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Saturday 28 June 2014

सावधान

सावधान 

कुशलता इसी में है, कुशल  कार्य करो 
महानता इसी में है, महान कार्य करो। 

तुम क्या जानो कार्य करने में कष्ट होता है 
अच्छे परिणामों के लिए रातें जलानी पड़ती है। 
केवल खुश-फहमी में क्या कुछ  हुआ है 
एक अनुसन्धान हेतु हज़ारों-लाखों प्रयोग हुए हैं। 


तुम क्यों बिना शुरू किए ही हार मान जाते हो 
क्या ऐसे ही किसी को पूर्णता का दर्ज़ा हासिल हुआ है ?
जीवन में कुछ पाने के लिए मेहनत करनी पड़ेगी ही  
व्यर्थ कलह, चिंता, शोक से तो कुछ अच्छा न निकला है। 

क्यों मानूँ ऐसा कुछ किया जो किसी श्रेणी में रखने योग्य है 
क्या किसी तुला में बैठने की मेरी उपयुक्तता है। 
या लगभग बराबर है जगत में आना या न आना  
या कुछ मेहनत से दर्ज़ा कुछ बढ़ जाएगा। 

विद्या, स्वाध्याय व क्रिया-योग से मुक्ति मिल सकती है 
पर मैंने तो इस दिशा में मात्र देखने की कोशिश की है। 
प्रयोग तो अभी सोचे तक न हैं 
फिर इस छोटे से जीवन में कैसे गुजर होगा। 

क्या आशाऐं बांधी जा सकती है स्वयं से 
कब अर्जुन विडम्बनाओं से पार जा सकेगा? 
कब वह कृष्ण गीता-पाठ पढ़ाएगा 
और हृदय में आकर प्रेम-बाँसुरी बजाएगा। 

कब माँ सरस्वती आकर ज्ञान-दान देगी 
कब दक्षिणा-मूर्ति निज विवेक से आकर्षित करेगा?  
कब उन राहों पर चलने में सक्षम हूँगा 
 जिन पर बहुदा महान जन चला करते हैं। 

कब अपनी कमजोरियों पर विजयी हूँगा 
कब उस महावीर भाँति जितेन्द्रिय बन सकूँगा? 
कब यह वाणी ह्रदय का अनुसरण करेगी 
और कब मुझमे सब हेतु रोशनी जलेगी ?

कब मन, कर्म, वचन एक जैसे होंगे    
कब एक जिम्मेवार, विश्वनीय जीव बन सकूँगा ?
कब जग-कष्टों में से एक भी कम करने में सक्षम हूँगा 
और कब निज क्षुद्र-दुनिया से उठ सबका बन सकूँगा ?

कब मुझे अपने कर्त्तव्यों का पूर्ण-ज्ञान होगा 
और कब वरिष्ठों में कुछ स्थान बना सकूँगा ?
कब इस हृदय से वितृष्णा-ज्वाला बाहर निकलेगी 
और कब बुराईयों में आनंदित होना छोड़ दूँगा?

कब जरूरत-मंद परिवार की सहायता में सचेत हूँगा 
कब बुज़र्ग माँ-बाप की सेवा में अडिग हूँगा ?
कब उनके दिल को कोमल वाणी से सुख दूँगा 
और कब उनके आशीर्वाद का पात्र बन सकूँगा ?

केवल ऊँचा बोलकर कुछ भी न पाया जा सकता 
ह्रदय को जीतना ही दुष्कर कार्य है। 
जब उनको लगेगा कि सत्यमेव इस योग्य हूँ 
वे भी अपने व्यवहार में कुछ कसर न छोड़ेंगें। 

अनंतता के दौर में एक अवसर मिला बहने का 
पहचान बनाने का व समय पर स्व छाप छोड़ने का। 
यूँ हाथ पर हाथ धरे बैठे रहोगे तो कुछ हो न सकेगा 
सफलता का वही पुरा-रहस्य मात्र 'परिश्रम' व 'बुद्धि' ही है। 

जन्म मिलता न बारंबार और मिलता भी तो पता नहीं 
कुछ इस विषय में दावा भी करते लेकिन मेरी समझ से परे। 
इतना अवश्य कि यदि इसी जीवन में मूल उद्देश्य समझ जाऊँ 
तो शायद दुनिया में आना सफल हो जाएगा। 

बहुत बार बात की है मैंने इस विषय में 
कई बार शायद मंज़िल के निकट भी आया। 
लेकिन जैसे पाठ याद करने में नितत अभ्यास चाहिए  
अतः अनवरत अभ्यास करने की आवश्यकता है। 

जैसे कि पूर्व बताया चीजें इतनी आसान भी न होती 
फिर यह विषय ऐसा, मनीषियों ने पूरी ज़िन्दगी लगा दी। 
फिर मैंने तो मात्र सोचा ही है 
और अभी से मानो निश्चिन्त हुए लगते हो। 

आपत्ति नहीं निश्चिन्त हुए देखकर  भी 
लेकिन अधिक प्रसन्न होता जब जिम्मेवार भी दिखते। 
तब मंज़िल पाने के तमाम सामान जुटाने लगते 
जिनसे निश्चय ही मंज़िल सुलभ है। 

 इस वर्ष का ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला है निर्मल वर्मा 
व पंजाबी लेखक हरबंस सिंह जी को 
इनमें से एक वर्मा जी को मैंने थोड़ा सा पढ़ा है। 
उनका मानव के अंतः तक जाने का तरीका 
और परिष्कृत हिंदी-भाषा निश्चय ही प्रभावित करती। 

