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Sunday 15 September 2019

'यह जग मेरा घर'

यह जग मेरा घर
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हर पहलू का महद प्रयोजन, ऐसे ही तो जिंदगी में न कहीं बसते 
नव-व्यक्तित्वों से परिचय, नया परिवेश निज-अंश बन जाता शनै। 

कुछ लोग जैसे हमारे हेतु ही बने, मिलते ही माना प्राकृतिक मिलन 
जैसे अपना ही कुछ बिछुड़ा सा रूप, मात्र मिलन की प्रतीक्षा-चिर। 
धीरे-२ आत्मसात भी, यदा-कदा विरोधाभास तो बात अति सहज 
खुद पर भी कभी क्रोधित-खीजते, अंतरंगों से भी तो क्या अचरज?

जीवन में कुछ सीमित पड़ाव ही मिलते, बस कब आ जाते अज्ञात 
उन्हीं में कुछ समय जिंदगी बस जाती, चाहे पसंद करें या तटस्थ। 
स्थानांतरण हो जाता वहाँ कौन मिलेंगे, नाम-गाँव का न पता कुछ
धीरे-२ वही एक शरणालय, पूर्व-अपरिचित अब सहयोगी अंतरंग। 

किसको जानते थे जब जग आए, पर धीरे से एक दुनिया ली बना 
लोग जुड़े या हम उनसे एक बात, तात्पर्य सौहार्द एक निजता सा।  
एक अपरिचित से परिणय हो जाता, फिर बन जाते जन्मांतर-संगी 
दो देहों में एक आत्मा वास, उसके सब कष्ट लूँ यही इच्छा रहती। 

नव-स्थल आगमन पश्चात शनै मकान-सड़क-गलियों से अपनापन 
कालोपरांत नए चेहरे निज रूप ही लगते, जंतु-पक्षियों से भी प्रेम। 
क्या यह सहज प्रवृत्ति, आसानी से ही हम एक दूजे को लेते अपना 
नेत्र-भाव-व्यवहार भाषा प्रधान, यदि वाणी-मिलन तो और सुभीता। 

अपने ही काल देखूँ तो कुछ निश्चित जगहों पर ही अद्यतन कार्यरत 
कुछ वर्ष एक जगह व्यतीत, एक अमिट छाप जीवन संग चिपक। 
निज मर्जी से तो कोई न आया बस धकेला सा गया, समझौता फिर 
वहीं करना-खाना, खुश हो रहोगे तो ज्यादा तन-मन से स्वस्थ भी। 

पर शुरुआत थी संपर्कों का हमारे जीवन में है एक विशेष उद्देश्य
लोग पुनः टकरा ही जाते, स्मृति नवनीत, लगता कल की ही बात। 
निकट-नरों का हम पर गहन असर, किंचित हमारा भी उन पर 
आदान-प्रदान से शनै सब एक सम, चाहे बाहर से पृथक-दर्शित। 

हमारे घर अचानक पूर्व-विचार के मेरी बेटी ले आई लूना पिल्ली 
शुरू में अच्छी, पर बाद में उसकी पोट्टी-मूत्र से घृणा होने लगी। 
लगभग एक वर्ष उसकी हरकतें सही, अब है घर की सदस्या सी
अब उसके बिना कुछ भी पूरा न, पशुओं से प्यार हो सकता भी। 

यह आवश्यक न जिनको हम जानते, सभी को दिल से चाहते 
पर जैसे भी पूर्व-स्वीकृति के न, बस यूँ कहें हमपर धकेले गए।
उनका भी असर हम पर, उनके हेतु भाव अंतः-प्रभावित करते 
न चाहते भी न्यूनतम रिश्ता, अनुभव-भावों का स्थायी प्रभाव है। 

