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The postings in this blog are purely my personal views, and have nothing to do any commitment from Government, organization and other persons. The views in general respect all sections of society irrespective of class, race, religion, group, country or region, and are dedicated to pan-humanity. I sincerely apologize if any of my writing has hurt someone's sentiments even in the slightest way. Suggestions and comments are welcome.

Saturday 29 March 2014

पकड़ जीवन की


पकड़ जीवन की 
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समझो, समझो, समझो, समझो कुछ  तो मेरे भाई 
कैसे होगा ऐसे ही सब, जब नहीं की कोई कमाई ?

एक -एक पल को सोचों तुम्हें बहुत ही ढंग से बिताना है 
पर खो दोगे उसको तो फिर, क्या  होगी तुम्हारी भलाई ? 

जीवन तो बीता ही जा रहा अपनी तीव्र गति से 
क्या पकड़ने की भी कोशिश करके तुमने दिखाई ?

क्या-क्या खुद में तुम तो  पढ़ते ही रहते हो 
क्या उससे तुम्हें भी कुछ समझ है आई भाई ? 

उन्नति इतनी नहीं आसान जितना शायद तुम समझे हो  
खपना पड़ता है निश -दिन, नहीं चलते किले हवाई। 

बीमार मन के स्वामी हो तो बहुत  विकट स्थिति है 
स्वस्थ करो तन-मन को अपने, चाहे  पीनी पड़े कटु दवाई। 

समय तुम्हारा, तुम समय के, कुछ ऐसा सामंजस्य बना लो 
कालातीत हो जाओ ताकि रह न जाये कोई कहाई। 

बहुत कठिन है जीवन इसको थोड़ा सरल बना लो 
काटो पापों से फंदा इसका हो जाए तुम्हारी रिहाई। 

कुछ अहसान खुद पर भी कर जा अपने चलन से  
अपने को अपने अनुरूप बना जा मेरे भाई। 

पवन कुमार, 
29 मार्च, 2014 समय 10 :50 प्रातः 
(मेरी शिलौंग डायरी 11 जनवरी, 2000 से )

Friday 28 March 2014

कुछ कामना


कुछ कामना 
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मध्य रात्रि का समय है, निस्तब्धता का आलम है। आँखें उनींदी हैं, कमरे में चल रहे गर्मी फैंकने के लिए प्रयोग में लाये जाने वाले ब्लोअर का शोर है। शायद और दिन होता तो सो जाता लेकिन मन ने कहा कि डायरी उठाओ और कुछ लिखो। लिखूँ  क्या, यह तो नहीं जानता लेकिन शायद मैं जो लिखता हूँ क्या वह पहले लिखे का दुहराना जैसा ही तो नहीं होता ? अगर होता भी तो क्या, दुहराने से स्मृति और परिपक्व हो जाती है।  अतः अपने दिमाग को लगाओ कुछ अच्छी बातें करने में। अगर नई हो तो सबसे अच्छी अन्यथा कुछ पुरानियों का स्मरण ही करों क्योंकि यह लिखना ही शायद तुम्हें पूर्णता की ओर ले जाने का साधन बन सकता है। 


मैं अपने में डूबा हुआ एक मानव हूँ 
अपनी राह ढूँढता हुआ थोड़ा सा विचलित हूँ। 

भ्रमित हूँ क्योंकि राह तो नहीं जानता 
दुःखित हूँ क्योंकि भ्रमित हूँ। 
फिर क्या उपाय है मन को विश्रांति देने का 
मनन करोगे तो किंचित कोई राह मिल जाए।  
  
नव वर्ष आया और तुम स्वयं से बतियाये नहीं हो 
और तो और बहुतों को कोई शुभकामनाएं भी नहीं दी है। 
दूसरों की खुशियों में सम्मिलित होना सचमुच आनंदमय है 
लेकिन समस्त जग की खुशियों की कामना और भी महानत्तर है। 

पर क्या केवल कामना करने से सब कुछ अच्छा हो जाता है 
निश्चय से कहो तो पूर्ण नहीं। 
परन्तु यह स्थिति निश्चित ही अच्छी है
 बस उसके साथ जग को थोडा और सुन्दर बनाने की कोशिश जरुरी है। 

आज मैं अपनी वर्तमान स्थिति में क्या कर रहा हूँ 
या यूँ ही बस सरकार से वेतन पा रहा हूँ। 
या फिर इस वातावरण का भोजन बन गया हूँ 
या इसको और भी दूषित कर रहा हूँ। 

स्वयं में प्रसन्न बहुत अच्छी स्थिति नहीं है 
कुछ दूसरों को भी प्रसन्न बनाने का यत्न किया करों। 
यदि मैं बस यूँ ही खुद में डूबा हूँ 
तो सार्थकता मेरी ज़माने में क्या है ?

प्रश्न विशाल है लेकिन उत्तर तो चाहिए 
करो विचार पर अब मुझे सोना चाहिए। 

पवन कुमार, 
28 मार्च, 2014 समय 10 :44 रात्रि 
(मेरी डायरी शिलौंग 8  जनवरी, 2000 समय 12 :45  मध्य रात्रि से)

Thursday 27 March 2014

मेरी चाह

मेरी चाह 
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जीवन इतना विशाल है फिर भी छोटा क्यों बना दिया 
यादें इतनी मन में है फिर क्यों कलम शांत है ?

अन्नाय इतना चहुँ ओर है और मैं खामोश हूँ 
अँधेरा इतना घना  है और मैं ज्योति में रहूँ। 
कितने जीवन कष्ट में हैं और मैं सुखी बनूँ 
कितने बेचारे अपढ़ हैं और मैं खुद ही में विद्वान् बनूँ। 

कितने पेट भूखे हैं और मैं भोजन व्यर्थ करूँ  
कितने तन नग्न हैं और मैं कपड़ों का अपव्यय करूँ। 
कितनी विभीषिकाएँ हैं जीवन में और मैं चुपचाप हूँ 
न कोई स्पंदन है, न अहसास बस शायद मुर्दा हूँ। 

मुर्दों के इस शहर में, मैं शायद अधिक मुर्दा हूँ 
वर्ना क्यों खड़े नहीं हो जाता ज़माने का दर्द मिटाने के लिए। 
क्या कहूँगा खुद को कि मैंने भी कोई जीवन जीया है 
या यूँ ही समय गवांया है, और बालों को पकाया है। 