उनके ही भाई हैं रामकुमार वर्मा 
जो बहुत बड़े, जाने-माने चित्रकार हैं। 
'नेशनल गैलरी ऑफ़ मॉडर्न आर्ट्स' में कई चित्र देखें हैं उनके 
और सत्य ही प्रशंसनीय हैं। 

लेकिन अपनी क्या कहूँ जो अनाड़ी है हर क्षेत्र में  
कुछ चीज़ों का अध-कचरा ज्ञान ही मस्तिष्क की जमा-पूँजी। 
वह भी शायद अच्छी अगर दैनंदिन वृद्धि करते जाऊँ 
पर जितना अपेक्षित है उतना कर नहीं पा रहा हूँ। 

क्या नहीं देखते एक-2 ईंट से महल बन जाता 
और एक-2 बूँद से सागर बन जाता है। 
एक-2 रहस्योद्घाटन से मूर्ख ज्ञानी बन जाता 
और एक-2 कदम से लोग कहाँ से कहाँ पहुँच जाते। 

फिर क्या रहस्य है इस सब संवाद का 
शायद निज प्रति ईमानदारी इस दिशा में पहला कदम है। 
मुझे तो फिर अपने मन की कुछ थाह नहीं है 
कि यह मुझे कहाँ से कहाँ ले जा सकता है। 

निपट अज्ञानी सा बना रहकर जीने में पीड़ा होती है 
सच्चा गुरु कहाँ से ढूँढूँ जो कान पकड़ चलना सिखा दे। 
जो कठिन से कठिन डगर में भी मुस्कान दे दे 
और फिर अपने पैरों पर खड़ा रहने की हिम्मत दे। 

'स्वयं-सिद्धा' एक शब्द है सुना, प्रयोग किया करो 
स्वयं के अनुभव से अच्छा कोई शिक्षक नहीं है। 
फिर जो भी आस-पास, कुछ उचित-बुद्धि प्राणी हैं 
उनसे भी सन्मार्ग की शिक्षा लिया करो। 

विषय परखना सीखो व फिर विश्वास करना 
    स्वयं पर विश्वास करो व अपने ढंग से जीना। 
इससे पूर्व कि अन्य प्रभाव डालें, निज क्षेत्र शक्ति-शाली करो 
हालाँकि अच्छा गुण-ग्राही बनने में कोई आपत्ति नहीं है। 

  फिर तुम्हें अपने से कैसी आशा है 
यह शायद तुम्हारे हर प्रश्न का उत्तर देगा। 
हाँ यदि कहूँ खुद पर विश्वास है, विश्वास है, विश्वास है 
और कठिन परिस्थितियों में भी स्वयं के संग जी सकता हूँ 
तो निश्चय ही कुछ विश्वास के योग्य हो। 

तो मुस्कुराना सीखो, खीझना छोड़ो व व्यवहार उचित करो
तब तुम सभी के होंगे और सब तुम्हारे। 
फिर अपने-पराए का भेद निकल जाएगा 
समस्त जग की ज्ञान-राशि कर्म-क्षेत्र होगी। 

धन्यवाद। 

पवन कुमार,
28 जून, 2014 समय 19:10 साँय 
(मेरी शिलोंग डायरी दि० 11फरवरी, 2001 समय 01:05 बजे म० रा० से) 

Thursday 26 June 2014

कुछ विचित्रता

कुछ विचित्रता
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 जग-विचित्रता की बात करूँ, जो हो कुछ विरल-निराली 
बहुत कुछ है अद्भुत यहाँ, पर ध्यान हमारा जाता नहीं। 

हर पल का बदलाव समक्ष नेत्रों के, फिर क्यों  रोमांच  
विविध ध्वनियाँ खग-वृन्द की, मोटरों का स्वर तो भिन्न। 
अपनी ही साँसों का चलन भी, विभिन्न स्वरूप है लेता 
कभी तेज़, कभी सामान्य, कभी अल्प यह है चलता। 

एक दिवस व रात्रि में ही हम, कितने रूप हैं देखते 
मनीषियों ने अष्ट-प्रहर बना दिए, समय के 3 घंटों के। 
लेकिन उनके अंदर भी कितनी भिन्नताऐं छिपी हुई  
हर दिन की अल्प-भिन्नता से, शनै-2 ऋतु बदलती। 

माना कुछ लय है प्रकृति में, यह अपने को दुहराती 
पर आकाश के रंग देख, हम क्यों पुलकित होते नहीं? 
धूप के रंग ही लाल-सुनहले, क्षणों में भिन्न ऊष्मा-मात्रा 
शायद एक काल  सम प्रतीत, लेकिन अंतर है होता। 

हम विस्मित सब रंगों से, उससे ज्यादा अविवेक पर  
क्यों न प्रकृति-विस्मय को देखते व होते प्रफुल्लित ? 
शायद जीवन-कर्कशता ने, बाह्य-दृष्टि बन्द कर दी  
पर आवश्यकता तो है जीवन में नवीन अनुभव की।

वृक्ष के पत्तों का वर्ण देखो, दिन-प्रतिदिन यूँ है बदलता 
शिशु पल्लव शनैः बड़े होता, पीत बनकर टूट जाता। 
वृक्ष की छाल को भी देखों, विभिन्न स्वरूप जाती लेती 
कभी चींटियों का घर बना, सतत बाहर जाती धकेली। 

हर क्षण वृद्धि-क्षय व सब शनैः-2 उस मिट्टी में मिले 
पर वह मृदा भी अपने में कितने ही रूप समाए हुए। 
विभिन्न किस्में, गुण व मिश्रण, भिन्न बनाता अन्यों से
फिर स्थानों  की विभिन्नता, हमको है चुंधियाए हुए। 

