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The postings in this blog are purely my personal views, and have nothing to do any commitment from Government, organization and other persons. The views in general respect all sections of society irrespective of class, race, religion, group, country or region, and are dedicated to pan-humanity. I sincerely apologize if any of my writing has hurt someone's sentiments even in the slightest way. Suggestions and comments are welcome.

Monday 25 December 2017

ललकार

ललकार 
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समय यूँ परीक्षा लेता, अनेक कष्ट देकर बनाता सशक्त
न बीतता चैन से जीवन, मानव बनने में है बहुत माँग। 

अब नहीं बालक, जब सब माता-पिता से मिलता पोषण 
युवा-शिक्षित हो बन्धु, एक पद मिला करने को निर्वाह। 
विभाग एक जैसों का कुल्य, सबके करने से ही तो प्रगति  
न प्रमादता निज-दायित्वों में, तुम्हें कुछ आश्वासन देती। 

भृति न सुलभ निठल्लेपन से, कार्य करने को करता बाध्य 
देश का नाम हो दीप्त, प्रजा को मिले गुणवत्ता-आश्वासन। 
वर्तमान माहौल यहाँ कार्यक्षेत्र का, झझकोरता अंतः से पूर्ण
कैसे निकलूँ पार इस चक्रव्यूह से, प्रश्न इस समय है महद। 

कुछ की लापरवाही-अकर्मण्यता अन्यों को भी देती है कष्ट  
पर प्रकृति-नियम कुछ ऐसा है, झेलना पड़ता जो है समक्ष। 
मेरे विवेक मद्धम हुआ जाता जो प्रायः देता  समरसता दर्शन
क्यूँ न निरत अंतः कर्म-योद्धा, अभी तक हुआ है युद्ध-रत। 

जो नियति से मिली है जिम्मेवारी, करो कार्य उसके अनुरूप 
वरन भागी औरों की त्रुटियों में, समय से यदि न किया काज। 
स्पष्ट-संदेश एक ही पर्याय लब्ध - कार्य करो वा जाओ चले 
अन्यथा समय का दाँव अति-मारक, चैन से न देगा बैठने। 

न चंचल अवस्था यह, अपितु विवेक-युक्ति बैठाने का समय 
रोगी स्थिति, दवा कटु अवश्य है देती नीरोगता है अन्ततः। 
बहुत आशा से विभाग ने भेजा, उसको तुम न बुझने देना 
देखो सफल होकर दिखलाओ, जन कन्धों पर लेंगे बैठा। 

प्रत्येक क्षण में जीवन-संचरण, ढीलता करो पूर्ण-विव्हलित  
न स्वयं विराम, न सहचरों को, विश्राम-स्थिति न बिल्कुल।  
जीवन का यदि है अग्र-प्रसरण, परिश्रम तो दुर्धर अवश्य ही
नहीं तो तुम सड़ जाओगे, वृद्ध सरोवर में ठहरे जल भाँति। 

यह ललकार सुधार-आग्रह, संग्राम है तुम्हारा स्वयं संग 
निज को करो तत्पर, समस्त सामग्री जुटाओ हेतु संघर्ष। 
जग मात्र वीरों को ही पथ देता, जिनमें चीरने की शक्ति 
मात्र संवाद-सीमा से तो, वास्तविक हल न सुलभ कभी।  

क्या है यह व्यग्रता, मन-पथिक को न विश्राम किञ्चित 
तरंगें उदित अति उत्तुंग, बल-दृढ़ता से करती विव्हलित। 
मुझपर असंवेदनशीलता-आरोप, नितान्त भी नहीं सत्य 
स्व-कर्त्तव्य पूर्ण-निष्ठ, मन-काया में नहीं कोई प्रमाद। 

न होने दूँ स्वयं को व्यथित, पर लक्ष्य उससे महत्तर  
न रुद्ध प्रदत्त कर्त्तव्य, हो अति शीघ्र प्रबन्धन में स्थित।  
अनेक बाधाऐं आती पथ पर, यह भी आई तो होगी उचित 
लोग मानेंगे प्रयासों को, लेकिन तो लगेगा कुछ समय। 

तुम भई अच्छे, कुछ किया ही नहीं, मुफ़्त श्लाघा-मत्सर  
वृक्ष उगाया नहीं फल की इच्छा, खाने को टपकती लार। 
माना कुछ भाग्यशाली होते, जिन्हें दूसरों द्वारा कृत मिला 
मूल आनन्द करके खाने में, वही आत्म-सम्मान है सच्चा। 

निकलो दुविधा से, होवो गतिमान, हानि हो यथा-संभव अल्प
जिनसे आवश्यक करो संपर्क, उसी में सबका कल्याण। 
उत्तम कर्म परिलक्षित होने चाहिए, विश्व देखना है माँगता 
करते रहो कृत्यों का ज़िक्र, जिससे झलके कार्यशीलता। 

धन्यवाद। चले चलो, अच्छा करके की दम लो। अवश्य सफल होओगे। 

पवन कुमार,
२५ दिसंबर, २०१७ समय रात्रि २३:४३ बजे  
( मेरी डायरी दि० २० नवम्बर, २०१४ समय ९ :१८ प्रातः से ) 
  

