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Sunday 29 March 2015

कुछ बेहतर

कुछ बेहतर 
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कैसे करूँ मन अपने को निर्मल, 
बहुत सा विषाद जब भरा पड़ा है इसमें। 

नहीं छूटता पर-निंदा का आस्वाद,
चाहे न चाहे जिव्हा अपने नश्तर चुभा ही देती है। 
हालाँकि देती स्व मन को व्यथा भी 
परन्तु मन तो अपनी लघुता प्रदर्शित कर ही देता। 

नहीं छूटा लोभ से, स्वाँग चाहे ऊपर से कर लूँ 
कहीं न कहीं स्व हेतु ज्यादा कोशिश ही करता हूँ। 
वह तो नहीं शायद उतना बुरा, जितना अंदर से हूँ 
सुस्ती, अनियमितता, कार्यों को लटकाना आदि तो उसी आते हैं। 

लोभ की किञ्चित बहुत विस्तृत परिभाषा है 
जब वसुधैव-कुटुम्कम के सूत्र अपनाने में मन आनाकानी करता है। 
अपने स्वार्थ हावी हों, सर्वजन कल्याण से परे हों 
जब सूर्य, चन्द्र, हवा, धरा भाँति बाँटने की प्रवृत्ति हमारी प्रकृति न हो। 

स्वार्थ एवं लोभ हमें संकुचित करते हैं, 
एक व्यापक दृष्टिकोण से हटाकर, मात्र अपना साधना सिखाते हैं। 
हम बहुत लघु हो जाते हैं, मानव की संभावित विस्तृतता की उपमा में, 
श्रेष्ठ तो वे हैं जिन्होंने जग को कुछ दिया है, बदले में कोई आशा न है। 

फिर स्वयं को कैसे बनाऐं, जब स्वयं में कुछ संचित न करें 
पर बुद्धिमता पूर्ण मार्ग से, स्वारूढ़ होना शायद लोभ नहीं है। 
लेकिन निर्धारित अपेक्षाओं एवं नियमों में लज़ीलापन, दुर्बलता का द्योतक है, 
वह लोभ है क्यूँकि हम उससे परे जाने में अक्षम हैं।  

कैसे सोचूँ बेहतर जग के बारे में, क्यों टिप्पणी दूँ बिना जाने विषय के 
कितना बोलना उचित है, और क्या वह नितान्त आवश्यक है ? 
चंडूखाने की ख़बरों का कोई वज़ूद न होना चाहिए जीवन में 
फिर भी कर्ण-सन्तुष्टि एवं जिव्हा-स्वाद के कारण भ्रमित हो ही जाता हूँ। 

निस्वार्थी होने का तात्पर्य, स्व के विकास मार्ग को त्याजना नहीं है 
अपितु सर्व कल्याण हेतु स्व को सक्षम बनाना उसका एक भाग है। 
निकलूँ ज्ञानेन्द्रियों के आनन्द लेने की लोलुपता से 
तभी मन की शांति अनुभव कर सकूँगा। 

मेरे मन के अहंकार को हटाकर तू ,
प्रेम का मार्ग दिखा दे। 
कैसे बने यह जीवन सुन्दर अपना,
इसके लिए कुछ अध्याय पढ़ा दे। 

हम अपनी टिप्पणी एक खास कारण के वशीभूत होकर न दे 
समस्त तथ्य ध्यान विचारित कर, अपने से कुछ बेहतर करें। 
मेरी प्रतिबद्धताऐं विस्तृत करो, ओ मौला मेरे 
मन-मस्तिष्क, हृदय को कोमल बना दो। 

निकाल दूँ कायरता मन की बाहर, उचित कहने में न लज्जाऊँ 
जहाँ मिलता कोई मंच विचार रखने को, सबके भले में बोलना बुराई नहीं है। 
बनूँ निर्मल-मन का स्वामी, स्वस्थ श्लाघा कहने में न झिझकूँ 
प्रश्न है कैसे उत्थित करूँ निज को, क्या समर्थ कुछ महत्त्व देते हैं ?

