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Monday 8 July 2019

आत्म-निरूपण

आत्म-निरूपण 
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क्या है आत्म-निरूपण जीव का, कालजयी सम संवाद 
सर्वांग-रोम हर्षोन्मादित हर विधा से सफल साक्षात्कार। 

पूर्ण-विकास मानस-पटल का, कैसे लघु जीवन में संभव
सीमाऐं विजित हों, अश्वमेध-यज्ञ तुरंग सा स्वछंद विचरण। 
कोई सुबली पकड़ लेगा साहस से, प्रतिकार राजसत्ता का 
 न करो देश-अतिक्रमण, प्रेम से सहेजा हम प्रबंधन-ज्ञाता। 

एक कोशिश अग्र-चरण बढ़ाने की, देखें कितना है संभव 
पल-२ हर रोज बीत रहा, स्वयं से प्रश्न कितने पाए हो कर?
क्या करते, कितना संभव, कैसे भविष्य-पलों का सदुपयोग 
जीवन किस दिशा गतिमय, किनसे संपर्क व स्व-नियंत्रण? 

एक विशाल शैल-राशि के किसी कोण में छुपा लघु हीरक 
व्यर्थ त्याग, अमूल्य लब्ध, ऊर्जा-सदुपयोग है परमावश्यक। 
विपुल जन-समूह सर्वत्र फैला, बहु-अल्प प्रभाव काल नित 
हम भी मन-देह, प्रभावित सदा, कभी कम कभी अधिक। 

क्या विचार-बिंदु जो अनावश्यक त्याग, सार को ही देखें 
प्राथमिकता अल्प-उपलब्ध में, समस्त का ही केंद्र बिंदु में। 
वस्तु-सामग्री कैसे हो विकसित, आना तो होगा तभी सफल 
हर अणु पूर्ण-सार्थक युजित, अपार ऊर्जा-निधि विसरण ?  

कूप में विपुल वैभव-साम्राज्य छुपा, निकालो तो साहस से 
अविश्वासियों हेतु असत्य, पर अनेक खोज में जान लगा देते। 
कैसे संपूर्ण महद उद्देश्यार्थ, बिन मरे तो न मुक्ति-आस्वादन 
द्वारपाल खड़े प्रवेश दुष्कर पर अति-उत्कंठा, न हूँगा उदास। 

चिंतन-कोंपलें फूटने दो, निशा-तिमिर अनावृत हो देगा ही उषा 
घनघोर बदरा, दामिनी डराए, पर उसी के जल से प्राण-प्रवाह। 
बाधाओं से नित सामना, चोट खा-जलकर ही मृदा बनती इष्टक 
एक हीरक कोयले का ही द्विरूप, पर रूप-स्वभाव में भेद महद। 

प्राकृतिक नियम निश्चित अवस्थाओं में, वस्तु-निरूपण है सतत 
भिन्न स्वरूप सर्वत्र बिखरें, निर्माण-पद्धति पुरातत्व को ही ज्ञात। 
क्या निरूपण स्व का भी संभव, अन्य प्रभाव भी अति-सशक्त 
  कैसे स्व को विकसित किया जाए, यह तो स्वयंभू सा किंचित। 

स्व-जनित, अपने से पालन, अपने से ही संहार प्रलय वेला में 
सकल एक बुदबुदा सा क्षणभंगुर,  कहाँ सदा एक रूप में ?
परिवर्तन सतत घटित  स्व का, क्या मैं इसमें आत्मसात पर 
ज्ञात भी तो क्या सक्षम इंगित दिशा-बदलाव में, संभव हित।  

दूर का राही, अनंतता मंजिल, कुछ देर ठहर जाऊँ, गति निश्चित 
मम सीमाओं की भी क्या काष्टा, व क्या वह असीमता-प्रतिबिंब। 
कहते हैं प्रयास-अभ्यास से, जड़मति निरूपण सुजान में संभव 
सब पर भी नियम लागू, फिर क्या कारण कि विकास निम्नतर?

