न मात्र वाग्वीर
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मात्र वाग्वीर ही नहीं लक्ष्य, वचन परिवर्तन कर्म-सुफल में
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मात्र वाग्वीर ही नहीं लक्ष्य, वचन परिवर्तन कर्म-सुफल में
देव-स्तुति उस जैसा निरूपण, सामंजस्य मनसा-वचसा-कर्म में।
कातरता त्याग -आरूढ़ हो शुभ कर्म, तन-मन-बुद्धि निर्मल
मातृ मेदिनी सम विशालोर, सब कुछ धारण, सहन निर्द्वन्द्व।
कितनी सहज वृत्ति समाई, समस्त-वैभव प्रत्येक को उपलब्ध
माना जीव पर निर्भर ग्राह्यता, श्रेष्ठ की तरफ से सब पुत्र सम।
नेत्र खुलना कब हो सम्भव, वाग्देवी कृपा से हृदय विव्हलित
करुणा-सागर उमड़ पड़े मन में, मानवता में पूर्ण-समर्पित।
हृदय-विशालता इतनी हो सम्भव, सब कुछ हो उसमें अनुभूत
प्रखरता कर्त्तव्य-परायणता में, सदा-सहयोग कल्याण अनुरुप।
क्या है वह दैवी का अवलोकन, निज-तुच्छता का मन से त्याग
स्व वक्ष-स्थल प्रदीप्त सुवृत्तियों से, प्रशांत हो साक्षात्कार निर्वाण।
क्या बृहत्तर लक्ष्य जीवन की कसौटी, प्रयोग सुलभ मन से प्रयास
निज-उच्चता प्रभागी, मुनि-ऋषि-अन्वेषक-नायक सम कयास।
न मात्र चिंतन-मनन यंत्र-तंत्र, कर्म दर्शित हो भाव-भंगिमा में
विधाता-ऋण जीव पर सदैव, सदुपयोग वाँछित हर विधा में।
विस्तृत दूर-दृष्टि पर गाम्भीर्य वर्तमान में, पूर्वगतों की शिक्षा संग
दूरी मिटे काल-स्थान बंधन की, परम-शिव सम रहें दिगन्त।
न स्तुति-यशोगान ही लक्ष्य, गुण-धारक क्षमता व्यक्तित्व सार
कितना निरूपण सक्षम, अनेक नर सफल मन-बुद्धि विस्तार।
किंचित पूर्ण विराम दुष्प्रवृत्तियों पर, जड़-शृंखला बंधन से मुक्ति
स्व-समर्पण पूर्णता - कर्मठता में, निमज्ज हो समेकित भुक्ति।
मम क्षीणता प्रथम चरण ही बाधा, मन ही नहीं सुपोषित वचन
कर्म तो अग्रिम अवस्था, कैसे प्रारम्भ हो - दीक्षा न उपलब्ध।
कुसंस्कार-बंधन तो तजित नहीं है, अमल नहीं यह देह-प्राण
इंद्रिय-शासन क्षीण अवस्था में, सामान्य बुद्धि सम ही बाण।
इंद्रिय-शासन क्षीण अवस्था में, सामान्य बुद्धि सम ही बाण।
क्या मनन वाग्वीर शब्द पर, बाणभट्ट द्वारा लिखित आत्म-कथा में
त्रिपुर-भैरवी अन्यों में दर्शनाकांक्षी, पर तत्सम बिन न उपाय पदा में।
तुम महाशक्ति-प्रतीक, कृतार्थ हूँगा तव दर्शन से - त्रिपुर सुंदरी रूप
करुण-धारा, अनुराग-आभा, चमक स्नेह-स्निग्धता भुवन मोहन रूप।
तुमसे न त्रिपुर-भैरवी लीला रुद्ध, न थमा सकते महाकाल कुंठनृत्त
न बाधा शूलपाणि मुण्डमाल रचना में, न कृत देवी सम आत्मसात।
तुम्हारा सत्व-सत्य जितना दे सको, समझो प्रजाजन कष्ट अपने ही
बनो सत्यवादी, छोड़ो प्रपंच, कर्म-सुफल जब निःशेष भाव से चरण-स्पर्श ही।
मोहिनी रूप कुरंग भीत-चपल नेत्र, शरच्चन्द्र सम मुख आह्लादित
बिंब सम आताभ्र अधरोष्ठ, चन्द्र-गंध से अंग आमोद-मुदिर।
करुणा-अश्रु-सिक्त मनोहर दृष्टि, मोहित कर डालती अंतः करण
अंतः शामक दृष्टि, अमृत-स्रावी वाग्धारा, उदार-चरित्र, अनन्य आभा निर्मल।
विधाता सौंदर्य-भंडार है विपुल, शेष है कुसुम-सायक रचना भी पश्चात
अपूर्व, विराट, सौंदर्य-समृद्धता श्रेष्ठ की, समर्थ कर्तुम अकिंचन-उद्धार।
कालिदास ने प्रेम देवता को वैराग्य की नयनाग्नि से नहीं कराया भस्म
बल्कि पार्वती-तपस्या से सौंदर्य-हाथों प्रतिष्ठित करा, शिव हुए आविर्भूत।
जो भस्मित हुआ वह आहार-निद्रा सम, जड़ शरीर विकार्य-धर्म मात्र ही
दुर्वार था पर नहीं देवता, छुपा स्व-तप में, न सुफल मात्र कामबाण से ही।
योगी सम्भला, नहीं जान पड़ा उचित अपदेवता का अनाधिकार हस्तक्षेप
यावत आकाश से मरुद क्रोधशमन पुकारते, मदन कपोत-कर्बुर परिणत।
किशोरी पार्वती कोमल हृदय झुंझला गया, स्व-सौंदर्य के बाँझपन से
दूर करने की कोशिश इस रूप-वन्ध्यता को, कठिन तपस्या ही से।
दूर करने की कोशिश इस रूप-वन्ध्यता को, कठिन तपस्या ही से।
प्रथम दर्शन-प्रेम बाह्य-रूपाकर्षण, पर क्षण भर में वज्रपात - सर्व असफल
कालिदास प्रसन्न कुमार-सम्भव में त्याग-तपस्या आयोजन से, मोह-ममता त्यक्त।
नहीं मनुष्य व उसकी दुनिया सर्वस्व, और भी हैं दृश्यमान सौंदर्य के उस पार
भासमान जगत अंतराल में कोई और शाश्वत सत्ता, संकल्प मंगल ओर जाने का।
पवन कुमार,
३० मार्च, २०१६ समय २२:१७ रात्रि
३० मार्च, २०१६ समय २२:१७ रात्रि
( मेरी जोधपुर डायरी दि० २८ जनवरी, २०१६ समय ९:१२ प्रातः से)
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