प्रबुद्ध चिन्तन
-------------------
ओ विवेक कुछ यत्न करो, मन मेरा निर्मल करो
बहुत भ्रान्तियाँ स्व-भीतर रखता, स्वच्छ कर मृदुल करो।
मन में कुछ प्रश्न हैं, सर्वश्रेष्ठ की प्रभुता को सहज न स्वीकारता
कभी निकट तो पाया नहीं उसको, बाहर से समझ नहीं आता।
कुछ इधर-उधर से देख पढ़कर, मस्तिष्क का यूँ गठन हुआ
जग-प्रक्रिया स्वतः वा श्रेष्ठ द्वारा संचालित, इन विषयों से न सम्पर्क हुआ।
बुद्धि तो फिर नहीं सीधी है, अपनी तरह परिभाषा बनाती
नहीं मानती अन्य व्याख्याओं को सहज ही, निकट आने हेतु प्रयास करती।
कुछ तो उचित ही है, कार्य करने का सलीका आ जाता
ठीक सामंजस्य बिठाने हेतु, आवश्यक है ठोक-पीट कर देख लेना।
बहुत हैं आस्तिक इस जग में, परम-सत्ता में सहज विश्वास करते
देव कर्ता, पालक, संहारक हैं, उसे वे प्रकृति संग जोड़ते।
स्वरूप जनों ने बनाए अपने अनुरूप, पर कितने हैं वे सत्य निकट
बहुत कार्य हुआ इस क्षेत्र में, एक से बढ़कर हैं व्याख्या उपलब्ध।
अगर मानव को छोड़ दे, अन्य जीवों में ईश-नमन नहीं देखते
हाँ कुछ मुद्राओं को प्रभु-प्रेम समझ लेते, पर ज्ञान नहीं है मस्तिष्क का उनके।
देख-देखकर प्रकृति को यूँ, कुछ बंधुओं ने जग-चित्रण किया
जोड़ा उसे एक परा-शक्ति से, अन्यों की चाहे समझ ही न आए।
देवों का भी चेहरा बदलता रहा, कुछ हट गए, कुछ नए आ गए
विभिन्न सभ्यताओं के अपने आराध्य हैं, अपनी तरह से स्तुति गाए।
बहुत दन्त-कथाएँ जोड़ी चरित्रों में, मानव से परे बनाने की कोशिश
पर तत्वज्ञ करते प्रश्न, तोलते अपने ढंग, कर्म, वाक्य हर का चरित्र।
देव नहीं आलोचना से परे, वे भी हैं मानव की कल्पना
कैसे कोई परिभाषित कर सकता, जब दुष्कर है खुद को ही समझना।
मानव ने कुछ देख-दाख कर, बहुत पात्रों को खड़ा कर दिया
क्या यह सत्य है वा श्रेष्ठ की सहज भक्ति या यत्न पेट पालने का किया ?
कैसे चरित्र खड़े कर लिए गए, देव-2 कहकर प्रचार किया
कुछ प्रजा में श्रद्धा जगाई, खाने-पीने का प्रबन्ध किया।
कितने अनुष्ठान, कितनी बलियाँ, देवों के नाम पर लाई
लोभ अपना और नाम देव का, यह तो कोई भक्ति नहीं है भाई।
कुछ चरित्र आए नृप-स्तुति में, जो करते कुछ का जीविकोपार्जन सुनिश्चित
स्व को अमर बनाने की प्रखर इच्छा, कुछ विद्वानों द्वारा कराती प्रचार।
वस्तुतः क्या है व्याख्या ग्रन्थों में जड़ित, उन्हें और बढ़ाते कथा-वाचक
या है रचनात्मक बुद्धि की, स्व-वृद्धि हेतु रचवाती साहित्य।
क्या है यह ज्ञान मनीषियों द्वारा रचित वा प्रवृद्ध भाटों की स्तुति
या है आम जन की स्वाभाविक प्रकृति, जो कुछ श्रेष्ठ को उच्चतम मान लेती।
माना कुछ चरित्र अनुपम होते, जो सत्य ही स्तुत्य हैं
पर भगवान, सृष्टि-कारक तक ले जाना, कहाँ तक उचित, तार्किक है ?
