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Tuesday 7 April 2020

तरंग-उत्पत्ति

तरंग-उत्पत्ति
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इस वृहद जग-सागर में मेरी भी एक लहर, क्या परिणति होगी देखें  
हर ऊर्मि को वापस लौटना ही होता, लीन-विलीन प्रशांत उदधि में।  

क्या है यह तरंग-अभिलाषा, कुछ तो अति-सुंदर दृश्य प्रस्तुत  करती 
कुछ अति-विध्वंशकारी, अन्य निज जैसों से मिल जन-हानि कर देती। 
सबका निज ऊर्जा-स्वभाव है, पर सागर की है किंचित न्यून-प्रक्रिया  
सब उसकी अंतः-ऊर्जा का ही रूप, अंततः उसी में समाना परिणति। 

मेरी क्यूँ उत्पत्ति है कैसा रूप, चेतना भी या एक वृहद प्रक्रिया का अंश 
ऐसी क्या आवश्यकता थी जग को मेरी, अनेकानेक तो पूर्वेव थे स्थित? 
फिर कौन द्योतक था निर्माण में, कलपुर्जों, माँस-मज्जों से बनाया किन  
क्या माता-पिता ही कर्ता थे, या वे भी किसी महद लक्ष्य हेतु थे मध्यस्थ? 

मम हेतु अभिभावक अति-महत्त्वपूर्ण, जग विचारे सामान्य जीव ही पर  
उनका जीवन भी साधारण सा, संतान-उत्पत्ति था एक सामान्य कर्त्तव्य। 
पर मैं उनसे ही क्यूँ हूँ, माना सहोदर भी, यदि वे न जन्मते तो क्या होता 
या जन्म और द्वारा भी संभव था, अगर हाँ भी तो कैसा परिवेश मिलता? 

तो कौन सत्य माता-पितु या थे मात्र जन्म-वाहक, अब दिवंगत भी हुए 
क्या कोई उद्देश्य इस उत्पत्ति का, या मात्र समय पूरा कर जाना चले? 
क्या मेरी कोई व्यक्तिगत पहचान भी, या मात्र इसी जन्म का रेला-पेला 
भिन्न दर्शन निज ढंग से अलापते, खुद से ही समझ गुह्य से पार आना। 

ईश्वर-परमात्मा शब्द वृहद अर्थपूर्ण, कई मनीषियों का विचार-दर्शन 
माना 'आत्मा' कल्पना मानव-कृत ही, तथापि हुआ है गहन अध्ययन। 
कोई आवश्यक न हम सदैव उचित हों, तथापि कयास तो लगा सकते 
स्व को परम-ज्ञाता मानना भी उद्देश्य न, पर एक ज्ञान-पथ ध्यान भी। 

इतना तो अवश्य  सब निज में ही  विचरते, जीना तो होता इसी में 
चाहे जीवन से संतुष्ट हों या असंतुष्ट, हम अपने शत्रु-मित्र भी होते। 
अपने पर कई बार कर्कश रहते, कुछ आत्म-हत्या तक भी लेते कर
असंतुष्टि चलते खुद को मारा, इसी स्वयं पर आज का विचार गठन। 

सुभग को एक कार्य-क्षेत्र मिला है, व्यक्तिगत प्रतिभा भी दिखा सकते 
माना सफलता अन्य-सहयोग से ही, पर वे भी तव अभिव्यक्ति देखते। 
यह देह-भाषा भी एक विचित्र आयाम, लोग यथारूप प्रभावित हैं होते 
मेरी भी निश्चित परिधि, इसी में उलझ निज व अन्यों को जोड़े रखते।  

कुछ पेंच तो अवश्य है इस जीवन में, तभी तो चेतना-निरंतरता दर्शन 
माना सदा भूलते भी, जन्म-पूर्व व ४-५ वर्ष वय तक न विशेष स्मरण। 
पर इसका अर्थ यह न जो याद न है घटित ही न, ये दोनों पृथक विषय 
सबकी तो न एक सम स्मृति होती, पर जीवन फिर भी चलता है रहता। 

