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Thursday 14 April 2016

नवयुग तारक

नवयुग तारक
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एक महापुरुष भारत-धरा पर अवतरित हुआ, बाबाओं के देश

छाप छोड़ी स्व-व्यक्तित्व की, मानवता कृतज्ञ-उऋण है निर्लेष॥

 

भारतवासी तो सदा मननशील, चराचर विश्व के जीवन-मरण प्रश्न

स्व- भाँति परिभाषा देते रहें, कुछ को सुहाता अन्यों को अनुचित।

'वसुधैव कुटुंबकम' सिद्धांत पुरातन, प्राणी समन्वय से ही जी पाता

'आत्मवत सर्व-भूतेषु' सर्व-भेद निर्मूल-सक्षम, यदि आचरण में होता॥

 

मनुज सुविज्ञ मानव-जाति एक-स्वरूप का, तभी तो प्रतिदिन निर्वाह

आम नर को निज कुल-गर्व पूर्वाग्रह भूल, सर्व-सहयोग का है आग्रह।

जीवात्मा एक परम-पुञ्ज का ही बिंदु, सब में दीप्त अंतः-बाह्य प्रकाश

परस्परता अनिवार्य प्रति-पग, जीव समाज-वासी - एकांत मात्र ह्रास॥

 

सर्व-भाव सर्व-प्राणी स्वतः निहित, प्रयोग उपयुक्त आवश्यक काल में

दुर्गुण - सुगुण हमसे चिपके हैं सदा, अपनी भाँति से व्यक्त विचार में।

उत्तम-विकृत एक स्थिति-प्रयुत परिभाषा, मूल्यांकन स्व-रूचि अनुसार

प्रत्येक विवेचन कर्म-स्वभाव का, निष्पक्ष ही सक्षम व्यक्तित्व परिणाम॥

 

सदैव असंख्य-कोटि जीव धरा पर विचरण करते हैं, लें लघु मन गान

गीत गाते स्व-धुन में, अनेक कर्ण-प्रिय तो कुछ अनर्गल-बेसुरी तान।

अनुलोम- विलोम समगुण अनुरूप समूह, प्रत्येक न सब हेतु हितकर

स्वार्थ एक प्रमुख जीव-विकार, मनुज बह जाता है लघु-तृष्णाओं पर॥

 

तथापि मानव एक ही जाति, यह सत्य भुलाकर कुछ स्वार्थ-आचरण

सर्व-प्राकृतिक संसाधन हों स्व-कर, हर जीव-अजीव पर आधिपत्य।

कुछ प्रयास से आगे बढ़ गए, भौतिक-सांस्कृतिक प्रतिभा विकसित

जीविका के निर्मल-नियम निर्माण, निज-जीवन तो न्यूनतम ललित॥

 

भागम-दौड़ परस्पर प्रतिस्पर्धा-आकांक्षा, स्व-कुल का ही पूर्ण-उत्कर्ष

अन्य छूटें न पीछे- न प्राथमिकता, निज संसाधन वृद्धि में बुद्धि प्रयुक्त।

निज एक विचारधारा सी बनाई, हमीं श्रेष्ठ अन्य निकृष्ट ही अतः त्याज्य

कुछ नियम स्व-हित ही निर्मित, सम्मुख-थोप दिए वृहद मनुजता पर॥

 

विश्व-क्रीड़ा ऊर्जा-सदुपयोग की, क्या उपकरण निकट प्रयोग भरपूर

विशाल पृथ्वी है धन-धान्य बाँट रही, उठ-खड़ा हो कर निर्धनता दूर।

है संघर्ष विचार-धाराओं का स्वाभाविक, प्रत्येक का स्व-विधि प्रज्ञान

क्यों हार मान जाते मन सस्ते में, आवश्यक नहीं तुम ही हों अनजान॥

 

वृहद-कोष प्रकृति द्वारा प्रस्तुत, निवेदन सभी से शिक्षित बन पढ़ लो

नर को विश्लेषण की योग्यता प्राप्त, प्रयास कर अनुपम निकाल लो।

जब विवेकी बने यदि जीवन में, सर्व-मनुजता हित-तत्व निकाल लोगे

महापुरुष स्वार्थ से अग्र-कदम, सर्वोत्तम-अनुसंधान का यत्न रखते॥

 

हर देश-काल में हैं युग-पुरुष अवतरण, गीता-महावाक्य उद्घोषित

जब-२ धर्म की ग्लानि है, प्राणी कष्ट-त्राण हेतु जन्म होगा स्वाभाविक।

नर कदापि न है विपत्ति-मुक्त, सदा एक साँसत हटी तो दूजी सम्मुख

रामबाण है `संकट कटें मिटे सब पीरा -जो सुमिरे हनुमत बलबीर'

 

