Kind Attention:

The postings in this blog are purely my personal views, and have nothing to do any commitment from Government, organization and other persons. The views in general respect all sections of society irrespective of class, race, religion, group, country or region, and are dedicated to pan-humanity. I sincerely apologize if any of my writing has hurt someone's sentiments even in the slightest way. Suggestions and comments are welcome.

Sunday 14 August 2016

लक्ष्य-कटिबद्धता

लक्ष्य-कटिबद्धता
---------------------

क्यों अटके हो यत्र-तत्र, दृष्टि-गाढ़ करो उत्तम लक्ष्य हेतु किंचित

यदि क्षुद्र में ही व्यस्त रहोगे तो कैसे रचे जाऐंगे महाकाव्य-ग्रन्थ?

 

माना लघु ही जुड़ बृहद बनता, लक्ष्य हेतु कटिबद्धता चाहिए पर

रामायण, महाभारत, बृहत्कथा संभव, चूँकि लेखन था अबाधित।

एक लक्ष्य बना, स्व-चालित हुए, कुछ प्रतिदिन किया अर्पित तब

एक विशाल चित्र मस्तिष्क में बना, मध्य की कड़ी मनन-लेखन॥

 

मैं भी कागज-कलम उठा लेता, किंतु अज्ञात कृति निर्माण- विधि

बस चल दिया यूँ ही, योजना तो बनी न, क्रमबद्धता कहाँ से आती?

जीव- प्रतिबद्धता जब लक्षित ही होगी, तभी तो बनेगा कुछ प्रारूप

कुछ लिख दूँगा एक मन-विचार ही, पर समक्ष तो हो प्रेरणा-स्थूल॥

 

एक शब्द-लेखन हेतु भी सामग्री चाहिए, यूँ ही तो नहीं ऊल-जलूल

बहु-नर प्रगति कर रहें हर क्षण में, मुझ मूढ़ से रमणीय  निकले न।

इन समकक्षों में से ही कुछ महान बनेंगे, इतिहास में कमाऐंगे नाम

जो जितना डाले उतना ही मिलेगा, बिना किए तो कुछ मिलता न॥

 

तब क्यों न प्रयास योग्य-उच्चतम-उपयुक्त हेतु, यश तो चाहिए पर

वह भी न हो तो बस कुछ बेहतर कर्म-इच्छा, प्राप्ति दैवाधीन सब।

पर युक्ति हो तो अवश्य सुगम-पथ, पुरुष बाधाओं से पार हो जाते

यूँ ही समय नहीं गँवाते, समर्पित हों पुनः-2 प्रविष्टि हैं जता जाते॥

 

चिंतन का भी चिंतन चाहिए, पर्वत खोदने से ही मिलेगी कुछ धातु

अल्प-श्रम से कभी ही सु-परिणाम, सर्व-औजार क्षमता वृद्धि हेतु।

महासार का मूल्य चुकाना होगा, मुफ्त प्राप्ति से तो पाचन न होगा

 निज बूते पर कुछ बन दिखाओ, अयोग्यों को ही सुहाती अनुकंपा॥

 

मम जीवन का क्या सु-ध्येय संभव, कलम से तो अभी नहीं है इंगित

बस यूँ ही स्व- संग बतला लेती है, पर क्या काष्टा रहेगी ही सीमित?

पुरुष स्व-वृत्त बढ़ाते, मोदी को देखो चाय-दुकान से विश्व-नेता स्वप्न

कितने ही नित होते विज्ञ-समृद्ध, निज हेतु क्यों न बनाते हों सुपथ?

 

कुछ जाँचन अवश्य चाहिए, अपेक्षा- संभावना उपलब्धि की किस

बस छटपटाने से काम न चले, रोग क्या है व उपचार तुरंत प्रारंभ।

लक्ष्य-निर्माण चाहिए इस अकिंचन को, चाहे प्रकृति ही या अंतर्यात्रा

कितना भी वीभत्स हो सब तम निकाल बाहर फेंको, नहीं है चिंता॥

 

कलम-कागद हो सुप्रयोग, चित्रकर्मी की बस न है कूची से पहचान

सामग्री-औजार से किसी को न मतलब, पर क्या रचा है महत्त्वपूर्ण।

परिप्रेक्ष्य-निर्माण निज-दायित्व ही, प्रक्रिया कुछ काल पश्चात नगण्य

अंततः परिणाम में ही रुचि है, भोजन चाहिए, कैसे बना न मतलब॥

 

पर यह एक श्रम का विषय है, जब निकेतन बनेगा तभी संभव वास

यदि कृषक खेती न करे, कहाँ से खाना मिले, किसी को न है ज्ञात?

