एक इच्छा
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क्यों नहीं मैं मन को मथ पाता
और झाँककर, गहराईयाँ इसकी समझ पाता?
क्यों है सूक्ष्म इसके सोचने का आलम
क्यों नहीं चिंतन में यह रम जाता?
क्या है चिंतन, इसी परिभाषा में तो डूबा हूँ
क्यों नहीं कुछ कदम शुरुआत के बढ़ा पाता ?
पंछी की मानिंद क्यों नहीं है उड़ने की चाह
क्यों नहीं स्व को विद्वद् जन बना पाता?
एक नाम होता है चिंतक, मन्मथ दास
पर अपने को उनके अनुरूप न बना पाता।
तो ले लूँ सहारा मनीषियों का
ताकि अपने को उनकी राह का पथिक सा पाता।
पवन कुमार,
20 मार्च, 2014 समय 18:13 सायं
(मेरी डायरी दि० 07.12.1998 से )
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