29 मार्च, 2015 समय 00:05
Every human being starts his life's journey with perplexed, enchanted sight of world. He uses his intellect to understand life's complexities with his fears, frustrations, joys, meditations, actions or so. He evolves from very simple stage to maturity throughout this journey. Every day to him is a challenge facing hard facts of life and merging into its numerous realms. My whole invigoration is to understand self and make it useful to the vast humanity.
Kind Attention:
Sunday 29 March 2015
कुछ बेहतर
29 मार्च, 2015 समय 00:05
Monday 23 March 2015
सुबह की बारिश
भोर की वर्षा, घोर मेघ गर्जन, बाहर हरीतिमा का प्रसार है
पवन कुमार,
23 मार्च, 2014 समय रात्रि 22:31
( मेरी डायरी दि० 30 अगस्त, 2014 समय 8:15 प्रातः से )
Tuesday 17 March 2015
प्रबुद्ध चिन्तन
17 मार्च, 2015 समय 20:08 सायं
Saturday 14 March 2015
गमले के कपोत शावक
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कबूतरी ने दिए हमारे गमले में दो अण्डे
फिर आकर बैठने लगी, उन्हें सेने के लिए।
हम हैरान थे कबूतरी की प्रतिबद्धता एवं त्याग देखकर
पुरानी दिल्ली के कबूतर-प्रेमियों के बारे में पढ़ा
14 मार्च, 2015 समय 17:28 अपराह्न
Saturday 7 March 2015
तृतीय नेत्र
7 मार्च, 2015 समय 22;44 रात्रि
Tuesday 3 March 2015
ऋतु-संहारम : वसन्त
सर्ग-६: वसन्त
प्रफुल्ल आम्र अंकुरों के तीक्ष्ण बाणों से,
गुनगुनाती भ्रमरमाला का धनुष पकड़े।
काम प्रसंग एवं हृदय विदिरण हेतु
वसंत योद्धा आ पहुँचा
है, ओ प्रिये !१।
द्रुम (वृक्ष) पुष्प संग, सलिल पद्म संग,
स्त्रियाँ कामोन्मादित व सुगन्धित पवन।
सुखकारी संध्या और रमणीय दिवस,
इस वसंत
में ये सब लगते हैं चारुतर।२।
ओ प्रेयसी! वापी (सरोवर) जल, मणि मेखलाऐं,
शशांक कान्ति, वनिता गर्वित अपने सौन्दर्य से।
कुसुमों (बौर) से झुके
आम्र वृक्ष,
सभी वस्तुऐं वसंत में दायिनी-सौभाग्य हैं।३।
कुसुम राग से रुणित (रक्तिम) सुन्दर रेशमी दुकूलों के
चौड़े पट्ट से विलासिनियों
के ढंके जाते नितंब-बिम्ब।
एक शिष्टता से वे केसरी रंग के लाल
अंशुक से,
ढंक लेती
हैं अपने गोरे कुच-मण्डल।४।
अपने कर्णों में सुयोग्य, नूतन कर्णिकार कुसुम लगाती,
और चमेली के नीले
एवं कृष्ण-वर्णी चंचल पुष्प अशोक के।
रंग-बिरंगे झूमते कंपित नव-मल्लिका पुष्प, अति महत्ता पाते
जब चुने जाते हैं मादक वनिताओं की सुन्दरता बढ़ाने।५।
श्वेत-चन्दन से आर्द्र मुक्ताहार स्तनों में
पहने जाते और भुजा-अंगों में कंगन।
