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Wednesday 30 March 2016

न मात्र वाग्वीर

न मात्र वाग्वीर 
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मात्र वाग्वीर ही नहीं लक्ष्य, वचन परिवर्तन कर्म-सुफल में 
देव-स्तुति उस जैसा निरूपण, सामंजस्य मनसा-वचसा-कर्म में। 

कातरता त्याग -आरूढ़ हो शुभ कर्म, तन-मन-बुद्धि  निर्मल 
 मातृ मेदिनी सम विशालोर, सब कुछ धारण, सहन निर्द्वन्द्व। 
कितनी सहज वृत्ति समाई, समस्त-वैभव प्रत्येक को उपलब्ध 
  माना जीव पर निर्भर ग्राह्यता, श्रेष्ठ की तरफ से सब पुत्र सम। 

नेत्र खुलना कब हो सम्भव, वाग्देवी कृपा से हृदय विव्हलित 
करुणा-सागर उमड़ पड़े मन में, मानवता में पूर्ण-समर्पित। 
हृदय-विशालता इतनी हो सम्भव, सब कुछ हो उसमें अनुभूत 
प्रखरता कर्त्तव्य-परायणता में, सदा-सहयोग कल्याण अनुरुप। 

क्या है वह दैवी का अवलोकन, निज-तुच्छता का मन से त्याग 
 स्व वक्ष-स्थल प्रदीप्त सुवृत्तियों से, प्रशांत हो साक्षात्कार निर्वाण। 
क्या बृहत्तर लक्ष्य जीवन की कसौटी, प्रयोग सुलभ मन से प्रयास 
निज-उच्चता प्रभागी, मुनि-ऋषि-अन्वेषक-नायक सम कयास। 

न मात्र चिंतन-मनन यंत्र-तंत्र, कर्म दर्शित हो भाव-भंगिमा में 
 विधाता-ऋण जीव पर सदैव, सदुपयोग वाँछित हर विधा में। 
विस्तृत दूर-दृष्टि पर गाम्भीर्य वर्तमान में, पूर्वगतों की शिक्षा संग 
दूरी मिटे काल-स्थान बंधन की, परम-शिव सम रहें दिगन्त। 

न स्तुति-यशोगान ही लक्ष्य, गुण-धारक क्षमता व्यक्तित्व सार 
कितना निरूपण सक्षम, अनेक नर सफल मन-बुद्धि विस्तार। 
किंचित पूर्ण विराम दुष्प्रवृत्तियों पर, जड़-शृंखला बंधन से मुक्ति 
स्व-समर्पण पूर्णता - कर्मठता में, निमज्ज हो समेकित भुक्ति। 

मम क्षीणता प्रथम चरण ही बाधा, मन ही नहीं सुपोषित वचन 
कर्म तो अग्रिम अवस्था, कैसे प्रारम्भ हो - दीक्षा न उपलब्ध। 
कुसंस्कार-बंधन तो तजित नहीं है, अमल नहीं यह देह-प्राण
इंद्रिय-शासन क्षीण अवस्था में, सामान्य बुद्धि सम ही बाण। 

क्या मनन वाग्वीर शब्द पर, बाणभट्ट द्वारा लिखित आत्म-कथा में 
त्रिपुर-भैरवी अन्यों में दर्शनाकांक्षी, पर तत्सम बिन न उपाय पदा में। 
तुम महाशक्ति-प्रतीक, कृतार्थ हूँगा तव दर्शन से - त्रिपुर सुंदरी रूप 
करुण-धारा, अनुराग-आभा, चमक स्नेह-स्निग्धता भुवन मोहन रूप। 

तुमसे न त्रिपुर-भैरवी लीला रुद्ध, न थमा सकते महाकाल कुंठनृत्त 
न बाधा शूलपाणि मुण्डमाल रचना में, न कृत देवी सम आत्मसात। 
तुम्हारा सत्व-सत्य जितना दे सको, समझो प्रजाजन कष्ट अपने ही 
बनो सत्यवादी, छोड़ो प्रपंच, कर्म-सुफल जब निःशेष भाव से चरण-स्पर्श ही। 

मोहिनी रूप कुरंग भीत-चपल नेत्र, शरच्चन्द्र सम मुख आह्लादित  
बिंब सम आताभ्र अधरोष्ठ, चन्द्र-गंध से अंग आमोद-मुदिर। 
करुणा-अश्रु-सिक्त मनोहर दृष्टि, मोहित कर डालती अंतः करण 
अंतः शामक दृष्टि, अमृत-स्रावी वाग्धारा, उदार-चरित्र, अनन्य आभा निर्मल।  