जिंदगी में कई व्यक्तित्वों से योग, गूढ़-संपर्क चाहे काल-सीमित
अमिट असर, प्रतिक्रिया स्वभावानुसार, परिणाम हो जाता निज। 
पर प्रश्न कि विशेष संपर्क में आते ही क्यूँ, यदि वे न तो सही और 
या वृहद विश्व नियम-रोपित, निश्चित अवधि पर ही अमुक मिलन। 

अनेक भाग्य-सिद्धांत विद्वान-निर्मित, बहुत अधिक तो विश्वास न 
या किसी अच्छे से अभी तक न संपर्क, जो पूर्वाग्रह कर दे दूर। 
जब स्वयं अंध तो सर्व तमोमय ही, प्रकाश-अभाव ही अंधकार 
स्वयं अपढ़ तो शिक्षा व्यर्थ प्रतीत, महत्त्व संपर्क-साधन से ज्ञात। 

   'तू नहीं तो कोई और सही', सब हैं एक परम-पिता का न अंश    
 सहोदरों से रक्त-रिश्ता, सम अभिभावक अंड-शुक्राणु मिलन। 
बंधु जो माता-पिता व भाई-बहन संपर्क से जुड़े, वे भी भाग होते 
प्रश्न है अन्यों से कैसे संबंध हों, न साँझा हमारा रक्त-कण उनसे।

वृहदता से देखें तो सब मानव सीमित अभिभावक-संतति किंचित 
उनके ही रज-कण बिखरें, समस्त मानव जाति से रिश्ता है अटूट। 
यहाँ-वहॉं बिखर गए तो क्या, बीज एक से तो पादप तथैव अंकुरित 
कोई विरोधाभास न समरूपता में, स्वसम से होता संपर्क जल्द। 

मानव-समूह चाहे विलग प्रतीत, भिन्न अभिभावकों में समाए सम 
सब संतति-गुण सहज मिलते, एक अपनापन है उदित यकायक।  
श्रेष्ठता-अहंभाव नरों में अप्राकृतिक, कुछों छद्मियों ने दिया समझा 
गरीब-धनी में कुछ न विभेद, जीवन-संघर्षों से किंचित कर्कश हाँ। 

बड़ा प्रश्न क्यूँ अमुकों से ही मिलन या पूर्व-अपरिचित स्थल-गमन
क्या उनसे कोई पूर्व-संबंध, या जग में कुछ न कुछ रहता घटित। 
गुजारा स्थान-परिवर्तन से, समायोजन करना होता, शनै प्यार भी 
सत्यमेव एक निज भाग बन जाते, उनसे निकसित प्रयोजन भी। 

जीवन में भी है बहुल नूतन संपर्क, लोग मिल रहें, कुछ रहें बिछुड़
निश्चित बहु जीवंत भाग निर्मित, अपनों से मिलना भी आवश्यक। 
संपर्क हमारे रिश्ते सुदृढ़ करते हैं, सुहृदों को न कभी त्यागो अतः 
'आँखों से दूर मन से भी दूर है', रिश्ते मरते नहीं देते हैं मार हम। 

जिस पर ध्यान होगा वही बढ़ेगा, अतः संपर्कों का योजन संभव 
जहाँ जन्म है वहाँ भी ध्यान दो, उनको भी मिलना चाहिए लाभ। 
बात याद रखो जहाँ जाओ अमिट छाप दो, बन जाय स्मृति-अंश 
  चाहे कुछ की बात, संपर्क-क्षेत्र बढ़ाओ, विविध-मिलन से समृद्ध।  

'यह जग मेरा घर' जितना संभव, खुली अक्षियों से दर्शन का प्रयास 
जिन नव-स्थलों पर गमन संभव, जाओ, निज जैसों से और परिचय। 
जहाँ कुछ सहायता कर सकते, करो, अंततः है यह अपना ही हित 
सब कुछ निज ही, मात्र संपर्क-साधन की देर, सब दूरी जाती मिट। 
  

पवन कुमार,
१५ सितंबर, २०१९ समय ११:३९ मध्य रात्रि  
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० ३० मई, २०१७ समय ९:३२ प्रातः से)

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