; यदि मैं मौन रहता हूँ तो क्रोध उसको निर्दयी बना सकता है; तथापि, यह आत्म-नियंत्रण की मेरी वंचना थी जिसने मेरी सब दुर्दशा कृत की थी, और अतएव समस्त इन्द्रियाँ निग्रह करने का निश्चय किया, और पूर्णतया मौन रखा और सब भोज्य अस्वीकार कर दिऐं।

अग्रिम प्रातः, हालाँकि, कन्या फल जल लेकर आई, और जब मैंने उन्हें स्पर्श नहीं किया, उसने मृदुलता से मुझे कहा : 'यह पक्षियों पशुओं के लिए अस्वाभाविक है कि जब भूखे हों, भोजन मना कर दें। यदि तुम एक पूर्व-जन्म के ज्ञाता भी हो, कोई भेद करो कि क्या खाद्य है अथवा क्या अखाद्य, तथापि तुम एक पशु-रूप में जन्में हो, और ऐसा कोई भेद रख सकते हो। तुम्हारे गत-कृत्यों ने तुम्हें जिस अवस्था में लाया है, के अनुसार आचरण करना कोई पातक नहीं है। नहीं, उनके हेतु भी जिनके लिए भोजन-नियम हैं, दुर्गति-स्थिति में जीवन-रक्षण हेतु उनके उपयुक्त भोजन होते हुए भी भक्षण, यह नियम-पूर्ण है। तुम्हें भय की कोई आवश्यकता नहीं है कि यह भोजन हमारी जाति से है; क्योंकि फल हम द्वारा भी स्वीकार किए जा सकते हैं; और जल हमारे पात्रों से भी पवित्र है जब यह भूमि पर पड़ता है, अतएव पुरुष कहते हैं।' उसकी बुद्धिमता पर आश्चर्य करते मैंने भोजन ले लिया, तथापि मौन-व्रत रखा।

'
कुछ काल पश्चात, जब मैं बड़ा हो गया, मैंने एक दिवस इस सुवर्ण-पिंजर में स्वयं को पाया, और चाण्डाल-कन्या को देखा जिसको कि महाराजाधिराज, तुमने देखा है। समस्त बर्बर-पल्लि (बस्ती) एक देव-नगरी सम प्रदर्शित थी, और इससे पूर्व कि मैं कुछ पूछ सकूँ कि इस सबका क्या अर्थ है, वह कन्या मुझे आपके चरणों में ले आई। परन्तु वह कौन है और क्यों एक चाण्डाल बन गई, और क्यों मैं बँधित हूँ अथवा यहाँ लाया गया हूँ, महाराज, मैं भी तुम सम ज्ञातुम इच्छुक हूँ। '