Sunday 10 December 2017

मन-दृढ़ता

मन-दृढ़ता
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कौन हैं वे चेष्टाओं में प्रेरक, मूढ़ को भी प्रोत्साहन से बढाते अग्र 
निश्चितेव कर्मठ-सचेत, वृहद-दृष्टिकोण, तभी विश्व में नाम कुछ। 

क्या होती महापुरुष-दिनचर्या, एक दिन में कर लेते काम महद 
प्रत्येक पल सकारात्मक क्रियान्वित, तभी तो कर जाते अनुपम।
 किया निज ऊर्जाओं को संग्रहण, मात्र वार्तालाप में न व्यर्थ समय 
श्रम-कर्त्तव्य संग ही समय-व्यापन, शनै योग से निर्माण बेहतर। 

महाजन-परियोजना भी विपुल, एक साथ ही अनेक विषय-मनन 
जटिल विषयों पर भी विशेषज्ञों संग, विचार बना निर्णय में समर्थ। 
सशक्त बहु-आयामी निवेशों से, व्यक्ति-अस्मिता का स्पष्ट-दर्शन 
 स्व की  कर्मों से सार्थक-रचना, लोगों को हैं काम, करते सम्पर्क। 

क्या स्व-प्रति पूर्ण-समर्पण, निज से  ही महायुद्ध - कुप्रवृत्ति-विजय 
स्व देह-मन ही कुरुक्षेत्र, पक्ष-विपक्ष सेना भी स्वतः ही रही जनित। 
एक हूँक सी उठती स्व-जयश्री की, कैसे महत्तम निज ही से उदित 
पूर्ण समावेश मन-आँचल में, कंदर्प (कूर्म) सम स्व में ही सिकुड़न। 

प्रथम बनो निज- कार्यक्षेत्र, जब  अंतः-शक्त होंगे तो बाह्य भी सरल 
बाह्य भी अंतः से न अति-विलग, संवेदनशील चेष्टा को लेंगे पहचान। 
जग-पथ सुगम जब निज-संतुष्टि, वरन पर-छिद्रान्वेषण में ही व्यस्त  
बाह्य युद्ध-प्रहार तो सहन शक्य, अंदर से तेजस्विता अत्यावश्यक। 

कोई महद-उद्देश्य पकड़ लिया मन ने, समस्त-चेष्टाऐं वहीं समर्पित 
लोगों ने जीवन-विचार की धाराऐं बदल दी, मन की दृढ़ता थी महद। 
उनको निज व्रत-दर्शन पर श्रद्धा, मन बनाकर जोर कार्यान्वयन पर 
उपदेश की भी वाँछित शैली, एक नर ने ही रच दिया गुरु राज-धर्म। 

एक मनुज में अति-बल संभव, जब और बढ़े क्या न कर सकते तुम 
 स्तुति-ग्रंथ बाद या जीवन-काल में लिखित, जीते-जी दिया काज कर। 
पुरुष में जीवनी-शक्ति चाहिए, एक अदम्य साहस-चेष्टा का प्रार्दुभाव 
मानव-संकल्प एक प्रबल उपकरण, ऊर्जा समेकन से सर्वस्व संभव। 

कैसे परियोजनाऐं प्राप्त हैं निष्ठावानों को, लोग कर सकते विश्वास 
कार्यान्वयन  में सफल भी हो जाते, लघु-२ जोड़  बना लेते महान। 
अवसर हाथ से न जाने देते, जरूरत होती तो जाकर बात कह देते 
स्वीकारोक्ति भी एक गुण, संजीदा देख तो लोग प्रतिक्रिया ही देते। 

जीवन-दर्शन विवेचन अति-कठिन, निज-पथ गठन और भी दुष्कर 
पर जो समर्पित  परमोद्देश्य में, किञ्चित हो जाएगा ध्रुव के भी पार। 
लेखन-भाषण-ज्ञान-कर्म व प्रत्यक्ष व्यवहार, श्रद्धा-संभरण में समर्थ 
पार्थिव-सुविधा में अल्प-रूचि, उचित जग-परिणति ही चेष्टा-समस्त। 

बहु-रूढ़िवादिताऐं जग-व्याप्त, प्राण परम-सत्य जान सकते ही कम 
अल्पतर जो पुरा-भ्रामक रूढ़ियों पर, निष्पक्ष  टिप्पण-कर्तुम समर्थ। 
लोगों को निज-सोच का अंग बनाना हुनर, जुड़े तो ही बलयुत बनेगा 
इतिहास हटा नव-नियम निर्माण-साहस, बीज में वृक्ष-दर्शन-कला। 

चाणक्य सी प्रतिज्ञा कर ली कि नंद-वंश को मिटाकर ही हूँगा प्रसन्न 
बुद्ध का समाज-धर्म कुरीतियों पर घात, रचा एक निर्मल-मानव धर्म। 
मुहम्मद ने देख अनेकों की दुर्दशा, पहुँचाया वसुधैव-कुटुंबकम नियम 
सर्व-नर सम भू-संसाधन सबके, क्यूँ कुछ ही कर लें अधिकार-पूर्ण।  

डा० अंबेडकर ने जाति-मूलक समाज-अपुण्यों को किया जग समक्ष 
एक नूतन मानवता-दर्शन, विधि-सहायता से किया आमूल परिवर्तन। 
सर्व हेतु सम मूल-अधिकार, धर्म-जाति-स्थान नाम से कोई भेदभाव न 
अति साहस कि दबंग-तंत्र से भी संघर्ष, अंतः-शक्त थे सब गए सहन। 