मन्मथ आतुर-कांचियों के नितम्बों एवं
कंचन-नूपुर
करते हैं जंघा - आलिंगन।६।
रमणियों के कांचन पद्म-मुखों पर,
फूल-पत्ती रेखाऐं सजाई जातीं
सुघड़ता से।
मंजुल, जैसे रत्नों से मोती जड़ा जाता,
स्वेद बिन्दुओं के मध्य अलंकरण सा है।७।
नारियाँ, जिनके अंग-बन्धन शिथिल हैं
और गात्र आकुल हैं प्रेम-पीड़ा से।
प्रिय-समीपता से सजीव हो उठती,
अब भी भरी हुई हैं अधीरता से।८।
काम योषिताओं को तनु-पाण्डु बनाता,
अब मुर्हमुह* खिंचती हैं चाह से दुर्बल।
और जम्हाई लेती हैं, अपने ही
लावण्य के संवेग हैं भ्रमित।९।
मुर्हमुह* : बारम्बार
काम अब बहु प्रकार से कामिनी-मनों में
उपस्थित होता, मादक मटकते नैनों में।
पीले कपोलों में और सख्त स्तनों में,
जंघा
नीचे मध्य में, पुष्ट नितम्बों में।१०।
काम ने अब रमणियों के अंगों को कर दिया है
निद्रा से विभ्रम, वाणी उनकी लड़खड़ा
जाती है।
मदिरा से ऊँघती सी हुई, वक्र भौंहें,
उनकी तिरछी
नजरें मटकती हैं।११।
विलासिनियाँ तीव्र
कामेच्छा से निर्बल अपने
गोरे स्तन व नाभि को लेपती आर्द्र
चन्दन से।
और कुंकुम, प्रियंगु बीज एवं
कस्तूरी मिश्रित सुगन्धि
से।१२।
इस वासन्ती काममद काल में निज देहों को शीतल
करने हेतु, शीघ्रता से उतार देते हैं नर भारी
वस्त्र।
और पहन लेते इनके बजाय, लाक्ष-रस रंजित लाल
और कृष्ण धूप से सुगन्धित तनु अंशुक।१३।
आम्र वृक्षों की सुवास से हर्षित,
प्रमत्त कोकिल प्रिया को चूमता।
अम्बुज-कुञ्जों में भँवरा अपनी प्रिया हेतु,
मधुर गुनगुनाता, चाटुकारिता सा करता।१४।
ताम्र वर्ण के प्रवाल गुच्छों से नम्र नत हैं
आम्र-तरुओं की चारु, पुष्पित शाखाऐं।
पवन-कम्पित वे वनिताओं के अन्तःकरण
एवं अंगों में अति कामोत्सुकता हैं जगाते।१५।
अशोक तरु के ताम्र पुष्पों का निरीक्षण कर,
जो कलियों की विपुलता से ढंके हैं मूलों तक।
नव-तरुणियों के हृदय अत्यंत
शोक से जाते भर।१६।
उन्मत्त भ्रमर चारु पुष्पों को चूमता है,
मृदु नव-किसलय* मन्द बयार से आकुल होते।
आम्र की अभिराम* कलिकाओं को देख सत्य ही,
कामी-हृदय
सहसा ही उत्सुकता से भर जाते।१७।
किसलय* : पल्लव; अभिराम* : सुन्दर
कुरबक (आम्र) मंजरी की उत्कृष्ट शोभा देखकर,
प्रिया कान्ता के वदन (मुख) की अप्रतिम शोभा।
जो अभी निर्गम हुई है, काम के भेदित बाणों
से,
ओ प्रिया ! किसका चित्त न व्यथित होगा?।१८।
वसन्त काल में सर्वत्र अग्नि सी
प्रज्वलित है और मरुत से कम्पित।
रक्तिम पलाश* के वन-उपवन झुके हुए हैं
भूमि नव वधू भाँति होती शोभित।१९।
रक्तिम पलाश* : किंशुक पुष्प
प्रथम ही सुवदना* में स्थापित तरुण मन आकुल हैं,
शुक मुख-छवि सी किशुंक-कुसुम आलोक देखकर।
