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Monday 30 September 2019

कलम-यात्रा

कलम-यात्रा 
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चिंतन-पूर्व भी चिंतन, एकजुट देह-आत्मा समर्पित महद-लक्ष्य 
समय-ऊर्जा भुक्त, पर यथाशीघ्र मंजिल-प्राप्ति हेतु हो तत्पर।  

मनन-विषय अहम प्रारंभ-नियम, पर यावत न तिष्ठ कुछ न निकस
एक चित्तसार, सुखासन-प्रकाश, देह-मन सहज, एकांत-निरुद्ध। 
अहं-त्याग, वृहद-संपर्क चित्ति, पठन-पाठन से भी बहु -एकाग्रता
मन पूर्ण-बल तत्काल संभव, जब एक यथोचित परिवेश मिलता। 

देखते ऊँट किस ओर बैठता, कहाँ-किस विषय मन की होगी यात्रा 
यही सखा-वाहन या पथ-प्रदर्शक, विस्मयों से चेतन-संपर्क कराता। 
कोई वजूद न यदि न पूर्ण-तत्पर, समय-ऊर्जा माँगती यात्रा न्यूनतम 
फिर थकन, मध्य-विश्राम, अग्रिम तैयारी, गंतव्य-अन्वेषण-संपर्क। 

सब चाहते सुखद-मनोहर, ज्ञानद-मधुर यात्रा, अग्रिम तो अल्प-ज्ञात 
न्यूनतम जोखिम भी जरूरी, उचित अपेक्षा, तैयारी बनाती सुयोग्य।
फिर यथा समझ तथैव दर्शन, जरूरी तो न सदा ही  रोचक-संपर्क
सब कुछ तो विश्व-थाती, न जानेंगे तो कैसे कुछ कर सकेंगे हित। 

पर यात्रा में भीषण-स्थल छोड़ते, गाइड रोचक-स्थल ही लाते प्रायः 
ज्ञान सर्वत्र पर मुख्य-स्थल संघनित, एकदा गमन से भी विषय ज्ञात।  
कथन-समझ सुलभता, संग्रहालय बनते, अधिकाधिक दर्शक-भ्रमण 
राजा-महाराजा, दरबारी-प्रजा की कथा, दर्शक भी रोमांचित होते। 

कौन आवास-गृह जाते गत-काल बाद, जब इतिहास से आए बाहर 
चाहे कितने ही निरंकुश-दुधर्ष, पर कुछ महत्त्वपूर्ण-चर्चित था नाम। 
महल-बावड़ी, अद्भुत पच्चीकारी उस नृप-निर्मित, सार्वजनिक अब
माना अनेक-सहयोग महद कृति में, नाम-गुणगान तो नेता का पर। 

दूर-देश पथिक हर सम-विषम से गुजरता, माना सुगमता तगाजा 
तथापि अरुचिकर आ ही जाएगा, आवश्यक न शुभ-संपर्क सदा।
सब दृष्टांत ही निज अल्प-विश्व खोलते, दूर-दर्शन न हो घर बैठे तो
सर्व-विश्व भिन्न-रसज्ञता हेतु उद्यमित, किसी दूर-यात्रा चल पड़ो। 

एक झलक हेतु ही तो सब अन्वेषण, कब दर्शन हों भविष्य-गर्भ में 
 छवि अनुभव परम-दृश्य की, सब मौन-भिन्न ढंगों से प्रयास करते। 
जीवन-सार संभव चरम-अनुभूति से, सब मध्य-यात्राऐं हेतु ही उस 
जितने अधिक दृश्य-अनुभव, सत्यमेव चरम भी उतना श्रेयस्कर। 

कथन देव का उत्तम ही वहन, पर क्या परिभाषा उत्तम-अधम की 
  कुछ तो निस्संदेह शोभनीय, कुछ भीषण-दुष्कर, दुराह-कष्टकारी। 
जहाँ सुखी जलवायु-भृत्ति वहाँ बहु-संख्या, विषम स्थल प्रायः निर्जन
सब प्राण-देह हेतु अल्प कष्ट चाहते, सुगम जीवन हो कयास बस। 

पर खोजी को भीड़-भाड़ में अरुचि, इच्छा दुर्गम कौशल-आत्मसात
निज देह-मन पर कई प्रयोग, कितना आगे बढ़ सकें, पूर्ण प्रयास। 
न अति-संतुष्टि मात्र दैनिक खान-पान में, आगे बढ़ो चूम लो गगन 
सब सुख-साधन-ऐश्वर्य तज, एक फकीर सम  जीने में न हिचक। 

