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Saturday 1 March 2014

वीरता

 वीरता 


वो सत्य-कर्मयोद्धा हैं, जो लेखनी महद लक्ष्य हेतु चलाते

सतत रत हैं दुर्गम राहों पर अकेले, विवेचन करते हुए॥

 

जीवन उन हेतु सदा चलने वाला ही न एक माध्यम मात्र

अपितु बारीकियों में जाकर, उनको पहचानने का प्रयास।

खुली आँखों से देखते हैं, कि कहाँ-क्या-क्यों हो रहा कैसे

और निज समझ से नवरूप प्रवाह देने का यत्न हैं करते॥

 

मात्र दर्शक न, अपितु निरपेक्ष भाव से दायित्व हैं समझते

अन्य ही इस हेतु उत्तरदायी न, पर वे भी मूक समर्थक हैं।

और फिर खड़े होते समझ हेतु, लेकर कुशाग्र बुद्धि-अस्त्र

कुछ कर्मठ कलम-लेख से, जग समझने का करते यत्न॥

 

वे वीर अंतर्द्वंद्वों से बाहर निकल, एक विशाल हेतु समर्पित

बैठकर मौन निज में, अंतः के विकास हेतु रहते अग्रसर।

सदा देखते व्योम-महासागर को, व विस्तृतता वसुधा की

व निज को अंश पाते, उसी विराट-ब्रह्मांड स्वरुप का ही॥

 

उन हेतु जग एक स्व कुटुंब ही, उसमें सहयोग करते सदा

सकल विद्यमान चराचर से, उनका सहृदय-अपनत्व होता।

फिर मन-मौजी हैं स्व भाँति के, विचरने हेतु समस्त दिशाऐं

और स्वछंद, बुद्धि-तर्क द्वारा, विशाल तंत्र समझने के लिए॥

 

वे राष्ट्र-सीमा प्रहरी-समर्पित, इसकी रक्षार्थ बाह्य-आतंरिक

व सतत उनकी दृष्टि है, परम-सत्य व सर्वहित ओर स्थित।

कटिबद्ध हैं निज-कर्त्तव्यों में, सजग उनका निर्वाह करने में

आत्म-अनुशासन शैली साधते जीवन में, अन्य भी लाभ में॥

 

उन्हें चाह न अपने लिए, वरन विस्तृत के प्रति वे हैं समर्पित

उनका हर एक श्वास, महाजीवन का उपकार है उन पर।

वे एकनिष्ठ हैं, पूर्ण जीवन-भाव को समाहित करने स्वयं में

व सदा गतिमान हैं निज ही धुन में, अथाह मुहब्बत लिए॥

 

लेखन उनका एक लक्ष्य हेतु, छपछपाहट-व्याकुलता लिए

वे उद्विग्न-व्यग्र, क्यों स्वयं को पूर्ण परिभाषित न कर सके?

बाह्य जगत में किञ्चित वे, बहु-संपर्क न बनाते हों लोगों से

पर अंदर से तो नित लोक-कल्याण ही सोचा किया करते॥

 

प्रतिबद्धताऐं हैं स्वयं से ऊपर, कई मायनो में समझ से परे

पर वे नित कटिबद्ध रहते हैं, अपनी चेष्टाऐं बढ़ाने के लिए।

उन हेतु अबतक का जीवन तो, एक प्रक्रिया-स्वरुप है मात्र

और वे आज जो जैसे भी, उन सब पूर्ववर्तों का ही तो सार॥

 

एक अनुकूल परिवेश निर्माण को तत्पर, सबके सहयोग से

वे सदा देखा करते हैं, अपनी उस पूर्णता की ओर चेतन से।

सदैव सर्वहित ही उनका मनन, व क्या कर्म-संभव हेतु उन

अंतर्मुख संग वे बहिर्मुख भी, अकर्मण्यता है अति असहज॥

 

