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Saturday 23 May 2015

निरोध-कर्म

निरोध-कर्म 
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कैसे समझे कार्यशैली, जग अपनी प्रकृति से चलता 
पात्र यूँ बस बदलते रहते, नवीन पुरातन हो जाता। 

आशा थी नव-शिशु लाएगा, कुछ संभावनाओं नई 
वह तनु, निर्मल, पावन, जिज्ञासु, ग्रहण करेगा शुभ ही। 
नवजीवन, उच्च-शुभ परिवर्तन, प्रत्येक जीवन में चाहता  
जीव-विकासवाद, नव-पीढ़ियों में नूतन-गुण भरता। 

दुर्लभ प्राण हर पीढ़ी का, आया बनकर सफल प्रतियोगी 
कितने ही नष्ट हो जाते, माता के गर्भ-धारण समय ही। 
सक्षम को मिलता सौभाग्य, रहेगा माँ संग गर्भ-काल तक 
सुरक्षा-कवच में विकास, निर्धारित रूप में निर्गमित।   

प्रतिबिम्ब अभिभावकों का, होता शुक्राणु-अण्ड संयोग
माता-पिता के ही वंशाणु, प्रतिस्थापित हो करें उद्योग। 
कहीं तात कहीं मात, गुण-मिलन पर आधे-आधे होता
अभिभावक रचना करते स्वरूप, भ्रूण विकसित होता। 

बनते माता-पिता के भोजन-पानी से, उनके गुण ग्रहण 
 माता-गर्भ उचित-परिवेश, शिल्प शाला, जहाँ सब निर्मित। 
निर्माण प्रक्रिया पर पूर्ण नज़र, और मूर्त विकसित होती 
बाहर भेजता जग में श्वास लेने, जीवन सुफल भुक्ति।

 माना कि माता-गर्भ में किंचित विसंगतियाँ यदा-कदा 
कुछ व्याधियाँ या कभी भ्रूण असमय मृत्यु प्राप्त होता। 
समाज की कुछ रूढ़ियाँ, भ्रूण-हत्या बढ़ावा देती अनुचित 
हितैषी विज्ञान नव-तकनीकों से, लुब्ध स्वार्थी करते अहित। 

कुछ शिशु गर्भ वध हो जाते, अवाँछनीय गिरा दिए जाते  
नित्य गर्भ-निरोधक उपाय, बहुत संभावित जीवन हटाए जाते। 
कदाचित किंचित उचित भी हैं धरा पर संख्या नियंत्रण हेतु  
कुछ युवा-सुख उपायों से, अनावश्यक भ्रूण-भार से मुक्ति। 

पर शायद मानव ने ही प्रजनन को, युवा-सुख से किया अलग 
प्रकृति में अन्य जीव तो नव-जीवन हेतु ही इसे करते प्रयोग। 
नहीं करते वे विनष्ट ऊर्जा, नित्य-वासनाओं में 
अपनी संख्या निर्धारित करते आदतों से।

मनुज को मिली सदा युवा-सुख स्वतंत्रता 
किंचित क्षण हेतु वह अपने को खपाता। 
किन्तु क्षण सदा नव-जीवन संभावनाओं से भरे होते 
लेकिन हम अपने तरीके से जन्म नियंत्रित करते। 

हम नव-जीवन रोधक, कितनी सम्भावना रोक देते 
शायद भरते उनमें अनुपम गुण, होंगे हमारे ही जैसे। 
भाग्यशाली लेते जन्म यहाँ, किञ्चित यह उत्सव होता 
कुछ को अनमने स्वीकारते, जीवन-वृद्धि यत्न होता। 

वह नवजीवन आया, क्या अभिभावक आशा करते 
शक्तिमान, बुद्धिमान, सर्व कर्म-सार्थक कोशिश करते। 
माता-पिता जैसे भी हों, अपनी संतान हेतु सुयत्न करते 
शिक्षित, सबल, धनी, विवेकशील-सुयश कामना करते। 

सबका प्रयास आदर्श समाज, यद्यपि वयस्क स्व-कर्म हीन 
पर संतति हेतु उत्तम ही विचार, करेगा कुछ अच्छा महीन। 
पर यह तो चाह ही है, बाह्य वातावरण भी अति-विस्तृत 
घर-बाहर के अनुभव, नव शिशु पर गहरी छाप छोड़त। 