उचित का निर्वाह और थकान को बाधा करने से रोकना 
अपना सामर्थ्य बढ़ाना, निर्भीक प्राणी सम व्यव्हार करना। 
जब मन हो असमर्थ समझने में, कहने में तो वह गलत का सहारा लेता है, 
वह उसको दूषित है करता, अतः कारण-अवरोध आवश्यक है। 

कैसे बनूँ सुविचारक, कैसे हो अपनी कर्मठता पर विश्वास 
कैसे कुछ अन्यों को लगे कि सत्य, उचित सार्वभौमिक कहा है। 
हालाँकि यह भी शायद स्वार्थ ही है, नहीं तो आकांक्षा न करता 
लेकिन फिर भी उचित चलने की निष्ठा, इस मंज़िल की प्रथम सीढ़ी है। 

दूर करूँ सब अन्धकार, जीवन करूँ उचित, मृदुतर 
मन बने इसमें बहुत पवित्र दूर सब लोभ, प्रलोपों से। 
मदर टेरेसा, बाबा आमटे और गाँधी सम सबको गले लगाना है 
सब बाधाओं को हटाकर, सुमार्ग का यत्न करना है। 

धन्यवाद। 

पवन कुमार,
29 मार्च, 2015 समय 00:05 
 ( मेरी डायरी दि० 29 मई, 2014 समय 9:20 प्रातः से )  

Monday 23 March 2015

सुबह की बारिश

सुबह की बारिश 
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भोर की वर्षा, घोर मेघ गर्जन, बाहर हरीतिमा का प्रसार है 
वसुंधरा की कुछ प्यास बुझी, चिर-प्रतीक्षित रिमझिम से। 

वस्तुतः अत्यल्प वृष्टि इस वर्ष, भारत देश  के बढ़ा रही कष्ट  
अतः जाते मानसून में वर्षा दर्शन, अहसास देता अति सुखद। 
सब धन-धान्य इसी पर निर्भर, सर्व कृषक-श्रमिक जोहते बाँट 
पेय जल की कमी गंभीर समस्या है, वर्षा है उसका निदान। 

इस पोषक जल के धरा-आगमन से, तरु-पादप सब हर्षित हैं  
धुल जाता सब मैल पल्लवों का, देखो आनन्द से लहलहा रहें। 
समस्त कृषि विशेषकर धान-फसल हेतु, यह जल तो है वरदान 
नलकूपों से भूजल निकालना महँगा, अतः करो वर्षा-आव्हान। 

नदी-नाले-सरोवर सब आह्लादित होते, जैसे भरते उनमें प्राण 
सिंचित करें पूर्ण धरा-क्षेत्र को, परिवहन जल-राशि  विशाल। 
तरु-पादप जैसे खिल उठते, उनकी वृद्धि हमें प्राण-वायु देती 
धूल-दूषण वातावरण का अल्पित, अनिल स्वच्छ-निर्मल होती। 

देखो वसुधा के शुष्क वक्ष-स्थल पर, यूँ प्रतीक्षित तृण-वनस्पति 
हर नीर-बूंद उन हेतु अमृत, तब वे सुन्दर छटा विस्तृत करती।  
समस्त जीवन वारि पर ही निर्भर, न्यूनता उसकी कितनी विद्रूप  
नगरों में मारा-मारी जल की, ग्राम-जीवन और कठिन स्वरूप। 

सिञ्चन इस पावस अम्बु से, सब कुछ हैं निःशुल्क प्रोत्साहित   
यह प्रकृति का अमूल्य उपहार, सब इससे ही हैं प्रतिपादित। 
वारि का हम सम्मान करें, उसकी उपलब्धि है जीवन-संचार
पावस निश्चय ही विपुल माध्यम है, जल-चक्र करता उपकार।


 पवन कुमार,
23 मार्च, 2014 समय रात्रि 22:31
( मेरी डायरी दि० 30 अगस्त, 2014 समय 8:15 प्रातः से ) 

Tuesday 17 March 2015

प्रबुद्ध चिन्तन

प्रबुद्ध चिन्तन 
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ओ विवेक कुछ यत्न करो, मन मेरा निर्मल करो 
बहुत भ्रान्तियाँ स्व-भीतर रखता, स्वच्छ कर मृदुल करो। 

मन में कुछ प्रश्न हैं, सर्वश्रेष्ठ की प्रभुता को सहज न स्वीकारता  
कभी निकट तो पाया नहीं उसको, बाहर से समझ नहीं आता। 
कुछ इधर-उधर से देख पढ़कर, मस्तिष्क का यूँ गठन हुआ 
जग-प्रक्रिया स्वतः वा श्रेष्ठ द्वारा संचालित, इन विषयों से न सम्पर्क हुआ। 

बुद्धि तो फिर नहीं सीधी है, अपनी तरह परिभाषा बनाती  
नहीं मानती अन्य व्याख्याओं को सहज ही, निकट आने हेतु प्रयास करती। 
कुछ तो उचित ही है, कार्य करने का सलीका आ जाता 
ठीक सामंजस्य बिठाने हेतु, आवश्यक है ठोक-पीट कर देख लेना। 

