गमले के कपोत शावक
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कबूतरी ने दिए हमारे गमले में दो अण्डे
फिर आकर बैठने लगी, उन्हें सेने के लिए।
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कबूतरी ने दिए हमारे गमले में दो अण्डे
फिर आकर बैठने लगी, उन्हें सेने के लिए।
हमारे लिए कुतुहल का विषय, एक गमला ख़राब कर दिया
क्योंकि उन्हें हटाकर तो, अन्य जगह भी न रखा जा सकता है।
अपने पुराने अनुभव से पता है, उनको छूना नहीं है,
उसके बाद कबूतरी उनके पास नहीं आती, और जीवन नष्ट हो जाता है।
फिर कबूतरी ने शनै-2 अपना समय बढ़ा दिया, अण्डों पर बैठने हेतु
और बाद में तो बहुत देर एक ही मुद्रा में बैठे रहती।
पहले तो हमें देखकर उड़ जाती थी, पर अब तो दुस्साहसी थी
कभी बचाव मुद्रा में पंख फड़फड़ाकर दूर करने की कोशिश करती थी।
हालाँकि गिने नहीं पर शायद 20-25 दिन बाद, उन अण्डों का फूटन हुआ
निकले उनमें से दो चूजे, बिलकुल छोटे और पंख-रहित।
अब तो कबूतरी उन पर बैठी रहती, अपनी गर्मी उन्हें देती
लेकिन नज़दीक से उनके पैर या शरीर का कुछ भाग दिखाई दे जाता था।
हम हैरान थे कबूतरी की प्रतिबद्धता एवं त्याग देखकर
उसे न अपने खाने का ध्यान था, न पीने का।
बच्चे बहुत छोटे थे, पर हमने माता द्वारा कुछ खिलाते नहीं देखा
कैसे उनको ऊर्जा, भोजन मिलता, हमारी समझ में न आता।
अब वे लगभग 20 दिवस के हो गए हैं, और शरीर कुछ बड़ा हो गया है
हमें देखकर गर्दन हिलाते और हाव-भाव दिखलाते।
अपनी चोंच से कभी डराने की कोशिश भी करते
और हमारी हर क्रिया पर प्रतिक्रिया करते।
अब तो वे हमारा एक भाग ही बन गए हैं, वे हमारा इन्तज़ार करते
मैं भी सवेरे उठकर प्रथम उन्हें देखने जात्ता।
उषा, शीनू, सौम्या भी उनकी अदाओं को सराहती
वे अब चेष्टा सी करते, हम उनके पास रहे, बतियाते रहे।
आश्चर्य-चकित हूँ, क्या मात्र माता के शरीर की गर्मी से ही उनका पालन होता
क्योंकि मैंने अभी तक उनको खाते हुए नहीं देखा।
अवश्य ही कुछ समय बाद, उनको खाना शुरू करना ही होगा
पर तब तक समझना, अभी बुद्धि में नहीं है।
माना कि ये किसी दिन बड़े होकर उड़ जाऐंगे
रहेंगे शायद हमारे ही आस-पास, किसी कोटर में घर बनाकर।
पर तब हम उन्हें पहचान न पाऐंगे
तो क्या हमारा सम्पर्क केवल उनके शिशु-काल तक ही है ?
हमारे पहले घर के गमलों भी में पले थे कुछ कपोत शावक
पर इस बार लगाव कुछ अधिक ही है।
मैं तो बिलकुल मुग्ध हो जाता उनकी अदाओं में
शायद लगता है कि वे मेरा भाग हैं।
मैं नहीं अंतर कर पाता, एक मानव शिशु और उनमें
उषा से कहता, देखो पड़ोस के सोनू और उनमें क्या फ़र्क है ?
फिर ये भी तो जीवन ही हैं हमारी तरह
और क्या ये हमारा भाग नहीं हो सकते ?
पर हमें कबूतर पालने का कोई अनुभव नहीं है
बचपन में गाँव में सिकलीगर के बच्चों को ये पालते, उड़ाते देखा था।
कुछ दिन पहले विलियम डेलरिम्पल की 'City of Dzinns' पुस्तक में,
पुरानी दिल्ली के कबूतर-प्रेमियों के बारे में पढ़ा
पुरानी दिल्ली के कबूतर-प्रेमियों के बारे में पढ़ा
कभी-2 दिल्ली के चौंक-चौराहों पर बाजरे-गेहूँ के दानों हेतु कबूतरों जमावड़ा देखा।
फिर भी मेरे जीवन का रिश्ता तो है उनसे
मुझे याद रहेंगे, अब वे रमे हैं मेरी आत्मा में।
लगता वे सोचते, बड़ा होने पर तुम भुला दोगे हमको
पर मुझे उसका उत्तर तो समझ नहीं आता।
मैंने सोचा था कुछ लिखूँगा उन पर
प्रयास किया आदर्श उत्तम तो नहीं कह सकता।
धन्यवाद।
पवन कुमार,
14 मार्च, 2015 समय 17:28 अपराह्न
14 मार्च, 2015 समय 17:28 अपराह्न
( मेरी डायरी दि० 18 अप्रैल, 2014 समय 12:53 से )
Puran Mehra Sir, I am learning writing tips from your blogs. you are a genius.
ReplyDeletePawan Kumar : Sir, you're already a grasping man, able to depict even slightest details detouring through varied topics. Regards.
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