कैसे हो विकास, जब बाहर हैं अभिभावक व वातावरण 
वयस्कों की शिशु मंगल-कामना, पर न सुधार स्व-आचरण।   
व्यवहार शनै-2 शिशु प्रवेश होता, गहन प्रभाव जमाता 
उसकी प्रकृति बनती पूर्वों जैसी, जिनसे अधिक नहीं आशा।

फिर क्यों शिशु दोषी, जब नहीं वयस्क-जग नियमन सुधार 
बड़ा हो बने पातकी, व्याभिचारी, अमर्यादित हो करे बलात्कार। 
क्या नहीं सबका कर्त्तव्य, बनाना वातावरण को सुगुणालय 
फिर उनसे भी उत्तम निकलेंगे, अंकुश अवाँछितों पर। 

जैसे हम शिशु बनाते, क्यूँ न उचित आदर्श-परिवेश हो 
जिसमें वयस्क प्रतिबद्ध हो, निर्मल सोच-वृद्धि हो। 
क्यों अवसर मिले, उस बालक को बनने को अपराधी ?
बहुत कुछ वयस्क समाज देन है, वह बस है सहभागी। 

मैं कुछ अन्वेषण चाहता, क्यों अपराध-प्रवृत्ति चारों ओर 
क्यूँ कुचेष्टा मनन करता, एक बालक बनते-2 किशोर ? 
दिन-प्रतिदिन देखते-सुनते, बलात्कार - हत्या मामले 
बहुदा घृणा होती मानव की अधम-गति और सोच से। 

क्या है क्षीण पर पूर्ण अधिकार जमाने की प्रवृति 
जबकि पता है, वे भी हाड़-माँस के हैं पुर्जे, कृति। 
क्यों समझते जो हम चाहे वही हो, और सब मानी  
अपने से बलवान समक्ष तो सबकी मर जाती नानी।   

असभ्य-पाश्विक व्यवहार, क्या यही मानव है अनुपम-कृति ?
कहाँ गई सोच उनकी, स्वयं को उच्च समझना प्रवृत्ति। 
कैसा यह बड़प्पन - कुत्सित सोच, अन्य तुमसे हैं निम्न 
पूर्ण-अधिकार उनकी बुद्धि-तन, धन-सोच, साधन-श्रम पर। 

बड़ा वो जो बड़े कर्म करे, जन्म से कोई न होता महद 
महाभारत के यक्ष-प्रश्न हल विस्मृत, जग-निर्वाह में असल।   
भ्रांत, अंध, मूर्ख-दृष्टि, अज्ञान-वाहक स्व को कहते सबल 
नहीं ज्ञान विज्ञान-दर्शन का, न ही विवेक-सुव्यवहार। 

क्यों नहीं समाज धिक्कारता, क्यूँ समूह पक्ष में आते 
क्यूँकि अपना, सब अनुचित भूल, लठ ले खड़े हो जाते। 
कितनी पीड़ा होती मन में, सोचा है पीड़ित-समूह में भी 
क्या वे भी खड़े हो स्वाभिमान से, एक दिन मरने-मारने सीधी ? 

बहुत सहन करते हैं वे, परन्तु मूर्ख है नहीं 
बेहतर नागरिक भाँति रहना चाहते, अत्याचार न नियति। 
अन्यों की सोच-उन्नत आवश्यक है हेतु देश-विकास 
वरन असभ्य-जाहिल, अंध-वादी, अधोगत्वा, संस्कृति-नाश।  

पवन कुमार,
23 मई, 2015 समय 15:00 अपराह्न 
( मेरी डायरी 13 जून, 2014 समय 9:59 प्रातः से ) 

Sunday 17 May 2015

उद्गम-उद्भव

उद्गम-उद्भव
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भाव - समग्र, उच्च विचार, प्रखर मानुस आत्मबोध 
समृद्ध स्व-जिजीवाषा, पारितोषिक में प्रमोद। 

कानन पिक की मधुर कुहुँ-2 से, सबका मन होता पुलकित 
मयूर-नृत्य प्रिया आकर्षण को, उल्लास जगाए बन प्रमुदित। 
देखकर शुक का अप्रतिम हरा सौंदर्य व चित्तचोर टे-टे 
प्रकृतिमय उर-मन हो जाता, माता देख वत्स की मैं-मैं। 