कहीं ऊँचे पर्वत, पहाड़ी, मैदान समतल मिलते कहीं 
कहीं रेगिस्तान, कहीं झरने, कहीं झीलें लहर मारती। 
कहीं नदियां, नाले और सागर-महासागर हैं छाए हुए 
कहीं पर वर्षा, सूखा, कहीं विस्तृत बर्फ फैली हुई है। 

कहीं घन वृक्ष, लघु वनस्पति, कहीं भीड़-भाड़, निर्जन है 
कहीं अरण्यों में भीषण जीव-प्रभुत्व, प्रकृति में हिले-मिले। 
कहीं मानव भी उन जैसे ही, कहीं सभ्यता चरम स्तर पर 
कहीं दरिद्रता, कहीं वैभव है, निज ढंग से बसर रहे कर। 

कहीं बुद्धिमता, कहीं मूर्खता, बहुत से जन यहाँ सामान्य  
कहीं पर शिक्षा, कहीं अपढ़ता, भिन्न मात्रा में रश्मि-ज्ञान। 
कहीं खुशियाँ, दुःख-कहर, मानव व्यस्त स्व-उपक्रमों में 
वे सब जीते अपने ढंग से, यह भी विस्तृतता लिए हुए हैं। 

कहीं पर चंदा, कहीं हैं तारे, कहीं धूमकेतु हैं चल रहे 
कहीं पर ग्रह-उपग्रह, आकाश असीमता लिए हुए हैं। 
उनको देखने में ही, हम कितने जन्म बिता हैं सकते 
फिर यन्त्र नए प्रचलन में आते, दूर-दृष्टि किए हुए हैं। 

फिर निज-रंग ही कौन से कम हैं, क्षण-2 नवीन होते 
चाहे अनुभव करें या न, पर परिवर्तन आमूल हुए हैं। 
बदलते सदा भिन्न रूपों में, वृहद प्रकृति का मात्र अंश    
हम एक दूजे को बनाते, सब पदार्थ का हुआ प्रयोग। 

मैं देखूँ और विस्मित होऊँ, इतनी विचित्रता भरी पड़ी 
दर्शन-वर्णन करना अति-दुष्कर, फिर भी यह सत्य ही। 
क्यों न होवें हम समृद्ध यहाँ, जब इतना कुछ है विस्तृत 
असली मालिक तो प्रकृति, मानव बस कुछ क्षण मुद्रित। 

करें बखान हम इस विचित्रता का भाव-वाणी-कलम द्वारा 
मन में करें अनुभव कुछ राग-विराग, संगीत-सन्नाटे का। 
फिर इस विस्तृतता में होवें संगी, मेरी तो बस इच्छा यही 
मैं सबका - सब मेरे, भाव को समझने का प्रयास जारी। 

पवन कुमार, 
26 जून, 2014 समय 15:19 अपराह्न 
(मेरी डायरी दि० 24 अप्रैल, 2014 समय 9:15 बजे प्रातः से ) 
  

Thursday 19 June 2014

एक प्रार्थना

एक प्रार्थना 
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करीबियाँ हैं खुद से, सुकून की बात है 
बढ़े और नज़दीकियाँ, यही असली सौगात है। 

विषयों को बदलने का कुछ हुनर तो सीखो 
कुछ मधुर कहने, करने का विवेक तो रखो। 
नहीं चलो यूँ मूर्ख सम, जीवन बिताते हुए 
क्या करना है, ज़रा ठीक से समझ तो लो। 

मुस्कुराने की आदत बने तो सबको सुकून हो  
कुछ उपकार करने की चेष्टा तो हो जाए।  
माना निठल्लों को मुफ्त खिलाने की नहीं मेरी मंशा  
सुबुद्धि से सबको श्रेष्ठ करने की प्रेरणा हो जाए। 

भले ही हम नहीं योग्य हैं, दूसरों को समझाने में 
लेकिन कुछ को तो अचेतन से चेतन में बदल ही देते हैं। 
बहुतों का न होता हो चाहे काया-कल्प 
लेकिन कुछ को तो बेहतर कर ही देते हैं। 

यह कैसा रूपांतरण होना है, मेरे प्रभु 
मेरा चरित्र समझा दो रे। 
मुझमें आध्यात्मिकता का स्पन्दन हो जाए 
और मन की सम्पन्नता बढ़ा दो रे।  

मेरी प्रवृत्तियों को उचित दिशा दे मौला 
और कुछ योग्य से योग्यतर बना दो रे। 
मैं भी तर जाऊँगा, उँगली तेरी पकड़ 
और मानव सच्चा बना दो रे। 

मेरी हदों को बढ़ा दे, ऐ जगत के मालिक 
मुझ पर लदा अनावश्यक बोझ हटा दीजिए।  
कीमत तो मन की तू ही बढ़ा सकता है 
अतः प्रार्थना तुमसे, जो उचित हो कर दीजिए।  

धन्यवाद, शुभ रात्रि। 

पवन कुमार, 
19 जून, 2014 समय 23:31 रात्रि 
( मेरी डायरी दि० 17 फरवरी, 2011 समय 12:20 म० रा० )



सक्रिय रात्रि

सक्रिय रात्रि 
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आज फिर लेखनी उठाई है कुछ बतियाने के लिए 
उसी तरह के उनींदे क्षणों में जिनमें अकसर ऐसा करता हूँ। 

मध्य रात्रि है और सभी निद्रा-मग्न हैं 
संसार सुसुप्त है और चहुँ ओर निस्बद्धता है। 
पूर्णिमा के बाद का चाँद अपनी अनुपम छटा बिखेरे है 
जिससे धूमिल तारे कहीं -2 छुप गए हैं। 