उसपर महाराज ने महद विस्मय में, कन्या को बुलावा भेजा, और प्रवेश करते हुए उसने अपनी भव्यता से महाराज को अत्यधिक भीत कर दिया, और गरिमा के साथ कहा : 'तुम वसुंधरा-रत्न, रोहिणी-स्वामी, कादम्बरी के नयन-हर्ष, तुमने चन्द्र, अपने पूर्व-जन्म की कथा सुनी है, और कि इस मूढ़ प्राणी की। तुम उससे जानो कि कैसे इस जन्म में भी उसने अपने तात-आज्ञा की अवहेलना की, और अपनी वधू-दर्शनार्थ प्रस्थान कर गया। अब मैं लक्ष्मी हूँ उसकी माता, और उसके पिता ने अपनी दिव्य-दृष्टि से कि वह प्रस्थान कर चुका है, मुझे आदेश दिया कि उसे सुरक्षा में रखा जाय जब तक कि उसके हेतु किया जा रहा धार्मिक-अनुष्ठान सम्पूर्ण हो जाय, और उसको प्रायश्चित-अग्रसर करूँ। अब अनुष्ठान पूर्ण हो चुका है। शाप-समाप्ति निकट ही है। मैं उसको तुम्हारे पास इसलिए लाई हूँ कि उसके साथ यहाँ हर्षित हो सको। मैं मनुष्य-जाति के स्पर्श-रक्षा हेतु एक चाण्डाल बन गई। अतः तुम दोनों सीधे जन्म, वृद्धायु, दुःख मृत्यु के पातकों से युक्त अपनी वपुओं को त्याग दो, और अपनी-2 प्रियाओं संग मिलन-आंनद को विजित करो।' अतएव कहते हुए वह, सभी जनों की दृष्टि द्वारा अनुसरित होती, अकस्मात व्योम में उड़ गई जबकि नभमण्डल उसके खनकते नूपुरों से ध्वनित हो गया। उसके शब्दों पर महाराज ने अपना पूर्व-जन्म स्मरण किया और कहा : 'प्रिय पाण्डुरीक, अभी कहे जाने वाले वैशम्पायन, यह अति हर्ष का विषय है कि हम दोनों हेतु शाप एक ही क्षण समाप्ति पर आया है', परन्तु जैसे ही उसने यह कहा, कामदेव ने कादम्बरी को अपना सर्वश्रेष्ठ शस्त्र बनाते हुए अपना धनुष खींचा, और उसका जीवन नष्ट करने हेतु उसके उर में प्रवेश किया। काम-ज्वाला ने उसे पूर्णतया उपभुक्त कर लिया, और महाश्वेता की कामना से, वैशम्पायन जो सत्य में पाण्डुरीक था, ने भी महाराज सम उसी प्रकार की पीड़ा सहन की।

अब इसी समय वसन्त की सुरभित ऋतु में ऐसा कुछ उदित हुआ जैसे कि उसे पूर्णतया दग्ध कर देगा, और जबकि इसने सभी जीवित प्राणियों को मत्त कर दिया, कार्मुक द्वारा इसको कादम्बरी-हृदय को भी विभ्रांत करने हेतु अपना सर्वाधिक-शक्त शर के रूप में प्रयोगित किया गया। मदनोत्सव पर उसने दिवस अति-कठिनता संग बिताया, और सन्ध्या होने पर जब दिशाऐं कृष्ण हो रही थी, उसने स्नान किया, कामदेव-उपासना की, और उसके समक्ष अभिषिक्त-सुगन्धित, कस्तूरी-मिश्रित चन्दन से सुवासित एवं कुसुम-विभूषित चन्द्रापीड़-वपु को रखा। एक गहन चाह-पूरित, वह समीप आकर्षित हुई, जैसे कि अचेतना से और अकस्मात एक नारी-सुलभ भीरुता के प्रेम से च्युत, वह स्वयं को और अधिक नियंत्रित कर स्की, और चन्द्रापीड-कण्ठ को अतएव आलिंगन किया जैसे कि वह अभी तक जीवित हो। उसके अमृतमयी-आलिंगन से युवराज का जीवन उसको घनिष्ठता से पाशित करते हुए पुनः उसमें वापस गया, जैसे कि निद्रा से जागृत हुआ हो।