क्या जवाब दोगे भावी पीढ़ी को कि मैं कुछ कर ही ना सका 
झूठ अन्यों से शायद बोल भी दोगे कि मैंने तो कोशिश की थी। 
लेकिन स्वयं से कैसे कह सकोगे वे विषाण शब्द 
क्योंकि खुद की हकीकत तो तुम स्वयं जानते हो। 

साधनों का अभाव है पर क्या अन्य हल खोजने की कोशिश की है 
मेरे चारों ओर जो मनुज हैं, उनमें गुणवत्ता फूंकने की कोशिश की है। 
या फिर स्वयं को ही उस बुद्ध  के अनुरूप तपस्या के साँचे में ढाला है 
या फिर अपने जीवन में कोई निष्कर्ष निकालने की  कोशिश की है। 

जब समस्त जग प्रगति मार्ग पर अग्रसर है तो कब तक तुम पीछे  रहोगे 
' सापेक्ष गति ' एक भाव है समझो तो कितना अंतर होगा। 
फिर क्या होगा तुम्हारा और क्या होगा तुम्हारा मुकाबला 
लोग तुम्हें मुकाबले के योग्य भी न समझेंगे ? 

भारत देश महान है जिसकी बड़ाई गाते - गाते लोग नहीं थकते 
पूर्वजों के ज्ञान और अपनी सभ्यता के चर्चे कुछ लोगों के लिए राहत है। 
कि वे शायद दुनिया की प्रथम विकसित सभ्यताओं में से एक हैं 
लेकिन उस देश को आज क्या हो गया है ?

अंदर के दोषों को सब जानते हैं 
और  कुछ मैं भी जानता हूँ। 
वर्तमान और भविष्य पर  क्या नजर नहीं होनी चाहिए हमारी 
या फिर भूत पर ही गर्व करते रहेंगें ? 

हमारे चरित्र में जो दाग हैं  बेईमानी, सुस्ती, अकर्मण्यता, अत्याचार और  असमता का 
और उनसे कितना उध्दार अपेक्षित है इस देश का  ? 
क्यों आज भी वंचित हैं बहुत से लोग अपने सवैंधानिक अधिकारों से
और कभी-कभी तो लगता है कि हमारा शासन मूक है। 

किस -किस नाम से अत्याचार करोगे लोगों पर 
कब तक नकारा जाएगा उनकी  बुद्धिमता, योग्यता, परिश्रम को। 
शम्बूक , एकलव्य, कर्ण इत्यादि कितने ही उदाहरण हैं 
जिनको ठगा गया बिना बात के बहाने बनाकर। 

आज भी विषमताएँ हैं व्यापक जाति और धर्म के नाम पर 
क्यों करते हैं लोग परस्पर दोषार्पण बहुत बनावटी मुद्दों पर 
प्रश्न ये नहीं है कि कुछ का बहुत बुद्धिमान होना 
बल्कि प्रश्न यह है कि कैसे सबको सम्मानजनक स्थिति मिले ?  

जब साध्य बनेगी समस्त मानवता 
और साधन बनेगा विवेक तुम्हारा।  
तो हर तरफ खुशहाली का माहौल होगा 
हर एक में से गांधी, सुभाष, सरदार, भीम पैदा होगा। 

सबको आगे बढ़ने का अधिकार है
इस हक़ का अहसास लोगों को दिलाना है। 
उनके मन में आत्म-विश्वास जगाना है 
कि बावजूद अवरोधों के उन्हें प्रगति करनी है। 

उनमें स्वयं के अंदर झाँकने की प्रवृत्ति  डालनी है 
व्यर्थ के संवादों, विवादों में, दूसरों की बुराई में समय अपना नहीं गँवाना है।तब शायद कह सकोगे कि मैंने सार्थक जीवन बिताने की कोशिश की  है 
और फिर शायद जीवन का उद्देश्य ढूंढने में सफल भी होंगे। 

पवन कुमार, 
27 मार्च, 2014 समय 00:03 मध्य रात्रि 
( मेरी डायरी दि० 25.09.1999 समय 1:35 मध्य रात्रि  से )   

Sunday 23 March 2014

सकारात्मक नजरिया -अपनी ताकत

सकारात्मक नजरिया -अपनी ताकत 


राजीव ने कहा शब्दों में बड़ी जान है 
कहो कि चंगे हैं न कि बस समय काट रहे हैं। 

शब्द किञ्चित हमारी मनोदशा का प्रतीक हैं 
जब ये दुर्बल होते हैं, हम भी कमजोर पड़ने लगते हैं।  
अतः शब्द हमेशा शक्तिशाली एवं आशावादी बोलो 
ताकि जीने के प्रति रवैया हमारा सकारात्मक हो। 

अपनी इज्जत जब करोगे तभी तो शब्द निकलेंगे 
फिर सदा अहसास रहेगा कि हम भी इंसान हैं। 
क्यों मेरे भाई दिल छोटा करते हो 
आदमी की तरह सीधा खड़ा होना सीखो। 

न कोई बड़ा होता है और न ही छोटा 
स्वयं की सोच ही उसे उस श्रेणी में रखती है। 
अतः अपने को शक्तिशाली बनाओ 
सदा उचित-सार्थक शब्द ही इस्तेमाल करो। 

झुक कर चलने से कमर झुक जाती है 
अतः सीधा खड़ा होने की आवश्यकता है। 
दुनिया साथ देती है आशावानों का 
निराशावादियों को मात्र हमदर्दी ही मिलती है।

अतः क्यूँ न खुद खड़ा होकर लड़ने की अटूट इच्छा रखें। 

 पवन कुमार,
23  मार्च, 2014 समय 11:09 रात्रि 
(मेरी डायरी दि०  23.07.1999 समय 11:48 रात्रि ) 

Saturday 22 March 2014

दर्शन

दर्शन 
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मेरी आँखों से तू पर्दा हटा दे
और मुझको मेरा तू स्वरुप दिखा दे।

इस सुख-दुःख के दौर में जीवन यूँ कटता
कभी ना अपने को मैं समझ ही पाया।
यदा-कदा यत्न भी किया अंतर्मुखी होने का
परन्तु केवल ऊपरी धरातल पर ही भ्रमण करते पाया।

नहीं जानता कितनी है मेरी गहराई
बस इतना कहूँ कि ऊपर बस जल समतल पाता।
 अपनी विशालता या कहूँ लघुता, इनका नहीं ज्ञान है मुझको
फिर जीवन कैसे चलता है, यह बहुत ही आश्चर्य है।