सर्व-विश्व निज तो विक्षिप्त-वनवासी, भीषण-त्रस्तों से क्यों दूरी है 
कहीं न कुछ अपेक्षा कर दें, अंततः सब न्यूनतम सुविधा चाहते। 
  जरूरी तो न दुःखी ही, नर अल्प साधनों संग बहुकाल से जीता    
 प्रकृति-पुत्र, उस संग दिवस-रैन  रिश्ता, गुजर-बसर कर लेता। 

किंचित अंत्यजों से क्यूँ दुराव, इहभाव से कदापि न बड़ा-हित 
विश्व एक-स्रष्टा प्रारूप, महा-घटना उदित, समस्त तत्व निहित। 
कुछ को उत्तम-प्रयोग माने, कुछ अपशिष्ट, यह दृष्टिकोण-गत 
विवेकी ही उत्तम-अधम भेद-सक्षम, आम जन पूर्वाग्रह-ग्रसित। 

अभी विषय न सम-विषम, पर भाव नर वृहद-नजरिया अपनाए
सब स्वीकृत, निज-रूचि अनुरूप जिसे चाहें लें, पर घृणा न करें। 
ध्येय हो हर का समग्र-सम्मान, कैसे मिल-बैठकर बात सकें कर 
प्राण कठिन, प्राणी का बलानुरूप समायोजन, अतः न प्रतिवेदन। 

पर नर यात्री ही तो इस वृहद-सृष्टि में, जितना संभव उतना देख 
ज्ञानेन्द्रियों की सदैव स्वस्थता-संभाल से तो, देख सकोगे विराट। 
जीवन-पूर्णता तो अनुभव से ही  संभव, सार मिलेगा सुचिंतन से 
न घबराना कटु-अनुभवों से कभी, निज-काल में सशक्त करेंगे। 

कवि की क्या वर्तमान-चाह, समय कम पर सारांश तक न गमन 
एक शुरू-यात्रा तो पूर्ण हो, अनुभव लेखनी से निरूपण लें कर। 
मनोदित दार्शनिक भाव स्वतः ही उदित, पर कब लब्ध न ज्ञात 
पर इतना जरूरी चरम-अभिलाषा, कितना निखरे विधाता हाथ। 

मेरा मात्र प्रयोग मन-कलम से, कैसा परिणाम होगा भविष्य-गर्त 
न पूर्वाग्रह किसी भाँति का, यदि समय हो तो जितना चाहे चल। 
दृष्टि निस्संदेह प्रखर चाहिए, उसे देखना अभी वर्तमान क्षणों में 
मन भी दाँव-पेंच लगाता, कलम-माध्यम से कुछ उकेरन करे। 

जीवन चलना अति-दूरी, जिज्ञासा प्रगाढ़ मन-देह बनाए रखना 
कभी तंद्रित न हो जाना कर्त्तव्यों में, महद हेतु दीर्घ जगे रहना।
प्रतिबद्धता सघन-विस्तृत हो, सर्व-मनुजता में फूँक सकूँ प्राण 
सब विश्वास करें परस्पर, व्यर्थ-विवाद हटा राह में हो सार्थक। 

भौतिक-मनस भ्रमण बढ़ाओ, जब संभव निकलो अज्ञात तरफ 
संपर्कों से ही अंतः-कोष वर्धित, विकास के कई प्रदान अवसर। 
महाजन महद सक्षम अनुभव-संपर्कों से, विवेक सदा संगी रहा 
तभी जग में नाम, जन जुड़ना पसंद करते, रहें स्मरित दृष्टांत। 

मन-देह स्वास्थ्य अपनी जिम्मेवारी, सहेजना यत्न से सब अंग 
नित्य-व्यायाम आदि से सकुशल, सामंजस्यता न जाना भूल। 
समुचित अनुरक्षण व काम, सृजनता-गुणवत्ता-क्षमता वर्धन 
ध्यान रखना सामान का, जो भी उपलब्ध हो उपयोग-पूर्ण। 

कहाँ से चले कहाँ पहुँचे, कलम-यात्रा विचित्र-अदृश्य ओर 
मन बहु-आयाम समक्ष, गुह्य-अध्यायों से ही है सुपरिचय। 
मैं तो जीवन का दास, कहाँ-किस धाम जाना तुझे ही ज्ञात 
कुछ यात्रा-अनुभव, कयास-प्रयास, ओ मौला हो रहमत। 


