Every human being starts his life's journey with perplexed, enchanted sight of world. He uses his intellect to understand life's complexities with his fears, frustrations, joys, meditations, actions or so. He evolves from very simple stage to maturity throughout this journey. Every day to him is a challenge facing hard facts of life and merging into its numerous realms. My whole invigoration is to understand self and make it useful to the vast humanity.
Kind Attention:
Saturday 29 March 2014
पकड़ जीवन की
Friday 28 March 2014
कुछ कामना
Thursday 27 March 2014
मेरी चाह
Sunday 23 March 2014
सकारात्मक नजरिया -अपनी ताकत
Saturday 22 March 2014
दर्शन
Friday 21 March 2014
जीवन सार्थकता
क्या करूँ बस इसी उलझन में हूँ।
Thursday 20 March 2014
एक इच्छा
नया सवेरा
चलना ही जिंदगी
Tuesday 18 March 2014
समरसता
तो कुछ गौरान्वित होने का कारण बनता है।
Sunday 16 March 2014
कुछ बातें
लिखना चाहूँ कुछ, पर समझ न पाऊँ
Saturday 15 March 2014
उसके प्रश्न और मेरे उत्तर
निवाला -मेरी कविता
शून्य-अवलोकन एवं सुझाव
यह नितांत खाली सा समय है,
छटपटाता हूँ
स्वयं का सामना करने में कुछ
कतराता हूँ॥
मैंने इस 'जीवन' का, क्या से
क्या बना लिया
बढ़ना जो था प्रगति-पथ, शिथिल
कर दिया।
विचार जो होने चाहिए, एक
यौवनमय उमंग
मैंने एक तंद्रित-स्थूल,
मंद-बुद्धि में ला दिया॥
क्या इतना आसान है, स्वयं की
खोज करना
और क्यों व्यर्थ ही,
निरुद्देश्य बीतता हूँ जाता?
क्यों अंतः-आंदोलन, स्वयं पर
विजय न करते
उनमें से तो कुछ ठोस बात
निकलनी चाहिए॥
'आंदोलन' है भी या
नहीं, सभी कुछ अज्ञात सा
ऐसी बातें करते ही, अमूल्य
समय है निकला।
राह तो बन ही न पाई, लक्ष्य
भी है अचिन्हित
तो क्या यह जीवन नाम,
संज्ञा-शून्य है केवल?
तो फिर क्या यह 'जीवन-विचार'
होना चाहिए
'जीवन'
क्यों-कैसे-कब-कहाँ पथ होना चाहिए।
थोड़ा-बहुत क़ुछ पढ़ा, हूँ मूढ़
बावजूद उसके
जीवन एक मिसाल, स्वयं-सिद्धा
होना चाहिए॥
अपने इस अंतः 'आत्म' की तो
पहचान करनी है
इसकी खोज ही तो, प्रथम
प्राथमिकता चाहिए।
किंतु चिंतन ही न करता, एवं
शीघ्र थक हूँ जाता
विश्व के ज्ञानी-पुरुषों से
भी, शिक्षा नहीं ले पाता॥
विवेकानंद कहते, स्वयं को
निर्बल समझना तो
वीरता न हो सकती, पर क्या
बिना समझे स्वयं
क्या नहीं यह एक व्यर्थ
गर्व-अतिश्योक्ति बस?
मैं तो खुद को अभी
दुर्बल-मंद प्राणी हूँ मानता
जो इस दुनिया की भूल-भलैया
में खो सा गया॥
क्या स्वयं का रिक्तता ज्ञान
व ग्राह्य-शैली बनाना
क्या न देता, जन्म
नव-सम्भावनाओं की रचना?
जब खाली होते, तो पूर्णता
स्वयमेव आने लगाती
क्योंकि गति बस पूर्ण से
न्यूनता की ओर होती॥
तो जब खाली हूँ, सकल गुण
मुझमें आने लगेंगे
पर 'सेफ्टी -वाल्व' तो लगें,
अवाँछित-रोध हेतु।
तभी मेरी व सबकी प्रगति,
उत्तम दिशा में संभव
तब न कोई दिग्भ्रांति होगी,
न ही शोक अंतः॥
क्या विद्युत्
मस्तिष्क-तरंगें हैं, व उनका उद्देश्य
अगर उनमें कुछ उत्तम भी, तो
गतिमान क्यों न ?
