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Sunday 6 March 2016

मानव-भूगोल

मानव-भूगोल 
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क्या है मानव का भूगोल, विभिन्न किस्में दिखती एक साथ

कैसे आवागमन भूमण्डल पर, आज विश्व बना एक गाँव?

 

भिन्न क्षेत्रों में देखें तो बहुत विषमताऐं प्राणी-जन में मिलती

अपनी तरह विकसित, शारीरिक रचना विशेष प्रकार लेती।

छोटी भिन्नताऐं एकदम दृष्टिगोचर, अपने से किञ्चित दूरी ही

लोग शक्ल देख बता देते कहाँ से, सबकी निज शैली होती॥

 

पूर्व काल व आज भी, अधिकांश विशेष रहते हैं एक स्थल

अनेक बार परिवेश सीमित है, बाह्यों से दूरी रहती निश्चित।

लोगों ने समूह बना लिए, अपनों से अधिक अंतरंग-सम्पर्क

माना सबकी शरीर-मन प्रक्रिया सम, तथापि दूरी है महद॥

 

प्राणियों से क्षेत्र निर्माण है, सरलता से बाह्य को न अनुमति

ये अपने या पराए, अन्यों से तो बस कटुता-स्पर्धा ही रहती।

निज-संस्कृति ही समृद्धतम, दूजे समूह तो असभ्य-कुत्सित

पर सर्वश्रेष्ठ-सुवर्णपन की भावना से, भेद-वृद्धि ही अधिक॥

 

यहाँ अपने क्षेत्र-मार्ग, देश-लोग हैं, उन्हीं में जीना व मरण

उन्हीं से निरंतर संपर्क, एक साँझी सोच हुई है विकसित।

खानपान-वेशभूषा, घर-आँगन, औजार व खलिहान-बाड़े

अपने जंगल-मवेशी, खेत, प्रकृति-गाँव, बस इसी में घुसे॥

 

माना आपसी-कलह भी, लोकाचार में सब अच्छाई- बुराई

दंड-शास्त्र, व्याभिचार- स्वच्छता, क्रोध-प्रेम, चोरी-सच्चाई।

माना एक जगह रहते भी, मानवों में विशेष प्रकृति पनपती

तदानुसार व्यवहार करने लगते, चाहे वह असामाजिक भी॥

 

जग में सब जन हैं, कुछ क्रूर-लुब्ध, उदार, विनम्र-विद्याग्राही

सन्तुष्ट, बहुदा मुखरित, कुछ मिथ्या-भाषी व सदा आडंबरी।

मनस्वी, परंतप, क्रोधी, कार्य-दक्ष, स्वत्व रक्षण की जिम्मेवारी

प्रमादी-व्यसनी, पेटू तो अल्पहारी भी, व्रती-तपी, सदाचारी॥

 

फिर भिन्न स्वरूप लिए हुए भी हैं, वे एक कुटुंबी से ही होते

एक-दूजे को सहन करते, यदा-कदा फटकार भी लगाते।

सब जानते हुए भी नज़र-अंदाज, समूह को एकजुट रखते

माना अपना ही सब कुछ यहीं, उसी हेतु वे समर्पित रहते॥

 

नदी के पार, संकरी घाटी, पर्वत बसेरा, जंगल में घर-गाँव

समुद्र में टापू, दूरी अधिक, यातायात सीमित, डेरा- मैदान।

बहुत प्राकृतिक कारक वास्तव में, अन्यों से है अलग बर्ताव

प्राणी-समूहों ने दुनिया बना ली, वहीं सब चल जाता काम॥

 

फिर कुछ तो कारण स्वतः, जनों की भी सीमित आकांक्षाऐं

अपने नियम बनाऐ हैं, किससे-कैसा व्यवहार और अपेक्षाऐं।

विवाहों के एक जैसे नियम-विधान हैं, कहाँ कन्या देनी-लेनी

किनसे अंतरंगता सहमति बनानी है, किनसे दूरी ही रखनी॥

 

पर मानव-चेष्टा है बुद्धि प्रयोग की, जगसंख्या हो रही वर्धित

घर-गाँव-खेत क्षेत्र अल्प पड़ता है, सभी को करने समाहित।

बहुदा दुर्भिक्ष-बीमारी, बाढ़-भूकम्प सी आपदाओं से हैं कहर

 करती मनुज को विक्षिप्त, कुछ वैकल्पित को करता है बाध्य॥

 

कठिन जलवायु, जीवन-निर्वाह, शत्रु-प्रकोप, व साधन-अल्प

बनैले जीवों से असुरक्षा, भोजन-कमी, जीविका-अनुपलब्ध।

जीव-समूह विशेषकर नर बाध्य, कुछ बदलाव सकारात्मक

 इच्छा तो न पर जीवन अनुपम, बचाने का करना होगा यत्न॥

 

यूँ मानव विव्हलित होते हैं, और अपना देश-घरबार छोड़ते

तब अन्य-सम्पर्क में आते, नई जलवायु से परिचित हैं होते।

तन-मन पर तो असर है ही, नए कारकों का अधिक प्रभाव

अनुकूलन स्व-समय है, प्राचीन छोड़, नव-संसर्ग अनिवार्य॥

 