पृथ्वी आगोशित विस्तृत आकाश से, जैसे कक्ष में एक गुब्बारा 
अनुपम नीलिमा महा-छतरी की, मानो रक्षा-कवच प्यारा। 
भास्कर, चन्द्र, ग्रह, उपग्रह, राशियाँ अनन्त तक छितरित 
हम बैठे दूरस्थ, मतिमन्द, प्राकृतिक आश्चर्यों से चकित।  

नित्य नूतन प्रकृति-उद्भव, सजीव बनाना उत्कण्ठा 
मन उबासी न रहे, महद से सम्पर्क, प्राप्त ज्ञान हो पराकाष्ठा। 
हर नव दिन पूर्व से किञ्चित भिन्न, चन्द्र अपनी कला सजाता 
नित पल अपने ढंग का होता, मन भी क्षण-2 भाव रचाता। 

मौसम बदलते ही रहते, बाहर निकलते जलवायु परिवर्तन 
अवस्था-प्रतिस्थापन विभिन्न रूपों में, नव-पल्लव पुरातन का दर्पण। 
जीव-2 में स्थूल-सूक्ष्म विविधता, एक-2 पादप के पृथक किसलय 
पादप-जीव विज्ञान अति सम्पन्न, खींचे अनायास करे मधुमय। 

प्रकृति प्रदत्त विविधता रहस्य, मनीषियों का चिंतन विषय 
जितना मनन उतनी गहराई, वैज्ञानिक खोजते ब्रह्माण्ड-रहस्य। 
कितने विश्व और हो सकते, ज्ञात भी कैसे हुऐं गठित 
महा-धमाके से वर्तमान की यात्रा, यूँ इतनी न परिचित। 

स्तर-उच्च दृष्टि दूरस्थ, मस्तिष्क कक्ष प्रयोग बहुलता से 
सरस रचना अति-मनभावन, जब सम्पर्क जग-विपुलता से। 
शैल-शृंग पर गमन प्रवृत्ति, सदा जीवधारियों में रही 
ऊँची देहली, उच्च अट्टालिकाऐं, गगन चूमना अभिलाषा रही।

उच्च मनोदशा उन्नयन प्रतीक, ज्ञान-रन्ध्र खुले हुआ सम्पर्क
स्व-लघुता महद में परिवर्तित, कायान्तरण है न कोई दर्प।
ब्रह्म को जो मनन कर सकता, परिधि नहीं बंधन करने की
कृत्रिम उद्भव अल्प-स्थायी, ज्ञान चेष्टा ही मुक्त करेगी।

सस्नेही, समभाव, एकीकार, विशालोर विश्व-रूप बनने में सक्षम
अपूर्वाग्रही, सर्व-कल्याण विचारक, अविराम, चिन्तक श्रेणी प्रथम।
प्रतिमान वह समग्रता का, सब जग उसमें सकता समा
जीवोत्तर मृदुल भाव, समरेखी, कुंकुम सी शीतलता बरसा।

प्रश्न महद स्व-निखरण का, अद्वितीय भाव विमल मन-तन
स्तुति अभिलाषा न अधिक रूचि, बस परिष्कार हेतु ही यत्न।
अपने स्तर का ऊर्ध्व उत्थान, महद प्रयत्न, शक्ति-पुञ्ज
क्षीणक-बाधक-निन्दक को छोड़े, शांति-गृह बने हृदय-कुञ्ज।

चरम-अवस्था समाधि जीवित, उच्च प्रवृत्ति जीवन लक्ष्य
बिंदु चक्षु मनोहर, दयालु, तुच्छ त्याग पुण्य-भक्ष्य।
   मानव जीवन पावनता उद्घोषक, संसृति सबकी हो साँझी
त्रिवेणी -संगम पर मिले जन-समूह, कृषक, ज्ञानी और माँझी।

तारण-हार, उत्प्रेरक, मृदु-भाव जागरक, विकासोन्मुखी वह निर्मोही
वह विकसित सब विधा अनुपम, विजित प्रयत्न से अद्रोही।
संचित सब ऊर्जा का करता पर बाँट समर्थ सब शरणार्थी को
सब कुछ समर्पित समग्रता हेतु, तन-मन-धन कृतार्थी को।

विकसित मन उच्च दशा प्रवेश, समुचित व्यवहार सबके समक्ष 
सब करें स्वीकृत प्रतिभा-प्रतिबद्धता, न हो अनावश्यक तरकस।
सत्य इतना भी नहीं सहज, समस्त अवरोध होना पार
दुत्कार समय की रग-2 भाँजती, परीक्षा करती उपकार।