पर यह रात्रि भी बिलकुल खामोश नहीं है 
जिनका दिन में कुछ अनुभव नहीं होता, वे रात में सक्रिय हैं। 
चंदा-तारे अपनी सुंदरता बिखेरे हैं 
बस देखने वाले और उनका धैर्य वाँछित है। 

रात्रि के जन्तु - पक्षी पूरी तरह सक्रिय हैं 
दीवार घड़ी की टिक -टिक स्पष्ट सुनाई देती है। 
और मेरा मस्तिष्क के नींद का भाग अपना कार्य करने को उतारू है 
लेकिन मन है कि जीवन में कुछ करूँ और व्यर्थ समय न गवाऊँ। 

शायद इसीलिए कुछ पढ़ने, सोचने की कोशिश करता हूँ 
जितना जान सकूँ उतना प्रयत्न करता हूँ। 
लेकिन जीवन की प्रतिबद्धताओं का अपना महत्त्व है 
और निश्चय ही वे अपने लिए समय और ऊर्जा माँग करती हैं। 

आजकल पढ़ रहा ख़लील ज़िब्रान को, लियो टॉलस्टॉय को 
सर्वपल्ली राधाकृष्णन, रमन महर्षि, चार्ल्स डिकेन्स को। 
विज्ञान में कार्ल सागन का ब्रोकास माइंड और 
 आईसक एसिमोव का न्यू गाइड टू साइंस इत्यादि। 

विषय इतने बड़े हैं कि बहुत समय माँगते हैं 
लेकिन जितना कर सकता हूँ, कोशिश करता हूँ। 
विद्वान तो नहीं लेकिन यह शायद उस राह में कदम है 
जानना ही तो दुनिया का सबसे बड़ा धर्म है। 

पवन कुमार,
19 जून, 2014 समय 00: 09 म० रा० 
(मेरी डायरी दि० 13 मार्च, 1998 समय रा० 1:50 से ) 




  

Wednesday 18 June 2014

रुदन


रुदन
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तुझको शायद रुलाने में मज़ा आए 
बहुत सताए तू बहुत रुलाए। 

बहुत है शक्तिशाली तू 
कमजोरों पर और ज्यादा बल आजमाए। 
कैसा तू है रे बलशाली  
गिरे हुओं को और गिराएं। 

तेरी सत्ता के वासी हैं हम  
जैसे चाहे वैसे नाच नचाए। 
हम तो भागी हैं दुःख के  
और तू अपनी लीला दर्शाए। 

तेरी कृपा सुनी थी सब पर 
पर कैसे हमको यकीं ही आए। 
मुझ पर बीती मैं ही जानूँ 
कैसे - कैसे तूने बाण चलाए। 

मन तड़पन का समय है 
तू तो फिर आग दूनी भड़काए। 
तेरी कोशिशों का आशी था मैं 
पर तू अपना रोष दिखाए।  

मेरी खता तो बहुत ही होगी 
पर तू तीर तू कहीं ओर चलाए। 
मेरी जान तो है पवित्र  
उस पर क्यूँ तू दाँव चलाए। 

उसका रुदन मैं सह नहीं सकता 
बतला दे क्या जतन लगाए। 
तुझसे लड़ाई तुझसे शिकवा 
कैसे - कैसे वार चलाए। 

बहुत है तू रे ओ बेदर्दी 
कुछ भी तो दया न आए। 
क्यूँ तू ऐसा बन गया है रे 
जब दुनिया तुझसे आस लगाए। 

तेरी कृपा का सुना था बहुत भरोसा 
पर वो तो कहीं नज़र न आए। 
मैं तो हूँ एक पागल सा झोंका 
तेरी मर्ज़ी वहाँ भगाए। 

किन -किन दिनों का बदल है रे 
मुझ पर कैसे ज़ुल्म है ढाए। 
भाई मेरे तू बन जा मित्र 
आकर नैया पार लगाए। 

किस पर करूँ मैं यूँ विश्वास 
जब बाड़ ही तो खेत को खाए। 
जहाँ पर देखूँ वहीँ निराशा 
किरण प्रकाश की नज़र न आए। 

मेरी दुनिया को समझने वाले 
तेरी दया का असर जो पाए। 
उसकी होगी किस्मत अच्छी 
जिस पर तू नज़रे -इनायत घुमाए। 

कहना क्या और रोना क्या  
जब दुनिया में रोते हुए आए।  
बहुत दुखी है रे मन मोरा 
आकर इसको तू कुछ समझाए। 

कैसे करूँ यकीं तेरी रहमत का 
कोई प्रमाण तो नज़र न आए। 
दुनिया बोले तू है दयालु 
मुझको तो पर यकीं न  आए। 

बन्दा परवर बहुत है सच्चा 
छोटो -बड़ों में अंतर न पाए। 
क्यूँ है जुर्म ही, क्यूँ न न्याय 
जिसका समय है वो क्यों न आए। 

मेरा कौन सा है अपराध 
क्या मैंने कुछ काम न  पाए। 
मेरी नौकरी मेरी रोजी 
क्या मैंने कोई कसर है ठाए। 

क्या हूँ मैं फिर बहुत निकम्मा 
तू मुझ पर फिर डाँट लगाए। 
मैं तो नहीं हूँ बहुत रे तगड़ा 
तू क्यों मुझको बार -बार है ढाए। 

इस दुनिया से उस अम्बर तक 
मुझको तेरा छोर ना पाए। 
छुप कर तेरा वार है देखा 
बहुत महीन तक वह है जाए। 

बहुत विकट घड़ी है मेरी 
इसपर तू फिर मिर्च लगाए। 
कर दे सहायता बनकर मीत तू 
हर विपदा का तू हल सुलझाए। 