विधाता सौंदर्य-भंडार है विपुल, शेष है कुसुम-सायक रचना भी पश्चात  
अपूर्व, विराट, सौंदर्य-समृद्धता श्रेष्ठ की, समर्थ कर्तुम अकिंचन-उद्धार। 
कालिदास ने प्रेम देवता को वैराग्य की नयनाग्नि से नहीं कराया भस्म 
बल्कि पार्वती-तपस्या से सौंदर्य-हाथों प्रतिष्ठित करा, शिव हुए आविर्भूत। 

जो भस्मित हुआ वह आहार-निद्रा सम, जड़ शरीर  विकार्य-धर्म मात्र ही 
दुर्वार था पर नहीं देवता, छुपा स्व-तप में, न सुफल मात्र कामबाण से ही। 
योगी सम्भला, नहीं जान पड़ा उचित अपदेवता का अनाधिकार हस्तक्षेप 
यावत आकाश से मरुद क्रोधशमन पुकारते, मदन कपोत-कर्बुर परिणत। 

किशोरी पार्वती कोमल हृदय झुंझला गया, स्व-सौंदर्य के बाँझपन से
      दूर करने की कोशिश इस रूप-वन्ध्यता को, कठिन तपस्या ही से।      
प्रथम दर्शन-प्रेम बाह्य-रूपाकर्षण, पर क्षण भर में वज्रपात - सर्व असफल 
कालिदास प्रसन्न कुमार-सम्भव में त्याग-तपस्या आयोजन से, मोह-ममता त्यक्त।  

नहीं मनुष्य व उसकी दुनिया सर्वस्व, और भी हैं दृश्यमान सौंदर्य के उस पार 
भासमान जगत अंतराल में कोई और शाश्वत सत्ता, संकल्प मंगल ओर जाने का। 

पवन कुमार,
३० मार्च, २०१६ समय २२:१७ रात्रि 
( मेरी जोधपुर डायरी दि० २८ जनवरी, २०१६ समय ९:१२ प्रातः से)

Friday 25 March 2016

एक गीत

एक गीत 
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तेरा गाना बनाऊँ, सुर में गाऊँ, गाने के संग साज बजाऊँ 
मन में सुरीली तान बनाकर तेरी रहमत का गीत सुनाऊँ। 

तू तो सबको ही देखे हैं, सबके मन में तो झाँके हैं 
तू मेरी पहचान तो दे, आकर मेरा आईना दिखा दे। 
तू कैसे हो पास में मेरे, इसी बात की चिंता है 
संग सदा मैं रहना चाहूँ, अन्तर को बाहर निकालूँ। 

बन्द पड़ा है मेरा डब्बा, चाबी इसकी पास है तेरे 
खोल दे तो दर्शन हो, फिर जानूँ कितना उजला हूँ। 
नहीं आवश्यक कि मैं अच्छा-भला ही होऊँगा 
पर तेरे संग जो रहा हूँ, कुछ तो छाप पा ही जाऊँ। 

अपने अन्तर के रत्नाकर में, डुबकी कैसे लगाऊँ 
डर कर बैठा बाहर मैं, नहीं साहस फिर कर पाऊँ। 
 होगी आत्मा मेरी पुलकित जब तेरे दर्शन होंगे प्रभु 
बैठा बाहर अन्त्यज भाँति, कैसे मैं प्रवेश पाऊँ? 

कैसे होगा तेरा दर्शन, इसी सोच में यूँ बैठा 
मैं रीता हूँ, आकर मुझको भर जाओ। 
कृपा देकर अपनी इसको भी श्रेष्ठ बना दो  
तैरुँ जग-वैतरणी से, तेरे में ही मिल मिल जाऊँ।

नहीं ज्ञान-डोलूँ यूँ ही, नहीं समय का ही मान    
तेरी शरण में हूँ प्रभु, कर लेना मेरा भी ध्यान। 

पवन कुमार,
25 मार्च, 2016 समय 18:47 सांय 
( मेरी डायरी 5 नवंबर, 2012 समय 11:10 से )