बहुत हैं आस्तिक इस जग में, परम-सत्ता में सहज विश्वास करते 
देव कर्ता, पालक, संहारक हैं, उसे वे प्रकृति संग जोड़ते। 
स्वरूप जनों ने बनाए अपने अनुरूप, पर कितने हैं वे सत्य निकट  
बहुत कार्य हुआ इस क्षेत्र में, एक से बढ़कर हैं व्याख्या उपलब्ध। 

अगर मानव को छोड़ दे, अन्य जीवों में ईश-नमन नहीं देखते 
हाँ कुछ मुद्राओं को प्रभु-प्रेम समझ लेते, पर ज्ञान नहीं है मस्तिष्क का उनके। 
 देख-देखकर प्रकृति को यूँ, कुछ बंधुओं ने जग-चित्रण किया 
जोड़ा उसे एक परा-शक्ति से, अन्यों की चाहे समझ ही न आए। 

देवों का भी चेहरा बदलता रहा, कुछ हट गए, कुछ नए आ गए 
विभिन्न सभ्यताओं के अपने आराध्य हैं, अपनी तरह से स्तुति गाए।  
बहुत दन्त-कथाएँ जोड़ी चरित्रों में, मानव से परे बनाने की कोशिश 
पर तत्वज्ञ करते प्रश्न, तोलते अपने ढंग, कर्म, वाक्य हर का चरित्र। 

देव नहीं आलोचना से परे, वे भी हैं मानव की कल्पना 
कैसे कोई परिभाषित कर सकता, जब दुष्कर है खुद को ही समझना।  
मानव ने कुछ देख-दाख कर, बहुत पात्रों को खड़ा कर दिया 
क्या यह सत्य है वा श्रेष्ठ की सहज भक्ति या यत्न पेट पालने का किया ?

कैसे चरित्र खड़े कर लिए गए, देव-2 कहकर प्रचार किया 
कुछ प्रजा में श्रद्धा जगाई, खाने-पीने का प्रबन्ध किया। 
कितने अनुष्ठान, कितनी बलियाँ, देवों के नाम पर लाई   
लोभ अपना और नाम देव का, यह तो कोई भक्ति नहीं है भाई। 

कुछ चरित्र आए नृप-स्तुति में, जो करते कुछ का जीविकोपार्जन सुनिश्चित 
स्व को अमर बनाने की प्रखर इच्छा, कुछ विद्वानों द्वारा कराती प्रचार। 
वस्तुतः क्या है व्याख्या ग्रन्थों में जड़ित, उन्हें और बढ़ाते कथा-वाचक 
या है रचनात्मक बुद्धि की, स्व-वृद्धि हेतु रचवाती साहित्य। 

क्या है यह ज्ञान मनीषियों द्वारा रचित वा प्रवृद्ध भाटों की स्तुति  
या है आम जन की स्वाभाविक प्रकृति, जो कुछ श्रेष्ठ को उच्चतम मान लेती। 
माना कुछ चरित्र अनुपम होते, जो सत्य ही स्तुत्य हैं 
पर भगवान, सृष्टि-कारक तक ले जाना, कहाँ तक उचित, तार्किक है ?

दयानन्द, कबीर सम कुछ चिंतकों ने पात्र समझने की कोशिश की 
रूढ़िवादिता पर किया प्रहार, सत्य समक्ष लाने की कोशिश की। 
ब्रह्म-ज्ञान तत्वज्ञ जैसा भी कुछ है या इच्छा अपना दर्शन प्रचलन 
सम्पूर्ण में कुछ उचित भी होगा, पर क्या सत्य हर वाक्यांश ?

क्या है धर्म-ग्रंथों का इतिहास, कैसे मनुज ने देव चित्रित किए 
कैसे मंदिर, गिरजे, मस्जिदें खड़ी दी गई, अनुशंसा में महायज्ञ किए ? 
क्या यह है कृति मानव के कला पक्ष की, या एकांत पलों का चिंतन एकत्रण 
या स्व-संवाद वृद्धि की लालसा, कुछ भक्त, अनुचरों का जोड़ लेती संग ? 