रोऊँ, हँसू और शिकायत करता 
किसको तेरे बिन बतलाए। 
भावुक नहीं मैं होना चाहता 
फिर क्यूँ न ढाढ़स बंधाए। 

दुनिया का है दस्तूर  
रोते हुए को और रुलाए। 
पर मैं शक्ति नहीं पाता  
फिर बता हम कैसे ये गम तो खाए। 

तू उसको कर देना अच्छा 
मेरा तो फिर भी देखा जाए। 
आजा कर दे माफ़ खता भई 
तू जो कुछ फिर ऐसा कर पाए। 

दे दे सुधारने का अवसर 
हम इसको शायद व्यर्थ गवाएँ। 
भूलों से सुना मिलती है शिक्षा 
कैसे बता फिर मन समझाए। 

तू तो दिखा दे शीशा मेरा 
ताकि समझ खुद को पाए। 
सम्मान करें और सम्मान पाए 
ऐसे ही न व्यर्थ जन्म गँवाएँ। 

क्या है अपेक्षित मुझसे ओ मौला 
तू मेरे कर्त्तव्य समझाए। 
मैं तो भुला भटका राही 
ठोकर खाता गिरता जाए। 

बहुत है घायल घुटने मेरे 
चलने की सामर्थ्य नहीं तो पाए। 
फिर तो क्यूँ न संबल बनता 
आकर मुझको यूँ गले लगाए। 

दुनिया का सुना मैंने संवाद 
जैसा कूकेँ गूँज वैसी पाए। 
फिर मैं शायद बहुत बुरा हूँ 
वरना ज़ुल्म क्यों फिर ऐसे ढाए। 

किसका रुदन था यह इतना दारुण 
ह्रदय में ये घाव लगाए। 
रोता है और यह कहता है 
आकर मुझको कोई गले लगाए। 

मैं नहीं समझ तेरी मंशा 
क्या -क्या तू ये सितम हैं ढाए। 
इतना तो पाता तय हूँ 
नीयत तेरी साफ़ नज़र न आए। 

क्यूँ न करूँ मैं तुझसे शिकायत 
क्या तुझ पर कुछ अधिकार न पाए। 
मेरा अपना ही साथी रे तू 
फिर कैसा यह बदल पाए। 

माना था मैंने तुझे ढूँढा 
जीवन में यूँ चिन्तन कराए। 
मैं तो करता तेरी आराधना 
तुझमें फिर कुछ समय बिताए। 

रात के बारह बजते जाते 
तू फिर भी न कोई ढाढ़स बँधाए। 
क्यूँ है शिकायत ओ मेरे मौला 
मुझको तो कुछ समझ न आए। 

कैसे करूँ मैं समाप्त गाथा 
सिर - पैर तो नज़र न आए। 
क्या मैं यूँ ही बड़बड़ाता जाता 
वहाँ पर ऊषा को बुखार में तड़पाए। 

मेरी छोटी बिटिया रानी 
उससे भी कोई बात न कर पाए। 
उसकी ही मैं चिन्ता करता 
वरना बचा क्या जो तड़पाए। 

ओ मेरे मौला बन जा साथी 
सहारा देकर मुझे उठाए। 
मैं तो हूँ पाता विवश स्वयं को 
अपना सहारा नज़र ना आए। 

घोर निराशा में तू बन जा  साथी 
बोल आस के वचन जो चाहे। 
उनसे हो शायद मेरा कल्याण 
क्यूँ कि मरहम उनमें ही पाए। 

हाथ पकड़ा के उठा दे मुझको 
कह दे खुश फिर दिन हैं आए। 
ऊषा वहाँ पर होगी खुश फिर 
क्योंकि वह तो बहुत आस लगाए। 

छोड़ निराशा ओ मेरी जानूँ 
अपना ध्यान कर मेरे ही लाए। 
इतनी दूर हम हैं रे बैठे 
कैसे मन को फिर समझाए। 

जाग - जाग कर मन मेरे में 
विव्हळता मुझको है तड़पाए। 
क्योंकि दुनियादारी है ऐसी 
किसी को खुश देखकर कभी न हर्षाए। 

कैसे करूँ मैं गुज़र रे अपना 
राह तो कोई नज़र न आए। 
विपद पड़ी है तो रास्ता भी होगा 
क्योंकि हर मर्ज़ की दवा है पाए। 

फिर तू तो है वैद्यों का वैद्यक 
तुझसे कोई क्या छुप पाए। 
दर्द भी तेरा दवा भी तेरी 
मैं भी तेरा भक्त लुभाय। 

फिर तू चाहे दे जो मर्ज़ी 
दवा के नाम से चाहे ज़हर पिलाए। 
जीवन तो है तेरा ही मौला 
तू जैसा चाहे वैसा नचाए। 

मैं तो तुझमें ध्यान लगाता 
अपना करम तू करता जाए। 
जो तुझे लगे मैं पात्र हूँ उपयुक्त 
तो थोड़ी सी कृपा दौड़ाए। 

धन्यवाद प्रभु तेरा मुझ पर 
रोते हुए में भी आस लगाए। 

पवन कुमार,
18 जून, 2014 समय 00:10 म० रा  
( मेरी डायरी दि० 4 अक्तुबर, 2001 समय 12:15 म० रा० ) 


  
  

Tuesday 17 June 2014

अन्वेषी -राह

अन्वेषी -राह
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क्यूँ हम एक मानव को देव बना देते हैं 
जबकि उसने तो इसके लिए कभी अभिव्यक्ति नहीं की। 