Saturday 12 March 2016

सोच - अग्रसर

सोच - अग्रसर 
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प्रातः चार बजे का समय है, आज जल्दी जाग गया हूँ। थोड़ी देर उनींदा रहने के पश्चात उठकर कुछ करने का निश्चय किया है क्योंकि मात्र लेटे रहने से कुछ विशेष प्रगति नहीं होने वाली है। जिंदगी नाम है ठोसता का, संजीदगी का, नियम का, वस्तुओं को अपने पूर्ण-प्रभाव में लाने का, और कार्यान्वयन में पारंगतता लाने का। नाम एवं ख्याति अगर मानव अपने चलते कमाता है तो किञ्चित यह उसके समय एवं ऊर्जा के उचित कार्यान्वयन को साधुवाद होगा। केवल बोलने मात्र को इति-श्री समझ लेना और यह कि सब कुछ उचित चल रहा है, स्वयं को बाह्य रूप से प्रसन्न कर लेना, छलावा देना मात्र है, जबकि सत्यता कुछ और ही होती है। जीवन में यदि आगे बढ़ना है तो अपनी सोच का दायरा बढ़ाना होगा। अगर सोचें कि हमें चाँद-सितारों को छूना है तो विश्व की समस्त शक्तियाँ आगे बढ़ाने में मदद करेंगी। निश्चय ही आरम्भ-कर्ता का भाग्य (beginner's luck) सबके संग है अर्थात जो कोशिश करता है उसकी प्रकृति, विश्व, भगवान सब मदद करते हैं। हमारे समस्त बंद द्वार खुलने लगते हैं जब संजीदा होकर आगे बढ़ने में स्वयं को लगाऐंगे। निश्चित ही कोई भी वस्तु इतनी आसानी से सुलभ नहीं हो जाती - उसके हेतु प्रयत्न तो करना ही पड़ता है। अपने को वचन दो कि हिम्मत कर जिंदगी को अग्रसर करेंगे और वास्तव में इसे मूर्तरूप करोगे। हमारे कार्य व जीवन का मूल्यांकन अभी भी कुछ लोग कर रहे होंगे और आगे भी करते रहेंगे। हम उस तुला में कैसे खरे उतरेंगे, यह तो आने वाला समय ही बताऐगा लेकिन अभी अपेक्षित है कि बिना बाधित हुए अपनी दिशा चलते जाइऐ और कभी भी स्वयं को दीन-हीन श्रेणी में पतित न होने दो। शुभ वचन-कर्मों का संग करिए, फिर एक नया सवेरा समीप होगा जिसमें सबको सम्मान के साथ जीने का अवसर प्राप्त होगा। अपना ही नहीं, अपने आसपास कार्य करने वालों का भी कल्याण करें। कोशिश करें कि अदने से अदने कर्मी को भी उचित पारिश्रमिक मिलें, उसको भी आपके संग कार्य करना अच्छा लगे और वह उचित निर्वाह कर पाऐ। अपने साथ ही अच्छाई की अपेक्षा न करें अपितु स्वयं आगे बढ़कर अन्यों संग सद्-व्यवहार एवं सम्मान से बात करें। कोशिश मनुष्य को बहुत आगे ले जाती है अतः सुनिश्चित करें कि कभी भी प्रयास कम न हो। अपनी वाणी पर संयम रखें और उसे सुमधुर बनाऐं क्योंकि यही हमें मित्र या शत्रु में परिवर्तित करती है। लेकिन आपके प्रेम से बोलने का अर्थ अन्य ऐसे ही हलके में न लें। आपकी गंभीरता, शीघ्र एवं उचित कार्य कराने की मंशा को समझने में लापरवाही न लें अतः सचेत रहें। अर्थ है कि सबसे अच्छा व्यवहार करे और उनसे भी ऐसी ही आशा करें। अपने को समय-2 पर जाँचे-परखे और सच्चाई पर कहाँ खड़े हो, इसका मूल्यांकन करें। आपकी गुणवत्ता सदा वर्धित हो, ऐसी आशा है। 

धन्यवाद। 

पवन कुमार, 
12 मार्च, 2016 समय 14:37 अपराह्न 
(मेरी डायरी 12 मई, 2006 समय 4:05 ब्रह्म-मुहूर्त)        

Sunday 6 March 2016

मानव-भूगोल

मानव-भूगोल 
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क्या है मानव का भूगोल, विभिन्न किस्में दिखती एक साथ

कैसे आवागमन भूमण्डल पर, आज विश्व बना एक गाँव?