मानव दक्ष परिभाषित करने में, उनके लघु-कार्यों में भी सौंदर्य भरता 
फिर जहाँ श्रद्धा, सब दोष किनारे, बस भले पक्ष को ही समक्ष करता। 
कवि हृदय विशाल है होता, बात कहने का सुघड़ ढंग रखता 
उसका ज्ञान पात्र-वदन बोलता, कल्पना सत्यरूप लेता। 

कुछ भी हो मानव मन विशाल है, बहुत कुछ रचने की रखता सम्भावना
सब प्रकार के प्रयोग वह करता, ईश्वर-चिन्तन उनमें से एक है। 
कुछ चपलों ने निर्वाह हेतु भी, बहुत युक्ति इस क्षेत्र में लगाई 
मानव-मन रहे सहज भक्ति मय, रहस्यत्मकता ने भीत है दिखाई। 

तुम चले चलो, निर्मित करते चलो देवानुष्ठान हेतु स्थली अपनी-2 
अपने-2 शिविर लगा लिए बस दुकान चल निकली, चोखा धन्धा है। 
क्या है यह देव को बढ़ावा देना या यथासंभव ग्राहक आकर्षित करना     
फिर दान-दक्षिणा बहुत थी पूर्व समय में, अब भी मठ, आश्रम तो समृद्ध ही हैं। 

बड़े प्रतिष्ठान उच्च संस्कृति निर्मित कराते, विद्वान तर्क से जन-मानुष आकर्षित करते 
यह प्रायः नगरों में होता, जो एक व्यावसायिक केंद्र सा रूप होता। 
छोटी जगह में लघु संस्कृति पनपती, लोग अपने-2 देवों में समर्पित होते 
वे थोड़े में ही निर्वाह करते, यदा-कदा शक्ति अनुसार मेले लगाते। 

प्रचार का बहुत योगदान है बढ़ने में, युक्ति हेतु लोग व्यय वहन भी करते 
सफलता बहुत कारकों पर निर्भर, पर कुछ तो बहुत प्रसिद्ध, समृद्ध हो जाते। 
माना बहुत स्पर्धा है उनके भीतर भी, अनुचर बनाने की कोशिश होती 
आम समय में भी छोटी-मोटी दुकान चलती रहती, और आजीविका सुलभ होती। 

पर मेरी शुरुआत ओ मेरे मन, चितवन को पवित्र करो 
हटकर मिथ्या आवरण विचार से, प्रबुद्ध मम चिन्तन करो। 
जो सत्य हो चाहे विज्ञान या परम-सत्ता, केवल उचित हेतु ही प्रयास करो 
जीव निर्मित जो सुवाँछित, सुअनुकूल हो, उसी में बुद्धि अग्रसर करो। 

धन्यवाद।  कुछ अलग, कितना उचित नहीं जानता, मन में आया लिख दिया। 
और बेहतर करो, मन की दिशा प्रखर करो। 

पवन कुमार,
17 मार्च, 2015 समय 20:08 सायं 
( मेरी डायरी 17 फरवरी, 2015 समय 10:52 प्रातः से )

Saturday 14 March 2015

गमले के कपोत शावक

गमले के कपोत शावक 
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कबूतरी ने दिए हमारे गमले में दो अण्डे
फिर आकर बैठने लगी, उन्हें सेने के लिए। 

हमारे लिए कुतुहल का विषय, एक गमला ख़राब कर दिया 
क्योंकि उन्हें हटाकर तो, अन्य जगह भी न रखा जा सकता है। 
अपने पुराने अनुभव से पता है, उनको छूना नहीं है, 
उसके बाद कबूतरी उनके पास नहीं आती, और जीवन नष्ट हो जाता है। 

फिर कबूतरी ने शनै-2 अपना समय बढ़ा दिया, अण्डों पर बैठने हेतु 
और बाद में तो बहुत देर एक ही मुद्रा में बैठे रहती। 
पहले तो हमें देखकर उड़ जाती थी, पर अब तो दुस्साहसी थी 
कभी बचाव मुद्रा में पंख फड़फड़ाकर दूर करने की कोशिश करती थी। 

हालाँकि गिने नहीं पर शायद 20-25 दिन बाद, उन अण्डों का फूटन हुआ 
निकले उनमें से दो चूजे, बिलकुल छोटे और पंख-रहित।  
अब तो कबूतरी उन पर बैठी रहती, अपनी गर्मी उन्हें देती 
लेकिन नज़दीक से उनके पैर या शरीर का कुछ भाग दिखाई दे जाता था। 

हम हैरान थे कबूतरी की प्रतिबद्धता एवं त्याग देखकर 
उसे न अपने खाने का ध्यान था, न पीने का। 
बच्चे बहुत छोटे थे, पर हमने माता द्वारा कुछ खिलाते नहीं देखा 
कैसे उनको ऊर्जा, भोजन मिलता, हमारी समझ में न आता। 

अब वे लगभग 20 दिवस के हो गए हैं, और शरीर कुछ बड़ा हो गया है 
हमें देखकर गर्दन हिलाते और हाव-भाव दिखलाते। 
अपनी चोंच से कभी डराने की कोशिश भी करते 
और हमारी हर क्रिया पर प्रतिक्रिया करते। 

