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Sunday 26 April 2020

स्व-उत्थान

स्व-उत्थान 
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स्व-उत्थान लब्ध किस श्रेणी तक, नर मन का चरम विकास 
क्या अनुपम मार्ग अनुभवों का, स्वतः स्फूर्त परम-उल्लास। 

भरण-पोषणार्थ तन नित्य-दिवस, माँगता आवश्यक कार्य  
ऊर्जा-बल प्राप्त अवयवों से, जग-कार्य संपादन में सहयोग। 
उससे मन-रक्त संचारित रहता, उचित कार्यान्वयन परिवेश 
पर सत्य आहार चिंतन विरल का, सहायक उन्नयन प्रवेश। 

कौन दिशा विस्तृण-संभावना, या सर्व-दिशा एक सौर सा वृत्त 
मेरा विकिरण कितना प्रभावी, करूँ श्लाघा सामर्थ्यवान तक। 
क्या यह मन संपूर्ण देख पाता, अपूर्वाग्रह सब मनुज-दृष्टिकोण 
निज-संतुष्टि या सर्व प्रकृति को भी, कर्तुम सक्षम आत्म-स्रोत। 

कैसे बढ़े यह लघु-मन सीमा, क्या आवश्यक यज्ञानुष्ठान हव्य 
महर्षियों सा अनुपम-चिंतन, अपने विधान में ब्रह्मांड समस्त।
स्व-धर्म-ध्वजा बस अग्र-प्रेषक हो सके, हों सब वितण्डाऐं पार 
अनेक रत्न बिखरें इस मार्ग, बनाओ सुंदर-समृद्ध मुक्ता हार। 

कैसे स्थिर वर्तमान में एक ही क्षेत्र, वृद्धि अदर्शित मृदुता ओर 
हर शब्द पर है कलम रुध्द, कुछ चिंतन हो भला करे विभोर। 
कैसे एक ज्ञान-सीढ़ी निर्माण, शीघ्र निश्चित हो वह महद लक्ष्य 
बंद हैं गलियाँ अंधकार चहुँ ओर फैला, कैसे निकलूँ सूझे न। 

किस पंथ-मनस्वी से मेल खाता, कैसे उनका आत्म-पाश निर्गम
 पथ अज्ञात गंतव्य अनिश्चित, पर छटपटाहट तो है अन्तःस्थल।  
कूप-पतित  कुछ भी न सूझे, शून्यावस्था में यूँ गोते लगाऊँ बस
अस्तित्व नितांत ही विस्मृत, किञ्चित ओझा सा स्व-मंत्र ही मस्त। 

क्या संदेश  दे रहा स्वयं को, या  निज कूपान्धता  का ही उक्ति 
पर जैसी स्थिति तथैव कथित, जो न उसकी क्या अतिश्योक्ति। 
प्रजाजन लुब्ध-प्रवृत्ति में, कुछ महापुरुषों का बस महिमा-मंडन 
पर क्या नर स्व की चरमावस्था हेतु है प्रयासरत व करते प्रयत्न। 

पर क्या मम प्रयास इन शून्य-क्षणों में, कलम-रेखाओं के अलावा 
क्या परिणति ऐसे  प्रयोग की, न किसी बाह्य-दीप्ति से बहलावा। 
उच्च-श्रेणी मन एक भाव ले चलते, कुछ सार तो लेते ही निकाल
    पर एक स्थल कोल्हू-बैल सा घूर्णन, देह-श्रम के अलावा न कुछ।   

इस शून्यावस्था के क्या अर्थ, कौन कोंपलें फूटेंगी विटप से इस 
इसे धूप-जल-मृदा अनुकूलन प्राप्त, शनै खिलेंगे ही  किसलय।
किसी भी स्थिति में आनंदमयी होना ही तो समरूपता सिखाता 
रोना-बिलखना त्याग मुनि सा चिंतनशील, खुलेंगे मार्ग स्वतः ही। 

कुछ आश्रम मौन-शून्यावस्था सिखलाते, विपश्यना जैसी विधि 
मनुज भूल सब विवादों को, एक शांत भाव में निवासार्थ युक्ति। 
सब चित्त-विचार तरंगें स्वतः शमित, तब फूटे है अनुपम ज्योति 
विभ्रम स्थिति से एकाग्रता ही भंग, सारी चेष्टा एक मूर्त हेतु ही। 