 मेरी बहुत कम ही होती उत्सुकता स्वयं में, 
बाहरी अध्यायों में यूँ समय है बीतता।
अपनी सीमाओं का न ध्यान किया
न मैंने कभी लक्ष्मण-रेखा बनाई।

क्या है मेरी थाह और क्या है थाती
या फिर बुलबुलों सम यूँ ही  इतराता।
नहीं जानता कि कितना हूँ क्षण-भंगुर मैं
और इस काल का ग्रास हूँ बनता।

मैं इस समस्त प्रक्रिया में कितना प्रगाढ़ हुआ हूँ
कितना मैंने स्वयं को शक्ति संपन्न किया है।
मेरी शक्तियां या कहो क्षीणता, इनका नहीं है ज्ञान मुझको
फिर शायद पड़ा हूँ पत्थर सा धरातल पर बोझ बने हुए।

एक अन्जान पीड़ा का कभी- कभी अहसास है होता 
और मैं नहीं समझ पाता कि क्या है इसका स्वरुप। 
एक बहुत निकृष्ट सी अनुभूति होती
कि क्यूँ नहीं मुझमें कोई स्पंदन  होता। 

अमिताभ स्वरुप तेरी रोशनी में 
मुझ अनेत्र को राह न मिलती। 
देखने को तो शायद  दिए सब उपकरण तूने
लेकिन मुझे तो उनका प्रयोग है नहीं  करना आता। 

जीवन की उत्कृष्टता क्या हैं और कैसे है मिलती 
क्या कोई है ऐसी विधि जो काज है बनाती। 
शायद बहुत सारे ऐसे तरीके हैं 
तभी तो कुछ ने असीम प्रतिभा अपने अंदर विकसित है कर ली। 

तेरी शीतल तरु-छाँव का हूँ ग्राहक  मैं 
पथिक जो अपने पथ से बहुत भटक सा गया है। 
मुझे कुछ राहत पहुँचा कर फिर चलने की प्रेरणा तू दे दे 
और समस्त जग-प्रक्रिया में कुछ अदाकारी तू दे दे। 

जीवन में जीवंतता का अहसास तू भर दे 
अपनी असीमताओं का कुछ अंश दिखा दे। 
मेरी अपनी यदि आँखें हैं तो उनको खोल जरा 
अगर नहीं तो किसी भांति भी मुझसे मेरा मिलन करा दे। 

इस बीज को तू पादप बना दे 
अपने जल, ऊष्मा और ध्यान से मुझे भी सूक्ष्म बना दे। 
फिर मैं शायद लघु तुम्हारा स्वरुप बन जाऊँ 
और तेरी राहों में नितत चलता चला जाऊँ। 

पवन कुमार ,
21  मार्च 2014 समय 11:50 बजे म० रा० 
(मेरी शिलौंग डायरी दि० 19 जनवरी, 2002 से )
  

Friday 21 March 2014

जीवन सार्थकता


जीवन सार्थकता

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क्या लिखूँ बस नींद में ही झूमूँ हूँ
क्या करूँ बस इसी उलझन में हूँ। 


जीवन बीता जा रहा है और मैं सो रहा हूँ 
कैसे कटेगा जीवन ऐसे यह भी सोच नहीं पा  रहा हूँ। 
क्या यह इतना सस्ता है कि यूँ ही बिता दिया जाए 
या फिर जीने का कोई सलीका भी आएगा। 

बहुत भावुक होकर शब्द ये लिख पा रहा हूँ 
क्यों नहीं कर्मयोग के सिद्धांत का अनुकरण कर रहा हूँ। 
अहसास क्यों नहीं होता कि मैं शायद हानि में हूँ 
और क्यों अपनी स्थिति की अनुभूति नहीं  होती।  

क्या सोना ही जीवन है या कुछ आगे भी बढ़ना है
क्या कुछ आत्म-वंचना के शब्दों के अलावा भी शब्द पाने हैं। 
तो क्यों नहीं तय कर पाते कि कुछ समय स्वयं के लिए भी निकालोगे 
जब तुम गुनगुनाओगे, अट्ठाओगे या फिर अपने ग़मों के संग रोओगे। 

बात कभी -2 बड़ी-2 किया करते हो लेकिन कर्म तो बहुत महान नहीं हैं 
बातों के साथ मन और कर्म को जोड़ो तभी तो तुम्हारी सार्थकता होगी। 
जीवन के टेढ़े-मेढ़े रास्तों में कुछ क्षण अपने लिए भी ढूँढ लो अन्यथा 
शायद लगेगा कि कभी समय ही नहीं मिला। 

और फिर कितना दुर्भाग्यपूर्ण होगा वह पल 
जब तुम्हारे पास समय भी नहीं होगा 
और शायद लिखने के लिए वह ताज़ा याद भी। 

मनुष्य बड़ा भुलक्कड़ है अतः आवश्यकता है
कि हर क्षण को कैद कर लिया जाए। 
हर पल को पूर्ण रूप से जी लिया जाए 
ताकि कोई हसरत न रहे कि हम जिए ही नहीं। 

महापुरूषों का संग शायद साथ है फिर भी
उनकी क्षमता स्वयं में विकसित नहीं  है।
शिव खेरा का 'You Can Win' बताता है पर फिर भी 
उसका असर  पढ़ते हुए ही बस रहता है। 

फिर मैं क्या हूँ इसकी परिभाषा तो शायद 
आजतक नहीं दे पाया हूँ। 
शायद खुद को कुछ ज्यादा नहीं जानता हूँ 
अतः दूसरों की जानकारी पर ही भरोसा करता हूँ। 

पर फिर भी जीवन जीना ही है  
क्यों न उसे जीना सीख ही लें।

पवन कुमार,
20 मार्च, 2014 समय 12 बजे म० रा० 
(मेरी डायरी दि० 13.04.1999 से )  
  


Thursday 20 March 2014

एक इच्छा

एक इच्छा 
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क्यों नहीं मैं मन को  मथ पाता 
और  झाँककर, गहराईयाँ  इसकी समझ पाता? 

क्यों है सूक्ष्म इसके सोचने का आलम 
क्यों नहीं चिंतन में यह रम जाता?

क्या है चिंतन, इसी परिभाषा में तो डूबा हूँ 
क्यों नहीं कुछ कदम शुरुआत के बढ़ा पाता ? 

पंछी की मानिंद क्यों नहीं है उड़ने की चाह 
क्यों नहीं स्व को विद्वद् जन बना पाता?