मनुज ज्ञान-प्रमाद स्वरूप अंधकूप-पतित, बहुदा उचित पथ न सूझे

तब सक्षमों का मुख ताकते, विडंबना से बाहर करो - हम भी उबरें।

ये कौन बनते सुयोग्य या पैदा होते, कौन शक्ति यत्न कराती अक्षुण्ण

तन-मन क्षीणता त्याग सफल रूपांतरण, न अन्य लेंगे सतही पतन॥

 

नर शिशु क्षीण ही होता, गृह-कुल-समाज परिवेश सहायक घड़न में

पर सबको नहीं सम परिस्थितियाँ उपलब्ध, उतने में ही संतोष करते।

कुछ न संतुष्ट मात्र बहलावे से, क्या सत्य-सम्पदा- ज्ञानार्थ यत्न करते

दुर्दिन निवारण महद प्रयास से, न थक-हार बैठ जाना विपदाओं से॥

 

क्या मार्ग सौभाग्य-निर्माण का, मात्र देव-स्तुति या निरत स्व-प्रयास

सदुपयोग हर क्षण मनोरथ- प्रयोग का, न भ्रान्तियों का ही कयास।

समस्त शक्तियाँ मुष्टि-बद्ध करके, वे पथिक दूर आकाश- मार्ग के

स्व-संग विकास बृहदतर मानवता का, कर यत्न निकलो दुर्दिन से॥

 

जिसने स्व को योग्य-कर्मठ बनाया, होंगे सक्षम ध्रुव-पार गमन के

अध्येता मन-निग्रहों के, क्या सार्वजनिक हित - अपना दम लगाते।

विद्या-ग्राही खुला मन-मस्तिष्क धारण, हर पहलू पर मनन-सक्षम

न कुंठा-रोष निम्न परिवेश से, वर्धन अग्र-पंक्ति, अंतिम-असहन॥

 

कौन सकल मनुजता एक-जुट देखता, सब प्रश्नों का हल-निदान

नर स्वतः सक्षम अति-काष्टा, निर्मल नाथ मिले तो और बलवान।

चिरकाल से पुरुष भयभीत निज-विद्रूप से, बंधुओं से अधम-भाव

उनसा न दिख-बन सकता या नियम क्रूर प्रयासरत रखने बाहर॥

 

क्यों अधो मनो-वृत्ति पनपी काल में, स्व-दुर्बलता या बाह्य-शोषण

स्व मृदुल-गुण क्यों न देखते, क्षीणता भी तो करो प्रयास से बाहर।

व्यर्थ विकार मन में न रखना, अन्य बढ़े हैं मनोभाव द्वारा ही प्रबल

 सब में वही है परमात्मांश, दुर्बल मानकर निज को न करो विव्हल॥

 

त्वरित अपेक्षा है तन-मन सामर्थ्य, हँसी- उपहास स्थिति से उबार

जग देता मान सबलों को ही, निर्बल को परिहास या दयनीय भाव।

कब तक मुख ताकते रहोगे अन्यों का, अपनी भी लो स्थिति सुधार

बनो शक्तिवान मयूख-विकरित सूर्य-सम, तेज का सब लेंगे लाभ॥

 

बालक भीम बना महामानव धरा पर, सर्व-मनुजता सम-अधिकार

बुद्ध सम कल्याणक जीव- प्रकृति विकास, सब बढ़ें पूर्ण-साकार।

सामान्य नर-सहायक, पीड़ा देखी-समझी चिंतन कैसे हो परित्राण

निज विवेक-ज्ञान से संविधान समावेश, मनुजता पर बड़ा उपकार॥

 

शिक्षा सबकी प्राथमिकता, अंध-कूप से निकास का बड़ा हथियार

स्व-संघर्ष से ज्ञात होगी वाँछित गति, तुच्छ-वर्तमान तो न स्वीकार।

संगठन एक प्रबल योग शक्ति, लोहा ले सकते विपदा किसी से भी

समाज समरसता-प्रेम प्रादुर्भाव हो, लड़ने से मात्र स्व का ह्रास ही॥

 

दिव्यता तुम्हारे तन-मन पूर्वेव ही, क्यों व्यथित व्यर्थ-प्रताड़नाओं से

दक्ष शिक्षक सर्व-मनुजता हितैषी समक्ष, क्यों न प्रयास मुक्ति जैसे?

बंधन समस्त टूटने को तत्पर, तुम बस खड़े हों - दिखेगी परम राह

बाबा यह नवयुग तारक है, तंत्र-शक्ति दी सबको -नहीं शब्द मात्र॥


पवन कुमार,
दि० १४ अप्रैल, २०१६ समय १०:३३ प्रातः
(मेरी डायरी दि ० 9 मार्च, 2016 समय 8:40 प्रातः से)

Sunday 10 April 2016

मन-सितार

मन-सितार 
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कुछ सुर फूँटें व गीत बने, नाद-संगीत हो सर्वत्र विकिरित

मन-रेखाऐं शब्द बन ही जाऐं, अनुपम योग से अविस्मृत॥

 

मधुर सुर तो नित सजने ही चाहिऐं, इस जीवन-स्पंदन हेतु

हर तार झंकृत हो जाए, मन-सितार के प्रचुर उपयोग हेतु।

जीवन के हर मर्मांग का, यहाँ हो पूर्ण मनन-चिंतन निरंतर

कुछ भी नहीं छूटे जो संगीतमय हो, तन-मन पूर्ण समर्पण॥

 

इस देह-वीणा का एक मन-तार, एकदा तो आकर झनका तू

मैं सुनूँ संगीत तो इसका, कितने शिथिल-सुबद्ध हैं इसके तंतु?