आत्म को करो व्यर्थ भार से मुक्त, ऊर्जा अपव्यय से उलझे मन
नित प्रयास हो मुक्ति-चिंतन का, व्यर्थ त्याग कराती प्रवेश परम। 
दुर्दिन का सुदिन में परिवर्तन, विमल चेष्टा-आकांक्षा से ही संभव 
आयोजन हो परम विकासार्थ, भ्रामक ग्रंथि खुलते ही मुक्ताभास। 

वे छुपे शब्द आते क्यों न समक्ष और कराते अपनी सदुपस्थिति 
ये ही तो हैं असली योद्धा, जीवन सुचारु रूप से चलाने हेतु भी। 
क्यों तब तव आदेश पालन न हो रहा व खुल न रही दिव्य-दृष्टि 
समाधान न प्रकट स्वतः ही, मन डोलता है बस इधर-उधर ही। 

एक ताल में महावृक्ष स्वप्नित, जल-तरंगें शाखा-पल्लव कंपित 
मेरा मन भी अतएव विव्हलित, कुछ भी प्रतिक्रिया न निर्मित। 
नितांत मैं  संज्ञाशून्य बन रहा, निस्पंद हो  निहारता सब कुछ 
अब नेत्र भी निमीलित हों रहें, कैसे निकलूँ उहोपोह स्थिति से। 

कैसा अधकचरा यह ज्ञान, अभिमन्यु सम प्रवेश तो चक्रव्यूह 
निर्गम दुष्कर, इस दशा से निकले तो अग्रिम विचार हो कुछ। 

या इसे ऐसे ही रहने दो मीरा बावरी सम,  कृष्ण-रंग में मस्त 
क्यों जरूरी निकास, जग मदहोशी हेतु  करता अनेक यत्न। 
जब बिन बाह्य-सहाय ही, प्राप्त हो रही  परम-आनंदानुभूति 
चिंता न और संबल की, सर्व  आवश्यकताऐं  पूर्ण हो रहीं।  

जगज्जञ्जाल से छूट स्वानंद  में, सर्वत्र हो रही  निर्मल-वर्षा 
विस्तृत आनंद का बस स्पंदन,  सर्वोच्च  समाधि अवस्था। 
जीवन-कला उत्थित स्वयमेव,  समृद्धि से  स्वतः ही मिलन 
 लुप्त रहूँ अनुपम  अनुभूति में,  विश्व पूर्व  भी था मेरे बिन।   

दीन-हीन तो असंभव, सीधा संपर्क शांत-सौम्यता से निज
वपु-क्षीणताऐं स्वतः  निर्मूलित, तन-मन  हैं  दोनों  स्वस्थ। 
पर क्या इससे कुछ ज्ञान होगा, अग्रिम   चरण भी  इससे 
कब आत्मसात, किस काल तक रह  सकता सम्यक में। 

विमुक्ति-अनुभव ईश्वर-अनुकंपा, न कोई उपलब्धि अल्प   
गौरान्वित हूँ इस प्रसाद से, बिना गर्वोन्माद के किन्तु नम्र। 
सब प्राणीभूत स्पंदन मुझमें,  सबसे प्रेम कोई विषाक्ति न 
मेरा अंश है सर्वत्र छितरित,  हूँ पुलकित विकास से इस। 

स्वप्न सी स्थिति, बस लेखनी ही कराती चेतना उपस्थिति 
अदीप्त हो रहे सर्व मन-द्वार, कहते कुछ देर रहो यूँ ही। 
प्राण मिला बड़-भाग से, हारना मत, गति से मिले सुयश 
बाधा स्वतः हटेंगी, कुटिल  सरल होंगे व सुजन -संगम। 

विकास-यात्रा अति दीर्घ, कुछ अतएव पड़ाव विश्राम-क्षण 
आवश्यक न नित दौड़-धूप में रहो, शांत हो करो निर्वहन। 
स्व-उत्थान उच्च-मनावस्था द्योतक, यदि प्राप्त तुम सुभागी 
सोपान मिलेंगे आरोहणार्थ, लक्ष्य अनुपम, रहो चेष्टाकांक्षी। 

एक और निर्मल अनुभव, धन्यवादी जो तू कराता सम्पर्क 
बस अभी यूँ डूबे रहने दो, यथासंभव करूँगा रसास्वादन। 