एक नाम होता है चिंतक, मन्मथ दास 
पर अपने को उनके अनुरूप न बना पाता। 

तो ले लूँ सहारा मनीषियों का 
ताकि अपने को उनकी राह का पथिक सा पाता। 

पवन कुमार,
20 मार्च, 2014 समय 18:13 सायं 
(मेरी डायरी दि० 07.12.1998 से ) 

नया सवेरा

नया सवेरा 
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ऐ मेरे मन तू गा तो ले जरा 
कि कभी ना हो कोई रुकने का माजरा। 

चलते जाने में रहे तेरी इच्छा 
न थमकर कभी बैठ जाने में।
हर एक से हो प्रेम का रिश्ता 
सदा मिलूँ हँस -हँस कर सभी से।  

लगन, मेहनत का दामन न छूटे कभी 
कोई ख्वाब मन का अधूरा न रह जाए। 
रात में ख्वाब जगे बहुत ही ज्यादा 
और पूरा करने की हो भरपूर तमन्ना। 

बहुत है आगे बढ़ना लोगों को लेकर संग 
विवेक बहुत ही आए मन में। 
कभी न भूलूँ अपने कर्त्तव्य 
सदा सत्पथ पर बढ़ता चला जाऊँ।  

माता सरस्वती की हो अनुपम कृपा 
कि रहस्यों का रहस्य जान सकूँ। 
अगर ज्ञान उनका हो गया 
फिर नित्य नया सवेरा है। 

भय सब ओर के मिटाऊँ 
मानवता को मानव के समीप लाऊँ। 

पवन कुमार, 
20 मार्च, 2014 समय 10:44 प्रातः 
( मेरी डायरी दि०  22.02.1999  से )

चलना ही जिंदगी


चलना ही जिंदगी 
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आज फिर था देखा उसको 
वही बोझिल आँखें, वही थकी बाहें।

सदा शायद सोचता ही रहता कि वह फालतू है ज़माने के लिए 
पर अगर वह पहचान लें कि मैं नहीं हूँ वो जो जमाना सोचता है
तो वह बन जायेगा वो ताकत जिससे जमाना झुक जायेगा। 

हम क्या हैं, क्या हम अपनी सोच नहीं है 
या हैं फिर जो दूसरे हमें समझते हैं। 
परिस्थिति भी महत्त्वपूर्ण है निश्चित करने में 
लेकिन हमारा प्रभाव निश्चित ही अधिक महत्त्वपूर्ण है। 

फिर भी परिस्थितियाँ इतनी कमजोर नहीं हैं 
मुझे तो हर एक पूर्ण ही नजर आता है। 
पर वह दूसरे पूर्ण से मिलकर जुड़ना नहीं 
 स्वयं जीतने के लिए लड़ जाना चाहता है। 

पर जीतना तो वही है जिसमें हो खुद पर भरोसा 
फिर रुकना नहीं है जिंदगी में, बाधाऐं जितनी चाहे आएं। 
जिंदगी यूँ ही नहीं रुक जाती किसी मोड़ पर 
बगैर थके बस बढ़ता चला जाए। 

चलते रहोगे तो जरुर कुछ नया दिखेगा 
पर नहीं चलना कोल्हू के बैल की तरह। 
विवेक, सच्चाई का दामन ना छोड़ना
फिर देखना कि जीत निकट ही तो है। 

पवन कुमार, 
20 मार्च, 2014 समय 10:08 प्रातः 
( मेरी डायरी दि० 05.10.1998 से )   

Tuesday 18 March 2014

समरसता

समरसता   
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त्रासद  मानवता  है और तू सोया है 
चहुँ ओर त्राहि है,  तू कहाँ खोया है? 

क्या तुममें पीड़ितों की पीड़ा समझने की संवेदना है 
और क्या समझकर कुछ करने की भावना है? 
क्या कथन है तेरा इस मानवता के लिए 
सदा लेता ही रहेगा या फिर कुछ दे  भी जायेगा ? 

सचमुच लोग दुःखी बहुत है विविध व्यवधानों से 
पर सभी जिम्मेवार नहीं है केवल, अपनी स्थितियों  के लिए। 
यह सामाजिक ढाँचा भी है कहीं ज्यादा कुसूरवार 
क्योंकि इससे ही तो निर्बल अधिक सताया जाता है। 

क्यों अधिक अंतर है शारीरिक-कर्म और मानसिक -कर्म में 
क्या प्रथम को कुछ कम भूख लगती है? 
क्यों नहीं मापा जाता उसका श्रम भी अधिक मुद्राओं में 
और क्यों नहीं वह जी पाता है सम्मान की जिंदगी ? 

कौन बतायेगा कि किसको कितना चाहिए, 
मेहनत के औजारों को अधिक कुशल बनाने हेतु।  
कौन भरेगा अर्द्ध -भूखे पेटों को
कौन देगा मुक्ति नंगे पीड़ितों को, जो शायद मांगने के लिए ही जीते हैं ?

'समता ' का सिद्धांत उपलब्ध नहीं प्रकृति में
छोटी मछली बड़ी मछली का भोजन बनती है।
पर कैसा लगेगा जब वह भी बनेगी किसी मगर का ग्राह्य 
तो फिर देखो, निर्दय होना कैसा लगता है ?

तो ऐ दुनिया के मानवों ! सभी को अपने संग ले लो
डार्विन-सिद्धांत को अति-लोलुपता, प्रभोलनों का उपालम्भ मत बनाओ।
कोशिश करों, सभी उठें और बराबर भागी बने साधनों के
उनमें भी जगे एक परम विकास की अनुपम अनुभूति।

हम कितने मूर्ख हैं, वे कितने बुद्धिमान हैं
या वे कितने मूर्ख हैं, हम कितने बुद्धिमान हैं।
क्यों पैमाना लगाते हो जबकि तुम्हे भी ज्ञात है 
पूर्ण ज्ञान का कितना तुच्छ भाग, तुम स्वयं जानते हो।

लेकिन अपने पडोसी से किञ्चित अधिक जानने पर
शायद तुम स्वयं को गौरान्वित अनुभव करते हो।
तो क्या यह संकेत नहीं करता है,
तुम्हारी भौतिक-मानसिक दासता का। 

तो ऐ मेरे भाई आओ ! सभी को गले लगाओ
अगर ज्ञान है तुममें तो, सभी में दीपक जलाओ।
अगर ज्ञान तुम्हारा उनमें भी आ जाए,
 तो कुछ गौरान्वित होने का कारण बनता है।