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उसने यह कहते हुए उसे प्रसन्न किया, 'भीत कन्ये, अपना भय दूर करो ! तुम्हारे आलिंगन ने मुझे जीवन प्रदान किया है; क्योंकि तुम सुधा-उत्पन्न अप्सरा-कुल की जन्मी हो, और यह मात्र शाप ही था जिसने पूर्व में मुझे स्पर्श करने से पुनर्जीवित होने से अवरुद्ध किया। मैं अब शूद्रक की नश्वर काया त्याग चुका हूँ, जिसने तुममें विरह-पीड़ा उत्पन्न की है; परन्तु मैंने यह वपु रखी है, क्योंकि इसने तुम्हारा प्रेम विजित कर लिया है। अब यह लोक एवं शशि दोनों तुम्हारे चरण-बद्ध हैं। तुम्हारी सखी महाश्वेता का कान्त वैशम्पायन भी मेरे संग शाप-मुक्त हो चुका है।' चन्द्रापीड़ रूप में जब शशि ने अतएव उवाच कियामहाश्वेता दत्त माला-पंक्तियों को अभी तक धारण किए और कपिञ्जल का कर पकड़े, पीत पाण्डुरीक ने गगन से अवतरण किया। हर्ष से कादम्बरी ने महाश्वेता को उसके वल्लभ की वापसी के विषय में बताया, जबकि चन्द्रापीड़ ने कहा : ' प्रिय पाण्डुरीक, यद्यपि एक पूर्व-जन्म में तुम मेरे जामाता थे, अब तुम्हें मेरा सखा होना चाहिए, जैसे कि हमारे अंतिम जन्म में।' इसी मध्य, केयूरक ने हंसा चित्ररथ को सन्देश देने हेतु प्रस्थान किया, और मदालेखा तारापीड़ और विलासवती के चरणपात हो गई, जो मृत्युञ्जय शिव की प्रार्थना-तल्लीन थेऔर उनको हर्षदायक संदेश सुनाया। तब महारानी मनोरमा संग वृद्ध महाराज शुकनास पर किंचित झुका हुआ वहाँ आया, और सबका हर्ष महद था। कपिञ्जल भी श्वेतकेतु से शुकनास हेतु यह कहते हुए संदेश लाया : 'पाण्डुरीक यद्यपि मेरे द्वारा पोषित किया गया, परन्तु वह तुम्हारा पुत्र है, और तुमसे स्नेह करता है; क्या तुम अतएव उसे पातक से दूर रखोगे, और उसकी अपने पुत्र भाँति परिपालना करोगे। मैं उसमें अपना निज-जीवन स्थापित कर चुका हूँ, और वह इन्दु सम ही दीर्घ जीऐगा; जिससे कि मेरी कामनाऐं पूरित हो जाऐं। मुझमें जीवन की दिव्य-आत्मा अब देवलोक से भी श्रेष्ठ एक अन्य-लोक में गमन की आकांक्षा है।' वह रात्रि उनके पूर्व-जन्म वार्ता में बीत गई, और उत्सव एक सहस्र-गुणा वर्धित हो गए। तथापि चित्ररथ ने कहा : 'जब हमारे पास अपने हर्म्य हैं, हम अरण्य में उत्सव क्यों मनाऐं ? इसके अतिरिक्त, यद्यपि मात्र गन्धर्व-विवाह (परस्पर प्रेम-आधारित) हममें नियम-पूर्ण है, तथापि हमें लोक-परम्परा का पालन करना चाहिए। 'नहीं', तारापीड़ ने उत्तर दिया, 'जहाँ एक पुरुष अपने महानतम हर्ष से ज्ञात होता है, वहीँ उसका आवास है, चाहे यह एक अरण्य में ही हो। और यहाँ जैसे आनन्द मैंने और अन्यत्र कहाँ जाने हैं ? मेरे सब हर्म्य भी, तुम्हारे जामाता को दिए जा चुके हैं; अतः मेरे पुत्र को उसकी वधू संग ले जाओ, और गृह-प्रमोदों का सुस्वाद लो।' तब चित्ररथ ने चन्द्रापीड़ संग हेमकूट गमन किया, और कादम्बरी के कर के साथ अपना समस्त राज्य उसे भेंट कर दिया। हंसा ने भी ऐसा ही पाण्डुरीक के साथ किया, किन्तु दोनों ने कुछ भी स्वीकार करने से मना कर दिया, क्योंकि उनकी अभिलाषाऐं अपनी उर-प्रिय वधू-विजय से सन्तुष्ट हो गई थी।'