पवन कुमार,
२६ अप्रैल, २०२० समय ११:४७ बजे म० रा०  
(मेरी डायरी १९ मार्च, २०१६ शनिवार, समय ११:४० बजे पूर्वाह्न से )
   

Thursday 16 April 2020

कवि-उदय

कवि-उदय 
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कैसे नर-उपजित कलाकार-कवि रूप में, प्रायः तो सामान्य ही 
देव-दानव वही, एक स्वीकार दूजे से भीत हो कोशिश दूरी की। 

यह क्या है जो अंतः पिंजर-पाशित, छटपटाता मुक्ति हेतु सतत 
मुक्ति स्व-घोषित सीमाऐं लाँघन से, कितनी दूर तक दृष्टि संभव? 
दूरियों से डरे, किनारे खड़े रहें, लोग आगे बढ़ते गए व दूर-गमन
आत्मसात की प्रबल आकांक्षा, मन को प्राप्ति हेतु करना तत्पर। 

एक महा-स्वोन्नति लक्ष्य, भौतिक-आध्यत्मिक एवं निज-व्याख्या 
उदधि-पार द्वीप-वृक्षों का दर्शन, पतवार चढ़ चक्कर लगा आना। 
वहाँ  स्थित वे प्रतीक्षा कर रहें, उठो तो प्रकृति-संसाधन दर्शनार्थ 
विपुल-साम्राज्य तव हेतु ही, घुमक्कड़ी-बेड़ा तैयार कर लो बस। 

कुलबुलाहट-क्षोभित, क्या व्यथा-कारण सुलगते अग्नि बनने हेतु 
अति ऊष्मा-ईंधन आवश्यकता, ज्वाला बन भी क्या लक्ष्य होगा? 
क्या महज स्व-हित ही चाहते, या पूर्ण-विश्व को भी दिखाना दिप्त 
त्रस्त-तमोमयी आत्मा बस जी रहीं, व्यर्थ प्रपंच फँस प्राण-व्यर्थ। 

पर प्रथम कर्त्तव्य तो स्व-त्राण, व्यवधानों से न हुआ व्यक्त निर्मल
जब दीप्त-कक्ष के कपाट बंद हों , कौन कुञ्जी  दिलाएगी प्रवेश?
अति-सूक्ष्म  द्रष्टा तो न हूँ माना, पर प्रयास कि हो एक कवि-जन्म 
बाल्मीकि तो क्रोञ्च-विरह अनुभूति से ही, निर्मल श्लोक उद्गीरत। 

कैसे व्यास सम नर, कहाँ छुपा अपरिमित ज्ञान व सामर्थ्य-कथन  
किस परिवेश-सान्निध्य से गणेश-गुहा प्रवेश, बैठ लिखे जाते ग्रंथ?  
जो सहायक पूर्णतार्थ, ललकारते भी, मूलतः निज ही अभिव्यक्ति 
बाह्य-निनाद  परे एकांत कारक-सामंजस्य, कामायनी सम कृति। 

विशेष प्रेरणा संग विटप प्रति आवश्यक, अंकुर-निर्माण तभी संभव 
प्रक्रिया उपनयनित शिक्षार्थ, कालोपरांत प्रबुद्ध भाव भी हो उत्पन्न।  
कुछ नित चयन-प्रक्रिया त्याज्य-त्याग, ग्रहणीयों के लब्धार्थ  प्रयास 
गुण-संकलित तो अभूतपूर्व ऊर्जा उदय, अनेक संग हित -सक्षम। 

जीवन प्राप्त भाग्य से ही, कुछ पदार्थ संग्रह करो मननार्थ चित्त-दान 
पर कितना प्रयुक्त सत्य-सार्थक, या व्यर्थ-अनर्गल ही गल्प-प्रलाप। 
विद्वद-उक्ति अथाह संभावना पुण्य-कृत्यों हेतु व सर्व-लोक कल्याण 
प्रवीणता इस अदने शख्स में भी, पर आवश्यक है अन्वेषण-उपाय। 

संसाधन यदि संयोजित, निपुण रचनात्मकता स्वतः ही अग्रचरणित 
ज्ञानी तो नित-अतंद्रित, विदित जीवन ही व्यापकता हेतु समर्पित। 
निर्मल-चित्त, विश्व-व्यापी, सबके प्रति न्याय-प्रेम व भाव प्रगति-पथ 
समय व्यर्थ एक मरण सी स्थिति, स्व को ललकारना लगता उत्तम। 