पवन कुमार,
३० सितंबर, २०१९ समय ६:२३ प्रातः
(मेरी जयपुर डायरी २३ नवंबर, २०१६ समय ९:२२ प्रातः से)   

Sunday 15 September 2019

'यह जग मेरा घर'

यह जग मेरा घर
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हर पहलू का महद प्रयोजन, ऐसे ही तो जिंदगी में न कहीं बसते 
नव-व्यक्तित्वों से परिचय, नया परिवेश निज-अंश बन जाता शनै। 

कुछ लोग जैसे हमारे हेतु ही बने, मिलते ही माना प्राकृतिक मिलन 
जैसे अपना ही कुछ बिछुड़ा सा रूप, मात्र मिलन की प्रतीक्षा-चिर। 
धीरे-२ आत्मसात भी, यदा-कदा विरोधाभास तो बात अति सहज 
खुद पर भी कभी क्रोधित-खीजते, अंतरंगों से भी तो क्या अचरज?

जीवन में कुछ सीमित पड़ाव ही मिलते, बस कब आ जाते अज्ञात 
उन्हीं में कुछ समय जिंदगी बस जाती, चाहे पसंद करें या तटस्थ। 
स्थानांतरण हो जाता वहाँ कौन मिलेंगे, नाम-गाँव का न पता कुछ
धीरे-२ वही एक शरणालय, पूर्व-अपरिचित अब सहयोगी अंतरंग। 

किसको जानते थे जब जग आए, पर धीरे से एक दुनिया ली बना 
लोग जुड़े या हम उनसे एक बात, तात्पर्य सौहार्द एक निजता सा।  
एक अपरिचित से परिणय हो जाता, फिर बन जाते जन्मांतर-संगी 
दो देहों में एक आत्मा वास, उसके सब कष्ट लूँ यही इच्छा रहती। 

नव-स्थल आगमन पश्चात शनै मकान-सड़क-गलियों से अपनापन 
कालोपरांत नए चेहरे निज रूप ही लगते, जंतु-पक्षियों से भी प्रेम। 
क्या यह सहज प्रवृत्ति, आसानी से ही हम एक दूजे को लेते अपना 
नेत्र-भाव-व्यवहार भाषा प्रधान, यदि वाणी-मिलन तो और सुभीता। 

अपने ही काल देखूँ तो कुछ निश्चित जगहों पर ही अद्यतन कार्यरत 
कुछ वर्ष एक जगह व्यतीत, एक अमिट छाप जीवन संग चिपक। 
निज मर्जी से तो कोई न आया बस धकेला सा गया, समझौता फिर 
वहीं करना-खाना, खुश हो रहोगे तो ज्यादा तन-मन से स्वस्थ भी। 

पर शुरुआत थी संपर्कों का हमारे जीवन में है एक विशेष उद्देश्य
लोग पुनः टकरा ही जाते, स्मृति नवनीत, लगता कल की ही बात। 
निकट-नरों का हम पर गहन असर, किंचित हमारा भी उन पर 
आदान-प्रदान से शनै सब एक सम, चाहे बाहर से पृथक-दर्शित। 

हमारे घर अचानक पूर्व-विचार के मेरी बेटी ले आई लूना पिल्ली 
शुरू में अच्छी, पर बाद में उसकी पोट्टी-मूत्र से घृणा होने लगी। 
लगभग एक वर्ष उसकी हरकतें सही, अब है घर की सदस्या सी
अब उसके बिना कुछ भी पूरा न, पशुओं से प्यार हो सकता भी। 

यह आवश्यक न जिनको हम जानते, सभी को दिल से चाहते 
पर जैसे भी पूर्व-स्वीकृति के न, बस यूँ कहें हमपर धकेले गए।
उनका भी असर हम पर, उनके हेतु भाव अंतः-प्रभावित करते 
न चाहते भी न्यूनतम रिश्ता, अनुभव-भावों का स्थायी प्रभाव है। 

जिंदगी में कई व्यक्तित्वों से योग, गूढ़-संपर्क चाहे काल-सीमित
अमिट असर, प्रतिक्रिया स्वभावानुसार, परिणाम हो जाता निज। 
पर प्रश्न कि विशेष संपर्क में आते ही क्यूँ, यदि वे न तो सही और 
या वृहद विश्व नियम-रोपित, निश्चित अवधि पर ही अमुक मिलन। 