अब तो वे हमारा एक भाग ही बन गए हैं, वे हमारा इन्तज़ार करते 
मैं भी सवेरे उठकर प्रथम उन्हें देखने जात्ता। 
उषा, शीनू, सौम्या भी उनकी अदाओं को सराहती 
वे अब चेष्टा सी करते, हम उनके पास रहे, बतियाते रहे। 

आश्चर्य-चकित हूँ, क्या मात्र माता के शरीर की गर्मी से ही उनका पालन होता 
क्योंकि मैंने अभी तक उनको खाते हुए नहीं देखा। 
अवश्य ही कुछ समय बाद, उनको खाना शुरू करना ही होगा  
पर तब तक समझना, अभी बुद्धि में  नहीं है। 

माना कि ये किसी दिन बड़े होकर उड़ जाऐंगे 
रहेंगे शायद हमारे ही आस-पास, किसी कोटर में घर बनाकर। 
पर तब हम उन्हें पहचान न पाऐंगे 
तो क्या हमारा सम्पर्क केवल उनके शिशु-काल तक ही है ?

हमारे पहले घर के गमलों भी में पले थे कुछ कपोत शावक 
पर इस बार लगाव कुछ अधिक ही है। 
मैं तो बिलकुल मुग्ध हो जाता उनकी अदाओं में 
शायद लगता है कि वे मेरा  भाग हैं। 

मैं नहीं अंतर कर पाता, एक मानव शिशु और उनमें 
उषा से कहता, देखो पड़ोस के सोनू और उनमें क्या फ़र्क है ?
फिर ये भी तो जीवन ही हैं हमारी तरह 
और क्या ये हमारा भाग नहीं हो सकते ? 

पर हमें कबूतर पालने का कोई अनुभव नहीं है   
बचपन में गाँव में सिकलीगर के बच्चों को ये पालते, उड़ाते देखा था। 
कुछ दिन पहले विलियम डेलरिम्पल की 'City of Dzinns' पुस्तक में,
 पुरानी दिल्ली के कबूतर-प्रेमियों के बारे में पढ़ा 
कभी-2 दिल्ली के चौंक-चौराहों पर बाजरे-गेहूँ के दानों हेतु कबूतरों जमावड़ा देखा। 

फिर भी मेरे जीवन का रिश्ता तो है उनसे 
मुझे याद रहेंगे, अब वे रमे हैं मेरी आत्मा में। 
 लगता वे सोचते, बड़ा होने पर तुम भुला दोगे हमको 
पर मुझे उसका उत्तर तो समझ नहीं आता। 

मैंने सोचा था कुछ लिखूँगा उन पर 
प्रयास किया  आदर्श उत्तम तो नहीं कह सकता। 

धन्यवाद। 

पवन कुमार,
14 मार्च, 2015 समय 17:28 अपराह्न 
( मेरी डायरी दि० 18 अप्रैल, 2014 समय 12:53 से ) 

Saturday 7 March 2015

तृतीय नेत्र

तृतीय नेत्र 
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कुछ लघु सा मस्तिष्क-कक्ष, जिसमें परम-शून्यता सी है 
बस यूँ मद्धम लहरें उठती, बैठती, गति का कोई पता नहीं है। 

कहाँ से उठते विचार जब सब कुछ शान्त है 
नहीं निकल पाता तम-गुम्फा से और केवल छटपटाहट है। 
पर कुछ तो कर लेते ऐसे एकान्त क्षणों में, चिन्तन अनुपम गुणवान 
अन्तरतम में कोमलता होती, चितवन होता कृपा-निधान। 

किञ्चित संवाद स्व से हो जाए, वीणा-तार झंकृत हों 
फूटे तान सुरीली यहाँ और जीवन मधुरमय हो।  
जीवन-संचालित हो जाए, उपलब्ध क्षणों का सार्थक उपयोग 
सारी कवायद स्व से ऊपर उठने की, रचने को जीवन अपरिमित। 

कलम-वाहन कर ने अपना कर्म किया, पर नहीं है चाल 
कहते हैं कागज़-कलम का सम्बन्ध अनुपम, स्व ही हुआ करते प्रयोग। 
क्या उपजता उस सामंजस्य से, यदा-कदा अपूर्व है आता 
महा-ग्रन्थ निर्मित होते मन्थन से, जो सदा कल्याणक ही होता। 