महत्वाकांक्षा उच्च-परिणाम को, स्नेहिल हृदय विश्व-कल्याण
जो कुछ लिया पुनः यहीं समर्पित, भाव पवित्र परम ध्यान।
दिग्विजय समस्त चेष्टाओं पर, जितेन्द्रिय भाव मन-देह उद्भव
तज निद्रा-तन्द्रा ओ बुद्ध, जा पार विषाद, विप्लव प्रलाक्ष पा ले उद्गम।


पवन कुमार,
17 मई, 2015 समय 17:23 अपराह्न
(मेरी डायरी 15 मई, 2015 समय 8:25 प्रातः से )   

Sunday 10 May 2015

तमन्ना

तमन्ना 
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मेरे मन की गुंजन, कुछ जीवन स्पंदित कर दे 
वसंत सुरभि आकर मन-मस्तिष्क पुलकित कर दे। 

बैठा हूँ असमंजसता में आकर कोई पुनः जगा दे 
जाग जाऊँ, आऊँ होश में, ऐसी कोई ललक जगा दे।  
कुण्डिलिनी सोई पड़ी है, उसकी शक्ति कोई दिखा दे 
स्व-पहचान पा जाऊँ, आकर कोई दर्पण दिखा दे। 

महबूब-मिलन की तमन्ना, कभी आकर पूरी कर दे 
मिलन के आनंद-अहसास का परिचय करा दे। 

उचित प्रयास एवं बुद्धि का संयोग करा दे 
निरंतर चलायमान रहूँ, तन्द्रा को दूर भगा दे। 
जीवन जीने का पथ उचित कोई समझा दे 
मन में रहे सदा विवेक, उत्साह को संगी बना दे। 

मैं तेरा और तू मेरा, आओ सब भेद मिटा दे 
समस्त दूरी पटे, सब जग को एक घर बना दे। 
मम आकांक्षाओं को पर लगा, सब भीत को दूर भगा दे 
दुर्बलताओं का कर बलिदान, क्षमता-आकार बढ़ा दे। 

यूँ न लेटा रहूँ शव सम, जीवन-सार तू समझा 
किंकर्तव्यमूढ़ता से हटा, सब कर्तव्य याद दिला। 
जीवन सार्थक तभी बनेगा, प्रश्नचिन्ह चित्त से हटे
कुछ बाकी रहे तो उत्तरों को समक्ष ला दे। 

करूँ जीवन-विस्तार, विभिन्न कलाओं का हो सार 
अच्छा साधक बन जाऊँ, पूर्ण करूँ कुछ तो पसार। 

पवन कुमार,
10 मई, 2015 समय 16:16 अपराह्न 
(मेरी डायरी 10 मार्च, 2013 सायं 6 बजे से )  

Sunday 3 May 2015

विशाल-गोचर

विशाल-गोचर 
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आरम्भ उस विशालता के संग, जो सब ओर है व्यापत  
चक्षु खुले, देखने की इच्छा, फिर क्यों हैं कंगाल ? 

मन जुझारू, कलम हस्त में, ज्ञानेन्द्रियाँ साथ दे ही रही 
इतना कुछ यहाँ पर छितरित, बस एक नज़र है उठानी। 
इतने आश्चर्य उपलब्ध यहाँ, छिपी हुई अति-गहनता  
कितनी तरह के प्रकृति कृत्य, जिनको मुश्किल है समझना।

 फिर भी कलम मद्धम चलती, कारण नज़र नहीं आता
या तो तैयारी नहीं है या फिर मन की विरामता।
तन्द्रा का समय नहीं यह, फिर दूर-दृष्टि क्यों नहीं जाती
जिज्ञासा का सम्बल लेकर क्यों नहीं कुछ अनुपम कर जाती।

विस्तृत करो सोच का जरिया, कर लो कुछ मूल ग्रहण
बुनो अपने लेखन का रेशम, धागों से मन के महीन।
पर बनो सार्थक तुम, दिशा उचित और उसमें चलते जाओ
सीखो देखना, करो महसूस और कुछ शब्दों में परिवर्तित करो।