एक असहज, अबूझ, भ्रांत, अप्रकाशित मानव बहुत ही सामान्य है 
यदि उसे अपनी वास्तविक स्थिति का बोध होता है तो उचित ही है। 
हर एक की अपनी विसंगतियाँ दूर करने की जिम्मेवारी भी है 
यदि वह परिश्रम करके कुछ समझ ले तो उसको साधुवाद है। 

क्या मानव में कुछ देव-तत्व हैं और कैसे उन्हें पाया जा सकता है 
क्या उसकी खोजें फिर कोई बड़ा साम्राज्य प्राप्त करने को है। 
वह तो स्वयं में ही इतना मग्न है कि उसे होश ही नहीं 
फिर यदि वह एक बेहतर इंसान भी बन जाए तो उपलब्धि है। 

क्यूँ वह खो जाता खुद में और त्यजना चाहता जग के प्रलोभन 
और वह सिद्धार्थ , महावीर की भाँति निकल पड़ता है। 
उसे वे तमाम रस लोलुप करने में विफल होते 
क्योंकि उसे अपनी प्रतिबद्धता का ज्ञान है और वह एकाग्र-चक्षु है। 

हम बहुत सामान्य हैं और कुछ इससे आगे बढ़ना चाहते 
उन्हें इस जग की अनित्यता से करुणा तो है पर वे उद्वेलित होते। 
बहुत व्यसन इस जग को मोहते और लिप्त करते अनेक वासनाओं में 
फिर काम, क्रोध, मद, मोहमत्सर, लोभ, ईर्ष्या, घृणा प्रभाव जमातें। 

हम फँस जाते चक्र-व्यूह में, कोई निकास-द्वार चिन्हित न होता 
अपनी स्थिति में कभी खुश होते, कभी फांदकर निकलने का मन होता। 
समस्त मन की शक्ति भी हमें बहुत सामान्य बनाए रखती 
और जग के तमाम रसायन हमें बालपन से आगे न बढ़ने देते। 

संसार के दुःख हमें फँसाते और तमाम व्याधियों से त्रस्त करते 
हम टीसते तो हैं लेकिन प्रबुद्धता और निवारण मिलता नहीं। 
फिर छटपटाते हैं बाहर निकलने को पर बहुत अवरोध पाते 
प्रपंचों से निकलने में अक्षीण हम फिर भाग्य को दोष देते। 

कुछ हममें से तथाकथित सफल होते और भाग्य पर इठलाते 
 वे भी कुसमय पकड़े जाते और तब जीवन का असल रस अनुभव करते। 
'नानक दुखिया सब संसार' तब उनको भी याद आता 
और आईन्स्टीन का 'सापेक्षता सिद्धांत' भी कि एक कष्ट क्षण भी महाकंटक सम है।  

पर स्वयं पर होते अनुभव हम भूल जाते जब अन्यों से व्यव्हार करते 
और कभी भी मन पर दबाव न देते, क्या है उचित और क्या अनुचित? 
बस चलते रहते शील-विहीन, व्यर्थ-अभिमान में ग्रसित 
अपने से तनिक अल्प-बुद्धि, बल, ऐश्वर्य, विद्यावानों को तुच्छ समझते।  
     
 कितना निम्न उपयोग उस परम शक्ति का जो हममें है विद्यमान 
और किञ्चित भी मानव को अपनी स्थिति पर लज्जा न आती। 
तमाम तरह से पाप, व्यभिचार, बलात्कार और अशोभनीय आचरण 
सामान्य क्या फिर तथाकथित सभ्यों के व्यव्हार में भी चित्रित होते। 

फिर क्यूँ न हो उद्यत कुछ निर्मल मन इस दुर्गति से मुक्ति पाने को 
और वे करें प्रयास निकलने को अपने ही बनाए फाँसों से। 
फिर सुयत्न और मनन से वे कुछ उपाय पा जाते 
और कुचक्रों से निकल, कुछ अपने जैसों को मार्ग बता देते। 

पर उनका अन्वेषण भी पूरा नहीं, भली-भाँति जानते हैं वे   
उन्होंने कुछ पा लिया है, इसका अर्थ नहीं वे परम-विजयी हैं। 
वे तो अंधकार से निकल कुछ रोशनी में आए हुए लगते हैं 
लेकिन 'बहुत कठिन है डगर पनघट की' और पनघट अभी दूर है। 

मैं नहीं मानता कहीं पूर्ण-विराम है और मनीषी भी ऐसा कहते हैं 
हम पूर्ण चिंतन में भी पूर्ण ज्ञान का रत्ती भर समझ न पाते हैं। 
फिर कहाँ है वह परम-मार्ग और अकाट्य अनुभव  
जिसको कुछों ने संगठन बना लिया है कि यही अनुपम और साध्य है। 

आदर-अभिव्यक्ति अपने से श्रेष्ठों के किए अच्छा भाव है 
पर क्या हम भी अन्वेषी हैं या भाट की भाँति केवल स्तुति गाते हैं? 
कितने भावों को समझकर अपने से बाहर आने का यत्न किया है 
और फिर संसार के हर जन का कुछ स्तर उठाने में सक्षम हुए हैं? 