यूँ ही धाराऐं निकलती शैल-गर्भ से, मिल परस्पर बनाती गंगा 
एक-2 तार विचार का मिलकर, देता अनुपम सितार बना। 
मानव मन की अन्तर-पीड़ा, कुछ व्यूह-रचना को करती प्रेरित 
माना कि संघर्ष इतना विरल नहीं है, कुछ तो पार चले ही जात। 

चलायमान होती स्व प्रक्रिया से, अतः चलने दो स्व गति  
कोई बलात्कार नहीं इस कलम से, महत्त्वपूर्ण इसका मूढ़ भी। 
नहीं होते चमत्कार इस जग में, दोनों जय-विजय इसके प्रभाग  
किञ्चित संघर्ष को देखने का कुतुहल, अनुपम अनुभव करे चित्रित। 

परा-अपरा विद्या नहीं पास अभी, न ही उस संजीवनी का ज्ञान 
नहीं पहचान रहा वाँछित को, उठा पर्वत दौडूँ भाँति हनुमान। 
  बोझ बढ़ा है मेरे शिखर पर, स्व-क्षमताऐं न पहचान पाता 
वैद्य नहीं हूँ, अतः उपलब्ध औषधियों को न जाँच पाता। 

 कैसे कुछ जीते हैं जग में, धन्य किया अकिंचन जीवन 
माना आऐं धरा पवित्र करने को, विकसित करें सोच सकारात्मक।   
कैसे वचन-कर्मों से लघु मस्तिष्क कोष्ठक में, पैदा करते परम-प्रकाश 
देख पाते गुण- दोष बिना पूर्वाग्रहों के, व्याधि मुक्ति का आभास। 

डूब जाते चिन्तन में, ज्ञान-दीपक की उपासना करते 
कितना कल्याण संभव इस अल्प समय से, इसका ही प्रयास करते। 
नहीं फुर्सत विभूति के महिमा-मण्डन की, क्यूँकि वे होते हैं कर्मठ 
देव-स्तुति नहीं प्रार्थना, याचना अपितु करने कर्म सुकृत्य।  

कहाँ छुपा है वह जीवन, जिससे साक्षात्कार करना चाहता 
जीवन-स्पन्दन ध्येय इन क्षणों का, कालजयी बनना चाहता। 
महाकाल ने काल जीत लिया, पूजनीय हुए सब भारत धरा पर 
सर्व दिशा लिंग स्थापित किए लोगों ने, लगाने हेतु परम-शिव में ध्यान।  

मेरी तपस्या इस जग में, कैसे पहुँचूँ चरम तत्व तक 
मार्ग मुझे पता नहीं है, वेदना भारी भी तिस पर। 
नहीं उपासक जाग्तिक दृष्टि से, नहीं रूचि कर्म-काण्ड में 
फिर भी कुछ समर्थों का सार्थक चिन्तन से, जीवन चलाए हुआ मैं। 

अति-एकान्त बैठ कैलाश शिखर पर, ध्यान लगा परम का चाही 
शिव बने इष्ट देव, पर प्रभावित मात्र स्तुतियों से नहीं।   
ध्यान ले प्रेरणा उनसे, तृतीय नेत्र खुले अपरिमित होने को 
पर इसमें बस स्वार्थ इतना ही है, जीवन की एक झलक पाने को।  

बोझिल पलों का एक संघर्ष। धन्यवाद। 

पवन  कुमार,
7 मार्च, 2015 समय 22;44 रात्रि  
( मेरी डायरी दि० 13 नवम्बर, 2014 समय 7:10 प्रातः से )

Tuesday 3 March 2015

ऋतु-संहारम : वसन्त

ऋतु-संहारम 
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सर्ग-६: वसन्त   
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प्रफुल्ल आम्र अंकुरों के तीक्ष्ण बाणों से,

गुनगुनाती भ्रमरमाला का धनुष पकड़े। 

काम प्रसंग एवं हृदय विदिरण हेतु 

     वसंत योद्धा आ पहुँचा है, ओ प्रिये !१।

 