समय बहुत मूल्यवान यहाँ तुम उचित में बढ़ा लो कदम
नहीं समय पुनरावृति का, तैयारी में लिए हो बहुत समय।
निकलो इस अपक्वता से, कुछ पंक्तियाँ सार्थक बना
यह तो है शुभारम्भ चरण, असली लेखन आगे करना।

आरम्भ किया विस्तृतता से, जो हर ओर विद्यमान
कुछ विशाल शब्दों का उपयोग वाँछित हेतु क्षणों का सम्मान।
धरा हमारी पवित्र माँ है और उसकी हम सन्तान
विशाल पटल है इसका, जिस पर होते कृत्य महान।

बहुत उपकरण हमने प्रयोगे, आकाश का तो पता नहीं छोर
चलते जाओ, देखे जाओ, अनन्तता भरी है चहुँ ओर।
केवल कुछ धारणाऐं हैं बनाई, कुछ सत्य तो निश्चय
लेकिन अति-रहस्यमकता, क्षुद्र मस्तिष्क ज्ञात करने में अक्षम।

 सूर्य है विशाल यहाँ, जिसकी ऊर्जा से हमारा प्रादुर्भाव
वरन हम यहाँ नहीं होते, न यह लेखनी, सच में ही वह पिता विशाल।
उसकी गति और ऊष्मा से ही, समस्त जीवन धरा पर संभव
कितने मौसम, दिन-रात, गर्मी-सर्दी, वसंत, वर्षा सब इस पर निर्भर।

चन्द्र है हमारा मामा, चले है यूँ पृथ्वी के निकट
नित सुख-दुःख में है भागी, दोनों की तो जुड़ी किस्मत।
एक समय पर जन्म हुआ, प्रेम बहुत करता भगिनी से
रात्रि में शीतलता, चाँदनी देता, सौंदर्य अनुपम अपने से।

सागर है बहुत विस्तृत जिससे हम प्यास बुझाते
जिसके जल-वाष्प विचरण करके, पृथ्वी के हर भाग में जाते।
एक-2 पादप, प्राणी के लिए भोजन-पानी का प्रबंध करता
कभी ना आता अभिमान में, निम्न रहकर भी कल्याण करता।

पवन चले, श्वास मिला, सब जीवों में जीवन हुआ स्पन्दन
सड़ जाते वरन एक स्थल पर, इसकी कृपा से हैं स्वच्छ।
निरन्तर बदलता वायु-मिश्रणों को, और है विकास प्रणेता
वन-उपवनों की स्वस्थ हवा, सघन आबादी की जीवन-रेखा।

 जल से है हमारा जीवन, इससे उपजे, हाँ स्थलचारी कुछ बिसरें
इस बिन हम संभव नहीं, तृषा स्वच्छ अम्बु से ही बुझे।
माना कितने जीवन इसका, सब प्रकार से प्रयोग करना सीखे
और जीवन के हर आयाम में यह तो सर्वोपरि है।

अग्नि कहूँ या ऊष्मा-जनक, इसके बिना हम निष्क्रिय हैं
समस्त आन्तरिक क्रियाऐं तो ऊर्जा-संचालित है।
जो भी हम ग्रहण हैं करते, उसका विघटन आवश्यक है
हर जीवन में यह है समाहित और प्रकाश का द्योतक है।

भोजन जीवन की प्रथम आवश्यकता, इससे ही हम ऊर्जावान
बनाता सबल यह हमें सदा, विभिन्न रूप लेता परवान।
पोषण करता समस्त प्राणी-जन का, नहीं हो सकते उऋण
हालाँकि प्रकृति इसे भी बनाती, हमारे लिए है अमृत।

पर्वत हमारे उच्च खड़े हैं, लेकर अनंत जीवन-विस्तार
वृक्ष वहाँ, जीव-जन्तु कन्दराओं में पाते हैं विश्राम।
बनकर प्रहरी रक्षा करते, वर्षा को आगे जाने ना देते
अपने ऊपर हिम वस्त्र पहनकर, नदियों को जीवन देते।

नदियाँ हमारी माताऐं, स्वच्छ जल से पोषण करती
सबमें हैं जीवन भरती, जल-शीतल से प्यास बुझाती।
 कृषक जन लगते जोतने भूमि, इनका जल जब है उपलब्ध
कितनी पवित्रता इनमें भरी, मानव पुजारी है सतत।