 

भिन्न क्षेत्रों में देखें तो बहुत विषमताऐं प्राणी-जन में मिलती

अपनी तरह विकसित, शारीरिक रचना विशेष प्रकार लेती।

छोटी भिन्नताऐं एकदम दृष्टिगोचर, अपने से किञ्चित दूरी ही

लोग शक्ल देख बता देते कहाँ से, सबकी निज शैली होती॥

 

पूर्व काल व आज भी, अधिकांश विशेष रहते हैं एक स्थल

अनेक बार परिवेश सीमित है, बाह्यों से दूरी रहती निश्चित।

लोगों ने समूह बना लिए, अपनों से अधिक अंतरंग-सम्पर्क

माना सबकी शरीर-मन प्रक्रिया सम, तथापि दूरी है महद॥

 

प्राणियों से क्षेत्र निर्माण है, सरलता से बाह्य को न अनुमति

ये अपने या पराए, अन्यों से तो बस कटुता-स्पर्धा ही रहती।

निज-संस्कृति ही समृद्धतम, दूजे समूह तो असभ्य-कुत्सित

पर सर्वश्रेष्ठ-सुवर्णपन की भावना से, भेद-वृद्धि ही अधिक॥

 

यहाँ अपने क्षेत्र-मार्ग, देश-लोग हैं, उन्हीं में जीना व मरण

उन्हीं से निरंतर संपर्क, एक साँझी सोच हुई है विकसित।

खानपान-वेशभूषा, घर-आँगन, औजार व खलिहान-बाड़े

अपने जंगल-मवेशी, खेत, प्रकृति-गाँव, बस इसी में घुसे॥

 

माना आपसी-कलह भी, लोकाचार में सब अच्छाई- बुराई

दंड-शास्त्र, व्याभिचार- स्वच्छता, क्रोध-प्रेम, चोरी-सच्चाई।

माना एक जगह रहते भी, मानवों में विशेष प्रकृति पनपती

तदानुसार व्यवहार करने लगते, चाहे वह असामाजिक भी॥

 

जग में सब जन हैं, कुछ क्रूर-लुब्ध, उदार, विनम्र-विद्याग्राही

सन्तुष्ट, बहुदा मुखरित, कुछ मिथ्या-भाषी व सदा आडंबरी।

मनस्वी, परंतप, क्रोधी, कार्य-दक्ष, स्वत्व रक्षण की जिम्मेवारी

प्रमादी-व्यसनी, पेटू तो अल्पहारी भी, व्रती-तपी, सदाचारी॥

 

फिर भिन्न स्वरूप लिए हुए भी हैं, वे एक कुटुंबी से ही होते

एक-दूजे को सहन करते, यदा-कदा फटकार भी लगाते।

सब जानते हुए भी नज़र-अंदाज, समूह को एकजुट रखते

माना अपना ही सब कुछ यहीं, उसी हेतु वे समर्पित रहते॥

 

नदी के पार, संकरी घाटी, पर्वत बसेरा, जंगल में घर-गाँव

समुद्र में टापू, दूरी अधिक, यातायात सीमित, डेरा- मैदान।

बहुत प्राकृतिक कारक वास्तव में, अन्यों से है अलग बर्ताव

प्राणी-समूहों ने दुनिया बना ली, वहीं सब चल जाता काम॥

 

फिर कुछ तो कारण स्वतः, जनों की भी सीमित आकांक्षाऐं

अपने नियम बनाऐ हैं, किससे-कैसा व्यवहार और अपेक्षाऐं।

विवाहों के एक जैसे नियम-विधान हैं, कहाँ कन्या देनी-लेनी

किनसे अंतरंगता सहमति बनानी है, किनसे दूरी ही रखनी॥

 

पर मानव-चेष्टा है बुद्धि प्रयोग की, जगसंख्या हो रही वर्धित

घर-गाँव-खेत क्षेत्र अल्प पड़ता है, सभी को करने समाहित।

बहुदा दुर्भिक्ष-बीमारी, बाढ़-भूकम्प सी आपदाओं से हैं कहर

 करती मनुज को विक्षिप्त, कुछ वैकल्पित को करता है बाध्य॥

 

कठिन जलवायु, जीवन-निर्वाह, शत्रु-प्रकोप, व साधन-अल्प

बनैले जीवों से असुरक्षा, भोजन-कमी, जीविका-अनुपलब्ध।

जीव-समूह विशेषकर नर बाध्य, कुछ बदलाव सकारात्मक

 इच्छा तो न पर जीवन अनुपम, बचाने का करना होगा यत्न॥

 

यूँ मानव विव्हलित होते हैं, और अपना देश-घरबार छोड़ते

तब अन्य-सम्पर्क में आते, नई जलवायु से परिचित हैं होते।

तन-मन पर तो असर है ही, नए कारकों का अधिक प्रभाव

अनुकूलन स्व-समय है, प्राचीन छोड़, नव-संसर्ग अनिवार्य॥

 

विभिन्न समूहों में नर-नारी संपर्क से, गुणों का आदान-प्रदान

निश्चित सिलसिला यूँ चलता है रहता, नस्लों में होता बदलाव।

अन्यान्य गुण परस्पर मिश्रित हैं, यूँ आबादियाँ एक-सार होती

तथापि समूहों में पूर्व-गुण आधिक्य, नाक-नक्श में झलकती॥

 

