अन्तर भ्रमण
एक कोशिश की कोशिश करो शायद कुछ पा लोगे
केवल एक सोच ठीक करो तो कुछ सार्थक होंगे।
लोगों ने एक ठीक कदम उठाया और वे पहुँचे बड़े मुकाम तक
निठल्ले केवल भ्रमित रहें कि चलने से भटक न जाए।
जीवन में उपलब्धि मिलती है समय पर अवसर को पहचानने में
उसके साथ हो लिए तो नैया पार हो जाएगी।
कैसे अपने को बाहर लाऊँ प्रश्न है विशाल
दिमाग के छोटे कोने में खुद को सकुचा लिया है।
जब मेरी खुद से नज़दीकियाँ न हुई
तो अन्यों से क्या बहुत सम्पर्क बना पाऊँगा।
मेरे मन का स्वामी अंदर है और मुलाकात हो ही न सकी
बहुत कम ही निखरा है मेरा स्व कुसूर शायद मेरा ही है।
किस विधि बतिया सकूँ खुद से रास्ता पता ही नहीं
किसी को गुरु भी नहीं बनाया जो कुछ समझा ही सकें।
स्वयं निपट अज्ञानी हूँ औरों का सहारा भी नहीं लेता
अपने आलस्य में इतना लिपट हूँ कि उठने का साहस ही नहीं है।
अन्तर पूरा ख़ाली अपने को पाया या अवांछित से भरा है
और कुछ अपने अन्दर जाने न दे रहा है।
सत्यम शिवम सुंदरम का कभी ध्यान तो हो न पाया
किया भी कुछ ज्यादा अहसास हो नहीं सका।
अपक्व कह सकता हूँ स्वयं को क्योंकि पूर्णता तो मिली नहीं
क्या है आगे इसका भी पता तो नहीं है।
क्या सिर्फ साँस लेना चलना फिरना खाना सोना ही जीवन है
या इसके मायने कहीं गूढ़तर हैं।
क्या इसकी सोच इसको बनाने में थी
पर रास्ता सुझाने की जिम्मेवारी भी उसी की है।
मैं ऊपर से मुस्कुराता लेकिन अंदर तो संज्ञा शून्य है
अन्तर को कैसे प्रकट करूँ प्रश्न विशाल है।
बड़े बड़ों का नाम कुछ सज्जन लिया करते हैं
परन्तु उनसे परिचय मेरा बहुत ज्यादा नहीं है।
खाली दिन में खाली बातें और खाली ही अहसास है
परंतु यह भूख ही कुछ जिज्ञासा देगी।
अपने को सक्षम बनाने का कुछ सबक़ देगी
और कुछ वर्षों के बिताने का अनुभव मस्तिष्क को देगी।
मैं कहाँ जाऊँ क्या सोचूँ और क्या शुरू करूँ
प्रश्न कठिन है क्योंकि सुस्ती मेरे अंदर है।
लोगों ने थोड़े से समय में बहुत ज्यादा कर लिया है
और मैं हूँ जो खुद को असहज ही पाता है।
कल मीटिंग में बात आई कि खुद का सम्मान करना सीखो
बात बहुत ठीक है पर क्या हम सम्मान के योग्य हैं।
वह अहसास जो सम्मान देने की बात करता है
उसके आने पर ही तो खुद को समझ पाऊँगा।
क्या जीवन है क्या मैं फिर हूँ और क्या हूँगा
भौतिक अवस्था से अधिक मेरा क्या अस्तित्व है।
क्या चार लोगों में खड़ा होकर निज बात बता पाऊँगा
या औरों की सुनते -2 प्रौढ़ हो जाऊँगा।
बात यह नहीं है कि मैं कुछ जानता नहीं हूँ
पर कभी-2 गलत भी कह जाता हूँ।
और यदा-कदा तो पूर्ण कह ही नहीं पाता
शायद यह सामने वाले को असहज होने से बचाने के लिए है।
एक दूसरे की कद्र जरुरी है सभ्य समाज में रहने के लिए
यह सब पर लागू होती है पर इशारा समझ लेना चाहिए।
नहीं आवश्यक है किसी को यूँ ही असहज करना
क्योंकि यह तुम्हारे साथ भी हो सकता है।
प्रयास करों उठने का और यह प्रयास ही आगे ले जाएगा
भ्रम में मत रहो और आँखों से पर्दा हटा दो।
क्योंकि वही ठीक से देखने का साहस देगा
और फिर तुम खुद को कुछ पहचान दे सकोगे।
यह भी उसी कोशिश का नतीजा होगा
जो तुम्हे अनछुए पहुलओं का अहसास कराएगा।
पवन कुमार,
8 मार्च, 2014
एक कोशिश की कोशिश करो शायद कुछ पा लोगे
