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Thursday 13 March 2014

व्यथित मन और मुक्ति-चिंतन

व्यथित मन और मुक्ति-चिंतन 


आज मुझे लगा कि मुक्ति का ग्राहक बन जाऊँगा। मन में बहुत बड़ा डर,  आश्चर्य एवं अनुभव हुआ कि मैं भी और प्राणियों की भांति क्षणभंगुर हूँ, एक दिन मैं भी मर जाऊँगा। लोग शायद मेरे लिए भी कुछ देर इकट्ठा होंगे और फिर थोड़ी देर बाद अपने -२ व्यापार में लग जायेंगे। किसको कितना वक्त है किसी के लिए रोने के लिए और योग्य चाहे कितना ही हों। जमाना जिसके लिए रोता है वह शायद सबसे भाग्यवान होता है। तुम धरती पर बोझ बढ़ाते हुए, अपने कुविचारों से वातावरण को दूषित करने का यंत्र ही तो हो, जिसकी रोकथाम जग को एक त्रासदी से बचाने के लिए आवश्यक है। मैं फिर जब मर ही चुका हूँ तो यह जीवन कैसा है? क्या यह भ्रम है या फिर स्रष्टा द्वारा जग में भेजा गया एक यंत्र और जैसा वह चाहता है, अच्छा -बुरा कराता है। मैं शायद निकृष्ट प्राणी हूँ जिसको शायद अपने ही भले -बुरे के विषय में पता ही नहीं है और फिर वह सारे जग या विश्व के विषय में क्या सोचेगा। 

मुक्ति क्या है बस यूँ कहो कि जग से एक -२ बंधन टूटता सा जा रहा है। एक नीड़ में अंडा था, बच्चा बना, पर लगे और उड़ गया। और स्थिति देखो कि आज नीड़ कोई ध्यान नहीं है और अभिमान कि बस मेरे पास पंख है, मैं स्वतंत्र हूँ, मेरे पास यौवन है, मेरे पास धन है, मेरे पास औरों से विकसित बुद्धिमान मन है। फिर मुझे किसी की क्या चिंता है। क्या मेरे पास सेवा करने के लिए अपना जीवन कम है, मुझे दूसरों से क्या लेना-देना। मेरे लिए शायद यही परम सच्चाई है। मैं तो बहुत बड़ा विद्वान बन चुका हूँ फिर क्यों न हूँ मैंने थोड़ी बहुत पुस्तकें खरीद जो ली हैं और उनमें से कुछ के कुछ सफे पढ़ लिए है और शायद बहुत बुद्धिमान भी हूँ। वे अन्य अगर मुझ जैसे बुद्धिमान से पथ-प्रदर्शित नहीं होना चाहते तो यह उनकी मूर्खता ही तो है। वाह रे मेरे स्वार्थी तत्व, क्या खूब मुक्ति पाई है तूने? तूने तो सारी सभ्यता या यूँ कहे सारी सृष्टि के नियम भुला दिए। मानव अपने आप को सबसे अधिक बुद्धिमान कहलाने में गौरव अनुभव करता है पर वह कुत्ते की स्वामिभक्ति को भी भूल गया जो कर्त्तव्य के लिए जान भी दे दें। फिर तू भी तो तथाकथित मानव ही है।  

हर समय  खुद से डरा सा रहते हो फिर भी अपने को साहसी बताते हो, यह कैसी विडम्बना है। हर समय रोते रहते हो और अपने को सुखी अनुभव करते हो। ईश्वर के द्वारा संचलित यंत्र होने के बावजूद भी तुम आरोह-अवरोह के क्रम में फँसे हुए हो और फिर जीवन को बना ही क्या दिया है। और शायद इस जीवन से मौत ही अच्छी है और यही शायद मुक्ति है। क्या जीव की यही नियति है कि वह केवल रोए और कदाचित् भी परम सुख का अनुभव न कर पाये। हम जग की माया में किस कदर फँसें  हुऐं हैं कि हमें पता ही नहीं कि क्या हमारा रास्ता है। बस चले जा रहें हैं अन्धे की तरह। ठोकरें खाकर जैसे ही सम्भलतें हैं दूसरी ठोकर लगती है, लहू-लुहान हो जाते हैं और शायद इसी तदनन्तर चलने की शक्ति भी नहीं रहती। पर सुना है कि किसी इन्द्रि की अनुपस्थिति में दूसरी ज्ञानेन्द्रिय सक्रिय हो जाती है। मेरे लिए शायद वह भी उपलब्ध नहीं है नहीं तो और फिर क्यों रोना ही मेरे दैव में बदा है और क्यों नहीं मुझमें मुकद्दर के सिकंदर वाले हँसने के क्षण देखने को मिलते। क्यों नहीं मैं भी औरों के दर्द को अपने हृदय के निकट अनुभव करता और वे भी, मैँ चाहे जैसा भी हूँ, मुझे स्वीकार करते। पर जीवन बड़ी -२ परीक्षाएं लेता है और प्राणियों को अपने अनुसार चलाता है।

मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास 'कायाकल्प' में वज्रधर सिंह अपने को हर स्थिति में सहज रखने का यत्न करते हैं लेकिन उन्हीं का बेटा चक्रधर जीवन की छोटी-२ बारीकियों से भी अत्यंत विचलित हो जाता है। वह सन्यास ले लेता है, राह चलते लोगों की सेवा में अपना जीवन लगाता और शायद जीवन को कुछ समझने में सफल होता है। लियो टॉलस्टॉय भी 'मेरी मुक्ति की कहानी' में शायद जीवन के परम तत्व को समझने के लिए एक आम आदमी के पास जाकर सार को समझने में सफल हुए प्रतीत होते हैं। सत्यतः चहुँ ओर अंतर्द्वंद्व है, उन्हें कोई हटा नहीं सकता परन्तु उनका हल यहीं अपने आसपास ही ढूंढना है। फिर मानव तो ईश्वर की कठपुतली है पर शायद थोड़ी स्वतंत्रता के साथ, जिससे वह अपना और दूसरों का जीवन भी सफल बन सके। 

पर मैं यदि पढ़ा लिखा हूँ तो क्या मुझे लोगों की मानसिकता नहीं पढ़नी चाहिए कि वे क्या चाहते हैं। क्या मुझे प्रयोग नहीं करने चाहिए कि कैसे उनमें से अच्छे सा अच्छा निकाल सकता हूँ। पर उससे भी अधिक क्या मुझे अपने जीवन को सुघड़ बनाने के लिए अपने ऊपर ध्यान नहीं देना चाहिए। क्या मेरे सोचने, कार्य करने के ढंग में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है ? क्योंकि तुम अपने जीवन से शायद इसीलिए घृणा करते हो कि तुम्हें यह पद्धति पसंद नहीं है। फिर वह जीना ही क्या जिसमे से जीने की सुगंध न आये। 'बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर, पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर' - ऐसी  तरक्की, ऐसी ऊँचाईं की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए जो अपनों को अपने से काट दे। मेरे अंदर इतनी आदमियत होनी चाहिए कि मैं छोटे से छोटे दिखने प्राणी से भी बात कर सकूँ। प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की एक कविता 'ऊंचाई' की कुछ लाइनों का सार याद आता है कि यदि ऊँचाई अपने को दूसरों से अलग करती है तो ऐसी ऊँचाई वाँछनीय नहीं है। जीवन वही है जो औरों के काम आता है। अपने जीवन को महकाने का अर्थ औरों के जीवन को महकाने के बाद ही समझ आता है। दीपक को प्रकाश के लिए खुद जलना पड़ता है। तुम अगर सूरज नहीं बन सकते तो कम से कम  जुगनूँ  ही बन जाओ, शायद तुम्हारा कुछ देर का टिमटिमाना तुम्हारे जीवन को धन्य कर सकें। जीवन की मुक्ति का यही रहस्य है कि अपने अंदर के व्यर्थ को भस्मित करों, सभी को अपने अंदर शरण दो। एक हरियाणवी रागिनी याद आती है कि 'कोयल किसी को क्या देती है और कौआ क्या उठा लेता है, केवल एक बोली के कारण वह सारा जग बस में कर लेती है'। एक हिंदी फ़िल्म का गाना भी है कि 'सारा जग अपना हो सकता है, तूने अपनाया ही नहीं' परन्तु जब तुम्हारे मन, हृदय के कपाट बंद हैं तो कोई कैसे प्रवेश कर सकता है ?

'प्रेम' बहुत बड़ा शब्द है। आलोचना छोडो, गुणों का आदर करों। आलोचना से तुम अपनों को भी शत्रु बना लेते हो और प्रेम के कारण तुम शत्रु को भी मित्र बना सकते हों। तुम्हें अपने सद्-व्यवहार से सबको जीतना है। हालाँकि तुम कोई निर्जीव नहीं हों कि तुम्हारे ऊपर अच्छाई-बुराई का असर न पड़े फिर भी बस ध्यान रखो कि तुम औकात से बाहर न जाओ। तुम अपने नीड़ को छोड़ भी चुके हो तो क्या, अपनों से क्षमा माँगों। वे इतने निर्दयी भी नहीं हैं कि तुम्हें माफ़ न कर सकें और इतने बेवकूफ भी नहीं है कि प्यार की भाषा न समझ सकें। बस तुम्हारे कदम उठाने भर की देर है, वे तुमको बाह पसारे खड़े मिलेंगें। 'आजा रे प्यार पुकारे, तुझको पुकारे देश तेरा।' जीवन के ढंग बहुत विचित्र हैं- रुलाता है तो हँसाता भी है लेकिन प्यार के रोने में शायद मुस्कान भी खिलेगी, ऐसा मेरा मानना होना चाहिए।  


पवन कुमार 
12  मार्च, 2014 (म० रा० 1 बजे )
(मेरी डायरी से -दि० 22.04.1998 म० रा० 1 बजे )

1 comment:

  1. लेखन और अभिव्यक्ति का आपका सूफियाना ढंग, अपनी विशिष्टता का अहसास कराने के लिए काफी है ! ऐसा लेखन यहाँ विरलों का ही है , मंगलकामनाएं आपकी लेखनी को !!

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