तारा-गण चहुँ और हैं फैले, घन-विशालता आभास कराते
हम खुली रातों में तारे गिनते, पर फिर भी छोर नहीं पाते।
चूँकि दृष्टि धूमिल हमारी, किञ्चित को ही देख पाते
ध्रुव व अन्यों के संग, हम दिशाओं का पता लगाते।

वृक्ष मित्र ही हैं, जो हमारे लिए भोजन बनाते
वे हैं साक्षात शिव धरा पर, अमृत  दे गरल पी जाते।
वे स्वच्छ वायु देते और जीवन सम्भव बनाते
हम सदा ऋणी उनके, अधिक रोपने की आवश्यकता पाते।

प्राणी जगत बहुत ही व्यापक, उसकी संख्या बहुत अधिक
वह बहुत रूपों में विकसित, एक-दूजे से गहन जड़ित।
मैं इसको पाता हर जगह, कितना परस्पर से विकास
निरंतर करते विकसित स्वयं को, प्रकृति में सहज आभास।

दूरी बड़ा विशाल शब्द है,  प्रथमतः पृथकता दर्शाता
  प्रकृति में बहुत दूरियाँ, अति-कठिन है निपटाना।
खोजे हैं हमने कुछ उपकरण जितनी जल्द हो सकें, माप लें
इसकी इकाई प्रकाश वर्ष तक, पर मानव गति बहुत मद्धम है।

प्रकृति है हम सब की माता, समस्त चराचर क्षेत्र उसका
सब हैं उसके अवयव, जिनको उसने है संवारा।
बहुत महीन उसकी कार्य-शैली, वह महानतम शिक्षक
यदि नेत्र खुले हों तो उसके रहस्य चहुँ ओर प्रखर।

दिवस-रैन हमारे संग बँधे, जीवन को देते बहु-रंग
दिवस में हम क्रियाशील रहते, रात्रि आगोश में विश्राम तरंग।
दिवस ऊर्जा का द्योतक, भास्कर तात से उसकी  शक्ति
प्रकाशहीन निशा चन्द्र-तारों संग, अनुपम शांति, विचार देती।

धूप-छाया का खेल है अद्भुत जो प्रकाश-पुँज संग चलता
छितरते विभिन्न आयाम, अपने समय पर रमणीय लगता।
वे होते दुःख-सुख के प्रयाय, जीवन के हर क्षण में मिलते
वे प्रकृति के रंग हैं, विभिन्न मात्राओं में अलग विचरते।

जीवन-मरण प्रकृति का खेल, पुरातन नवीन किया जाता
छोड़कर झंझट जग के, एकरूपता में मिला जाता।
बनाना-मिटाना प्राकृतिक-क्रिया, जो बहुत ही सुघड़ है
 हम लघु विस्मित हैं होते, उसके लिए स्वाभाविक है।

सुख-दुःख मन के भाव जो विकसित प्राणियों की प्रवृत्ति है
कुछ मिल गया तो प्रसन्न, वरन तो निष्भाव या खिन्न हैं।
सब कुछ घटित होता रहता, बहुत नियमों की परवाह नहीं
एक स्थिति जो बहुत क्षणिक है, बदलाव जल्द संभव ही।

  आरोह-अवरोह जीवन द्योतक, हम विकसित, अपघटित होते
कभी कुछ उन्नति करते, फिर पीछे हो जाते।
प्रयास करने से ताकत मिलती, अच्छा मार्ग है समक्ष
विभिन्न कारण प्रभावित करते, परिणाम उनके अनुरूप।

सुघड़ता-फूहड़ता यूँ कहें जीवन-शैली, हम स्वयं ही रचनाकार
अगर कहें चेतन अवस्था में, सोचकर कर्मों को भली प्रकार।
फिर प्रमाद को त्याजना ही, हमें विकासोन्मुखी बनाता
फिर प्रश्न है हममें से बहुत, इस सामान्य को समझ न पाता।

बहुत हैं रहस्य, अध्याय यहाँ, अति-सूक्ष्मता है व्यापत
विचार करते जाऐं, आते जाऐंगे, मस्तिष्क तो बहुत वृहद।
सीमित नहीं है हमारा जीवन, आओ इसका सम्मान करें
यह साथी है कल्याणक, अतः उचित निर्वाह करें।

पवन कुमार,
3 मई, 2015 समय 15:10 अपराह्न
( मेरी डायरी 3 जून, 2014 समय 9:50 प्रातः से )