एक कवि आत्म-क्रांत दर्शन में समर्थ, सर्व-सौंदर्य मुखरण-त्वरित 
निष्पक्ष विश्व-दर्शन में सक्षम, अत्याचारों-कष्टों प्रति दयालु-नरम। 
एक उज्ज्वल सदा मन-देह में, विवेकी नीर-क्षीर भेदन में है सक्षम 
सरस्वती वाणी-निवासित, न्यून सम न नकार, अति अंतः-समृद्ध। 
  
इस चित्त-बुद्धि में सर्वस्व समा सकता, वृहद-वक्ष किधर से उत्पन्न 
अनेक विश्व-रहस्य विदित, गुह्य-जटिल तथ्य सुलभ हो होते समक्ष। 
वह है श्रेष्ठ नियम-धर्ता, पालन-कर्ता, करुणा-दृष्टि में सब एक सम 
पर बाह्य विश्व में कई भाट भी, जिनकी कवि-कृति मात्र निर्वाहार्थ। 

रचनात्मकता है आयामों में मनन-सामर्थ्य, निज ही से कुछ रचना 
 जब कृति विश्व-धरोहर तो कह सकोगे, मैं भी कुछ भागी-विपुलता। 
निज तो न कुछ सब प्रकृति-पूंजी, मात्र उपयोग करना सीख लिया 
तन-मन-धन सब उसी का उपहार, विजयी-गर्वशून्यता ही थाती। 

वह कवि तो अति-महान चरित्र घड़ लेता, अनेक गुणों का समावेश 
एक कथानक बुनने में समर्थ, कुछ प्रेरणा-मनन सदैव रहती साथ। 
निज-विस्मृति समर्थ चाहे कुछ काल ही, मात्र प्रयोजनों में ही लुप्त 
विद्या-निवासिनी संग, हर शब्द परीक्षित, वाक्यांशों पर और बल। 

मन-कवि कहाँ बसता, न निकसित, इस कलम का ही सत्य-संघर्ष 
उत्तम रचनार्थ तो सदा प्रयासी, पर कब संभव विधि को ही विदित? 
अवश्यमेव संकीर्णता-मुक्ति, क्रांतदर्शी मन करे शुरू बहुल दर्शन 
       निर्मल भाव अंततः होगा पर तावत प्रतीक्षा, जैसा संभव रहो चलित।       

कोई साहित्य-प्रशिक्षण तो न, स्व से ही कुछ ली शब्द-संकलन शिक्षा 
निस्संदेह कालि-व्यास-सूर-कबीर-शैक्सपीयर-प्रसाद सी तो न गूढ़ता। 
पर किञ्चित यह कुछ जीव उदितमान, अल्पाधिक निर्मल देगा ही रच 
सतत-अभ्यास इसकी भी सीढ़ी, कला-पारंगतता असीम धैर्य का नाम। 

माना आम मनुज न गूढ़ साहित्य-रसिक, पर दूरात तो स्तुति कर देता 
पर सत्य-कवि न यशाकांक्षी, वह स्व-विकार ही मर्दन करना चाहता। 
दूरगामी दृष्टि से नक्षत्रों के पार चरम ब्रह्माण्ड-छोर तक गंतुम-समर्थ 
एक अति-विशालता से सतत परिचय, प्रत्येक अंश से लगाव महद। 

एक आह सी मुख से निकलती, उत्तम न ज्ञात कैसे हो दुर्गम पथ पार 
संपूर्ण शक्ति इसी पर, सदा व्यक्त रहें निर्मल-सर्वकल्याणक उद्गार। 
कुछ परिवेश-स्वच्छता जिम्मा भी लेता, हर क्षण का प्रयोग समुचित 
सर्व दंभ निर्मूलित, साहसी भी कि सत्य-कथन में न तनिक झिझक। 

जिस दिवस हो यह अंतर्भय अंत, सर्व-मानवता हेतु उपजेगा करुण 
एक  कालखंड वासी को अमरत्व, पर न अतिश्योक्ति-आत्ममुग्ध। 
ऐसा साहित्य विश्व निजता-गर्व कर सके, क्या इस लेखनी से संभव 
संवेदनशील, समय-परीक्षा से परे, गागर में सागर समाना साहस। 