क्या वे मनोरम चम्पा कुसुमों को देख होंगे न
दग्ध,
व क्या मृदु-मिश्री सी बोली मृत्यु-संदेश सुनाएगी न?।२०।
सुवदना* : रमणीय मुख
भाव-विभोर कोकिलाओं की मधुर कल उनको
हर्षाती, उन्मत्त भ्रमर
अपना मधुर गान सुनाते।
ये सब लज्जाशील, विनयी कुलगृह वधुओं
के
हृदय भी महद आकुल हैं कर
देते।२१।
वसंत में हिमपात चला गया है, आम्र द्रुमों की
सुरभित पवन से कुसुमित शाखाऐं कंपकंपाती।
कोकिला की मधुर कुहुँ-कुहुँ को विस्तारती,
पुरुषों के हृदय का हरण करती।२२।
मालिनी कुन्द* भरे मनोहर उपवन विस्मित करते,
रमणीय वधुओं
की हँसी-ठिठोली से शुभ्र होते।
जो निवृत्त रागी मुनियों के चित्त भी हर लेती,
तो क्या युवा
हृदय राग से उद्विग्न न होंगे?।२३।
मालिनी कुन्द* : कुसुम
कटि पर सुवर्ण-मेखला व स्तनों पर उनके मुक्ताहार, कुसुम-बाण
मन्मथ की अनल, छरहरी कामिनियों की काया करते शिथिल।
मधुमास में मधुर कोकिला और भ्रमर नाद संग,
रमणियाँ पुरुष हृदय लेती हैं अत्यंत हर।२४।
पर्वतिका नाना प्रकार के सुन्दर कुसुम वृक्षों से
सुशोभित होती और जन उनको देखकर प्रमुदित।
शैलों के ऊँचे शिखर पुष्पित तरुओं से पूरित
और
घाटियाँ
हर्षित कोकिला-निनाद* से होती विस्तृत।२५।
कोकिला-निनाद* : आकुल-स्वर
आम्र-वृक्ष कुसुमित देखकर कान्ता-वियोग से
एक खिन्न पथिक अपने नेत्र बन्द कर लेता है।
शोक से रुदन करता है, अपनी नासिका को
कर से ढाँप
लेता और जोर से रो पड़ता है।२६।
रम्य कुसुम मास में मत्त ये भ्रमर व कोकिला मधुर-नाद,
कुसुमित आम्र-शाखाऐं,
चम्पा-पुष्पों से परिपूर्ण सुनहरी।
ये अपने काम- बाणों से माननीया रमणियों के गर्वित
हृदय आकुल करते और
कामाग्नि जाती ही बढ़ती।२७।
उसके उत्कृष्ट बाण - आम्र कुसुमों की मंजुल मंजरी
उसका धनुष - पलाश कुसुमों का उत्तम वक्र
उसकी धनुष डोरी - भ्रमर माला
उसका दोष रहित श्वेत छत्र - सितांशु चन्द्र
उसका मत्त गजराज - मलय पर्वत से आती पवन
कोकिला - उसकी वैतालिक (भाट) ।२८।
जगत - विजेता कामदेव इस वसंत से मिलकर
तुम सभी को अधिकाधिक कल्याण देवें।२९।
(महाकवि कालिदास के मूल ऋतु-संहारम, सर्ग-६ : वसन्त
के हिन्दी
रूपान्तरण का प्रयास)
फाल्गुनी वसन्त के होली के पावन, उल्लासमय पर्व पर ऋतु-संहारम के अन्तिम सर्ग-६
: वसन्त का अनुवाद हिन्दी प्रेमियों को उपहार। काव्य की प्रथम ५ सर्ग ऋतुऐं पूर्व
ही पाठकों को समर्पित की जा चुकी हैं। आशा है महाकवि कालिदास के इस महाकाव्य का पूर्ण अनुवाद पाठकों का पसन्द आएगा।
आपकी टिप्पणियाँ एवं सुझाव
अति महत्त्वपूर्ण हैं।
पवन कुमार,
०१ मार्च, २०१५ समय १२:३५ अपराह्न
(रचना काल २७ जनवरी, २०१५ समय १२:५० म०रात्रि)