एक उपयुक्त कर्षण वाँछित है हर तार में, हेतु संगीत-स्फुरण

किंतु पूर्व साजो-सामान देखूँ,-बाजन-गायन हो उपरांत तब॥

 

कौन हूँ, कहाँ से आया, क्या प्रयोजन, काज करना क्यों कब

किसको समर्पित हो, कैसे करना, प्रश्न अनेक हैं अनुत्तरित?

किसका प्रणेता है, कैसा स्पंदन, एक मूढ़ता उस अखंड से

आत्मसात परमानुभूति में, सर्वस्व समर्पण महद- लक्ष्य में॥

 

कौन वह है वीणा-निर्माता, प्राण-प्रतिष्ठा से बना योग्य-बजने

कब तक चलेंगे ही ये तार, मधुर संगीत फूटेगा झनकार से?

कौन हैं बजैया- सुनैया, करें किस प्रयोग के कौन विश्लेषण

कौन साधक-साधन, कितने अभ्यास से जनित न्यूनतम श्रेष्ठ?

 

अपनी तान साधी बने हैं तानसेन, हरि भजा तो बने हरिदास

हरेक सुर को क्रम से रखकर, बनाऐं हैं अनेक रागिनी-राग।

आचार्य भातखंडे ने संगीत-सुर घड़ साधकों को किए प्रस्तुत

भीमसेन जोशी, कुमार गंधर्व, बिस्मिल्लाह से अनेक दिग्गज॥

 

प्रकृति में संगीत सर्वत्र है, नदी-कलकल में, पवन-सिरहन में

मेघ-गर्जन में, वर्षा पिटर-पिटर में, शिशु -खिलखिलाहट में।

विहंग नाद में, मयूर पीहू-२, सारस क्रंदन में, पिक कूँ-कूँ में

शुक टें-२, काक काँव-२, गोरैया चीं-२ में, कपोत गुटर-गूँ में॥

 

मतंग- चिंघाड़ में, केसरी-दहाड़ में, गो-महिषी के रम्भाने में,

दादुर-टर्राने, शाखामृग की गिटगिट में, अश्व हिनहिनाने में।

गर्दभ के रेंकने, श्वान के भौंकने में, विडाल की म्याऊँ- २ में

भालू की हुल-२ में, मेष की मैं-२ में, शृगाल की होऊ- २ में॥

 

भ्रमर- गुंजन में, मक्षिका भिनभिनाने में, मत्सर-गुनगुनाने में

मूषक मंद किट-२, कीट की शिट-२ में, अजा मिमियाने में।

वानर की चटर-पटर, नीली-व्हेल के गहन प्रखर सुर-गीत में

जलव्याघ्र गुरगुराहट, सांड की दहाड़ में, बुलबुल गायन में॥

 

सागर-ऊर्मियाँ उठने में, द्रुम के हिलने में, पल्लव सिहरने में

शैलों के टकरने, पर्वत-पाषाण गिरने से, बयार के बहने में।

हस्त-घर्षण में, द्वार बंद करने, पात्र टकरने, प्यालें खनकने में

कुट्टिम पर चलने से, शुष्क केशों में कंघी, वातयंत्र चलने में॥

 

कक्षा चहल- पहल में, सखी बतियाने, मित्र फुसफुसाहट में

रसिक- काव्य में, मनीषी चिंतन, प्रेमियों के धीमे संवाद में।

उँगलियाँ मटकने में, दामिनी कड़कने, चूड़ियों की खनक में

नुपुर-खनखनाहट में, देवालय- घंटियों, विवाह के मृदंग में॥

 

युद्ध नगाड़े, रथ-गमन शोर, वायुयान डयन, पर-फड़फड़ाने

पिपहरी-तान में, गिटार-तार, बाँसुरी-धुन में, बीन लहरने में।

श्वास-आवागमन में, कलम-कागज घर्षण, डायरी सरकने में

संगीत तो सर्वत्र फैला है, बस अनुभूति कर लूँ स्व-संगीत से॥

 

अन्य प्रयोग विस्तरित हों, होने दो मस्तिष्क का पूर्ण उपयोग॥

 

धन्यवाद॥


पवन कुमार,
१० अप्रैल, २०१६ समय २१:00 रात्रि 
(मेरी डायरी २४ फरवरी, २०१५ समय १०:३० प्रातः से)