पवन कुमार,
18 मार्च, 2014 समय 11:07 रात्रि
( मेरी डायरी दि० 13.12.1998 म० रा० से ) 

Sunday 16 March 2014

कुछ बातें

कुछ बातें 
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लिखना चाहूँ कुछ, पर समझ न पाऊँ  
बस मैं तो यूँ ही, अपना वक्त गवाऊँ। 

बातें तो बहुत सी हैं, जो जिक्र हो सकती हैं  
पर नींद भी तो मुझको, बाँहों में लेने को उत्सुक है। 
मस्तिष्क के दरवाजें बंद होने को उतारूँ,
और मेरे मन के आँगन में अँधेरा भरने को तत्पर। 

और ये नींद भी तो है बिल्कुल निराली 
आगोश में तो लेती है लेकिन नचाती है स्वप्नों में। 
कभी-2 और आजकल प्रायः भयानक ख्वाबों का दौर सा है 
और मैं तो प्रायः डर ही जाता हूँ। 

क्यों मैं भयभीत हो जाता स्वयं से ही 
क्यों नहीं है मेरे आँगन में सुहाने सपनों का संग ? 
क्यों मैं नित तड़पा करता हूँ आतंरिक वेदना से 
और नहीं संभाल पाता हूँ स्वयं को इस कम्पन से? 

जितना सोचता हूँ, फँसता चला जाता हूँ 
गुनगुनाना चाहता हूँ लेकिन बेबस पाता हूँ। 
मन  भी तो इतना अबोध नहीं कि जानता नहीं 
पर दिल है कि मानता नहीं। 

पर पीड़ा भी कोई कम तो नहीं है 
इससे बड़ा फिर दर्द भी तो नहीं है। 
क्या समाधान है, क्या दवा है इसकी 
कोई वैद्य मिले तो किसी भी दाम लूँ। 

पर तड़पन ही बन गई है शायद नियति मेरी 
नहीं तो थी क्या ऐसी मजबूरी ?
जितना बिछुड़ना है, विरह है, उतनी ही अधिक वेदना 
मुख से तो शायद नहीं भी बोले पर क्यों दिल खामोश है ?

मैं तो कोई खुदा  नहीं और न ही कोई दवा हूँ 
पर इतना ही समझ ले कि मैं एक झोंका हवा का हूँ। 
मेरा जीवन सफल हो जायेगा और मैं तर जाऊँगा 
नहीं तो तेरे गम में बस जिन्दा ही मर जाऊँगा। 

कौन समझाए कि कहीं गैर नहीं हैं 
सब फिर अपने हैं अगर मन में मैल नहीं है। 
पर मैं तो ऐसा न हूँ, सब कुछ इतना जल्दी भूल जाऊँ 
समय तो लग ही जाता है, मैल को धुल जाने मैं। 

बंधन जटिल हैं जिसका आसान कोई तोड़ नहीं है 
और इस तरह की बातों का हल 'छोड़ ' नहीं है। 
कहाँ तक भागूंगा, भागने की कोई जगह भी नहीं है 
बस यूँ ही निरुद्देश्य भटकने की शायद फितरत है। 

पर यह डर, भावना, तड़प, कबूतर की ऑंखें मीचना
नहीं, ये तो हैं सच्चे दिल में भय की परछाईयाँ।  
फिर भय भी तो किसी और से नहीं है 
खुद को खुद का खौफ तो सर्वाधिक डराता है। 

पर डरने से तो कुछ होने वाला नहीं है 
सकारात्मक दृष्टिकोण भी आवश्यक है जीने के लिए। 
क्योंकि यही हम सबको बचाएगा,
इस कठिन डगर में राह दिखायेगा। 

निकल कर मौत के चंगुल से, जीवन की ओर बढ़ना है 
जिंदगी जैसी भी है, इसे जीना तो है। 
डर तो निकालना ही पड़ेगा, भय से बाहर आना पड़ेगा 
और फिर खुलकर जीना पड़ेगा, जीना पड़ेगा। 

अहसान इतने तो खुद पर कर जा तू 
कि अपने को अपना होने का गर्व हो। 
जीवन को इतना तो कोमल कर जा तू 
कि स्वच्छता, निर्मलता औरों को भी अनुरूप बना लें। 

'उदाहरण' बन जा ऐसा कि बोलने की आवश्यकता न हो 
कर दे कार्य कुछ ऐसा कि वो एक प्रेरणा बन जाए। 
बोलने से अधिक महत्त्व है करने का, चलने का 
क्योंकि वही राह एक पथ बन जाती है चाहने वालों के लिए। 

फिर तुम जिम्मेदार हो खुद के 'स्वयं' के लिए 
अपना कर्त्तव्य निबाहो जितना कर सकते हो, कर जाओ। 
राह कितनी भी कठिन हो, निकल पार जाओगे 
पैर थक जाएँ, घुटनें चाहे छिल जाएँ, बस चलते चले जाओ। 

'जीवन' से कुछ तो सार निकालो 
खुद को समेटो, खुद को सम्भालो। 
अपनी ऊर्जा की मात्रा सँवारों 
उसको बदलों भरे-पूरे उद्देश्यों में। 

फिर जीवन क्या है और तुम क्या हो 
नचिकेता से लेकर विवेकानंद तक यही प्रश्न पड़ा है ? 
मैं स्वयं ब्रह्म हूँ या उसका अंश हूँ 
विभिन्न मान्यताऐं हैं इस सन्दर्भ में। 

शंकर 'अद्वैत' बतलाते  हैं तो रामानुज 'द्वैत' 
एक बोलता है जग माया, दूसरा इसे कहता सजीव। 
कबीर भी जग को माया कहे लेकिन वह व्यवहारिकता भी सिखाए 
पर ये तो बड़े गुरु थे, मेरी क्या धारणा है ?