बहुत निकट नहीं जा पाया भावों के, फिर कभी। 

पवन कुमार, 
17 जून, 2014 समय 00:47 म० रा० 
( मेरी डायरी दि० 10 जून, 2014 समय 10 बजे प्रातः )




Monday 16 June 2014

कुहुँ -कुहुँ

कुहुँ -कुहुँ 
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कुछ नींद का नशा है, कुछ मन में हैं हिल्लोरें 
कुछ जाम पीने की इच्छा, कुछ मस्ती का है सरूर। 

मैं तो चाहूँ बहना इस मस्ती के आलम में 
अपने लिए नहीं तो कुछ तेरे लिए ही कर जाऊँ। 
मैं तो बस एक झौंका, आकर चला जाऊँगा 
पर तेरे लिए तो फिर मर-मर कर जीना पड़ेगा। 

मुझे तू इश्क करना सिखा दे ऐ साखी 
नहीं तो जिन्दगी में एक पछतावा रह जाएगा। 
मैं तो यूँ ही बस जीता दिन-रैन के कटन में 
तू मेरे साथ रहे मेरे सब कुछ एक हो सकेगा। 

कुछ शब्दों का मतलब तो समझा दे मेरे ऐ दोस्त 
नहीं तो मैं यूँ ही मर कर जी उठूँगा। 
मेरे जीवन में मस्ती का एक खेल हो बेहतर 
फिर याद उसी की में रह-रह खिल उठूँगा।  

मैं तो हूँ बोझिल बस दिमाग़ का मारा 
पर याद तेरी में आ-आकर फिर मिलूँगा। 
सुखद क्षणों का साथ तेरा मेरे मन के पास कूकेँ 
ऐसी ही फिर कदां (मेहरबानी) से जीवन मेरा कटेगा। 

मैं पास तेरे रहूँ और तुझमें समा जाऊँ 
फिर भेद यह तेरा-मेरा किञ्चित भी न रहेगा। 
अहसास भी तो तेरा मुझे सदा ही है ऐ साथी 
तेरी ही मुहब्बत का गुलिस्ताँ फिर खिलेगा। 

पवन कुमार, 
15 जून, 2014 समय 15:55 अपराह्न 
(मेरी शिल्लोंग डायरी दि० 3 जुलाई, 2001 समय 12:40 म० रा० से )

Sunday 15 June 2014

खुदा -करम

खुदा -करम
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दिल को किसी चीज ने पकड़ सा लिया है।  चाहकर भी खुश नहीं हो पा रहा हूँ।  क्या रहस्य है कुछ पता नहीं है।  हाँ यह बस आभास सा है कि मैं कुछ साँस ले रहा हूँ और घड़ी की टिक-टिक मुझे बार-2 जगा सी जाती है। दिल पर जब हाथ लग जाता है तो इसकी धड़कनों को महसूस कर सकता हूँ। इसके अलावा जब बाहर मुख्य सड़क पर कोई वाहन जाता है तो दूर तक उसकी आवाज़ कानों में आती रहती है। बाकी केवल निस्बद्धता है, मैं स्वयं भी नहीं जानता कि मेरे साथ क्या घटित हो रहा है। हाँ लगता है कि समय गर्दिश के दौर से गुजर रहा है और मैं न चाह कर भी बेबस हूँ। कई सुझाव आए, कुछ ठीक भी थे, कुछ पर अमल हो न सका, कुछ पर जान बूझकर कोशिश नहीं की। हाँ यह बात तो निश्चित है कि आड़े वक़्त में ही इंसान की पहचान होती है। उनका भी पता चल जाता है जिनके लिए हम काम करते हैं और वे कितने सच्चे हैं अपने आसपास काम करने वालों के प्रति। परन्तु यह बात भी है कि समय सदा एक जैसा नहीं रहता। आज यह मेरे साथ है, कल तुम्हारे साथ होगा। अतः किसी की आत्मा को इतनी भी न दुखाओ कि वह कहीं तुम्हे बद-दुआ न दे दे। मैं सभी का भला सोचने में विश्वास करता हूँ, अपने कार्य से जी न चुराता हूँ, अपनी गम्भीरता अपने  में समाने की कोशिश करता हूँ। अपना जी कड़ा करके सीधा खड़ा होने को तत्पर होता हूँ, लेकिन फिर भी तो एक हाड़-माँस का पुतला ही हूँ। मैं बाहर से चाहे जितना कठोर बनने की कोशिश करूँ, अन्दर से तो दिल धड़कता ही है। पर मेरे दिल की धड़कन कौन सुन रहा हूँ? शायद वह खुदा वहाँ दूर बैठा मेरे करम पर कुछ मनन का रहा हो और शायद मेरी और परीक्षा ले रहा हो। पर प्रभु, तुम फिर जैसा रखना चाहो तुम्हारी मरजी, मैं तो तुम्हारे द्वारा निर्देशित हूँ। कभी-2 मैं चालाक बनने कोशिश करता भी हूँ तो क्या वह तुमसे छुपा है? मैं क्या हूँ, इसका मूल्यांकन तो नहीं कर सकता लेकिन पीड़ा अंदर तक अनुभव कर रहा हूँ। मेरे प्रभु, मैं तो ठीक हूँ। तुम अगर और कष्ट देना चाहों तो मुझे स्वीकार परन्तु मेरी जान और मेरी बिटिया ने क्या अपराध किया है जो उन पर सजा थोपी जा रही है।  तुम्हारा अपराधी तो मैं हूँ तो मुझे सजा क्यों नहीं देते, क्यों उन मासूमों पर तुम सख्ती प्रयोग कर रहे हो। शायद तुम जानते हो कि जब उन्हें कष्ट होगा तो सबसे ज्यादा और पहले पीड़ा मुझे ही होगी। इसीलिए तुम अपनी सजा का सिकंजा ढीला नहीं करना चाहते। प्रभु, मैंने माना कि तुम सर्व शक्तिशाली और न्यायवादी हो पर तुम्हारे  अस्तित्व को झुठला ही कौन रहा है? फिर जब तुम हर दिल के अन्दर अच्छी तरह से झाँक कर देख लेते हो तो तुम्हे कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए। अतः कुछ करो, मैं हार मान लेता हूँ अपने अपराधों के लिए। अगर वे क्षम्य हों तो मैं माफ़ी के लिए प्रार्थना करता हूँ। फिर भी तुम्हे लगता है कि मेरा कोई पुराना या अभी का हिसाब बाकी है तो आप जो उचित है, वह करें। मैं तो वैसे ही मरे हुए के समान हूँ, तुम मारोगे तो सद्गति ही होगी। शास्त्रों में तुमने रावण, कंस, इत्यादि को मारकर मुक्ति प्रदान की। अगर तुम्हारे न्याय में यही कुछ है तो मुझे कोई शिकायत नहीं। लेकिन फिर भी मैं रहम की अर्जी तुम्हारे समक्ष रखूँगा कि मेरे मामले पर गौर किया जाए, मेरे दस्तावेजों की पुनः समीक्षा की जाए, हो सकता है कहीं पर गलत-फहमी हो गई हो। फिर अपराध इतना संगीन न हो तो धमका कर, चेतावनी देकर छोड़ा सा सकता है। मैं सब कुछ छोड़ता हूँ तुम पर। अभी तक मैं बोला, तुमने सुना। अब तुम सोचो और मैं सोता हूँ। मुझे आशा है कि तुम जो कुछ करोगे, अच्छा ही करोगे। प्रभु तेरी मरजी में सबकी मरजी है। 