द्रुम (वृक्ष) पुष्प संग, सलिल पद्म संग,

स्त्रियाँ कामोन्मादित व सुगन्धित पवन। 

सुखकारी संध्या और रमणीय दिवस,

     इस वसंत में ये सब लगते हैं चारुतर।२। 


ओ प्रेयसी
! वापी (सरोवर) जल, मणि मेखलाऐं,

शशांक कान्ति, वनिता गर्वित अपने सौन्दर्य से। 

कुसुमों (बौर) से झुके आम्र वृक्ष,

सभी वस्तुऐं वसंत में दायिनी-सौभाग्य हैं।३। 


  कुसुम राग से रुणित (रक्तिम) सुन्दर रेशमी दुकूलों के 

चौड़े पट्ट से विलासिनियों के ढंके जाते नितंब-बिम्ब। 

एक शिष्टता से वे केसरी रंग के लाल अंशुक से, 

 ढंक लेती हैं अपने गोरे कुच-मण्डल।४। 


अपने कर्णों में सुयोग्य, नूतन कर्णिकार कुसुम लगाती,

और चमेली के नीले एवं कृष्ण-वर्णी चंचल पुष्प अशोक के। 

रंग-बिरंगे झूमते कंपित नव-मल्लिका पुष्प, अति महत्ता पाते

जब चुने जाते हैं मादक वनिताओं की सुन्दरता बढ़ाने।५। 


श्वेत-चन्दन से आर्द्र मुक्ताहार स्तनों में 

पहने जाते और भुजा-अंगों में कंगन। 

मन्मथ आतुर-कांचियों के नितम्बों एवं 

      कंचन-नूपुर करते हैं जंघा - आलिंगन।६। 


रमणियों के कांचन पद्म-मुखों पर, 

फूल-पत्ती रेखाऐं सजाई जातीं सुघड़ता से। 

मंजुल, जैसे रत्नों से मोती जड़ा जाता,

        स्वेद बिन्दुओं के मध्य अलंकरण सा है।७। 


नारियाँ, जिनके अंग-बन्धन शिथिल हैं 

और गात्र आकुल हैं प्रेम-पीड़ा से। 

प्रिय-समीपता से सजीव हो उठती, 

अब भी भरी हुई हैं अधीरता से।८। 


काम योषिताओं को तनु-पाण्डु बनाता,

 अब मुर्हमुह* खिंचती हैं चाह से दुर्बल। 

और जम्हाई लेती हैं, अपने ही 

लावण्य के संवेग हैं भ्रमित।९।

                                                                                                                                                                    मुर्हमुह* : बारम्बार


काम अब बहु प्रकार से 
कामिनी-मनों में

उपस्थित होता, मादक मटकते नैनों में।

पीले कपोलों में और सख्त स्तनों में,

        जंघा नीचे मध्य में, पुष्ट नितम्बों में।१०। 


काम ने अब रमणियों के अंगों को कर दिया है 

निद्रा से विभ्रम, वाणी उनकी लड़खड़ा जाती है। 

मदिरा से ऊँघती सी हुई, वक्र भौंहें, 

  उनकी तिरछी नजरें मटकती हैं।११। 

 

विलासिनियाँ तीव्र कामेच्छा से निर्बल अपने 

गोरे स्तन व नाभि को लेपती आर्द्र चन्दन से। 

और कुंकुम, प्रियंगु बीज एवं 

        कस्तूरी मिश्रित सुगन्धि से।१२। 


इस वासन्ती काममद काल में
निज देहों को शीतल 

करने हेतु, शीघ्रता से उतार देते हैं नर भारी वस्त्र। 

और पहन लेते इनके बजाय, लाक्ष-रस रंजित लाल

और कृष्ण धूप से सुगन्धित तनु अंशुक।१३। 


आम्र वृक्षों की सुवास से हर्षित, 

प्रमत्त कोकिल प्रिया को चूमता। 

अम्बुज-कुञ्जों में भँवरा अपनी प्रिया हेतु,

        मधुर गुनगुनाता, चाटुकारिता सा करता।१४। 


ताम्र वर्ण के प्रवाल गुच्छों से नम्र नत हैं 

आम्र-तरुओं की चारु, पुष्पित शाखाऐं। 

पवन-कम्पित वे वनिताओं के अन्तःकरण 

       एवं अंगों में अति कामोत्सुकता हैं जगाते।१५। 


अशोक तरु के ताम्र पुष्पों का निरीक्षण कर, 

जो कलियों की विपुलता से ढंके हैं मूलों तक। 

        नव-तरुणियों के हृदय अत्यंत शोक से जाते भर।१६। 


उन्मत्त भ्रमर चारु पुष्पों को चूमता है, 

मृदु नव-किसलय* मन्द बयार से आकुल होते। 

आम्र की अभिराम* कलिकाओं को देख सत्य ही, 

     कामी-हृदय सहसा ही उत्सुकता से भर जाते।१७।  

 

किसलय* : पल्लव; अभिराम* : सुन्दर    


कुरबक (आम्र) मंजरी की उत्कृष्ट शोभा देखकर,

प्रिया कान्ता के वदन (मुख) की अप्रतिम शोभा। 

 जो अभी निर्गम हुई है, काम के भेदित बाणों से, 

  ओ प्रिया ! किसका चित्त न व्यथित होगा?।१८। 


वसन्त काल में सर्वत्र अग्नि सी 

प्रज्वलित है और मरुत से कम्पित। 

रक्तिम पलाश* के वन-उपवन झुके हुए हैं 

भूमि नव वधू भाँति होती शोभित।१९। 

 