ये प्रश्न हैं बड़े -2 कि जग पर मेरा क्या प्रभाव है 
क्या तुम प्रभाव चाहते हो या स्वयं प्रभावित हुए जाते हो ? 
पर तुमको भी अपने जीवन का दर्शन ढूँढना ही होगा 
जीवन को एक खेल न समझो, इसे जीना ही होगा। 

मनुज जन्म लिया है, और थोड़ा अध्ययन भी किया है  
इसी से तो स्वयं को महान बनाओ। 
अपने को चलना सिखाओं और स्वयं को राह दिखाओ 
पर खुद को जगत के अहसानों तले न दबाओ। 

महान  जनों से लेकर प्रेरणा, निकल पड़ो मैदान में 
जब तक मिले न गंतव्य, बढे चलो - बढे चलो। 
महान उद्देश्य जीवन का हो, ऐसा ही तुम करो स्मरण 
मत चिल्लाओ कौए की ज्यूँ और बनो धैर्यवान तुम। 

पवन कुमार,
16 मार्च, 2014 समय 3:09 अपराह्न 
(मेरी डायरी दि० 13.01.1998 समय 12:50 म० रा०)

Saturday 15 March 2014

उसके प्रश्न और मेरे उत्तर

 उसके प्रश्न  और मेरे उत्तर    

उसने पूछा, क्या करते हो 
मैंने कहा क्यों पूछते हो, जब मैं नींद के आगोश में जाने की तैयारी में हूँ। 

सचमुच बहुत निराली बात है 
युद्ध है नींद का और मस्तिष्क का। 
शरीर की  थकान कहती है कि नींद में जाऊँ 
लेकिन मन कहता कि कुछ करते जाऊँ। 
उनींदी आँखें चाहे पूरी खुल भी पा नहीं रही 
लेकिन फिर भी अचेतन मन से ही कार्यवाही जारी है। 

उसने पूछा कि भई क्यों जीते हो 
जब चारों ओर तुम्हारे लोग मरे जा रहे हैं। 
मैंने कहा कि भाई, मरने के लिए ही तो जीता हूँ 
ताकि मरने के बाद यह न लगे कि जीया ही नहीं।

उसने कहा कि क्यों नहीं पढ़ते जीवन की  पुस्तक 
मैंने कहा कि भाई कोशिश तो करता हूँ।
लेकिन किताब हाथ से छूट जाती है, फिर कोशिश करता हूँ 
पर शायद पढ़ने का आदी हो जाऊँगा। 

उसने कहा कि कितना बचपना और करोगे 
मैंने कहा कि हम सब बच्चे ही तो हैं।  
पर कुछ थोड़े ज्यादा हैं और कुछ कम 
क्या बच्चा होना बुरा है फिर ? 

फिर बचपन की शोखियों का क्या होगा 
काश ! मुझमें वह बाल-सुलभ जिज्ञासा यूँ रहती। 
ताकि अनवरत ज्ञान के मार्ग पर बढ़ता ही जाता 
फिर मैं स्पॉन्ज बन जाता जिससे ज्ञान का द्रव सोकता रहता। 

उसने कहा कि भाई क्यों बैठे हो 
मैंने कहा कि खड़े होने के लिए बैठा हूँ। 
ताकि अधिक स्फूर्ति आएगी 
और मैं फिर चलता ही चला जाऊँगा। 

उसने कहा कि कभी अंतरिक्ष में सैर को देखा है 
पृथ्वी के जहाज पर बैठकर तुम अनंत की यात्रा का आनंद ले रहे हो।  
मैंने कहा कि भाई बस सुना ही है 
काश ! ऐसा अनुभव कर पाता। 

उसने कहा कि कुछ बता जाओ 
और फिर बेशक से सो जाओ। 
तब मैंने कहा कि भाई प्रेरित यूँ ही करते रहना 
मेरे हाथों से कुछ शब्द रोज लिखवाते रहना 
ताकि मैं भी जी सकूँ अपना, तुम्हारा बनकर। 

पवन कुमार, 
15 मार्च, 2014 समय 11:27 बजे म० रा० 
(मेरी डायरी दि० 11.12.1998 से )


निवाला -मेरी कविता

निवाला  

कल पढ़ी थी एक कविता नाम था उसका 'निवाला'
कवि है उसके सरदार अली जाफरी, सार उन्होनें बहुत है डाला। 

एक नन्हें बच्चे की पीड़ा समझी है कवि ने 
बहुत भावुक होकर उसके भविष्य पर दृष्टिपात करने की कोशिश की है। 
माँ रेशम कारखाने में है और पिता सूती मिल में मुशर्रफ़ है
नया बच्चा जन्मा काली खोली में पड़ा है। 

क्या होगा उस बच्चे का, कवि कहता है बच्चा बड़ा होगा 
फैक्ट्री का वर्कर बनेगी, उसकी भूख सरमायेदारों की भूख बढ़ाएगी।
उसके हाथ सोना बनाऐंगे, 
मालिक की बैंक की तिजौरी भारी होंगी, उसके घर में और रोशनी होगी। 

कवि पूछता है कि कोई है जो बच्चे को निवाला बनाने से हटा कर देगा।
 कवि के माध्यम से बच्चा पूछता  है कि क्या कोई सहानुभूति वाला बच्चे को उसके पूर्ण मानव बनने के लिए अधिकार दिलवाने में मदद करेगा? 
पर कितने हैं ऐसे-क्या तुम स्वयं हो?

पवन कुमार ,
15 मार्च, 2014 समय 8.05 सायं 
(मेरी डायरी 19. 01. 2000 से )
   

शून्य-अवलोकन एवं सुझाव



शून्य-अवलोकन एवं सुझाव 
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यह नितांत खाली सा समय है, छटपटाता हूँ

स्वयं का सामना करने में कुछ कतराता हूँ॥

 

मैंने इस 'जीवन' का, क्या से क्या बना लिया

बढ़ना जो था प्रगति-पथ, शिथिल कर दिया।

विचार जो होने चाहिए, एक यौवनमय उमंग

मैंने एक तंद्रित-स्थूल, मंद-बुद्धि में ला दिया॥

 

क्या इतना आसान है, स्वयं की खोज करना

और क्यों व्यर्थ ही, निरुद्देश्य बीतता हूँ जाता?

क्यों अंतः-आंदोलन, स्वयं पर विजय न करते

उनमें से तो कुछ ठोस बात निकलनी चाहिए॥

 

'आंदोलन' है भी या नहीं, सभी कुछ अज्ञात सा

ऐसी बातें करते ही, अमूल्य समय है निकला।

राह तो बन ही न पाई, लक्ष्य भी है अचिन्हित

तो क्या यह जीवन नाम, संज्ञा-शून्य है केवल?