अनेक भाग्य-सिद्धांत विद्वान-निर्मित, बहुत अधिक तो विश्वास न 
या किसी अच्छे से अभी तक न संपर्क, जो पूर्वाग्रह कर दे दूर। 
जब स्वयं अंध तो सर्व तमोमय ही, प्रकाश-अभाव ही अंधकार 
स्वयं अपढ़ तो शिक्षा व्यर्थ प्रतीत, महत्त्व संपर्क-साधन से ज्ञात। 

   'तू नहीं तो कोई और सही', सब हैं एक परम-पिता का न अंश    
 सहोदरों से रक्त-रिश्ता, सम अभिभावक अंड-शुक्राणु मिलन। 
बंधु जो माता-पिता व भाई-बहन संपर्क से जुड़े, वे भी भाग होते 
प्रश्न है अन्यों से कैसे संबंध हों, न साँझा हमारा रक्त-कण उनसे।

वृहदता से देखें तो सब मानव सीमित अभिभावक-संतति किंचित 
उनके ही रज-कण बिखरें, समस्त मानव जाति से रिश्ता है अटूट। 
यहाँ-वहॉं बिखर गए तो क्या, बीज एक से तो पादप तथैव अंकुरित 
कोई विरोधाभास न समरूपता में, स्वसम से होता संपर्क जल्द। 

मानव-समूह चाहे विलग प्रतीत, भिन्न अभिभावकों में समाए सम 
सब संतति-गुण सहज मिलते, एक अपनापन है उदित यकायक।  
श्रेष्ठता-अहंभाव नरों में अप्राकृतिक, कुछों छद्मियों ने दिया समझा 
गरीब-धनी में कुछ न विभेद, जीवन-संघर्षों से किंचित कर्कश हाँ। 

बड़ा प्रश्न क्यूँ अमुकों से ही मिलन या पूर्व-अपरिचित स्थल-गमन
क्या उनसे कोई पूर्व-संबंध, या जग में कुछ न कुछ रहता घटित। 
गुजारा स्थान-परिवर्तन से, समायोजन करना होता, शनै प्यार भी 
सत्यमेव एक निज भाग बन जाते, उनसे निकसित प्रयोजन भी। 

जीवन में भी है बहुल नूतन संपर्क, लोग मिल रहें, कुछ रहें बिछुड़
निश्चित बहु जीवंत भाग निर्मित, अपनों से मिलना भी आवश्यक। 
संपर्क हमारे रिश्ते सुदृढ़ करते हैं, सुहृदों को न कभी त्यागो अतः 
'आँखों से दूर मन से भी दूर है', रिश्ते मरते नहीं देते हैं मार हम। 

जिस पर ध्यान होगा वही बढ़ेगा, अतः संपर्कों का योजन संभव 
जहाँ जन्म है वहाँ भी ध्यान दो, उनको भी मिलना चाहिए लाभ। 
बात याद रखो जहाँ जाओ अमिट छाप दो, बन जाय स्मृति-अंश 
  चाहे कुछ की बात, संपर्क-क्षेत्र बढ़ाओ, विविध-मिलन से समृद्ध।  

'यह जग मेरा घर' जितना संभव, खुली अक्षियों से दर्शन का प्रयास 
जिन नव-स्थलों पर गमन संभव, जाओ, निज जैसों से और परिचय। 
जहाँ कुछ सहायता कर सकते, करो, अंततः है यह अपना ही हित 
सब कुछ निज ही, मात्र संपर्क-साधन की देर, सब दूरी जाती मिट। 
  

पवन कुमार,
१५ सितंबर, २०१९ समय ११:३९ मध्य रात्रि  
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० ३० मई, २०१७ समय ९:३२ प्रातः से)

Monday 2 September 2019

नवीन-भाव


नवीन-भाव 
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एक नवीन-भाव पल की आवश्यकता, स्थापन्न कागज-पटल 
लेखनी माध्यम, मन-विचार डायरी में, बहिर्गमन से विस्तृत। 

चलो आज नवीनता-वार्ता करते, माना सनातन को पुनरुक्त 
वे ही विचार पुनः-२ उदित, चाहे शब्द-लेखन में कुछ भिन्न। 
नव-साहचर्य से मन-उदय, अनुभव खोले प्रकटीकरण-राह 
बहुदा स्व ही लुप्त, निज उबासी-कयासों से न आते बाहर। 