उत्तम  परिवेश दान वर्तमान-भावी संतानों को, व्यक्तित्व की कसौटी  
मात्र खाने-सोने से मनुज-प्राण क्षय, श्रम से ही संभव श्रेयस-परिणति।  
क्रांतिकारी आऐ धरा पर, धारा ही बदल दी, निज-हेतु भी सोचो नाम
जब सोच की नर-जीवन में स्थली, अमर होवोगे, यही है जीवन-पाठ। 

लोगों ने हर काल में श्रम किया, महत्तम हेतु होवों समर्पित लगा मन
     जीवन-आविष्कार को मूर्त रूप दो, प्रयास से आते परिणाम महान।    


पवन कुमार,
१० दिसंबर, २०१७ समय १९:५५ सायं  
   (मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० २८ मार्च, २०१७ समय ८:२२ प्रातः से )
    

Sunday 3 December 2017

आदर्श व्यवहार

आदर्श व्यवहार 
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अपने पंथों की मान्यताऐं बनाए रखने हेतु, लोग कैसे-2 उपाय रखते 
लोभ निश्चित ही मानव में, सत्य जानते भी आनाकानी स्वीकारने में। 

रूढ़िवादिता - जो लिखा-बोला गया उचित ही, किंचित स्वानुरूप भी  
यदि वह भी गुप्त स्वार्थ में ही उवाच, निष्कर्ष निकाले तो अन्यजन ही। 
कई सात्विक-प्रकृति  भी, महापुरुष तो महावाक्य करते रहते घोषित 
पर स्वार्थियों की निज-टिपण्णी, मुख्य उद्देश्य तो बनाए रखना वर्चस्व। 

कहीं प्राचीन-ग्रंथ लेख का हवाला, सर्वमान्य महानर-कथन की दुहाई 
कहीं अपने से ही उचित, कहीं तुम अनुचित, बलात निज-मंशा व्यक्त। 
कहीं है जबरन लाठी-अस्त्र, लोगों को डरा-धमका पंथ स्वीकार कराते
कहीं देते धन-लोलुप, सहायता-आश्वासन, उचित मान देंगे जुड़ो हमसे। 

यह क्या तमाशा भी है दुनिया, वर्तमान में तो ईश्वर सम दिव्यात्मा न दृष्ट 
कुछ सज्जन तो निश्चित ही, उनका सदा सर्वहित-सदाशयता ही उवाच। 
पीछे उनके कई  लुब्ध-जन भी, बड़ों  के साथ अनेकों का चलता काम  
वह भी उचित यदि लक्ष्य पवित्र, मनुज महात्राण - मुक्ति हेतु सद्प्रयास। 

अति-कठिन स्वार्थ प्रबंधन, मानव रह-रहकर अपनाता अनेक उपाय  
चिंता निजी या बंधु-परिजनों  की, कवायद में रचता रहता सब प्रपंच। 
कुछ सिद्धि होती तो हेंकड़ी भी आती, हड़का भी लेता ऊँचा बोलकर  
जहाँ जैसा भेद चल जाय उचित, निज काम निकल जाना चाहिए बस। 

अनेक तो चकमा दे जाते, असमंजसता में रखते, चुपके से जाते निकल 
धूर्त दोनों - एक की क्षुद्र-स्वार्थाशा, अन्य को उचित होते हुए भी वंचन। 
क्या है यह दोगलापन, पुरुष की सदाशयता-भलेपन का भी आदर न  
जब खुद पर पड़ी तो बिलखते, अन्यों के विषय में तो कोई भी टिप्पण। 

उसी अपुण्य हेतु पर को अपशब्द, जबकि खुद भी उसके शिकार बड़े 
 हम अंदर से एक जैसे ही होते, हाँ बाह्य साधनों से दम-खम आजमाते। 
दूजे को पूर्ण-मूर्ख ही समझ, एक-दूजे के भाव जानते  बस अकथन ही 
  यह किंचित शिष्ट-व्यवहार की औपचारिकता, वरन बहुदा होते नग्न भी। 

किसका आदर जरूरी जो सम्मान कर रहा, भीतर-चिन्ह तुमको ज्ञात 
जब वैसा ही किसी अन्य हेतु करते, तो क्या कारण है कटे रहे व मौन। 
देखो बलात कुछ न मिलता, प्रत्यक्ष व्यवहार में जो माँगते लाभ में रहते 
लज्जालू हाशिए पर ही, नर लाभ तो उठाते हैं पर चुपके से निकल लेते। 

मेरा विषय और था कहीं पहुँच गया, कोशिश करूँ हो कुछ मनन निर्मल 
जीवन तो भोलेपन से न चलता, आप एक जगह पड़े रहो कोई न पूछत। 
जो आगे रहते, विषय-मशगूल, लोगों की नजरों में रहकर बना लेते काम 
सफलता हेतु कृष्ण से सर्वगुण वाँछित, आदर्श में वन-2 मारे फिरते राम। 

दूर से इज्जत किसी की भी, पर वास्तविक व्यवहार में क्या हैं आदर्श  
अपने लोभ से तो न हट पाते, रह-रहकर मन की पीड़ा पर जाते पहुँच। 
कई बार साहस-अल्पता से मौन, पर मौका पाते ही लपटने को उदित  
चोर-सिपाही खेल, जो जीता सिकंदर, भोला कोई न - निर्बल अवश्य। 