 

तो फिर क्या यह 'जीवन-विचार' होना चाहिए

'जीवन' क्यों-कैसे-कब-कहाँ पथ होना चाहिए।

थोड़ा-बहुत क़ुछ पढ़ा, हूँ मूढ़ बावजूद उसके

जीवन एक मिसाल, स्वयं-सिद्धा होना चाहिए॥

 

अपने इस अंतः 'आत्म' की तो पहचान करनी है

इसकी खोज ही तो, प्रथम प्राथमिकता चाहिए।

किंतु चिंतन ही न करता, एवं शीघ्र थक हूँ जाता

विश्व के ज्ञानी-पुरुषों से भी, शिक्षा नहीं ले पाता॥

 

विवेकानंद कहते, स्वयं को निर्बल समझना तो

वीरता न हो सकती, पर क्या बिना समझे स्वयं

क्या नहीं यह एक व्यर्थ गर्व-अतिश्योक्ति बस?

मैं तो खुद को अभी दुर्बल-मंद प्राणी हूँ मानता

जो इस दुनिया की भूल-भलैया में खो सा गया॥

 

क्या स्वयं का रिक्तता ज्ञान व ग्राह्य-शैली बनाना

क्या न देता, जन्म नव-सम्भावनाओं की रचना?

जब खाली होते, तो पूर्णता स्वयमेव आने लगाती

क्योंकि गति बस पूर्ण से न्यूनता की ओर होती॥

 

तो जब खाली हूँ, सकल गुण मुझमें आने लगेंगे

पर 'सेफ्टी -वाल्व' तो लगें, अवाँछित-रोध हेतु।

तभी मेरी व सबकी प्रगति, उत्तम दिशा में संभव

तब न कोई दिग्भ्रांति होगी, न ही शोक अंतः॥

 

क्या विद्युत् मस्तिष्क-तरंगें हैं, व उनका उद्देश्य

अगर उनमें कुछ उत्तम भी, तो गतिमान क्यों न ?

यदि चलायमान भी, तो मुझमें क्यों नहीं चेतना वह

'पूर्ण-चेतना' ज्ञान ही शायद, है जीवन-मूल परम॥

 

थॉमस एडीसन लिखते हैं कि उन्होंने व साथियों ने

छः वर्ष सप्ताह में ७ दिन, १८ घंटे रोज कार्य किया।

शुरू में थकान थी, किंतु नर नींद को ४-५ घंटे तक

सीमित कर सकता है, क्षमता नहीं होती कोई क्षीण।

किंतु उस हेतु प्रबल विचार- शक्ति, आत्म- विश्वास,

संयम व एक उत्तम लक्ष्य की आवश्यकता होती है॥

 

एक अर्जुन-नाम 'गुडाकेश', अर्थ है जीना बिना नींद

'लक्ष्मण' के विषय में ज्ञात, वे १४ वर्ष तक सोए ही न।

 

तब ऐसी क्या ग्रंथि, जो तुम्हें अग्रसर होने से है रोकती

प्रथम स्व-विश्वास करो, तब न कोई आवश्यकता भी॥


पवन कुमार,
15 मार्च, 2014 (म० रा० 12 बजकर 38 मिनट )
(मेरी डायरी दिनाँक 22.03.1998 से)   

Thursday 13 March 2014

व्यथित मन और मुक्ति-चिंतन

व्यथित मन और मुक्ति-चिंतन 


आज मुझे लगा कि मुक्ति का ग्राहक बन जाऊँगा। मन में बहुत बड़ा डर,  आश्चर्य एवं अनुभव हुआ कि मैं भी और प्राणियों की भांति क्षणभंगुर हूँ, एक दिन मैं भी मर जाऊँगा। लोग शायद मेरे लिए भी कुछ देर इकट्ठा होंगे और फिर थोड़ी देर बाद अपने -२ व्यापार में लग जायेंगे। किसको कितना वक्त है किसी के लिए रोने के लिए और योग्य चाहे कितना ही हों। जमाना जिसके लिए रोता है वह शायद सबसे भाग्यवान होता है। तुम धरती पर बोझ बढ़ाते हुए, अपने कुविचारों से वातावरण को दूषित करने का यंत्र ही तो हो, जिसकी रोकथाम जग को एक त्रासदी से बचाने के लिए आवश्यक है। मैं फिर जब मर ही चुका हूँ तो यह जीवन कैसा है? क्या यह भ्रम है या फिर स्रष्टा द्वारा जग में भेजा गया एक यंत्र और जैसा वह चाहता है, अच्छा -बुरा कराता है। मैं शायद निकृष्ट प्राणी हूँ जिसको शायद अपने ही भले -बुरे के विषय में पता ही नहीं है और फिर वह सारे जग या विश्व के विषय में क्या सोचेगा। 

मुक्ति क्या है बस यूँ कहो कि जग से एक -२ बंधन टूटता सा जा रहा है। एक नीड़ में अंडा था, बच्चा बना, पर लगे और उड़ गया। और स्थिति देखो कि आज नीड़ कोई ध्यान नहीं है और अभिमान कि बस मेरे पास पंख है, मैं स्वतंत्र हूँ, मेरे पास यौवन है, मेरे पास धन है, मेरे पास औरों से विकसित बुद्धिमान मन है। फिर मुझे किसी की क्या चिंता है। क्या मेरे पास सेवा करने के लिए अपना जीवन कम है, मुझे दूसरों से क्या लेना-देना। मेरे लिए शायद यही परम सच्चाई है। मैं तो बहुत बड़ा विद्वान बन चुका हूँ फिर क्यों न हूँ मैंने थोड़ी बहुत पुस्तकें खरीद जो ली हैं और उनमें से कुछ के कुछ सफे पढ़ लिए है और शायद बहुत बुद्धिमान भी हूँ। वे अन्य अगर मुझ जैसे बुद्धिमान से पथ-प्रदर्शित नहीं होना चाहते तो यह उनकी मूर्खता ही तो है। वाह रे मेरे स्वार्थी तत्व, क्या खूब मुक्ति पाई है तूने? तूने तो सारी सभ्यता या यूँ कहे सारी सृष्टि के नियम भुला दिए। मानव अपने आप को सबसे अधिक बुद्धिमान कहलाने में गौरव अनुभव करता है पर वह कुत्ते की स्वामिभक्ति को भी भूल गया जो कर्त्तव्य के लिए जान भी दे दें। फिर तू भी तो तथाकथित मानव ही है।  