कुछ  निर्मल-हृदय योग हो इस वृहद अभियान में, कुछ हो सहायता 
प्रशंसा तो आ ही जाती, पर कोई उर से कृति स्वीकारे तो आए मज़ा। 
कुछ विवेचना हो, दोष भी निकाले जाऐं, ताकि व्यक्तित्व हो परिपक्व 
एक कवि-दार्शनिक  भाव मन में आए, तो जग-आगमन हो सार्थक। 

अद्य-प्रयास  स्वयं से परिचित होना, जिससे कुछ कवित्व हो प्रदर्शित 
  मम लेखन यदि  विस्तृत बन सके, मृदुल-भाव रचना हो  पाए रचित।  


पवन कुमार,
१६ अप्रैल, २०२० वीरवार, समय  ६:०१ बजे सुप्रभात 
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० १७ मई, २०१९, शुक्रवार, समय ७:५५ बजे प्रातः से)   


  

Tuesday 7 April 2020

तरंग-उत्पत्ति

तरंग-उत्पत्ति
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इस वृहद जग-सागर में मेरी भी एक लहर, क्या परिणति होगी देखें  
हर ऊर्मि को वापस लौटना ही होता, लीन-विलीन प्रशांत उदधि में।  

क्या है यह तरंग-अभिलाषा, कुछ तो अति-सुंदर दृश्य प्रस्तुत  करती 
कुछ अति-विध्वंशकारी, अन्य निज जैसों से मिल जन-हानि कर देती। 
सबका निज ऊर्जा-स्वभाव है, पर सागर की है किंचित न्यून-प्रक्रिया  
सब उसकी अंतः-ऊर्जा का ही रूप, अंततः उसी में समाना परिणति। 

मेरी क्यूँ उत्पत्ति है कैसा रूप, चेतना भी या एक वृहद प्रक्रिया का अंश 
ऐसी क्या आवश्यकता थी जग को मेरी, अनेकानेक तो पूर्वेव थे स्थित? 
फिर कौन द्योतक था निर्माण में, कलपुर्जों, माँस-मज्जों से बनाया किन  
क्या माता-पिता ही कर्ता थे, या वे भी किसी महद लक्ष्य हेतु थे मध्यस्थ? 

मम हेतु अभिभावक अति-महत्त्वपूर्ण, जग विचारे सामान्य जीव ही पर  
उनका जीवन भी साधारण सा, संतान-उत्पत्ति था एक सामान्य कर्त्तव्य। 
पर मैं उनसे ही क्यूँ हूँ, माना सहोदर भी, यदि वे न जन्मते तो क्या होता 
या जन्म और द्वारा भी संभव था, अगर हाँ भी तो कैसा परिवेश मिलता? 

तो कौन सत्य माता-पितु या थे मात्र जन्म-वाहक, अब दिवंगत भी हुए 
क्या कोई उद्देश्य इस उत्पत्ति का, या मात्र समय पूरा कर जाना चले? 
क्या मेरी कोई व्यक्तिगत पहचान भी, या मात्र इसी जन्म का रेला-पेला 
भिन्न दर्शन निज ढंग से अलापते, खुद से ही समझ गुह्य से पार आना। 

ईश्वर-परमात्मा शब्द वृहद अर्थपूर्ण, कई मनीषियों का विचार-दर्शन 
माना 'आत्मा' कल्पना मानव-कृत ही, तथापि हुआ है गहन अध्ययन। 
कोई आवश्यक न हम सदैव उचित हों, तथापि कयास तो लगा सकते 
स्व को परम-ज्ञाता मानना भी उद्देश्य न, पर एक ज्ञान-पथ ध्यान भी। 

इतना तो अवश्य  सब निज में ही  विचरते, जीना तो होता इसी में 
चाहे जीवन से संतुष्ट हों या असंतुष्ट, हम अपने शत्रु-मित्र भी होते। 
अपने पर कई बार कर्कश रहते, कुछ आत्म-हत्या तक भी लेते कर
असंतुष्टि चलते खुद को मारा, इसी स्वयं पर आज का विचार गठन। 

सुभग को एक कार्य-क्षेत्र मिला है, व्यक्तिगत प्रतिभा भी दिखा सकते 
माना सफलता अन्य-सहयोग से ही, पर वे भी तव अभिव्यक्ति देखते। 
यह देह-भाषा भी एक विचित्र आयाम, लोग यथारूप प्रभावित हैं होते 
मेरी भी निश्चित परिधि, इसी में उलझ निज व अन्यों को जोड़े रखते।  