केवल एक सोच ठीक करो तो कुछ सार्थक होंगे।
लोगों ने एक ठीक कदम उठाया और वे पहुँचे बड़े मुकाम तक
निठल्ले केवल भ्रमित रहें कि चलने से भटक न जाए।
जीवन में उपलब्धि मिलती है समय पर अवसर को पहचानने में
उसके साथ हो लिए तो नैया पार हो जाएगी।
कैसे अपने को बाहर लाऊँ प्रश्न है विशाल
दिमाग के छोटे कोने में खुद को सकुचा लिया है।
जब मेरी खुद से नज़दीकियाँ न हुई
तो अन्यों से क्या बहुत सम्पर्क बना पाऊँगा।
मेरे मन का स्वामी अंदर है और मुलाकात हो ही न सकी
बहुत कम ही निखरा है मेरा स्व कुसूर शायद मेरा ही है।
किस विधि बतिया सकूँ खुद से रास्ता पता ही नहीं
किसी को गुरु भी नहीं बनाया जो कुछ समझा ही सकें।
स्वयं निपट अज्ञानी हूँ औरों का सहारा भी नहीं लेता
अपने आलस्य में इतना लिपट हूँ कि उठने का साहस ही नहीं है।
अन्तर पूरा ख़ाली अपने को पाया या अवांछित से भरा है
और कुछ अपने अन्दर जाने न दे रहा है।
सत्यम शिवम सुंदरम का कभी ध्यान तो हो न पाया
किया भी कुछ ज्यादा अहसास हो नहीं सका।
अपक्व कह सकता हूँ स्वयं को क्योंकि पूर्णता तो मिली नहीं
क्या है आगे इसका भी पता तो नहीं है।
क्या सिर्फ साँस लेना चलना फिरना खाना सोना ही जीवन है
या इसके मायने कहीं गूढ़तर हैं।
क्या इसकी सोच इसको बनाने में थी
पर रास्ता सुझाने की जिम्मेवारी भी उसी की है।
मैं ऊपर से मुस्कुराता लेकिन अंदर तो संज्ञा शून्य है
अन्तर को कैसे प्रकट करूँ प्रश्न विशाल है।
बड़े बड़ों का नाम कुछ सज्जन लिया करते हैं
परन्तु उनसे परिचय मेरा बहुत ज्यादा नहीं है।
खाली दिन में खाली बातें और खाली ही अहसास है
परंतु यह भूख ही कुछ जिज्ञासा देगी।
अपने को सक्षम बनाने का कुछ सबक़ देगी
और कुछ वर्षों के बिताने का अनुभव मस्तिष्क को देगी।
मैं कहाँ जाऊँ क्या सोचूँ और क्या शुरू करूँ
प्रश्न कठिन है क्योंकि सुस्ती मेरे अंदर है।
लोगों ने थोड़े से समय में बहुत ज्यादा कर लिया है
और मैं हूँ जो खुद को असहज ही पाता है।
कल मीटिंग में बात आई कि खुद का सम्मान करना सीखो
बात बहुत ठीक है पर क्या हम सम्मान के योग्य हैं।
वह अहसास जो सम्मान देने की बात करता है
उसके आने पर ही तो खुद को समझ पाऊँगा।
क्या जीवन है क्या मैं फिर हूँ और क्या हूँगा
भौतिक अवस्था से अधिक मेरा क्या अस्तित्व है।
क्या चार लोगों में खड़ा होकर निज बात बता पाऊँगा
या औरों की सुनते -2 प्रौढ़ हो जाऊँगा।
बात यह नहीं है कि मैं कुछ जानता नहीं हूँ
पर कभी-2 गलत भी कह जाता हूँ।
और यदा-कदा तो पूर्ण कह ही नहीं पाता
शायद यह सामने वाले को असहज होने से बचाने के लिए है।
एक दूसरे की कद्र जरुरी है सभ्य समाज में रहने के लिए
यह सब पर लागू होती है पर इशारा समझ लेना चाहिए।
नहीं आवश्यक है किसी को यूँ ही असहज करना
क्योंकि यह तुम्हारे साथ भी हो सकता है।
प्रयास करों उठने का और यह प्रयास ही आगे ले जाएगा
भ्रम में मत रहो और आँखों से पर्दा हटा दो।
क्योंकि वही ठीक से देखने का साहस देगा
और फिर तुम खुद को कुछ पहचान दे सकोगे।
यह भी उसी कोशिश का नतीजा होगा
जो तुम्हे अनछुए पहुलओं का अहसास कराएगा।
पवन कुमार,
8 मार्च, 2014
(लेखन - दि० ०३ मार्च. २०१०)
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