वे वीर धन्य जिन्हें निज प्रतिबद्धता-बोध, और जो हैं प्रेरित

सदा वसुधा-पटल पर, सार्थक होने का किया करते प्रयत्न।

स्वयं प्रति उच्च-कटिबद्धताऐं, उन्हें निट्ठला बैठने नहीं देती

उनको निज विकार-कुवासनाऐं, अभिशाप ही लगा करती॥

 

वे धीर-वीर हैं, क्योंकि सदा सत्य का निर्वाह किया हैं करते

यूँ ही व्यर्थ-संवाद न करते, वरन पूर्व मनन किया करते हैं।

माना कुछ बहु-शब्द धनी नहीं, व चयन भी सटीक न चाहे

तथापि वस्तु-भाव के समीप, पहुँचने का यत्न किया करते॥

 

आजीवन शिष्य-शिक्षार्थी होकर भी, व भला जानते हैं अपूर्ण

इस ज्ञान से भी परिचित, और जीवन अति-क्षुद्र, क्षण-भंगुर।

इस सकल जीवन-परिसीमा को, भली-भाँति जानते भी हुए

जग को अपनी ओर से सदा, कुछ देने का ही यत्न करते हैं॥

 

मुस्कुरातें व कभी व्याकुल भी, पर नित्य हैं संभावना-पूरित

विश्वास दान-समर्थ, जगत थोड़ा और सम बनाने का प्रयत्न।

वे धीर हैं इसीलिए तो, इतना अनर्थ चलते हुए भी सह जाते

शायद स्व को तैयार करते, कैसे-किससे सामना करना है॥

 

उनकी कुलबुलाहट व्याकुल करती, निज-रुप पहचान हेतु

सदा तल्लीन वृहद-लक्ष्यों में, उनके तत्वों को समझने हेतु।

व्यर्थ तर्क-आवर्जनाओं से, स्व से दूर रखने का करते प्रयत्न

 एक निर्मोही-सात्विक भाँति ही जग का, किया करते दर्शन॥

 

निज पाश-ज्ञान, इनसे विमुक्ति की युक्ति का भी उन्हें ध्यान

त्याग सब प्रपंच-कल्मष वे, परम स्व-सिद्धि हेतु हैं विद्यमान।

सबल हैं तभी तो शायद, निज कष्ट-दुर्बलता वर्जन पाते कर

युक्त अनुपम चेतन मन से, सब उचित कर देता है प्रस्तुत॥

 

उनका बौद्धिक आवरण-परिदृश्य व वर्तमान भी न महार्थक

बाह्य-बाधा बेड़ी न होकर, विपुल सबलीकरण हेतु है प्रेरक।

उन्हें न चाह मात्र है, सुन्दर वन-कुसुमों के ही घ्राण करने की

अपितु विघ्न-कष्ट-कंटकों के सामीप्य में प्रसन्न रहा करते भी॥

 

हाँ अपने सर्वत्र-कल्याण हेतु, पूर्ण सामर्थ्य से प्रयत्न हैं करते

उससे भी अधिक प्राथमिकता, उनकी विश्व -व्यापकता है।

कभी न अपने को, असहाय-अनाथ-निर्बल-पंगु ही समझते

क्योंकि इस सर्व जगत-सम्पदा के, वे स्वयं ही तो स्वामी हैं॥

 

जब अति समृद्धि सर्वत्र निहित, तो अभाव-वजूद नहीं कोई

वे ले सकते हैं उस सकल को, परन्तु उन्हें कोई लोभ नहीं।

इन कंकड़ -पत्थरों में न रहकर, शिव भाँति भस्म हैं रमाते

अमृत जग को देकर, स्वयं हलाहल पी नीलकंठ बन जाते॥

 