विश्व-नियम विस्मयी, देखो न मूषक-पाश को घात लगाए बैठा विडाल 
सिंह हिरण-निकटता प्रतीक्षा में, छुपकर काम हो जाय तो अत्युत्तम।  
कई बार दौड़-भाग कर पकड़ भी लिया, अपने बल की होती परीक्षा  
बहुदा यत्न बावजूद भी कर से फिसलता, मन में बस रह जाती हताशा। 

क्या आदर्श व्यवहार जहाँ सब परस्पर सम्मान करते पूरी करें अपेक्षाऐं
क्या हिरण स्वयमेव सिंह समक्ष आऐ, मुझे मारकर निज-क्षुधा मिटा ले। 
या सिंह  छोड़ देगा -अहिंसावादी हूँ, घास-फूँस खा करूँगा उदर-पूर्ति  
क्या उद्यमी लाभ कर्मियों में बाँट देता, जबकि ज्ञात कमाया उन्होंने ही। 

क्या यह उहोपोह जीवन की, सब प्रपंच जानते हुए भी बने रहते नादान 
उनसे ही सदाशयता आशा, जो हैं पूर्णतया स्वार्थी और लुब्ध-चालाक। 
अपने शिकार से मतलब, सिद्धांत हैं औरों के मुख का तो   सहारा लेते 
हमाम में देखो सब नंगे, जिनको मौका न मिला वे ईमानदार कहलाते। 

दूजों का सुख-वैभव देख जीभ लपलपाते, कब आएगा पास रहते व्यग्र  
कई बार निर्लज्ज हो समक्ष भी कथन, वह भी घुमा-फिरा  करता बात। 
कुछ शीघ्र ही अर्थ पर आते, सीधी ऊँगली से न निकले तो टेढ़ी आजमा 
लोगों के विषय लटके रहते, जिसको चिंता हो दाम लेकर लो निकलवा। 

न कहता सब पूर्ण स्वार्थी ही, अनेक निर्मल-जन सर्वहित ही करते काम 
पर आम जन तो सब भाँति के दोष-लिप्त, हाँ सबके अलग-2 होते बाण। 
यहाँ क्या जरूरी दाँव-पेंचों को बढ़ाना या प्रयास से कुछ माहौल सुधार  
सभी को मिले पूर्ण-पनपन का मौका, हर स्तर पर होना चाहिए ही न्याय। 

निश्चिततया सर्वहित यत्न आवश्यक, निज-पंथ उचित तो वर्धन न अपराध 
वर्तमान-संदर्भ में औचित्य-आँकन भी जरूरी, सुधार हेतु   करो प्रयास। 
लोग विवेक से जाँचे-परखे, उत्तम  तो स्वयं अपनाऐंगे - स्वीकार्य होगा  
पर तंद्रा से जगाना चाहिए, लोग बुद्धिमान होंगे तो जग का  और भला।  

एक यत्न नर के अंतः-गतिविधि विवेचन का, धर्म-कर्म वार्ता फिर कभी
ज्ञान-प्रवाह तो मनो-प्रवृत्तियों जानकर ही, अतः सचेत हो करो सुवृत्ति। 

पवन कुमार,
३ दिसंबर, २०१७, रविवार, २०:५१ रात्रि 
(मेरी जयपुर डायरी दि० २० जनवरी, २०१७ समय ९:२५ प्रातः से )     

Saturday 18 November 2017

जीव-कर्त्तव्य

जीव-कर्त्तव्य 
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हर दिवस एक नवीन उद्भाव, कुछ प्रगति कुछ अवसाद 
प्रतिपल एक परीक्षा लेता, चोर-सिपाही का खेल निरंतर। 

जीवन-चक्र अति विचित्र, खूब खेल खिलाए, डाँटे-फटकारे 
क्षीणता, अल्पज्ञता, त्रुटियाँ ला समक्ष, यथार्थ पृष्ठ पर पटके। 
प्रहर्ष अधिक न पनपने देता, विशाल-चक्र में घिर जाते सदा 
यह न तुम्हारा गृह एवं स्व-संगी, अजनबियों से पाला है पड़ा। 

क्यों अन्य तुम्हारी ही माने, कुछ तुमने न किया अधिक श्लाघ्य
माना आम कार्य भाँति निष्पादित,अपेक्षा कहीं अधिक है पर।  
दुनिया यूँ न संतुष्ट होती, उसके स्वार्थ अधिक प्रिय तुमसे कहीं  
सब डूबें विद्वेष-माया-मोह लोभ में, उनको तुम्हारी कहाँ पड़ी। 

पूर्व में बलि-प्रथा प्रचलित थी, अब भी कई स्थलों पर है चलन  
निर्दोष-हत्या अपने प्राण-त्राण हेतु, कहाँ का है न्याय-विवेक ? 
मनुज न देखे अपना कुचरित्र, प्रकृति बना ली पर-दोषारोपण 
स्वयं जितना हो अधम, अन्यों से तो अपेक्षित आदर्श-अत्युत्तम। 

जब तक निज-अंतः न झाँकोगे, अन्यों में देखते रहोगे त्रुटियाँ 
पर तुम्हारा कल्याण न होगा, क्योंकि चेष्टा न है स्व-सुचिता। 
डूब जाओगे घोर तम में, बड़ी ठोकर लगेगी, होओगे घायल 
संभल जा मान करना सीखो, सिखा देंगे अनेक हैं विशेषज्ञ। 

कैसे वहम पाल रखे हैं तुमने, अपने एवं अन्यों के विषय में 
अपने विश्वास प्रिय लगते, जो हाँ में हाँ मिलाए वह उत्तम है। 
'एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा' स्थिति से न संभव उन्नति    
यावत न आओगे वृहद-संपर्क में, कैसे ज्ञात होगा क्या है गति ? 

