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Thursday 27 March 2014

मेरी चाह

मेरी चाह 
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जीवन इतना विशाल है फिर भी छोटा क्यों बना दिया 
यादें इतनी मन में है फिर क्यों कलम शांत है ?

अन्नाय इतना चहुँ ओर है और मैं खामोश हूँ 
अँधेरा इतना घना  है और मैं ज्योति में रहूँ। 
कितने जीवन कष्ट में हैं और मैं सुखी बनूँ 
कितने बेचारे अपढ़ हैं और मैं खुद ही में विद्वान् बनूँ। 

कितने पेट भूखे हैं और मैं भोजन व्यर्थ करूँ  
कितने तन नग्न हैं और मैं कपड़ों का अपव्यय करूँ। 
कितनी विभीषिकाएँ हैं जीवन में और मैं चुपचाप हूँ 
न कोई स्पंदन है, न अहसास बस शायद मुर्दा हूँ। 

मुर्दों के इस शहर में, मैं शायद अधिक मुर्दा हूँ 
वर्ना क्यों खड़े नहीं हो जाता ज़माने का दर्द मिटाने के लिए। 
क्या कहूँगा खुद को कि मैंने भी कोई जीवन जीया है 
या यूँ ही समय गवांया है, और बालों को पकाया है। 

क्या जवाब दोगे भावी पीढ़ी को कि मैं कुछ कर ही ना सका 
झूठ अन्यों से शायद बोल भी दोगे कि मैंने तो कोशिश की थी। 
लेकिन स्वयं से कैसे कह सकोगे वे विषाण शब्द 
क्योंकि खुद की हकीकत तो तुम स्वयं जानते हो। 

साधनों का अभाव है पर क्या अन्य हल खोजने की कोशिश की है 
मेरे चारों ओर जो मनुज हैं, उनमें गुणवत्ता फूंकने की कोशिश की है। 
या फिर स्वयं को ही उस बुद्ध  के अनुरूप तपस्या के साँचे में ढाला है 
या फिर अपने जीवन में कोई निष्कर्ष निकालने की  कोशिश की है। 

जब समस्त जग प्रगति मार्ग पर अग्रसर है तो कब तक तुम पीछे  रहोगे 
' सापेक्ष गति ' एक भाव है समझो तो कितना अंतर होगा। 
फिर क्या होगा तुम्हारा और क्या होगा तुम्हारा मुकाबला 
लोग तुम्हें मुकाबले के योग्य भी न समझेंगे ? 

भारत देश महान है जिसकी बड़ाई गाते - गाते लोग नहीं थकते 
पूर्वजों के ज्ञान और अपनी सभ्यता के चर्चे कुछ लोगों के लिए राहत है। 
कि वे शायद दुनिया की प्रथम विकसित सभ्यताओं में से एक हैं 
लेकिन उस देश को आज क्या हो गया है ?

अंदर के दोषों को सब जानते हैं 
और  कुछ मैं भी जानता हूँ। 
वर्तमान और भविष्य पर  क्या नजर नहीं होनी चाहिए हमारी 
या फिर भूत पर ही गर्व करते रहेंगें ? 

हमारे चरित्र में जो दाग हैं  बेईमानी, सुस्ती, अकर्मण्यता, अत्याचार और  असमता का 
और उनसे कितना उध्दार अपेक्षित है इस देश का  ? 
क्यों आज भी वंचित हैं बहुत से लोग अपने सवैंधानिक अधिकारों से
और कभी-कभी तो लगता है कि हमारा शासन मूक है। 

किस -किस नाम से अत्याचार करोगे लोगों पर 
कब तक नकारा जाएगा उनकी  बुद्धिमता, योग्यता, परिश्रम को। 
शम्बूक , एकलव्य, कर्ण इत्यादि कितने ही उदाहरण हैं 
जिनको ठगा गया बिना बात के बहाने बनाकर। 

आज भी विषमताएँ हैं व्यापक जाति और धर्म के नाम पर 
क्यों करते हैं लोग परस्पर दोषार्पण बहुत बनावटी मुद्दों पर 
प्रश्न ये नहीं है कि कुछ का बहुत बुद्धिमान होना 
बल्कि प्रश्न यह है कि कैसे सबको सम्मानजनक स्थिति मिले ?  

जब साध्य बनेगी समस्त मानवता 
और साधन बनेगा विवेक तुम्हारा।  
तो हर तरफ खुशहाली का माहौल होगा 
हर एक में से गांधी, सुभाष, सरदार, भीम पैदा होगा। 

सबको आगे बढ़ने का अधिकार है
इस हक़ का अहसास लोगों को दिलाना है। 
उनके मन में आत्म-विश्वास जगाना है 
कि बावजूद अवरोधों के उन्हें प्रगति करनी है। 

उनमें स्वयं के अंदर झाँकने की प्रवृत्ति  डालनी है 
व्यर्थ के संवादों, विवादों में, दूसरों की बुराई में समय अपना नहीं गँवाना है।तब शायद कह सकोगे कि मैंने सार्थक जीवन बिताने की कोशिश की  है 
और फिर शायद जीवन का उद्देश्य ढूंढने में सफल भी होंगे। 

पवन कुमार, 
27 मार्च, 2014 समय 00:03 मध्य रात्रि 
( मेरी डायरी दि० 25.09.1999 समय 1:35 मध्य रात्रि  से )   

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