दयानन्द, कबीर सम कुछ चिंतकों ने पात्र समझने की कोशिश की
रूढ़िवादिता पर किया प्रहार, सत्य समक्ष लाने की कोशिश की।
ब्रह्म-ज्ञान तत्वज्ञ जैसा भी कुछ है या इच्छा अपना दर्शन प्रचलन
सम्पूर्ण में कुछ उचित भी होगा, पर क्या सत्य हर वाक्यांश ?
क्या है धर्म-ग्रंथों का इतिहास, कैसे मनुज ने देव चित्रित किए
कैसे मंदिर, गिरजे, मस्जिदें खड़ी दी गई, अनुशंसा में महायज्ञ किए ?
क्या यह है कृति मानव के कला पक्ष की, या एकांत पलों का चिंतन एकत्रण
या स्व-संवाद वृद्धि की लालसा, कुछ भक्त, अनुचरों का जोड़ लेती संग ?
मानव दक्ष परिभाषित करने में, उनके लघु-कार्यों में भी सौंदर्य भरता
फिर जहाँ श्रद्धा, सब दोष किनारे, बस भले पक्ष को ही समक्ष करता।
कवि हृदय विशाल है होता, बात कहने का सुघड़ ढंग रखता
उसका ज्ञान पात्र-वदन बोलता, कल्पना सत्यरूप लेता।
कुछ भी हो मानव मन विशाल है, बहुत कुछ रचने की रखता सम्भावना
सब प्रकार के प्रयोग वह करता, ईश्वर-चिन्तन उनमें से एक है।
कुछ चपलों ने निर्वाह हेतु भी, बहुत युक्ति इस क्षेत्र में लगाई
मानव-मन रहे सहज भक्ति मय, रहस्यत्मकता ने भीत है दिखाई।
तुम चले चलो, निर्मित करते चलो देवानुष्ठान हेतु स्थली अपनी-2
अपने-2 शिविर लगा लिए बस दुकान चल निकली, चोखा धन्धा है।
क्या है यह देव को बढ़ावा देना या यथासंभव ग्राहक आकर्षित करना
फिर दान-दक्षिणा बहुत थी पूर्व समय में, अब भी मठ, आश्रम तो समृद्ध ही हैं।
बड़े प्रतिष्ठान उच्च संस्कृति निर्मित कराते, विद्वान तर्क से जन-मानुष आकर्षित करते
यह प्रायः नगरों में होता, जो एक व्यावसायिक केंद्र सा रूप होता।
छोटी जगह में लघु संस्कृति पनपती, लोग अपने-2 देवों में समर्पित होते
वे थोड़े में ही निर्वाह करते, यदा-कदा शक्ति अनुसार मेले लगाते।
प्रचार का बहुत योगदान है बढ़ने में, युक्ति हेतु लोग व्यय वहन भी करते
सफलता बहुत कारकों पर निर्भर, पर कुछ तो बहुत प्रसिद्ध, समृद्ध हो जाते।
माना बहुत स्पर्धा है उनके भीतर भी, अनुचर बनाने की कोशिश होती
आम समय में भी छोटी-मोटी दुकान चलती रहती, और आजीविका सुलभ होती।
पर मेरी शुरुआत ओ मेरे मन, चितवन को पवित्र करो
हटकर मिथ्या आवरण विचार से, प्रबुद्ध मम चिन्तन करो।
जो सत्य हो चाहे विज्ञान या परम-सत्ता, केवल उचित हेतु ही प्रयास करो
जीव निर्मित जो सुवाँछित, सुअनुकूल हो, उसी में बुद्धि अग्रसर करो।
धन्यवाद। कुछ अलग, कितना उचित नहीं जानता, मन में आया लिख दिया।
और बेहतर करो, मन की दिशा प्रखर करो।
पवन कुमार,
17 मार्च, 2015 समय 20:08 सायं
17 मार्च, 2015 समय 20:08 सायं
( मेरी डायरी 17 फरवरी, 2015 समय 10:52 प्रातः से )
No comments:
Post a Comment