एक चेष्टा जग-शोर से दूरी, किसी गुफा में बैठकर लगाए चित्त 
विश्व व्यर्थ एक ढकोसला-फटाटोप, निर्मल-चित्त होते हैं व्यथित। 
सूफी-निर्गुण, साधु-बाऊल-भिक्षु, नागा-फक्क्ड़ों का जग सुधामयी 
इसको लेते वे अनावश्यक वजन, त्यागने में अधिक कल्याण ही। 

क्यों परम-ज्ञानी निर्मोही बन, अस्वार्थी हों वृहद कल्याण सोचते 
हित भी वह जो भौतिकता से परे, और संपूर्णता चित्त में भर दे। 
दिन-दुनिया अपने दुखों में गुमी, वह किसका भला सोच पाएगी 
यावत मानव निज से ऊपर न होगा, कैसे सर्वहित होगी प्रवृत्ति ?

एक सागर-ऊर्मि जो कभी निम्न-उच्च, पवन वेग बढ़ाए आवृत्ति 
सर्व-अणुओं को अपने संग झुलाती, अनेक थपेड़े-अनुभव देती। 
आंतरिक-बाह्य परिवेश के दबाव, ज्वार-भाटे बैठने देते न शांत  
वरन तो रुकती प्रक्रिया, सड़ता जल, कैसे पनपता बहुल-जीवन ?

जीवन भवंडर-खेल, पर कुछ मनुज एक सहज-शैली में मुस्कुराते  
क्या है यह स्वभाव एक समरस बनना, प्राण है तो नित फँसे रहेंगे। 
क्या क्लेश हेतु ही जन्म लिया या कुछ काम-चलाऊ स्थिति बना ली 
बस अस्तित्व बचाए रखो, जितना हो सके टालो, न बने तो चल पड़ो। 

क्यों तजते हों प्रदत्त कर्त्तव्य, विपदा-निवारण हेतु तैयारी भी तो की न 
दोषारोपण भाग्य-परिस्थितियों पर, क्या स्व-कर्म का किया आकलन?
मात्र नितांत जरूरी ही कर्म-निर्वाह, जिनका अधिक न स्थगन संभव  
कभी न सोचा कर्मयोगी बनना, विश्व को दो शाप, निज को करो शांत। 

क्या अवलोकन किया स्व-कर्मों का, कहाँ निष्ठ गुणवत्ता-स्तर पर 
कैसे बने एक सम्मानजनक स्थिति, क्या वाँछित सामग्री हेतु उस ? 
जग परिश्रमी-प्रगतिवादी होना माँगता, यूँ सस्ते में गुजर न होने देता 
अति प्रतिस्पर्धा-महत्त्वाकांक्षा चहुँ ओर, मात्र हानि ही निट्ठला बैठना। 

क्या शैली रचनात्मक, प्रतिपल के महत्त्व का मोल चुका सकते  
या महज पलायनवादी संस्कृति, अपना क्या अल्प में गुजर लेंगे। 
क्या तव कर्म मानव-जीवन में सम्मान भरते, सार्थकता की प्रेरणा 
निज अधिकार-क्षेत्र को जगाना कर्त्तव्य, अकर्मण्यता-पाठ न पढ़ा। 

बंधु हम तो डूबेंगे तुमको भी न छोड़ेंगे, ऐसी प्रवृत्ति है मारक  
क्यों आयुध बनाते विनाश के, मानसिक स्तर पर संवाद निरत। 
तुम न चेते तो कोई अन्य चेतेगा, दौड़ में समर्थ ही अग्रिम होंगे 
समर्थों की रेखा वहीं से शुरू जहाँ खड़े, तुम रोना ले रहना बैठे। 

संगठन-शक्ति बनाओ अवश्य ही, क्योंकि कलौयुगे संघे-शक्ति 
बुद्ध संवाद को अति-महत्त्व देते, व्यग्रता से ही ज्ञान-क्षुधा बढ़ेगी। 
न देखते औरों की कितनी प्रगति, स्वयं भी कुछ न ईजाद किया 
न बनो मात्र सुविधा-भोगी, अविष्कारों का मूल्य न सकते चुका। 

यह हाट का शोर-गुल, नगाड़े-घंटी बज रहें, विक्रेता लगा रहे हाँक 
भूल-भलैया, अंध-गली, स्व-नेत्र अर्ध-बंद, श्रवण-मनन शक्ति-अल्प। 
  सर्व-ज्ञानेन्द्रि काम न कर रहीं, भूखा हूँ जेब खाली, खरीदूँ मैं कहाँ      
कोई उधार न देता, पूर्व-लेखा न चुकता, किधर जाऊँ बड़ी विडंबना। 

