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Tuesday 18 March 2014

समरसता

समरसता   
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त्रासद  मानवता  है और तू सोया है 
चहुँ ओर त्राहि है,  तू कहाँ खोया है? 

क्या तुममें पीड़ितों की पीड़ा समझने की संवेदना है 
और क्या समझकर कुछ करने की भावना है? 
क्या कथन है तेरा इस मानवता के लिए 
सदा लेता ही रहेगा या फिर कुछ दे  भी जायेगा ? 

सचमुच लोग दुःखी बहुत है विविध व्यवधानों से 
पर सभी जिम्मेवार नहीं है केवल, अपनी स्थितियों  के लिए। 
यह सामाजिक ढाँचा भी है कहीं ज्यादा कुसूरवार 
क्योंकि इससे ही तो निर्बल अधिक सताया जाता है। 

क्यों अधिक अंतर है शारीरिक-कर्म और मानसिक -कर्म में 
क्या प्रथम को कुछ कम भूख लगती है? 
क्यों नहीं मापा जाता उसका श्रम भी अधिक मुद्राओं में 
और क्यों नहीं वह जी पाता है सम्मान की जिंदगी ? 

कौन बतायेगा कि किसको कितना चाहिए, 
मेहनत के औजारों को अधिक कुशल बनाने हेतु।  
कौन भरेगा अर्द्ध -भूखे पेटों को
कौन देगा मुक्ति नंगे पीड़ितों को, जो शायद मांगने के लिए ही जीते हैं ?

'समता ' का सिद्धांत उपलब्ध नहीं प्रकृति में
छोटी मछली बड़ी मछली का भोजन बनती है।
पर कैसा लगेगा जब वह भी बनेगी किसी मगर का ग्राह्य 
तो फिर देखो, निर्दय होना कैसा लगता है ?

तो ऐ दुनिया के मानवों ! सभी को अपने संग ले लो
डार्विन-सिद्धांत को अति-लोलुपता, प्रभोलनों का उपालम्भ मत बनाओ।
कोशिश करों, सभी उठें और बराबर भागी बने साधनों के
उनमें भी जगे एक परम विकास की अनुपम अनुभूति।

हम कितने मूर्ख हैं, वे कितने बुद्धिमान हैं
या वे कितने मूर्ख हैं, हम कितने बुद्धिमान हैं।
क्यों पैमाना लगाते हो जबकि तुम्हे भी ज्ञात है 
पूर्ण ज्ञान का कितना तुच्छ भाग, तुम स्वयं जानते हो।

लेकिन अपने पडोसी से किञ्चित अधिक जानने पर
शायद तुम स्वयं को गौरान्वित अनुभव करते हो।
तो क्या यह संकेत नहीं करता है,
तुम्हारी भौतिक-मानसिक दासता का। 

तो ऐ मेरे भाई आओ ! सभी को गले लगाओ
अगर ज्ञान है तुममें तो, सभी में दीपक जलाओ।
अगर ज्ञान तुम्हारा उनमें भी आ जाए,
 तो कुछ गौरान्वित होने का कारण बनता है।

पवन कुमार,
18 मार्च, 2014 समय 11:07 रात्रि
( मेरी डायरी दि० 13.12.1998 म० रा० से ) 

2 comments:

  1. दो क्षण को मजबूत बने हो ,वृद्धावस्था भूल गए !
    निश्चित मृत्यु भूलकर ऐंठे,बस्ती में अज्ञान वही है !

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  2. निर्बल वृद्धों की सेवा को , कभी विवेक तो आयेगा !
    इस संस्कृति के सपने देखे,सच्चा हिंदुस्तान वही है !

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