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Sunday 3 December 2017

आदर्श व्यवहार

आदर्श व्यवहार 
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अपने पंथों की मान्यताऐं बनाए रखने हेतु, लोग कैसे-2 उपाय रखते 
लोभ निश्चित ही मानव में, सत्य जानते भी आनाकानी स्वीकारने में। 

रूढ़िवादिता - जो लिखा-बोला गया उचित ही, किंचित स्वानुरूप भी  
यदि वह भी गुप्त स्वार्थ में ही उवाच, निष्कर्ष निकाले तो अन्यजन ही। 
कई सात्विक-प्रकृति  भी, महापुरुष तो महावाक्य करते रहते घोषित 
पर स्वार्थियों की निज-टिपण्णी, मुख्य उद्देश्य तो बनाए रखना वर्चस्व। 

कहीं प्राचीन-ग्रंथ लेख का हवाला, सर्वमान्य महानर-कथन की दुहाई 
कहीं अपने से ही उचित, कहीं तुम अनुचित, बलात निज-मंशा व्यक्त। 
कहीं है जबरन लाठी-अस्त्र, लोगों को डरा-धमका पंथ स्वीकार कराते
कहीं देते धन-लोलुप, सहायता-आश्वासन, उचित मान देंगे जुड़ो हमसे। 

यह क्या तमाशा भी है दुनिया, वर्तमान में तो ईश्वर सम दिव्यात्मा न दृष्ट 
कुछ सज्जन तो निश्चित ही, उनका सदा सर्वहित-सदाशयता ही उवाच। 
पीछे उनके कई  लुब्ध-जन भी, बड़ों  के साथ अनेकों का चलता काम  
वह भी उचित यदि लक्ष्य पवित्र, मनुज महात्राण - मुक्ति हेतु सद्प्रयास। 

अति-कठिन स्वार्थ प्रबंधन, मानव रह-रहकर अपनाता अनेक उपाय  
चिंता निजी या बंधु-परिजनों  की, कवायद में रचता रहता सब प्रपंच। 
कुछ सिद्धि होती तो हेंकड़ी भी आती, हड़का भी लेता ऊँचा बोलकर  
जहाँ जैसा भेद चल जाय उचित, निज काम निकल जाना चाहिए बस। 

अनेक तो चकमा दे जाते, असमंजसता में रखते, चुपके से जाते निकल 
धूर्त दोनों - एक की क्षुद्र-स्वार्थाशा, अन्य को उचित होते हुए भी वंचन। 
क्या है यह दोगलापन, पुरुष की सदाशयता-भलेपन का भी आदर न  
जब खुद पर पड़ी तो बिलखते, अन्यों के विषय में तो कोई भी टिप्पण। 

उसी अपुण्य हेतु पर को अपशब्द, जबकि खुद भी उसके शिकार बड़े 
 हम अंदर से एक जैसे ही होते, हाँ बाह्य साधनों से दम-खम आजमाते। 
दूजे को पूर्ण-मूर्ख ही समझ, एक-दूजे के भाव जानते  बस अकथन ही 
  यह किंचित शिष्ट-व्यवहार की औपचारिकता, वरन बहुदा होते नग्न भी। 

किसका आदर जरूरी जो सम्मान कर रहा, भीतर-चिन्ह तुमको ज्ञात 
जब वैसा ही किसी अन्य हेतु करते, तो क्या कारण है कटे रहे व मौन। 
देखो बलात कुछ न मिलता, प्रत्यक्ष व्यवहार में जो माँगते लाभ में रहते 
लज्जालू हाशिए पर ही, नर लाभ तो उठाते हैं पर चुपके से निकल लेते। 

मेरा विषय और था कहीं पहुँच गया, कोशिश करूँ हो कुछ मनन निर्मल 
जीवन तो भोलेपन से न चलता, आप एक जगह पड़े रहो कोई न पूछत। 
जो आगे रहते, विषय-मशगूल, लोगों की नजरों में रहकर बना लेते काम 
सफलता हेतु कृष्ण से सर्वगुण वाँछित, आदर्श में वन-2 मारे फिरते राम। 