जग का यह दीदार भी विचित्र, सभी व्यग्र-संतापित, पर बात न करें 
केंकड़े सम एक-दूजे की टाँग खींचते, दोनों मरेंगे पर चढ़ सकते थे। 
मेंढ़क संग प्रयोग शीतल जलपात्र में, शनै ऊष्मा दी, उबाला जा रहा 
प्रथम-स्थिति सक्षम था बहिर्लांघन, पर नेत्र खोले करता मृत्यु-प्रतीक्षा। 

क्यों है यह उदासीन-असंवेदनशील व संवाद-विहीन रहने की प्रवृत्ति 
क्या और इतने त्याज्य-निम्न हैं, तुम बात करने में अनादर समझते ही। 
क्या अथिति-सत्कार न तव कर्त्तव्य, जग की रीत तो निभा कमसकम 
न्यूनतम अपेक्षाऐं तो असभ्य से भी, तुम स्वयं को तो कहते हो शिक्षित। 

यदि खेलना है तो समुचित खेलो, और करो पालन कुछ यम-नियमों का 
या निज को पूर्ण-सबल बना लो, कि न हो दूजे किसी की आवश्यकता। 
पर मानव तो एक सामाजिक प्राणी, परस्पर सहयोग से ही कार्य चलेगा 
न रहो मूढ़ सम आत्म-मुग्ध, जागो-उठो-चेतो-देखो कुछ कल्याण होगा। 

पवन कुमार,
१८ नवंबर, २०१७ समय २३:३१ मध्य-रात्रि 
(मेरी डायरी ९-१० जुलाई, २०१५ समय १०: ११ बजे प्रातः से) 
      
   



Monday 31 July 2017

रक्त-रिश्ते

रक्त-रिश्ते
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रिश्तें प्राण-वाहक, हम निकसित उनसे, एक योग रक्त-सम्पर्क से  
कह सकते सीधे जुड़े, किसी औपचारिकता की आवश्यकता नहीं। 

कुछ जुड़ाव तो अति-निकट जैसे अभिभावक, दादा-दादी, नाना-नानी 
भाई-बहन, मामा-मौसी, चाचा-बुआ, चचेरा-फुफेरा, ममेरा-मौसेरा आदि। 
रक्त-माध्यम से पिता-माता कुलों से सीधे जुड़ते, श्रृंखला-गमन दूर तक 
अति-दूर तक ढूँढना-निबाहना कठिन, तथापि किया जा सकता प्रयास।  

कितनी गहराई तक हमारी रक्त-मूलें हैं, हम अधिक ध्यान न दे पाते
इस अल्प-जिंदगी में इतने मशगूल हो जाते, भूलते कोई और भी हैं। 
अति-सुलभ है अन्वेषण-राह यदि चाहें, गहन योग  देह-आत्माओं में 
प्रेम-भाषा बोलकर तो देखो, सब आऐंगे बाह पसारे गले से मिलने। 

रिश्ते हमारा उत्पत्ति-स्थल, रक्त-वीर्य प्रवाह हो रहा अति-दूर तक 
एक-दूजे के गुण परस्पर बाँटते, शक्लें-व्यवहार में मिलते से जाते। 
 अधिक स्थल-दूरी से सम्पर्क बाधित, कुछ समय पूर्व था स्नेह-अति  
विवाह-उत्सवों में मिलन-रीत, एक-दूजे को देख होती अति-ख़ुशी। 

हम आपस के सुख-दुःख बाँटते, जानते अपना है हानि न करे 
जैसे वे अपनी आत्मा का रूप, कुछ न दुराव अपने भीतर है। 
नाराजगी भी तो वहीं  जाहिर, कह-सुनकर हल्का होता मन  
सभी मनोभावों से गुजरते, सब परिस्थितियाँ  न निज-रूप। 

अनुवांशिक-गुण तो अति-विस्तृत, विज्ञान से विस्तार-विवरण  
माता-पिता, भाई-बहनें निकटतम, रिश्ते सुदूर तक वाहक। 
हममें-उनमें अभिभावक-गुण साँझे, अटूट योग है नित-सुदृढ़  
अनेक उसमें युजित हो सकते, जितना चाहे उतने हैं संभव।  

रक्त-रिश्ता अति-महत्त्वपूर्ण, माना सिमट जाते कुछ दूरी पर  
जानते हैं अपने ही, संसाधन-समय अभाव से दे पाते न ध्यान। 
कुनबा-अवधारणा ज्ञान, माना कि सदस्य भी आपस में लड़ते 
तथापि न्यूनतम सदाश्यता, अन्यों के विरुद्ध सब  एक-जुटते। 

प्रेम की चहुँ ओर जरूरत है, स्वार्थ से किंचित कृत-संकुचित 
निज-कोटरों में ही दुबके, बाहर आ अन्यों को न लगाते कंठ। 
स्व-दामन सिकोड़ा अनावश्यक, जब अनेक जन सकते समा   
मन को प्रेम-रहित किया,  कैसे विश्व-बंधुत्व की खुलेगी राह। 

संबंधी सब आर्थिक-सामाजिक स्थिति में, निर्धन से दूरी अग्रों में 
जब समुचित जानते अपने ही, तटस्थता-भाव दिखाते स्वार्थ में। 
ज्ञान का क्या लाभ यदि न व्यवहार-दर्शित, किया दूर निजों भी
संबंधी को तज अन्यों से सम्पर्क बढ़ाते, धीरे दूरी बढ़ती जाती। 

