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Saturday 29 March 2014

पकड़ जीवन की


पकड़ जीवन की 
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समझो, समझो, समझो, समझो कुछ  तो मेरे भाई 
कैसे होगा ऐसे ही सब, जब नहीं की कोई कमाई ?

एक -एक पल को सोचों तुम्हें बहुत ही ढंग से बिताना है 
पर खो दोगे उसको तो फिर, क्या  होगी तुम्हारी भलाई ? 

जीवन तो बीता ही जा रहा अपनी तीव्र गति से 
क्या पकड़ने की भी कोशिश करके तुमने दिखाई ?

क्या-क्या खुद में तुम तो  पढ़ते ही रहते हो 
क्या उससे तुम्हें भी कुछ समझ है आई भाई ? 

उन्नति इतनी नहीं आसान जितना शायद तुम समझे हो  
खपना पड़ता है निश -दिन, नहीं चलते किले हवाई। 

बीमार मन के स्वामी हो तो बहुत  विकट स्थिति है 
स्वस्थ करो तन-मन को अपने, चाहे  पीनी पड़े कटु दवाई। 

समय तुम्हारा, तुम समय के, कुछ ऐसा सामंजस्य बना लो 
कालातीत हो जाओ ताकि रह न जाये कोई कहाई। 

बहुत कठिन है जीवन इसको थोड़ा सरल बना लो 
काटो पापों से फंदा इसका हो जाए तुम्हारी रिहाई। 

कुछ अहसान खुद पर भी कर जा अपने चलन से  
अपने को अपने अनुरूप बना जा मेरे भाई। 

पवन कुमार, 
29 मार्च, 2014 समय 10 :50 प्रातः 
(मेरी शिलौंग डायरी 11 जनवरी, 2000 से )

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