जीवन इतना तो नहीं सरल निट्ठलेपन से चले, सुस्तों की देखो दीनता

देखकर विभिन्न प्रयोगों का विस्तीर्ण, अपने मन को मैं सकूँ महका॥

 

क्या मुझसे भी कुछ उत्तम सम्भव है, प्रशिक्षण योग्य संस्था में ले लो

नौसिखिए सम न करो आचरण, क्या उचित विधि ही है अपना लो।

सामग्री क्षमता -गुणवत्ता वर्धन हेतु है, शक्ति मात्र तुम तक न स्थित

यदि सहारा लो उपलब्ध युक्तियों का, निस्संदेह कल्याण है सम्भव॥

 

निज शक्ति बढ़ाओ मित्र-बंधु सहयोग से भी, यह सर्व-जग तेरा ही

मानो मूल्य देना ही होगा, क्यों हो डरते, उत्तम वस्तुऐं महंगी होती।

जीव-कल्याण इतना भी न सुगम, मन की मर्जी तो नहीं, होए स्वयं

प्राण-समर्पण तो करना ही होगा, बिन मरे तो स्वर्ग-दर्शन असंभव॥

 

किंचित विशाल सोचो, लिखो भित्ति पर तो, सदैव प्रेरणा रहे मिलती

पथ बहु सुगम हो जाता है, जब चलोगे तो मंजिल जाएगी दिख ही।

मानव-धर्म है उच्च-प्रेरणा हेतु, वर्धन हो निज तुच्छता से ऊर्ध्व-मन

स्व-उत्थान निज-दायित्व ही, कोई आकर न शीर्ष पर करेगा तिष्ठ॥

 

मन सन्तोष में पढ़ेगा तो, यकायक सफलता-कुञ्ज में ही प्रवेश होगा

शरीर-बुद्धि दोनों प्रसन्न होंगे, वास्तविक उद्देश्य भी तब इंगित होगा।

यह एक विडम्बना है, एक कदम बढ़ाने पर ही अग्र का पता चलता

एक उपाधि मिली तो अन्यों में उत्सुकता बढ़ती, विवरण है मिलता॥

 

प्रथम दिवस ही किन उपाधियों का संचय होगा, ऐसा तो सदा अज्ञात

हाँ कड़ियाँ जुड़ती जाती, एवं कदम बढ़ते, महद दूरी तय हो है जात।

जीवन में मात्र यही दीर्घ इच्छा है, उस परम-लक्ष्य का रहे नित चिंतन

पूर्व भी इसी अन्वेषण में बीत रहा है, जल्द ही उपलब्धि मिलेगी पर॥

 

श्वास बढ़ता इस आशा के साथ ही, कुछ योग्य करने में हूँगा सक्षम

पर जीव-विकास नित स्वतः प्रक्रिया, अति-शीघ्रता से भी न सुफल।

किंतु इस स्व- मन का क्या करूँ, निज-अपेक्षाओं में ही है उलझता

बहुत कर्म अधूरे, इस नन्हीं जान को सुबह-शाम रोना-पीटना लगा॥

 

गति परम में हो परिवर्तन इसका, कुछ महात्माओं में लगे उपस्थिति

क्या प्रबुद्ध होगा यह भी, शंकित सा, पर निराश हो नहीं बैठूँगा कभी।

ओ जिंदगी, जरा पास तो आओ, व स्पंदन मेरे मन-देह रोमों में कर दे

सदा मुस्कुराना-चलना सिखा दे मुझे, व्यर्थ तर्क-बकवादों से हटा दे॥

 

हो सार्थक-संवाद, प्रेरणामय शब्द-प्रयोग, इस अकिंचन की हो शैली

उच्चतम शिखर-इंगन हो सम्भव, गतिमानता तो सदा श्रम में है मेरी।

ओ सखा, अमूमन लिखो गागर में सागर तुम, पर सत्यमेव गहन-मंथन

तभी तो मोती-माणिक्य, रत्न निकलेंगे, अतः रखो निज लेखनी-चलन॥


पवन कुमार,
१४ अगस्त, २०१६ म० रा० ०१:१० बजे 
(मेरी डायरी १६ जुलाई, २०१६ समय १०:१० प्रातः से)