दूर से इज्जत किसी की भी, पर वास्तविक व्यवहार में क्या हैं आदर्श  
अपने लोभ से तो न हट पाते, रह-रहकर मन की पीड़ा पर जाते पहुँच। 
कई बार साहस-अल्पता से मौन, पर मौका पाते ही लपटने को उदित  
चोर-सिपाही खेल, जो जीता सिकंदर, भोला कोई न - निर्बल अवश्य। 

विश्व-नियम विस्मयी, देखो न मूषक-पाश को घात लगाए बैठा विडाल 
सिंह हिरण-निकटता प्रतीक्षा में, छुपकर काम हो जाय तो अत्युत्तम।  
कई बार दौड़-भाग कर पकड़ भी लिया, अपने बल की होती परीक्षा  
बहुदा यत्न बावजूद भी कर से फिसलता, मन में बस रह जाती हताशा। 

क्या आदर्श व्यवहार जहाँ सब परस्पर सम्मान करते पूरी करें अपेक्षाऐं
क्या हिरण स्वयमेव सिंह समक्ष आऐ, मुझे मारकर निज-क्षुधा मिटा ले। 
या सिंह  छोड़ देगा -अहिंसावादी हूँ, घास-फूँस खा करूँगा उदर-पूर्ति  
क्या उद्यमी लाभ कर्मियों में बाँट देता, जबकि ज्ञात कमाया उन्होंने ही। 

क्या यह उहोपोह जीवन की, सब प्रपंच जानते हुए भी बने रहते नादान 
उनसे ही सदाशयता आशा, जो हैं पूर्णतया स्वार्थी और लुब्ध-चालाक। 
अपने शिकार से मतलब, सिद्धांत हैं औरों के मुख का तो   सहारा लेते 
हमाम में देखो सब नंगे, जिनको मौका न मिला वे ईमानदार कहलाते। 

दूजों का सुख-वैभव देख जीभ लपलपाते, कब आएगा पास रहते व्यग्र  
कई बार निर्लज्ज हो समक्ष भी कथन, वह भी घुमा-फिरा  करता बात। 
कुछ शीघ्र ही अर्थ पर आते, सीधी ऊँगली से न निकले तो टेढ़ी आजमा 
लोगों के विषय लटके रहते, जिसको चिंता हो दाम लेकर लो निकलवा। 

न कहता सब पूर्ण स्वार्थी ही, अनेक निर्मल-जन सर्वहित ही करते काम 
पर आम जन तो सब भाँति के दोष-लिप्त, हाँ सबके अलग-2 होते बाण। 
यहाँ क्या जरूरी दाँव-पेंचों को बढ़ाना या प्रयास से कुछ माहौल सुधार  
सभी को मिले पूर्ण-पनपन का मौका, हर स्तर पर होना चाहिए ही न्याय। 

निश्चिततया सर्वहित यत्न आवश्यक, निज-पंथ उचित तो वर्धन न अपराध 
वर्तमान-संदर्भ में औचित्य-आँकन भी जरूरी, सुधार हेतु   करो प्रयास। 
लोग विवेक से जाँचे-परखे, उत्तम  तो स्वयं अपनाऐंगे - स्वीकार्य होगा  
पर तंद्रा से जगाना चाहिए, लोग बुद्धिमान होंगे तो जग का  और भला।  

एक यत्न नर के अंतः-गतिविधि विवेचन का, धर्म-कर्म वार्ता फिर कभी
ज्ञान-प्रवाह तो मनो-प्रवृत्तियों जानकर ही, अतः सचेत हो करो सुवृत्ति। 

पवन कुमार,
३ दिसंबर, २०१७, रविवार, २०:५१ रात्रि 
(मेरी जयपुर डायरी दि० २० जनवरी, २०१७ समय ९:२५ प्रातः से )     

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