कुछ पेंच तो अवश्य है इस जीवन में, तभी तो चेतना-निरंतरता दर्शन 
माना सदा भूलते भी, जन्म-पूर्व व ४-५ वर्ष वय तक न विशेष स्मरण। 
पर इसका अर्थ यह न जो याद न है घटित ही न, ये दोनों पृथक विषय 
सबकी तो न एक सम स्मृति होती, पर जीवन फिर भी चलता है रहता। 

यदि कीट-सरीसृप-मत्स्यों को छोड़ दें, जीवों में संतति-वात्सल्य स्वतः ही 
स्तनधारी व कुछ पक्षी तो अति धीमान, वैसे सबमें होती कुछ सम-प्रवृति। 
क्या हैं ये प्राण व कर्म-बल, स्थूल दर्शन से तो जन्म-मरण मध्य ही अवधि 
कई पूर्व-जन्म सिद्धांत विश्व-प्रतिपादित, पर समझना किंचित कठिन ही। 

आओ कुछ स्व को ही समझ लें, तो संभवतया सर्व विश्व-प्रक्रिया भी ज्ञान 
इस देह में जन्म से अब तक, एक सतत चेतना संग ही रहें है आवासित।  
माना है एक निश्चित आकार-रूप में, पर एक परिस्थिति विशेष से युजित 
लेकिन मान तो चेतना-संगति से ही होता, देह भी तभी रहती सम्मानित। 

कौन प्रधान देह या यह चेतना /आत्मा, एक दूजे बिन तो दोनों निरर्थक 
मृत्यु पर देह स्वतः विनष्ट होकर, पंचतत्व में हो जाती पूर्णतया विलीन। 
कथन-मनन सक्षम चेतन अब लुप्त, संपर्क न संभव चाहे हों जितने यत्न 
प्राण-बात थी दोनों के समन्वय से ही, एक उड़ा तो दूजा हुआ निस्तेज।   

फिर देह मृत हुई चेतना न रही,  जीवन होने से ही तो कहलाता जीव 
फिर स्व-अधिकार न रहता,  अशक्त अन्यों द्वारा किए जाते विसर्ग। 
फिर 'स्व' भी कहाँ गया नितांत  अज्ञात, माना भिन्न धारणाऐं प्रचलित 
फिर ज्ञान तो मरे बाद ही होगा या न भी, विज्ञान भी इस बारे में चुप। 

आत्मा कुछ मस्तिष्क-प्रक्रिया ही, सोच-समझ-आदेश ले-दे सकती 
यह भी देह का एक अवयव ही, ऊर्जा हटी तो यह भी निष्प्राण हुई।
देह के ऊर्जा-स्वास्थ्य से ही तो, यह मस्तिष्क भी सक्रिय-विज्ञ रहता 
जब समुचित भोजन-पोषण न,  आत्मा क्षीण हो दुर्बल-भाव करती। 

फिर यात्रा जन्म से मरण अवधि ही, यह तो कोई अधिक बात हुई न 
  जब सब सिलसिला यहीं निबट जाना, एक श्रेष्ठ जिंदगी जी लें क्यूँ न। 
देह-मन संगम निर्माण एक पवित्र कर्त्तव्य, विकास परियोजना विपुल 
यह जीवन ही मंदिर-शिवालय, प्रतिष्ठा-स्थापन भी  जिम्मेवारी निज। 

यह तो कुछ ऐसा कुछ ही घंटे मिलें, और अनेक काम किए जाने हैं 
विश्राम की तो न कोई बात, गाड़ी छूटने जा रही तुम शीघ्र चलना। 
पर यह शेष क्या है जो इतने उतावले, जग तो तुम बिन भी चले था 
जब सब निज भाँति कर रहें हैं, तो तुम भी संजीदा हो जग देख लो। 

जब सब कूक रहें तुम क्यूँ न, रंग-ऊर्जा व प्रतिभा विसरण होने दो 
जग में अनेक परीक्षण-प्रयोग  सतत, कुछ उतावले तुम भी हो लो।


पवन कुमार,
७ अप्रैल, २०२०, बुधवार, समय १०:११ बजे प्रातः  
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० २९ जून, २०१७ समय ८:३७ प्रातः से)