सच है कि जग अति-विशाल, दर्शन-मनन एक सीमा-बद्ध 
मन-कंप्यूटर प्रोसेसर गति सीमित, अल्प ही काल-प्रकट। 
इकाई बायट प्रति सेकंड, लब्ध समय प्रयोग तो बड़ा संभव
निकट सुपर-कंप्यूटर पर प्रयोग न, कुल काम तो ही शून्य।  

अर्थ यदि गति कुछ कम भी, अधिक समय में बड़ी दूरी तय 
विश्व-कोष में बड़ी संख्या विवरण, पर कुछ से ही परिचय।  
चलेंगे तो दूरियाँ पटेगी, नव-अनुभव ग्रहण, मन-रवें सुदीप्त 
नवीनता स्व-स्थित, समय प्राप्त तो कागज पर भी उकेरित। 

खुले चक्षु-मन से दर्शन-मनन है, कार्यशाला-मोड की उत्कंठा
भ्रमण से नव पथ-स्थल दर्शन, प्रवास-संपर्क से नई-सूचना।   
हर जन पृथक स्थल से, भिन्न सूचना-पुञ्ज, क्यों न करें ही बात 
परस्परता से सघनता बढ़ेगी, जितना जुड़ेंगे उतने लाभान्वित। 

मानव-यात्रा कुछ वर्ष-यापन, कितना मनन-गति से बिताया समय 
एक मोटी पोथी बनते प्रक्रिया में, सभी कुछ तो प्रयोग पर निर्भर।  
कोल्हू-बैल भी गतिमान नेत्र-पट्टी बांधे, वृत्त-गिर्द  करता दूरी तय 
यहाँ नव दिशा-स्थलों से परिचय, अन्यथा तो अपने में ही सिकुड़। 

क्या पथ सुप्राप्ति का या तो बैठे रहें, कुछ पास आऐंगे ही परिचय भी 
यह निज-निर्भर, किनको कितनी अपेक्षा, कितना करते संपर्क ही। 
जलपुरुष निकट तृषित आऐंगे ही, यदि मृदु बर्ताव और भी सुभीता 
उसपर निर्भर कितना रूबरू, कुछ पूछकर सूचना-ज्ञान व लाभ। 

एक सूत्र टूटना पुनः उसे जोड़ना, निश्चित ही कुछ समय-ऊर्जा माँग 
एक द्रुम पूर्व-स्थिति में न गमित, हर पल बदलते रहते हैं मन-भाव। 
तथापि वृहत-ग्रंथ लिखे जाते, एक ही दिवस-निष्ठा से काम न बनता 
अपने को पुनः पथ पर स्थापन, कुछ विचित्रता भी पर काम चलेगा। 

विषय नवीनता मनन-दर्शन में, जो बहु आयाम-प्रतिभाऐं करें युग्म 
मति-कोष्टकों की भी स्मरण क्षमता, अनुपम-रमणीयता करें एकत्र। 
जीवन का तो घटित हो जाना सत्य, समृद्धि कितने उत्तमों से संयोग 
हाँ आज का नवीन भी प्राचीन हो जाएगा, तो भी सदा बढ़ें उस ओर। 

संपर्क-ज्ञान संग विस्मृत, सीमित स्मरण-क्षमता, सर्वस्व न समाहित 
कंप्यूटर की अति स्मरण-क्षमता जैसे 1TB, वह भी शनैः पड़ती कम। 
अनेक पुरानी फाइल-दस्तावेजों, चित्र हटाने पड़ते हेतु स्पेस-लब्धता 
अन्यथा शीघ्र-पूरित सब स्पेस, कितनी हार्ड-डिस्क रखें सब-सहेजना। 

पर समय-तकनीकों संग कंप्यूटर-प्रोसेसिंग क्षमता-मैमोरी भी वर्धन 
चाहे यकायक न दर्शित, नर का बौद्धिक-दैहिक विकास समय संग। 
माना न सम, मोबाईल-फोन, कंप्यूटरों की भिन्न क्षमताओं के मॉडल 
जितनी जरूरत, क्रय-शक्ति ले लो, रूचि-हैसियत अनुसार व्यवहार। 