काफी पुरा-समय से आबादियाँ, स्थान बदल हुई हैं विस्तरित

स्थलों में विभिन्न जन-समूह हैं, भिन्न होते भी दिखते एकत्रित।

फिर नर-महत्त्वाकांक्षा से भी देश-विदेश में भ्रमण-अभियान

कुछ वहीं ठहर-बस गए, नव-गंतव्यों संग मेलजोल परवान॥

 

जहाँ अच्छे संसाधन-उचित जलवायु, वहाँ तो बहु-विस्थापन

जनसंख्या अधिक विकसित हुई, हुनरों को बाँटती निर्बाधित।

परस्पर-विधाऐं विस्तृत होने -बाँटने से, पनपे हैं संस्कृति उच्च

नर मन-क्षेत्र विकसित होता, लघु से निकल महद-सम्मिलित॥

 

कितने समूह यूँ हिलमिल गए हैं, नव-संस्कृति का अति-प्रभाव

पुराना लगभग विस्मृत सा ही, नए देव-गिरजे, स्थापित संवाद।

समस्त ऑस्ट्रेलिया-न्यूज़ीलैंड, व मेक्सिको-उत्तरी अमेरिका में

विभिन्न यूरोपियन व अन्य समूह बसें, अब एक अलग राष्ट्र हैं॥

 

पुराने मूल देशों को याद भी न करते, मात्र नए ही जीवन-वृत्त

मूल नर-समूह इंडियंस या अन्य, न देते कहीं दिखाई हैं अब

नव-अधिकृत पूरा भूभाग, प्राकृतिक संसाधनों के स्वामी हम।

अफ्रीकी काले जन- समूह बलात लाए, हेतु खेत-घर के काम

योषिताओं से गोरों के संबंध, व शनै रूप-स्वरूप में बदलाव॥

 

यद्यपि शोषितों में सम रक्त प्रवाह, स्व-श्रेष्ठता भाव शोषक में

विरोधाभास है, मिथ्या-अभिमान, अन्य निम्न व हम ही श्रेष्ठ हैं।

पुरा-काल से भिन्न नस्ल-संपर्क, कमोबेश एक से अनुवांशिक

 हाँ कुछ प्रभागों में जहाँ संपर्क अल्प, अभी भी स्व-गुण प्रधान॥

 

देखो सकल दक्षिणी अमेरिका राष्ट्रों में पुर्तगाली-स्पैनिश भरे

मूल-आबादियों को युद्ध-विजित किया, स्वयं स्वामी बन बैठें।

उनसे ही संपर्क कर हुई मिश्रित जातियाँ उत्पन्न, मूल से विलग

अनादिकाल से स्वरूप बदलते रहें, रहेंगे, मानव के बस में न॥

 

यह मानव-स्थान बदलाव बहुत पूर्व से, महान दूरियाँ तय की

भिन्न जलवायु बदलाव धरा पर, महा हिमकाल या महा-वृष्टि।

बहु- आबादियाँ नष्ट हो गई, अन्यों ने स्थान बदल जान बचाई

नई जगह जा शनै आत्मसात हुए, जैसे मूल यहीं के निवासी॥

 

अपने भारत को ही अनेक जातियों ने, आकर बनाया स्व-गृह

अनेक गुण परस्पर आदान-प्रदान हैं, रोटी-बेटी हुआ बाँटन।

फिर भी आर्य-अनार्य का भेद, बहुत समय तक न पट पाया

लोग पूर्वाग्रहों में या स्व को पाते उपेक्षित, विकास में बाधा॥

 

स्वीकारो स्व को प्रकृति-उपहार, अन्य प्राणी-समूहों ही सम

यथा वन में बकुल-आम-नीम-नारिकेल-खजूर व अन्य वृक्ष।

सभी निज गुणों से विकसित, आदर करिए कुछ है विशेषता

भिन्नता भी न त्याज्य, पता करो क्या उचित लिया जा सकता॥

 

न चाहिए कोई मानव-विरोधाभास, चरम-प्रगति हेतु हो प्रयत्न

यह जन्म बड़े भाग्य से मिला है, थोड़ी चेष्टा कर बना लें मधुर।

अनुरोध है और करो मृदु मनन, जानने की कोशिश तह तक

भिन्न संस्कृति-कला आयाम झझकोरो, परीक्षा सा वातावरण॥


पवन कुमार,
6 मार्च, 2016, समय 10:03 प्रातः 
(मेरी डायरी 22 मार्च, २०१५ समय 10:20 प्रातः से )