स्व-रुचियाँ महत्त्वपूर्ण, न आवश्यक रिश्तेदारों से पूर्ण-मेल  
अपने-2 गुट बना लेते, समय आने पर यह या वह पक्ष लेत। 
स्पर्धा-स्पृहा अधिक परस्पर में, आगे-पीछे टाँग भी खींच देते 
एक-दूजे का मज़ाक भी बनाते, जैसा उचित लगे निभा लेते। 

मित्रता एक वृहद-अध्याय, इस पर विस्तार से चिंतन कभी  
अभी विषय रक्त-रिश्ता, कैसे मिठास है डाली जा सकती। 
उसके अतिरिक्त संबंधी भी, भले प्रत्यक्ष रूप से न जुड़ते 
मेल-जोल से ही अपने बनते, अपनापन  हो जाता शनै-2। 

जहाँ हृदय-समीप वहाँ माधुर्य, प्रेम से परस्पर उत्साह-वर्धन  
सभी कुछ सहन चाहे कत्ल भी हो, प्रेम सर्वोपरि लेगा स्थान। 
अभिभावक-संतानों में न है स्पर्धा, झेल लेते उच्छृंखलता भी  
बंधु-भगिनियों में आदर, अति-गुणवत्ता संभव अस्वार्थ यदि। 

एकत्रित करें संबंधी-कुटुम्बियों को, घर जाकर भी दिखाऐं स्नेह
वे भी हमारे प्रेम के भूखें, मिलने-जुलने से तो निकटता बढ़ेगी। 
यदि परस्पर स्नेह-समझदारी, एक-जुटता से तो शक्ति-विश्वास 
एक-दूजे को सहना भी उत्तम गुण, जीवंतता से वर्धन-सौहार्द। 

सबमें सब भाँति के गुण, उत्तम को अपनाऐं क्षीणता को तज 
सहनशीलता निज-पालक, आगे बढ़ो, सबको लगाओ कंठ।  


पवन कुमार,
३१ जुलाई, २०१७ समय १३:५१ दोपहर 
(मेरी डायरी दि० २५ जुलाई, २०१६ समय १०:२७ प्रातः से) 
    

Sunday 5 February 2017

प्रोत्साहन-मनन

प्रोत्साहन-मनन
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मनन यह क्या मनन हो, निर्मल-चित्त तो वृहत-आत्मसात कहते 
हम सब उसीके ही भिन्न अवयव, पूर्णता से जुड़ पूर्ण ही बनेंगे। 

लेखन भी है अद्भुत विधा, कुछ न भी दिखे तथापि पथ ढूँढ़ लेती  
कलमवाहक को मात्र माध्यम बना लेती, उकेरेगा जो यह चाहती। 
माना लेखक की सोच का पुट होता, पर शक्तिमान तो कलम ही  
यह परिवर्तित करती कर्ता को भी, उसके भावों को सुदृढ़ करती। 

चलते हैं इसके संग आज, नवीन-प्राचीन या भावी अथाह में कुछ 
जो समक्ष आएगा उकेरा जाएगा, निज का न कोई है विशेष पक्ष। 
मात्र कलम संग एकीकरण, परस्पर-वार्ता से निकलेंगे कुछ सुर 
हेतु ये क्षण अति-महत्त्वपूर्ण-अमूल्य, इनमें स्थित हो हुआ निर्मित। 

अवसर तो जीवन देता हर पल, आवश्यक मात्र संजीदा हो विचारें 
क्या हम वर्तमान नियुक्ति में, या जीवन-यापन है सफल समृद्धि में। 
 कैसी भी स्थिति में तो होंगे, सर्व - दिशाऐं आव्हान करती निमन्त्रण 
हर पल अनुभव ही जीवन,चलो ज्ञानेन्द्रियों से करो प्रकृति-स्पंदन। 

आशान्वित होना अग्रिम-पलों में, मानव को देता सदा गति-प्रेरण
   हाँ सब पल तो एकसम न, पर न चलेंगे तो निश्चित ही रहेंगे मन्द।  
मन-देह का न पूर्ण उपयोग, स्थिर-जल बहु-सम्भावना सड़न की 
चलेंगे-भिड़ेंगे, घर्षण-संघर्ष, प्रक्रिया में ही बनेंगे गोल-उपयोगी। 

पाषाण-शैल सम निश्चल, यूँ तटस्थ प्रकृति-निकट  ही दर्शन  
अनेक जीवन-पादप पोषक, सूर्य-चन्द्र-तारक-ऋतु आत्मसात। 
अनेक सर-सरिताऐं देह से गुजरते, प्रवाह अनेक अवयव संग  
तव मिलन सागर साथ, दिशा-पवन सुनाती सुदूर के सन्देश। 

माना प्रकृति अचलता की, विपुल देह संग चलना अति-दुष्कर 
कमसकम प्रकृति-कारकों से साहचर्य-प्रवृत्ति, तभी हो जीवन्त। 
जब कुछ त्याग सकोगे, तभी तो रिक्तता बनेगी नव-ग्रहण की 
 चाहिए आदान-प्रदान प्रक्रिया, परस्परता से पूर्णता-राह बनेगी। 