हर समय  खुद से डरा सा रहते हो फिर भी अपने को साहसी बताते हो, यह कैसी विडम्बना है। हर समय रोते रहते हो और अपने को सुखी अनुभव करते हो। ईश्वर के द्वारा संचलित यंत्र होने के बावजूद भी तुम आरोह-अवरोह के क्रम में फँसे हुए हो और फिर जीवन को बना ही क्या दिया है। और शायद इस जीवन से मौत ही अच्छी है और यही शायद मुक्ति है। क्या जीव की यही नियति है कि वह केवल रोए और कदाचित् भी परम सुख का अनुभव न कर पाये। हम जग की माया में किस कदर फँसें  हुऐं हैं कि हमें पता ही नहीं कि क्या हमारा रास्ता है। बस चले जा रहें हैं अन्धे की तरह। ठोकरें खाकर जैसे ही सम्भलतें हैं दूसरी ठोकर लगती है, लहू-लुहान हो जाते हैं और शायद इसी तदनन्तर चलने की शक्ति भी नहीं रहती। पर सुना है कि किसी इन्द्रि की अनुपस्थिति में दूसरी ज्ञानेन्द्रिय सक्रिय हो जाती है। मेरे लिए शायद वह भी उपलब्ध नहीं है नहीं तो और फिर क्यों रोना ही मेरे दैव में बदा है और क्यों नहीं मुझमें मुकद्दर के सिकंदर वाले हँसने के क्षण देखने को मिलते। क्यों नहीं मैं भी औरों के दर्द को अपने हृदय के निकट अनुभव करता और वे भी, मैँ चाहे जैसा भी हूँ, मुझे स्वीकार करते। पर जीवन बड़ी -२ परीक्षाएं लेता है और प्राणियों को अपने अनुसार चलाता है।

मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास 'कायाकल्प' में वज्रधर सिंह अपने को हर स्थिति में सहज रखने का यत्न करते हैं लेकिन उन्हीं का बेटा चक्रधर जीवन की छोटी-२ बारीकियों से भी अत्यंत विचलित हो जाता है। वह सन्यास ले लेता है, राह चलते लोगों की सेवा में अपना जीवन लगाता और शायद जीवन को कुछ समझने में सफल होता है। लियो टॉलस्टॉय भी 'मेरी मुक्ति की कहानी' में शायद जीवन के परम तत्व को समझने के लिए एक आम आदमी के पास जाकर सार को समझने में सफल हुए प्रतीत होते हैं। सत्यतः चहुँ ओर अंतर्द्वंद्व है, उन्हें कोई हटा नहीं सकता परन्तु उनका हल यहीं अपने आसपास ही ढूंढना है। फिर मानव तो ईश्वर की कठपुतली है पर शायद थोड़ी स्वतंत्रता के साथ, जिससे वह अपना और दूसरों का जीवन भी सफल बन सके। 

पर मैं यदि पढ़ा लिखा हूँ तो क्या मुझे लोगों की मानसिकता नहीं पढ़नी चाहिए कि वे क्या चाहते हैं। क्या मुझे प्रयोग नहीं करने चाहिए कि कैसे उनमें से अच्छे सा अच्छा निकाल सकता हूँ। पर उससे भी अधिक क्या मुझे अपने जीवन को सुघड़ बनाने के लिए अपने ऊपर ध्यान नहीं देना चाहिए। क्या मेरे सोचने, कार्य करने के ढंग में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है ? क्योंकि तुम अपने जीवन से शायद इसीलिए घृणा करते हो कि तुम्हें यह पद्धति पसंद नहीं है। फिर वह जीना ही क्या जिसमे से जीने की सुगंध न आये। 'बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर, पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर' - ऐसी  तरक्की, ऐसी ऊँचाईं की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए जो अपनों को अपने से काट दे। मेरे अंदर इतनी आदमियत होनी चाहिए कि मैं छोटे से छोटे दिखने प्राणी से भी बात कर सकूँ। प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की एक कविता 'ऊंचाई' की कुछ लाइनों का सार याद आता है कि यदि ऊँचाई अपने को दूसरों से अलग करती है तो ऐसी ऊँचाई वाँछनीय नहीं है। जीवन वही है जो औरों के काम आता है। अपने जीवन को महकाने का अर्थ औरों के जीवन को महकाने के बाद ही समझ आता है। दीपक को प्रकाश के लिए खुद जलना पड़ता है। तुम अगर सूरज नहीं बन सकते तो कम से कम  जुगनूँ  ही बन जाओ, शायद तुम्हारा कुछ देर का टिमटिमाना तुम्हारे जीवन को धन्य कर सकें। जीवन की मुक्ति का यही रहस्य है कि अपने अंदर के व्यर्थ को भस्मित करों, सभी को अपने अंदर शरण दो। एक हरियाणवी रागिनी याद आती है कि 'कोयल किसी को क्या देती है और कौआ क्या उठा लेता है, केवल एक बोली के कारण वह सारा जग बस में कर लेती है'। एक हिंदी फ़िल्म का गाना भी है कि 'सारा जग अपना हो सकता है, तूने अपनाया ही नहीं' परन्तु जब तुम्हारे मन, हृदय के कपाट बंद हैं तो कोई कैसे प्रवेश कर सकता है ?

'प्रेम' बहुत बड़ा शब्द है। आलोचना छोडो, गुणों का आदर करों। आलोचना से तुम अपनों को भी शत्रु बना लेते हो और प्रेम के कारण तुम शत्रु को भी मित्र बना सकते हों। तुम्हें अपने सद्-व्यवहार से सबको जीतना है। हालाँकि तुम कोई निर्जीव नहीं हों कि तुम्हारे ऊपर अच्छाई-बुराई का असर न पड़े फिर भी बस ध्यान रखो कि तुम औकात से बाहर न जाओ। तुम अपने नीड़ को छोड़ भी चुके हो तो क्या, अपनों से क्षमा माँगों। वे इतने निर्दयी भी नहीं हैं कि तुम्हें माफ़ न कर सकें और इतने बेवकूफ भी नहीं है कि प्यार की भाषा न समझ सकें। बस तुम्हारे कदम उठाने भर की देर है, वे तुमको बाह पसारे खड़े मिलेंगें। 'आजा रे प्यार पुकारे, तुझको पुकारे देश तेरा।' जीवन के ढंग बहुत विचित्र हैं- रुलाता है तो हँसाता भी है लेकिन प्यार के रोने में शायद मुस्कान भी खिलेगी, ऐसा मेरा मानना होना चाहिए।  


पवन कुमार 
12  मार्च, 2014 (म० रा० 1 बजे )
(मेरी डायरी से -दि० 22.04.1998 म० रा० 1 बजे )