उसके प्रश्न और मेरे उत्तर
उसने पूछा, क्या करते हो
मैंने कहा क्यों पूछते हो, जब मैं नींद के आगोश में जाने की तैयारी में हूँ।
सचमुच बहुत निराली बात है
युद्ध है नींद का और मस्तिष्क का।
शरीर की थकान कहती है कि नींद में जाऊँ
लेकिन मन कहता कि कुछ करते जाऊँ।
उनींदी आँखें चाहे पूरी खुल भी पा नहीं रही
लेकिन फिर भी अचेतन मन से ही कार्यवाही जारी है।
उसने पूछा कि भई क्यों जीते हो
जब चारों ओर तुम्हारे लोग मरे जा रहे हैं।
मैंने कहा कि भाई, मरने के लिए ही तो जीता हूँ
ताकि मरने के बाद यह न लगे कि जीया ही नहीं।
उसने कहा कि क्यों नहीं पढ़ते जीवन की पुस्तक
मैंने कहा कि भाई कोशिश तो करता हूँ।
लेकिन किताब हाथ से छूट जाती है, फिर कोशिश करता हूँ
पर शायद पढ़ने का आदी हो जाऊँगा।
उसने कहा कि कितना बचपना और करोगे
मैंने कहा कि हम सब बच्चे ही तो हैं।
पर कुछ थोड़े ज्यादा हैं और कुछ कम
क्या बच्चा होना बुरा है फिर ?
फिर बचपन की शोखियों का क्या होगा
काश ! मुझमें वह बाल-सुलभ जिज्ञासा यूँ रहती।
ताकि अनवरत ज्ञान के मार्ग पर बढ़ता ही जाता
फिर मैं स्पॉन्ज बन जाता जिससे ज्ञान का द्रव सोकता रहता।
उसने कहा कि भाई क्यों बैठे हो
मैंने कहा कि खड़े होने के लिए बैठा हूँ।
ताकि अधिक स्फूर्ति आएगी
और मैं फिर चलता ही चला जाऊँगा।
उसने कहा कि कभी अंतरिक्ष में सैर को देखा है
पृथ्वी के जहाज पर बैठकर तुम अनंत की यात्रा का आनंद ले रहे हो।
मैंने कहा कि भाई बस सुना ही है
काश ! ऐसा अनुभव कर पाता।
उसने कहा कि कुछ बता जाओ
और फिर बेशक से सो जाओ।
तब मैंने कहा कि भाई प्रेरित यूँ ही करते रहना
मेरे हाथों से कुछ शब्द रोज लिखवाते रहना
ताकि मैं भी जी सकूँ अपना, तुम्हारा बनकर।
पवन कुमार,
15 मार्च, 2014 समय 11:27 बजे म० रा०
(मेरी डायरी दि० 11.12.1998 से )
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