जीवन सार्थकता
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क्या लिखूँ बस नींद में ही झूमूँ हूँ
क्या करूँ बस इसी उलझन में हूँ।
क्या करूँ बस इसी उलझन में हूँ।
जीवन बीता जा रहा है और मैं सो रहा हूँ
कैसे कटेगा जीवन ऐसे यह भी सोच नहीं पा रहा हूँ।
क्या यह इतना सस्ता है कि यूँ ही बिता दिया जाए
या फिर जीने का कोई सलीका भी आएगा।
बहुत भावुक होकर शब्द ये लिख पा रहा हूँ
क्यों नहीं कर्मयोग के सिद्धांत का अनुकरण कर रहा हूँ।
अहसास क्यों नहीं होता कि मैं शायद हानि में हूँ
और क्यों अपनी स्थिति की अनुभूति नहीं होती।
क्या सोना ही जीवन है या कुछ आगे भी बढ़ना है
क्या कुछ आत्म-वंचना के शब्दों के अलावा भी शब्द पाने हैं।
तो क्यों नहीं तय कर पाते कि कुछ समय स्वयं के लिए भी निकालोगे
जब तुम गुनगुनाओगे, अट्ठाओगे या फिर अपने ग़मों के संग रोओगे।
बात कभी -2 बड़ी-2 किया करते हो लेकिन कर्म तो बहुत महान नहीं हैं
बातों के साथ मन और कर्म को जोड़ो तभी तो तुम्हारी सार्थकता होगी।
जीवन के टेढ़े-मेढ़े रास्तों में कुछ क्षण अपने लिए भी ढूँढ लो अन्यथा
शायद लगेगा कि कभी समय ही नहीं मिला।
और फिर कितना दुर्भाग्यपूर्ण होगा वह पल
जब तुम्हारे पास समय भी नहीं होगा
और शायद लिखने के लिए वह ताज़ा याद भी।
मनुष्य बड़ा भुलक्कड़ है अतः आवश्यकता है
कि हर क्षण को कैद कर लिया जाए।
हर पल को पूर्ण रूप से जी लिया जाए
ताकि कोई हसरत न रहे कि हम जिए ही नहीं।
महापुरूषों का संग शायद साथ है फिर भी
उनकी क्षमता स्वयं में विकसित नहीं है।
शिव खेरा का 'You Can Win' बताता है पर फिर भी
उसका असर पढ़ते हुए ही बस रहता है।
फिर मैं क्या हूँ इसकी परिभाषा तो शायद
आजतक नहीं दे पाया हूँ।
शायद खुद को कुछ ज्यादा नहीं जानता हूँ
अतः दूसरों की जानकारी पर ही भरोसा करता हूँ।
पर फिर भी जीवन जीना ही है
क्यों न उसे जीना सीख ही लें।
पवन कुमार,
20 मार्च, 2014 समय 12 बजे म० रा०
(मेरी डायरी दि० 13.04.1999 से )
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