यदि चलायमान भी, तो मुझमें
क्यों नहीं चेतना वह
'पूर्ण-चेतना' ज्ञान
ही शायद, है जीवन-मूल परम॥
थॉमस एडीसन लिखते हैं कि
उन्होंने व साथियों ने
छः वर्ष सप्ताह में ७ दिन,
१८ घंटे रोज कार्य किया।
शुरू में थकान थी, किंतु नर
नींद को ४-५ घंटे तक
सीमित कर सकता है, क्षमता
नहीं होती कोई क्षीण।
किंतु उस हेतु प्रबल विचार-
शक्ति, आत्म- विश्वास,
संयम व एक उत्तम लक्ष्य की
आवश्यकता होती है॥
एक अर्जुन-नाम 'गुडाकेश',
अर्थ है जीना बिना नींद
'लक्ष्मण' के विषय में
ज्ञात, वे १४ वर्ष तक सोए ही न।
तब ऐसी क्या ग्रंथि, जो
तुम्हें अग्रसर होने से है रोकती
प्रथम स्व-विश्वास करो, तब न
कोई आवश्यकता भी॥
Thursday 13 March 2014
व्यथित मन और मुक्ति-चिंतन
मुक्ति क्या है बस यूँ कहो कि जग से एक -२ बंधन टूटता सा जा रहा है। एक नीड़ में अंडा था, बच्चा बना, पर लगे और उड़ गया। और स्थिति देखो कि आज नीड़ कोई ध्यान नहीं है और अभिमान कि बस मेरे पास पंख है, मैं स्वतंत्र हूँ, मेरे पास यौवन है, मेरे पास धन है, मेरे पास औरों से विकसित बुद्धिमान मन है। फिर मुझे किसी की क्या चिंता है। क्या मेरे पास सेवा करने के लिए अपना जीवन कम है, मुझे दूसरों से क्या लेना-देना। मेरे लिए शायद यही परम सच्चाई है। मैं तो बहुत बड़ा विद्वान बन चुका हूँ फिर क्यों न हूँ मैंने थोड़ी बहुत पुस्तकें खरीद जो ली हैं और उनमें से कुछ के कुछ सफे पढ़ लिए है और शायद बहुत बुद्धिमान भी हूँ। वे अन्य अगर मुझ जैसे बुद्धिमान से पथ-प्रदर्शित नहीं होना चाहते तो यह उनकी मूर्खता ही तो है। वाह रे मेरे स्वार्थी तत्व, क्या खूब मुक्ति पाई है तूने? तूने तो सारी सभ्यता या यूँ कहे सारी सृष्टि के नियम भुला दिए। मानव अपने आप को सबसे अधिक बुद्धिमान कहलाने में गौरव अनुभव करता है पर वह कुत्ते की स्वामिभक्ति को भी भूल गया जो कर्त्तव्य के लिए जान भी दे दें। फिर तू भी तो तथाकथित मानव ही है।
हर समय खुद से डरा सा रहते हो फिर भी अपने को साहसी बताते हो, यह कैसी विडम्बना है। हर समय रोते रहते हो और अपने को सुखी अनुभव करते हो। ईश्वर के द्वारा संचलित यंत्र होने के बावजूद भी तुम आरोह-अवरोह के क्रम में फँसे हुए हो और फिर जीवन को बना ही क्या दिया है। और शायद इस जीवन से मौत ही अच्छी है और यही शायद मुक्ति है। क्या जीव की यही नियति है कि वह केवल रोए और कदाचित् भी परम सुख का अनुभव न कर पाये। हम जग की माया में किस कदर फँसें हुऐं हैं कि हमें पता ही नहीं कि क्या हमारा रास्ता है। बस चले जा रहें हैं अन्धे की तरह। ठोकरें खाकर जैसे ही सम्भलतें हैं दूसरी ठोकर लगती है, लहू-लुहान हो जाते हैं और शायद इसी तदनन्तर चलने की शक्ति भी नहीं रहती। पर सुना है कि किसी इन्द्रि की अनुपस्थिति में दूसरी ज्ञानेन्द्रिय सक्रिय हो जाती है। मेरे लिए शायद वह भी उपलब्ध नहीं है नहीं तो और फिर क्यों रोना ही मेरे दैव में बदा है और क्यों नहीं मुझमें मुकद्दर के सिकंदर वाले हँसने के क्षण देखने को मिलते। क्यों नहीं मैं भी औरों के दर्द को अपने हृदय के निकट अनुभव करता और वे भी, मैँ चाहे जैसा भी हूँ, मुझे स्वीकार करते। पर जीवन बड़ी -२ परीक्षाएं लेता है और प्राणियों को अपने अनुसार चलाता है।
मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास 'कायाकल्प' में वज्रधर सिंह अपने को हर स्थिति में सहज रखने का यत्न करते हैं लेकिन उन्हीं का बेटा चक्रधर जीवन की छोटी-२ बारीकियों से भी अत्यंत विचलित हो जाता है। वह सन्यास ले लेता है, राह चलते लोगों की सेवा में अपना जीवन लगाता और शायद जीवन को कुछ समझने में सफल होता है। लियो टॉलस्टॉय भी 'मेरी मुक्ति की कहानी' में शायद जीवन के परम तत्व को समझने के लिए एक आम आदमी के पास जाकर सार को समझने में सफल हुए प्रतीत होते हैं। सत्यतः चहुँ ओर अंतर्द्वंद्व है, उन्हें कोई हटा नहीं सकता परन्तु उनका हल यहीं अपने आसपास ही ढूंढना है। फिर मानव तो ईश्वर की कठपुतली है पर शायद थोड़ी स्वतंत्रता के साथ, जिससे वह अपना और दूसरों का जीवन भी सफल बन सके।
पर मैं यदि पढ़ा लिखा हूँ तो क्या मुझे लोगों की मानसिकता नहीं पढ़नी चाहिए कि वे क्या चाहते हैं। क्या मुझे प्रयोग नहीं करने चाहिए कि कैसे उनमें से अच्छे सा अच्छा निकाल सकता हूँ। पर उससे भी अधिक क्या मुझे अपने जीवन को सुघड़ बनाने के लिए अपने ऊपर ध्यान नहीं देना चाहिए। क्या मेरे सोचने, कार्य करने के ढंग में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है ? क्योंकि तुम अपने जीवन से शायद इसीलिए घृणा करते हो कि तुम्हें यह पद्धति पसंद नहीं है। फिर वह जीना ही क्या जिसमे से जीने की सुगंध न आये। 'बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर, पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर' - ऐसी तरक्की, ऐसी ऊँचाईं की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए जो अपनों को अपने से काट दे। मेरे अंदर इतनी आदमियत होनी चाहिए कि मैं छोटे से छोटे दिखने प्राणी से भी बात कर सकूँ। प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की एक कविता 'ऊंचाई' की कुछ लाइनों का सार याद आता है कि यदि ऊँचाई अपने को दूसरों से अलग करती है तो ऐसी ऊँचाई वाँछनीय नहीं है। जीवन वही है जो औरों के काम आता है। अपने जीवन को महकाने का अर्थ औरों के जीवन को महकाने के बाद ही समझ आता है। दीपक को प्रकाश के लिए खुद जलना पड़ता है। तुम अगर सूरज नहीं बन सकते तो कम से कम जुगनूँ ही बन जाओ, शायद तुम्हारा कुछ देर का टिमटिमाना तुम्हारे जीवन को धन्य कर सकें। जीवन की मुक्ति का यही रहस्य है कि अपने अंदर के व्यर्थ को भस्मित करों, सभी को अपने अंदर शरण दो। एक हरियाणवी रागिनी याद आती है कि 'कोयल किसी को क्या देती है और कौआ क्या उठा लेता है, केवल एक बोली के कारण वह सारा जग बस में कर लेती है'। एक हिंदी फ़िल्म का गाना भी है कि 'सारा जग अपना हो सकता है, तूने अपनाया ही नहीं'। परन्तु जब तुम्हारे मन, हृदय के कपाट बंद हैं तो कोई कैसे प्रवेश कर सकता है ?
'प्रेम' बहुत बड़ा शब्द है। आलोचना छोडो, गुणों का आदर करों। आलोचना से तुम अपनों को भी शत्रु बना लेते हो और प्रेम के कारण तुम शत्रु को भी मित्र बना सकते हों। तुम्हें अपने सद्-व्यवहार से सबको जीतना है। हालाँकि तुम कोई निर्जीव नहीं हों कि तुम्हारे ऊपर अच्छाई-बुराई का असर न पड़े फिर भी बस ध्यान रखो कि तुम औकात से बाहर न जाओ। तुम अपने नीड़ को छोड़ भी चुके हो तो क्या, अपनों से क्षमा माँगों। वे इतने निर्दयी भी नहीं हैं कि तुम्हें माफ़ न कर सकें और इतने बेवकूफ भी नहीं है कि प्यार की भाषा न समझ सकें। बस तुम्हारे कदम उठाने भर की देर है, वे तुमको बाह पसारे खड़े मिलेंगें। 'आजा रे प्यार पुकारे, तुझको पुकारे देश तेरा।' जीवन के ढंग बहुत विचित्र हैं- रुलाता है तो हँसाता भी है लेकिन प्यार के रोने में शायद मुस्कान भी खिलेगी, ऐसा मेरा मानना होना चाहिए।