रक्तिम पलाश* : किंशुक पुष्प


प्रथम ही सुवदना* में स्थापित तरुण मन आकुल हैं,

 शुक मुख-छवि सी किशुंक-कुसुम आलोक देखकर। 

क्या वे मनोरम चम्पा कुसुमों को देख होंगे न दग्ध,

           व क्या मृदु-मिश्री सी बोली मृत्यु-संदेश सुनाएगी न?।२०। 

 

सुवदना* : रमणीय मुख


भाव-विभोर कोकिलाओं की मधुर कल उनको 

हर्षाती, उन्मत्त भ्रमर अपना मधुर गान सुनाते। 

ये सब लज्जाशील, विनयी कुलगृह वधुओं के 

        हृदय भी महद आकुल हैं कर देते।२१।       


वसंत में हिमपात चला गया है, आम्र द्रुमों की 

 सुरभित पवन से कुसुमित शाखाऐं कंपकंपाती।  

कोकिला की मधुर कुहुँ-कुहुँ को विस्तारती, 

पुरुषों के हृदय का हरण करती।२२। 


मालिनी कुन्द* भरे मनोहर उपवन विस्मित करते,

रमणीय वधुओं की हँसी-ठिठोली से शुभ्र होते। 

जो निवृत्त रागी मुनियों के चित्त भी हर लेती,

   तो क्या युवा हृदय राग से उद्विग्न न होंगे?।२३। 

 

मालिनी कुन्द* : कुसुम


कटि पर सुवर्ण-मेखला व स्तनों पर उनके मुक्ताहार, कुसुम-बाण 

मन्मथ की अनल, छरहरी कामिनियों की काया करते शिथिल। 

मधुमास में मधुर कोकिला और भ्रमर नाद संग,

रमणियाँ पुरुष हृदय लेती हैं अत्यंत हर।२४।

 

पर्वतिका नाना प्रकार के सुन्दर कुसुम वृक्षों से 

सुशोभित होती और जन उनको देखकर प्रमुदित। 

शैलों के ऊँचे शिखर पुष्पित तरुओं से पूरित और

       घाटियाँ हर्षित कोकिला-निनाद* से होती विस्तृत।२५।

 

कोकिला-निनाद* : आकुल-स्वर 


आम्र-वृक्ष कुसुमित देखकर कान्ता-वियोग से 

एक खिन्न पथिक अपने नेत्र बन्द कर लेता है। 

शोक से रुदन करता है, अपनी नासिका को 

    कर से ढाँप लेता और जोर से रो पड़ता है।२६। 


रम्य कुसुम मास में मत्त ये भ्रमर व कोकिला मधुर-नाद,

कुसुमित आम्र-शाखाऐं, चम्पा-पुष्पों से परिपूर्ण सुनहरी। 

ये अपने काम- बाणों से माननीया रमणियों के गर्वित 

 हृदय आकुल करते और कामाग्नि जाती ही बढ़ती।२७। 


उसके उत्कृष्ट बाण - आम्र कुसुमों की मंजुल मंजरी 

उसका धनुष       - पलाश कुसुमों का उत्तम वक्र 

उसकी धनुष डोरी                   - भ्रमर माला  

उसका दोष रहित श्वेत छत्र        - सितांशु चन्द्र 

उसका मत्त गजराज - मलय पर्वत से आती पवन 

कोकिला          - उसकी वैतालिक (भाट) ।२८। 

 

जगत - विजेता कामदेव इस वसंत से मिलकर 

तुम सभी को अधिकाधिक कल्याण देवें।२९। 


(महाकवि कालिदास के मूल ऋतु-संहारम, सर्ग-६ : वसन्त 

के हिन्दी रूपान्तरण का प्रयास)


फाल्गुनी वसन्त के होली के पावन, उल्लासमय पर्व पर ऋतु-संहारम के अन्तिम सर्ग-६ : वसन्त का अनुवाद हिन्दी प्रेमियों को उपहार। काव्य की प्रथम ५ सर्ग ऋतुऐं पूर्व ही पाठकों
को समर्पित की जा चुकी हैं। आशा है महाकवि कालिदास के इस महाकाव्य का पूर्ण अनुवाद पाठकों का पसन्द आगा।

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पवन कुमार,

 ०१ मार्च, २०१५ समय १२: अपराह्न 

(रचना काल  जनवरी, २०१५ समय १२:५० म०रात्रि)