विभिन्न समूहों में नर-नारी संपर्क से, गुणों का आदान-प्रदान

निश्चित सिलसिला यूँ चलता है रहता, नस्लों में होता बदलाव।

अन्यान्य गुण परस्पर मिश्रित हैं, यूँ आबादियाँ एक-सार होती

तथापि समूहों में पूर्व-गुण आधिक्य, नाक-नक्श में झलकती॥

 

काफी पुरा-समय से आबादियाँ, स्थान बदल हुई हैं विस्तरित

स्थलों में विभिन्न जन-समूह हैं, भिन्न होते भी दिखते एकत्रित।

फिर नर-महत्त्वाकांक्षा से भी देश-विदेश में भ्रमण-अभियान

कुछ वहीं ठहर-बस गए, नव-गंतव्यों संग मेलजोल परवान॥

 

जहाँ अच्छे संसाधन-उचित जलवायु, वहाँ तो बहु-विस्थापन

जनसंख्या अधिक विकसित हुई, हुनरों को बाँटती निर्बाधित।

परस्पर-विधाऐं विस्तृत होने -बाँटने से, पनपे हैं संस्कृति उच्च

नर मन-क्षेत्र विकसित होता, लघु से निकल महद-सम्मिलित॥

 

कितने समूह यूँ हिलमिल गए हैं, नव-संस्कृति का अति-प्रभाव

पुराना लगभग विस्मृत सा ही, नए देव-गिरजे, स्थापित संवाद।

समस्त ऑस्ट्रेलिया-न्यूज़ीलैंड, व मेक्सिको-उत्तरी अमेरिका में

विभिन्न यूरोपियन व अन्य समूह बसें, अब एक अलग राष्ट्र हैं॥

 

पुराने मूल देशों को याद भी न करते, मात्र नए ही जीवन-वृत्त

मूल नर-समूह इंडियंस या अन्य, न देते कहीं दिखाई हैं अब

नव-अधिकृत पूरा भूभाग, प्राकृतिक संसाधनों के स्वामी हम।

अफ्रीकी काले जन- समूह बलात लाए, हेतु खेत-घर के काम

योषिताओं से गोरों के संबंध, व शनै रूप-स्वरूप में बदलाव॥

 

यद्यपि शोषितों में सम रक्त प्रवाह, स्व-श्रेष्ठता भाव शोषक में

विरोधाभास है, मिथ्या-अभिमान, अन्य निम्न व हम ही श्रेष्ठ हैं।

पुरा-काल से भिन्न नस्ल-संपर्क, कमोबेश एक से अनुवांशिक

 हाँ कुछ प्रभागों में जहाँ संपर्क अल्प, अभी भी स्व-गुण प्रधान॥

 

देखो सकल दक्षिणी अमेरिका राष्ट्रों में पुर्तगाली-स्पैनिश भरे

मूल-आबादियों को युद्ध-विजित किया, स्वयं स्वामी बन बैठें।

उनसे ही संपर्क कर हुई मिश्रित जातियाँ उत्पन्न, मूल से विलग

अनादिकाल से स्वरूप बदलते रहें, रहेंगे, मानव के बस में न॥

 

यह मानव-स्थान बदलाव बहुत पूर्व से, महान दूरियाँ तय की

भिन्न जलवायु बदलाव धरा पर, महा हिमकाल या महा-वृष्टि।

बहु- आबादियाँ नष्ट हो गई, अन्यों ने स्थान बदल जान बचाई

नई जगह जा शनै आत्मसात हुए, जैसे मूल यहीं के निवासी॥

 

अपने भारत को ही अनेक जातियों ने, आकर बनाया स्व-गृह

अनेक गुण परस्पर आदान-प्रदान हैं, रोटी-बेटी हुआ बाँटन।

फिर भी आर्य-अनार्य का भेद, बहुत समय तक न पट पाया

लोग पूर्वाग्रहों में या स्व को पाते उपेक्षित, विकास में बाधा॥

 

स्वीकारो स्व को प्रकृति-उपहार, अन्य प्राणी-समूहों ही सम

यथा वन में बकुल-आम-नीम-नारिकेल-खजूर व अन्य वृक्ष।

सभी निज गुणों से विकसित, आदर करिए कुछ है विशेषता

भिन्नता भी न त्याज्य, पता करो क्या उचित लिया जा सकता॥

 

न चाहिए कोई मानव-विरोधाभास, चरम-प्रगति हेतु हो प्रयत्न

यह जन्म बड़े भाग्य से मिला है, थोड़ी चेष्टा कर बना लें मधुर।

अनुरोध है और करो मृदु मनन, जानने की कोशिश तह तक

भिन्न संस्कृति-कला आयाम झझकोरो, परीक्षा सा वातावरण॥


पवन कुमार,
6 मार्च, 2016, समय 10:03 प्रातः 
(मेरी डायरी 22 मार्च, २०१५ समय 10:20 प्रातः से )

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