अब एक दिवस कादम्बरी ने, यद्यपि उसके सब सुख पूर्ण थे, अश्रुओं सहित अपने भर्ता से पूछा : 'यह कैसे है कि जब हम सब मर जाते हैं और जीवन प्राप्त करते हैं, और फिर जुड़ जाते हैं, पत्रलेखा मात्र ही यहाँ नहीं है, ही हम उसके विषय में जानते हैं कि उसका क्या हुआ है ?' 'मेरी प्रिये, वह यहाँ कैसे हो सकती है ?' युवराज ने मृदुता से उत्तर दिया। 'क्योंकि वह मेरी भार्या रोहिणी है, और जब उसने सुना कि मैं शापित हूँ, मेरे शोक हेतु बिलखती, उसने मुझे नश्वर-लोक में एकाकी छोड़ना मना कर दिया, और यद्यपि मैंने उसे विरत करने का प्रयास किया, उसने उस लोक में मुझसे पूर्व भी जन्म लेना स्वीकार कर लिया, जिससे कि वह मेरी प्रतीक्षा कर सके।  जब मैं एक अन्य-जन्म प्रवेशित हुआ, उसने पुनः धरा-अवतरण की अभिलाषा की; परन्तु मैंने उसे चन्द्रलोक वापस भेज दिया। वहाँ तुम उसे पुनः देखोगी।' परन्तु उसको सुनकर कादम्बरी, रोहिणी की उदारता, स्नेहलता, महानुभावता, पतिव्रतता, पेशलता (मृदुता) विस्मित-हृदयता पर अति-लज्जित हो गई और किञ्चित भी प्रत्युत्तर में असमर्थ थी।

दस रात्रियाँ जो चन्द्रापीड़ ने हेमकुण्ट में बिताई, वे एक दिवस सम शीघ्रता से बीत गई, और तब चित्ररथ मदिरा से विदा होकर, जो उनसे पूर्णतया सन्तुष्ट थे, वह अपने तात-चरणों में आमुख हुआ। वहाँ उसने राजपुरुषों को अपना सम्मान प्रकट किया, जिन्होंने उसके कष्टों को, उसकी अवस्था को साँझा किया था, अपने पितृ-पादों का अनुसरण करते हुए राज्य-भार पाण्डुरीक को सौंप दिया, और स्वयं को सर्व-कार्यों से परित्यक्त कर दिया। कदाचित अपनी मातृभूमि-स्नेह से, वह उज्जैयिनी में वास करता था, जहाँ नागरिक उसे अद्भुत-विस्फरित लोचनों से देखते थे; कदाचित गन्धर्व-राज के सम्मान से अनुपम अतुलनीय रमणीयतम हेमकूट में; कदाचित रोहिणी के अति-सम्मान से चन्द्र-लोक में, जहाँ प्रत्येक स्थल शीतलता अमृत-परिमल से सुरभित था; कदाचित पाण्डुरीक के स्नेह कारण, सरोवर समीप जहाँ लक्ष्मी निवास करती थी, जहाँ दिवस-रात्रि में भी सदा मृणाल विकसित रहते थे, और कादम्बरी की प्रसन्नता हेतु अनेक अन्य रमणीय-स्थलों में।

कादम्बरी संग उसने अनेक सुख आनन्दित किए, जिससे दो जन्मों की उत्कट-अभिलाषा ने एक नित-नूतन एवं अतृप्त हर्ष प्रदान किए। मात्र चन्द्र ने कादम्बरी संग कोटि-हर्ष प्राप्त किए, अपितु कादम्बरी ने महाश्वेता संग, और पाण्डुरीक ने चन्द्र संग, सभी ने परस्पर-संगति में एक प्रमोद-निरतता व्यतीत की, और सुख की अति-पराकाष्टा पर पहुँचे।


टाइपिंग सम्पूर्ण 20:35 सायं 18 मार्च, 2017
सम्पादन शेष
प्रथम सम्पादन समाप्ति १२:३०, ३० जुलाई, २०१७।
द्वितीय सम्पादन समाप्ति २२:५० रात्रि, अक्टूबर, २०१७।    


    
    हिंदी भाष्यांतर समापन 

द्वारा
पवन कुमार,
                                                      (१६ मई, २०१९ समय २२:३४ रात्रि )