दुनिया में सतत सब बदलाव हो रहें, बिना किसी स्वीकृति के 
मैं भी प्रतिपल बदल रहा, पर इच्छा कुछ अनुकूल हो अपने। 
पर उससे पूर्व ज्ञान आवश्यक, किस मृदु रूप में हो विकास 
विश्व में बहु विचार-धाराऐं, किसे अपनाओगे तुम पर निर्भर। 

यही प्राथमिकता निज लघु स्व का बृहत-संभावनाओं से योग 
ज्ञानान्वेषणार्थ गति आवश्यक, कूप निकट पर उद्यम वाँछित। 
प्रयास होना चाहिए सुमार्ग चुनें, विश्व-दर्शन अभी अति-समृद्ध 
विशारदों ने विमल-चिंतन से पंथ चलाऐं, चुनाव तुमपर निर्भर। 

निरूपण एक निर्मल-सार्थक शब्द, अपनाओ सत्य-निर्वाह में 
जब और बढ़ें तुम क्यों बैठे, पर-छिद्रान्वेषण में व्यस्त अनेक। 
सदैव विश्व-इतिहास दर्शाता कर्मयोगी ही होते हैं चिर-स्मरण 
माना अंत में सब विस्मरित, पर यावत प्राण कर लो अनुभव। 

अनेक धरा-अवतरित, अनेक वर्तमान में, भविष्य में भी बहुत  
एक काल-स्थल में आए हो, कुछ लक्ष्य भी या यूँ ही प्रतिगमन। 
मनुज निज को ही भूल जाता, अन्य की चिंता इस जग में कब 
तव-कष्ट तुम्हारा दायित्व, कुछ कर सको तो साधुवाद के पात्र। 

संसाधन हर पल में उपलब्ध, पर उपयोग सार्थक दिशा में क्या 
आत्म-चिंतन से ही विकास-लड़ियाँ फूटेंगी, कायांतरित हो सदा। 
अरस्तु से मनस्वी जग में, आज पुस्तक 'Ethics' से एक अंक पढ़ा 
विषय साहस-भय का था, नर सब-परिस्थिति अनुकूल कर लेता।

उचित-भय काल-परिस्थिति में उदित होता, न डरने का हो साहस
मूढ़ सम 'जो होगा देखा जाएगा' न ठीक, विवेक से हों सब प्रबंध।
जीवन में अपने से ही अनेक भय, पर उनकी क्या सृष्टि व निदान
खींच लाना उपयुक्त दिशा में ही तो, तभी होगा सार्थक निरूपण।

मम विवेक-मनन उद्देश्य, विकास-संभावनाओं का करूँ अन्वेषण
न किंचित अपघटित हो  पवित्र वस्तु, आई प्रयोग करणार्थ तव।
निज को संभालो, सहेजो, प्रेम करो, उभारो, सब भाँति सुप्रबंधन
 यथाशीघ्र उपयुक्त दिशा चुनो, चल पड़ो पथिक समय है कम।

लिखवा दे मुझसे भी एक बड़ी अवस्था, बढ़ सकूँ सदा अबाधित
अभी तो उलझा हूँ इन्हीं विभ्रमों में, क्या मंजिलें हों चलने को पथ ?
रोबिन शर्मा कहते कोरा-कागज पैंसिल लो, लिखो जो लगे उत्तम
कहते बहुत सरल है प्रयास तो करो, सब कुछ ही तुम्हारे निकट।

मेरी जान-माल रक्षा तुम हाथों में ओ ईश्वर, मृदुतम रूप दिखा दो
अंतः-करण निर्मल करो सब भाँति, प्रकाश से उचित राह दिखा दो।
दिल से प्रयास है एक चिर काल से, जब से जन्मा यही तो रहा सोच
करो कृपा क्यूँ रखते विमूढ़ मुझे, अनेक बैठे अवलोकन में ही रत।

निरूपण संभव जब लक्ष्य ज्ञात होगा, वृहद ऊर्जा का हो संसर्ग
पर ज्ञात है उत्तम दिशा में हूँ, चलता रहा तो पा ही लूँगा कुछ।
स्पर्धा निज की परम रूप से ही, उत्तरोत्तर बनाना अति निर्मल
समस्त साँसत निज प्रयास की, चलते रहो मंजिल है निकट।

पवन कुमार,
८ जुलाई, २०१९ समय १२:३० बजे मध्य रात्रि
(मेरी डायरी दि० ९ अप्रैल, २०१६ से)    

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