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Sunday 10 April 2016

मन-सितार

मन-सितार 
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कुछ सुर फूँटें व गीत बने, नाद-संगीत हो सर्वत्र विकिरित

मन-रेखाऐं शब्द बन ही जाऐं, अनुपम योग से अविस्मृत॥

 

मधुर सुर तो नित सजने ही चाहिऐं, इस जीवन-स्पंदन हेतु

हर तार झंकृत हो जाए, मन-सितार के प्रचुर उपयोग हेतु।

जीवन के हर मर्मांग का, यहाँ हो पूर्ण मनन-चिंतन निरंतर

कुछ भी नहीं छूटे जो संगीतमय हो, तन-मन पूर्ण समर्पण॥

 

इस देह-वीणा का एक मन-तार, एकदा तो आकर झनका तू

मैं सुनूँ संगीत तो इसका, कितने शिथिल-सुबद्ध हैं इसके तंतु?

एक उपयुक्त कर्षण वाँछित है हर तार में, हेतु संगीत-स्फुरण

किंतु पूर्व साजो-सामान देखूँ,-बाजन-गायन हो उपरांत तब॥

 

कौन हूँ, कहाँ से आया, क्या प्रयोजन, काज करना क्यों कब

किसको समर्पित हो, कैसे करना, प्रश्न अनेक हैं अनुत्तरित?

किसका प्रणेता है, कैसा स्पंदन, एक मूढ़ता उस अखंड से

आत्मसात परमानुभूति में, सर्वस्व समर्पण महद- लक्ष्य में॥

 

कौन वह है वीणा-निर्माता, प्राण-प्रतिष्ठा से बना योग्य-बजने

कब तक चलेंगे ही ये तार, मधुर संगीत फूटेगा झनकार से?

कौन हैं बजैया- सुनैया, करें किस प्रयोग के कौन विश्लेषण

कौन साधक-साधन, कितने अभ्यास से जनित न्यूनतम श्रेष्ठ?

 

अपनी तान साधी बने हैं तानसेन, हरि भजा तो बने हरिदास

हरेक सुर को क्रम से रखकर, बनाऐं हैं अनेक रागिनी-राग।

आचार्य भातखंडे ने संगीत-सुर घड़ साधकों को किए प्रस्तुत

भीमसेन जोशी, कुमार गंधर्व, बिस्मिल्लाह से अनेक दिग्गज॥

 

प्रकृति में संगीत सर्वत्र है, नदी-कलकल में, पवन-सिरहन में

मेघ-गर्जन में, वर्षा पिटर-पिटर में, शिशु -खिलखिलाहट में।

विहंग नाद में, मयूर पीहू-२, सारस क्रंदन में, पिक कूँ-कूँ में

शुक टें-२, काक काँव-२, गोरैया चीं-२ में, कपोत गुटर-गूँ में॥

 

मतंग- चिंघाड़ में, केसरी-दहाड़ में, गो-महिषी के रम्भाने में,

दादुर-टर्राने, शाखामृग की गिटगिट में, अश्व हिनहिनाने में।

गर्दभ के रेंकने, श्वान के भौंकने में, विडाल की म्याऊँ- २ में

भालू की हुल-२ में, मेष की मैं-२ में, शृगाल की होऊ- २ में॥

 

भ्रमर- गुंजन में, मक्षिका भिनभिनाने में, मत्सर-गुनगुनाने में

मूषक मंद किट-२, कीट की शिट-२ में, अजा मिमियाने में।

वानर की चटर-पटर, नीली-व्हेल के गहन प्रखर सुर-गीत में

जलव्याघ्र गुरगुराहट, सांड की दहाड़ में, बुलबुल गायन में॥

 

सागर-ऊर्मियाँ उठने में, द्रुम के हिलने में, पल्लव सिहरने में

शैलों के टकरने, पर्वत-पाषाण गिरने से, बयार के बहने में।

हस्त-घर्षण में, द्वार बंद करने, पात्र टकरने, प्यालें खनकने में

कुट्टिम पर चलने से, शुष्क केशों में कंघी, वातयंत्र चलने में॥

 

कक्षा चहल- पहल में, सखी बतियाने, मित्र फुसफुसाहट में

रसिक- काव्य में, मनीषी चिंतन, प्रेमियों के धीमे संवाद में।

उँगलियाँ मटकने में, दामिनी कड़कने, चूड़ियों की खनक में

नुपुर-खनखनाहट में, देवालय- घंटियों, विवाह के मृदंग में॥

 

युद्ध नगाड़े, रथ-गमन शोर, वायुयान डयन, पर-फड़फड़ाने

पिपहरी-तान में, गिटार-तार, बाँसुरी-धुन में, बीन लहरने में।

श्वास-आवागमन में, कलम-कागज घर्षण, डायरी सरकने में

संगीत तो सर्वत्र फैला है, बस अनुभूति कर लूँ स्व-संगीत से॥

 

अन्य प्रयोग विस्तरित हों, होने दो मस्तिष्क का पूर्ण उपयोग॥

 

धन्यवाद॥


पवन कुमार,
१० अप्रैल, २०१६ समय २१:00 रात्रि 
(मेरी डायरी २४ फरवरी, २०१५ समय १०:३० प्रातः से)



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