अनेक अवयव निश्चल से, सूक्ष्म-दर्शन से होती उनकी गति स्पष्ट 
स्पंदित, प्रकृति-रस आस्वादन सदा, सहयोग से चलाऐ ब्रह्माण्ड। 
भले अदर्शित पर हर की पूर्ण-भागीदारी, अनुपस्थिति से मूल्य ज्ञात 
अतः आवश्यकता परस्पर-सम्मान की, सहभागिता से बनती बात। 

तथापि कुछ अति-चलायमान भी, अनेक निश्चलों में भी प्राण भरते 
अवयवों के आदान-प्रदान में सहायक, निम्न की भी गुणवत्ता बताते। 
सर्वत्र एक सम्भावना-उदय, मैं अति-दूर से आया तुम भी सकते जा 
विश्व में अनेक स्थल है प्रगति, नेत्र खुलेंगे तो मन-विकास भी होगा। 

अनेक नव-अविष्कार नित, सहभागिता दिखाओ नव-निरूपण  
और कर रहे तुम क्यों न, अनावश्यक नकल बनाओ निज कुछ। 
क्यों सोचते हो स्वीकृत न होवोगे, चलोगे तभी तो सुराह दिखेगी 
नव-अनुभव से गतिमान, स्थिरता से तो कारकों से घिसोगे ही। 

जीवन में नित प्रायः एकसम घटित, लगता है इस हेतु ही जन्म 
व्यापन में मौलिक-समर्पण जरूरी, हो लाभ उपस्थिति का तव। 
हाँ परिवर्तन यकायक प्रकटन हैं, चाहे प्रसन्न या न जँचे उपयुक्त 
वृहद विश्व-प्रणाली में तुम मात्र पुर्जे, चाहने से ही न सब संभव। 

ध्यान से देखो, प्रयास भी, पर प्रवाह संग रहो तो सुदूर-गमन  
क्यों विपरीत-बहाव, ऊर्जा-क्षय, हाँ अत्यावश्यक तो करो वह। 
न अपुण्य-विचार में हाँ मिलाओ, तुम्हारी मौलिकता निज पूँजी 
विरोध का भी सभ्य-प्रकार, उचित को लोक की हृदय-स्वीकृति। 

बहु-कारण हैं गति-शैली निर्माणार्थ, अपने को तो पूर्ण जीना ही  
जीवन ने सँवारा अमूल्य देह-अंग-मन द्वारा, जो स्वतः अद्वितीय। 
विपुल समृद्धि - उपयोग मद्धम, कोई सुविज्ञ कहे प्रयोग अत्यल्प 
यत्न से इस कल को चला, जो निज कर में - उसको सँवारो प्रथम। 

आगे का किसको ज्ञात क्या होना, वर्तमान में तो झोंक दो सर्वस्व
विश्व-सहायता उत्तम-वहन में, बहुकाल से प्रतीक्षा कर रहा तव। 
निज-संग समय भी अनुरूप दिशा-चरण, मनन से कानन सुवासित 
कर्म तो मनन संग स्वतः ही, मत सोचो अल्प-वृहद से जाओ जुड़। 

देखना प्रारम्भ करो अति-दूर तक, तभी स्व-लघुता का हो अहसास 
व्यर्थ शिकायत-बकवादों में न उलझो, सुविचार से लो उत्तम-राह। 
कार्य-क्षेत्र सदा प्रतीक्षा कर रहा, आगे बढ़ करो सब विभ्रम ध्वंस  
श्रम से निश्चित सुपरिणाम, न रुद्ध किञ्चित, सहयोगी का लो संग। 

लोग भी तुम सम अपने से सोचते, मन व्यथित होता यदि न रुचे 
पक्ष समझाओ विराट-समर्पणार्थ, स्व-लोभ तो त्याग करने पड़ते। 
परिश्रम किस हेतु कर रहे हों, ग्राहक को चाहिए मूल्य ज्ञात होना 
यदि सम्मान दें तो अति-सुंदर, अन्यथा भी तो है कर्त्तव्य करना। 

ध्यान से देखो नर कितने हैं घोर दुःखी-असन्तोषी व विवह्लित 
नकारात्मकता सदा मन में, माना समस्त विश्व-दुःख उन संग। 
विलोप सकारात्मक पक्ष का भी, समय बीतता खुलता नव-पथ  
जीव को निस्वार्थी बनना चाहिए, आत्म-ज्ञान से ही राह प्रकट। 

सकारात्मक-परिवेश नित-आवश्यक, सब प्राणियों का सहयोग 
किसी को भी नगण्य न समझो, सहयोग से अति-करणीय सक्षम।  
बोलो मृदु-वाणी, मन-संगीत फूटे, हर्ष में लोग ज्यादा काम करते  
हटा परदा भ्रम-शिकायतों का, उज्ज्वल पक्ष देखो, सहयोग करेंगे। 

बस विराम आज की वार्ता में, निर्मल-चेष्टा हेतु सदा रहो प्रयासरत 
अन्यों की बहुत अपेक्षाऐं तुमसे, सारी न सही तो कुछ तो करो पूर्ण। 
माना निज हेतु भी समय-ऊर्जा चाहिए, प्रतिबद्धता कार्यक्षेत्र में भी 
आशा लाओ सहयोगियों के मन से, सदा उत्तम हेतु करो प्रोत्साहित। 

पवन कुमार,
५ फरवरी, २०१७ समय २३:२९ म० रा० 
(मेरी डायरी दि० २३ सितम्बर, २०१७ प्रातः ८:५० से )