मानवों में प्रज्ञान की क्या भिन्न अवस्थाऐं, या मात्र निजानुसार प्रयोग 
वैज्ञानिक व कमेरे की बौद्धिक-क्षमता सम, बस एक द्वारा सुप्रयोग। 
बचपन से देखते कुछ भिन्नता लोगों में, जैसे समझना-परिभाषा देना 
शुरू में अल्प, कालांतर में एक का  प्रयोग-त्याग, गतिमय है दूजा।  

यथा प्रयोग, तथा वर्धन, हाँ कभी अति-प्रयोग दुष्परिणाम भी गोचर  
वृतांत सब तरह के, पर निश्चित अप्रयोग से नितांत पड़ जाता ठप्प। 
कार्यशालाओं हेतु लोग यंत्र खरीद लेते, अप्रयोग से पुराने व व्यर्थ  
धन-साधन नष्ट, चाहे किञ्चित-प्रयोग, समुचित तो निश्चितेव श्लाघ्य। 

कोई न इतना निपुण बस जोड़े ही, पीछे मुड़कर भी न देखे संग्रह 
या देख-समझ सुरुचिपूर्ण सृजन, अपनी हर वस्तु की करता कद्र। 

निज-वस्तु संभाल स्व-जिम्मेवारी, हाँ कालांतर में उपयुक्तता घटित 
अमुक काल जैसा न सार्थक, प्रिय-अमूल्य, अब नव-संदर्भ जरूरत। 
फिर सृजनशीलता, नव-भाव संग्रहीता, मूढ़ से प्रवीण में रूपांतरण 
यह भी तुलनात्मक निज संदर्भ में, पूर्ण ज्ञान संदर्भों में अति-दोयम। 

कोई किसी विधा प्रवीण अन्य में अनाड़ी, पर अर्थ न कि मूढ़ है वह  
अर्थ यह भी संभव एक हर जगह न पारंगत, मन-देह की सीमा निज। 
पर न विरोध उन्नति हेतु, कमसकम जहाँ रूचि वहाँ हो प्रयास अधिक 
अन्य-विधा रूचि भी समृद्धि, तो भी पूर्ण का कुछ अंश ही दर्शन संभव। 

फिर अर्थ क्या है हम जैसे भी, कमसकम निकट का करें प्रयोग पूर्ण
आवश्यकता बढ़ेगी तो हाथ-पैर भी मारोगे, क्षमता हेतु पूर्ण तब यत्न। 
अन्य को भी समझा सकोगे -सुवृत्ति दान दो, वृहदता स्व में दर्शन  
जीवन-यंत्र प्राप्त अति कष्ट से, पूर्ण प्रयोग से करें सार्थकता सिद्ध। 

प्रथम-कक्षा छात्र को एक कायदा या शुरू-पाठों की ही आवश्यकता 
लेकिन प्रख्यात विद्वान-गृह तो बहु-विधाओं की पुस्तकों से होता भरा। 
अर्थ कि वह सब काल ऐसा न था, प्रथम श्रेणी से बढ़ पहुँचा यहाँ तक 
भली-भाँति ज्ञात वह अत्यल्प, अनेक ज्ञान-आयाम हैं यावत अस्पर्श। 

कौन मानव-स्वरूप हमारे गिर्द छितरित, सब भाँति के नमूने दर्शित 
सब शून्य से अनंतता के किसी सोपान -तल, कुछ चढ़ ऊपर तिष्ठ। 
ज्ञात अभी बड़ा कर्म अपूर्ण, ऊर्ध्व से ही दूर दर्शन - प्रेरणा मिलेगी 
इसका मूल उद्देश्य अंतः-दर्शन ही, अग्र-ऊर्ध्व बढ़े तो हो संतुष्टि। 

नवीनता सुमृदु भाव बहु-आयाम योगी, मन-चक्षु खोल जिज्ञासु बन
जितना संभव सृजनात्मक बनो, लब्ध काल में अधिकतम  संग्रह। 
प्रखरता आएगी, निज संग अनेकों में सकारात्मक परिवर्तन संभव
लक्ष्य दूर पर मन सुग्राह्य, पैरो में शक्ति, दृष्टि प्रखर, लाभेव अतः।  

आगे बढ़ो अनवरत, योग अनुभवों से, उत्तम तो जाएगा ही ठहर 
जिसकी जब जरूरत प्रयोग कर, धैर्य रखो, सबसे मित्रता-भाव। 


पवन कुमार,
२ सितंबर, समय ६:३२ सायं 
(मेरी डायरी दि० १६ व १७ दिसंबर, २०१६ समय ११ :२८ प्रातः से)