वे परम धनी हैं इस जग में, जिन्होंने अपना स्वयं पहचाना

सब सच्चे धन तो स्व-निहित ही, बाहर तो मृग-मरीचिका।

न चाह हैं उन्हें दूजे के धन की, लोलुप नहीं इस दुनिया में

सदा चलते अपने पथ, जो मिले उसी में संतुष्ट रहा करते॥

 

'अली बाबा चालीस चोर' की वैभव भरी गुफा ही तो दुनिया

जितना चाहे उठा ले, किंतु बाहर कपाट बंद करते हुआ।

सिर्फ हीरे-मोती, स्वर्ण-जवाहर से ही तो पेट-पूर्ति न संभव

उस हेतु खाने-पीने की आवश्यकता हुआ करती अधिक॥

 

परन्तु यह भाव सब दौलत निज, समग्र रूप दिया करती

और यह आत्म-मुग्ध व विश्व-नागरिक होने हेतु है काफी।

फिर सीमाऐं भी सबकी यहाँ, उठाने-पचाने व समाने की

क्योंकि अधिक खाने से तो, ख़राब हुआ करता पेट ही॥

 

फिर इतना कुछ चहुँ ओर, व अधिक भी जा सकता लिया

पर निज सामर्थ्य-अनुसार ही, अर्जित एक कर है सकता।

उर-विशालता कहीं अधिक धनी बनने की राह है खोलती

किंचित भी साधन-अभावता, वीर-चित्त न दुखाया करती॥

 

वीर कलम -धनी हैं, सकल वैभवों से सदा आभूषित रहते

व्यर्थ प्रपंच न में रह, अपनी राम-धुन में ही वे रमा करते।

असीम-वासी, परम में डुबकी लगाते, निर्मोही हुआ करते

पर निज-महत्ता संग, सदा औरों को भी उच्च ही आँकते॥

 

परिमार्जित करते स्वयं को सदा, उत्कृष्टता ओर अग्रसर

नित मनन व लेखन से, कुछ श्रेष्ठ कराने का करते प्रयत्न।

भले ही शब्द-जाल में न फँसते, दुर्बलताओं का अहसास

मन में एक पवित्र भाव है, सबका करने हेतु ही कल्याण॥

 

जीवन को धरोहर मान, इसके मान की रक्षा का करते यत्न

कभी न रुकते, न तन्द्रा ग्रसित, न व्यर्थ साँसतों का संसर्ग।

वे सदा दृढ़-ऊर्जावान रहते, और अपने को वेगवान रखते

जीवन अल्प व कृत्य अधिक, अतः यथासंभव प्रयास करते॥

 

स्वरुप साक्षात परब्रह्म के, जो उनके माध्यम से परिभाषित

सदा डूबे से निर्मल-चिंतन, कुछ समुचित कर जाते प्रबंधन।

रहें सर्वोत्तम के साथी, और उसके उद्देश्यों में सहायक होते

सदा सर्वत्र समर्पित अपने- श्रेष्ठ को, अधिक सार्थक बनाते॥

 

अतः उठाओ लेखनी, करने पूर्ण परम की अनुभूति स्वयं में

फिर भेद नहीं, तुममें-ईश्वर व तुच्छ ही मानी जाती रज में॥



  पवन कुमार,
   1 मार्च, 2014  

       

4 comments:

  1. आपका लेखन अद्भुत व् असीमित है, हो सकता है कि आपकी लेखनी बहुतों को समझ न आये क्योंकि यह असामान्य है मगर समय इसकी सार्थकता साबित करेगा !
    मंगलकामनाएं !!

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  2. Great , full of inspiration. keep it up. you have great taste.

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  3. Bahut Sunder, adbhut per atyant durgam marg ka chitran hai kintu asambhav bilkul nahi. Ishwar aapko isee tarah jeevan mein aage barhte rehne ki samarthey de.....
    Regards-

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    1. Thanks to all a lot. This is all journey to understand self, a very puzzling device. I thought to share for all we are like. Only thing is to take out. Regards.

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