यदि कीट-सरीसृप-मत्स्यों को छोड़ दें, जीवों में संतति-वात्सल्य स्वतः ही 
स्तनधारी व कुछ पक्षी तो अति धीमान, वैसे सबमें होती कुछ सम-प्रवृति। 
क्या हैं ये प्राण व कर्म-बल, स्थूल दर्शन से तो जन्म-मरण मध्य ही अवधि 
कई पूर्व-जन्म सिद्धांत विश्व-प्रतिपादित, पर समझना किंचित कठिन ही। 

आओ कुछ स्व को ही समझ लें, तो संभवतया सर्व विश्व-प्रक्रिया भी ज्ञान 
इस देह में जन्म से अब तक, एक सतत चेतना संग ही रहें है आवासित।  
माना है एक निश्चित आकार-रूप में, पर एक परिस्थिति विशेष से युजित 
लेकिन मान तो चेतना-संगति से ही होता, देह भी तभी रहती सम्मानित। 

कौन प्रधान देह या यह चेतना /आत्मा, एक दूजे बिन तो दोनों निरर्थक 
मृत्यु पर देह स्वतः विनष्ट होकर, पंचतत्व में हो जाती पूर्णतया विलीन। 
कथन-मनन सक्षम चेतन अब लुप्त, संपर्क न संभव चाहे हों जितने यत्न 
प्राण-बात थी दोनों के समन्वय से ही, एक उड़ा तो दूजा हुआ निस्तेज।   

फिर देह मृत हुई चेतना न रही,  जीवन होने से ही तो कहलाता जीव 
फिर स्व-अधिकार न रहता,  अशक्त अन्यों द्वारा किए जाते विसर्ग। 
फिर 'स्व' भी कहाँ गया नितांत  अज्ञात, माना भिन्न धारणाऐं प्रचलित 
फिर ज्ञान तो मरे बाद ही होगा या न भी, विज्ञान भी इस बारे में चुप। 

आत्मा कुछ मस्तिष्क-प्रक्रिया ही, सोच-समझ-आदेश ले-दे सकती 
यह भी देह का एक अवयव ही, ऊर्जा हटी तो यह भी निष्प्राण हुई।
देह के ऊर्जा-स्वास्थ्य से ही तो, यह मस्तिष्क भी सक्रिय-विज्ञ रहता 
जब समुचित भोजन-पोषण न,  आत्मा क्षीण हो दुर्बल-भाव करती। 

फिर यात्रा जन्म से मरण अवधि ही, यह तो कोई अधिक बात हुई न 
  जब सब सिलसिला यहीं निबट जाना, एक श्रेष्ठ जिंदगी जी लें क्यूँ न। 
देह-मन संगम निर्माण एक पवित्र कर्त्तव्य, विकास परियोजना विपुल 
यह जीवन ही मंदिर-शिवालय, प्रतिष्ठा-स्थापन भी  जिम्मेवारी निज। 

यह तो कुछ ऐसा कुछ ही घंटे मिलें, और अनेक काम किए जाने हैं 
विश्राम की तो न कोई बात, गाड़ी छूटने जा रही तुम शीघ्र चलना। 
पर यह शेष क्या है जो इतने उतावले, जग तो तुम बिन भी चले था 
जब सब निज भाँति कर रहें हैं, तो तुम भी संजीदा हो जग देख लो। 

जब सब कूक रहें तुम क्यूँ न, रंग-ऊर्जा व प्रतिभा विसरण होने दो 
जग में अनेक परीक्षण-प्रयोग  सतत, कुछ उतावले तुम भी हो लो।


पवन कुमार,
७ अप्रैल, २०२०, बुधवार, समय १०:११ बजे प्रातः  
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० २९ जून, २०१७ समय ८:३७ प्रातः से)

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