धन्यवाद , शुभ रात्रि। 

पवन कुमार,
15 जून, 2014 समय 18:52 सांय  
(मेरी शिल्लोंग डायरी 28 अगस्त, 2001 समय 12:50 म० रा० से )

Saturday 14 June 2014

माँ की विदाई

 माँ की विदाई  
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माँ चल बसी 12 मई, 2011 वीरवार दोपहर करीब 12:30 बजे 
आया था सन्देश भाई का कि माँ अब नहीं रही। 
क्या गुजरी थी उस समय मेरे मन-तन पर 
शायद जीवन की सबसे बड़ी लड़ाई हारा था। 

हालाँकि घटती सबके संग, जग हेतु कु नूतन नहीं 
परन्तु मेरी तो एक ही माँ थी और वह भी चली गई। 
यह अभाव बड़े घाव के साथ हृदय को खाली कर गया 
चाहकर भी कुछ न कर पा रहा, खुद को अनाथ पाता।  

माँ क्या करूँ तेरे बिन, अब तो तुझसे लड़ भी न सकता 
जब उत्तुंग था तुझसे भिड़ जाता, गुस्सा व बहस करता। 
फिर तू कुछ बूढ़ी होने चली थी और मेरा समर्थन करती
बहुत विषयों पर गूढ़ चर्चा करती और विश्वास करती। 

माँ मुझे गर्व है है कि तेरी कोख से जन्म लिया 
चाहे पूरे सौ साल न सही, जीवन का बहुत अंश जीयी है। 
शायद तुझे अब ज्यादा शिकायत भी नहीं थी 
इसीलिए दुनिया से इतनी शांति से चली गई। 

माँ आभारी हूँ इस जीवन में लाने के लिए 
हमारे लिए बहुत कष्ट झेलें, इस योग्य बनाया। 
तूने हमें अपने खून के कतरों से सिंचित किया 
व पूरे पादप में परिवर्तित कर स्वयं विलीन हो गई। 

माँ तेरी कीर्ति चहुँ ओर, तू सदा विजयी है 
तू जीत गई और हमें भी जिता गई। 
तेरी महिमा जितनी कहूँ उतनी कम है 
तू अच्छी माँ पर हम नाशुक्रिए पूत हैं।  

नहीं कुछ ज्यादा सेवा तेरी हम कर पाऐं 
कई परिस्थितियाँ ऐसी थी, तू ज्यादा संग न रही। 
पर फिर भी जितना बन पाया तेरी सेवा में हाज़िर थे 
और सदा तेरी लम्बी उम्र की दुआ करते थे। 

तू चली गई, और हमें व पिता जी को छोड़ गई 
पिता को तुझ पर नाज़, साथ तूने बहुत निभाया। 
आखिरी समय में साँस तूने उनकी बाँहों में छोड़ी 
पर अफ़सोस तेरी एक भी संतान उस समय न थी। 

पर तेरी विदाई में सब साथ थे तेरे 
एक-2 करके समस्त जन जुड़ते गए। 
और बड़ा काफ़िला बना था तेरी उस डोली पर 
और सिंगर करके तू बहुत सुन्दर लग रही थी। 

परन्तु श्मशान में तो जैसे तूने मुँह ही मोड़ लिया 
सारा मोह त्याग दिया, बड़े बाबुल की प्यारी हो गई। 
पर तूने ही नया नहीं किया, दुनिया की रीत है 
हमें कोई शिकायत नहीं, पर भुला न पाऐंगें तुझे।  

मेरी माँ तू जहाँ भी है खुश रह। हमें न पता कि तू हमें देख रही या नहीं 
पर हम तुझे अपने बहुत पास हैं पाते। वैसे ही जैसे तू सारी जिंदगी थी,         न कम न ज्यादा। बहुत करीब- बहुत करीब। मेरी माँ। 

पवन कुमार,
14 जून, 2014 समय 22:00 रात्रि 
(मेरी डायरी दि० 17 जुलाई, 2011 म० रा० 11:35 से )

आत्म -संवाद

आत्म -संवाद 
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निज मन की गहराहियों को मापना चाहता हूँ 
और खुद को खुद के समीप लाना चाहता हूँ। 

मेरी परिधि क्या हैं और क्या मेरा विस्तार है 
मेरे अंदर क्या सार व क्या बहुत असर है? 
क्या, क्यों, कब, कैसा, कहाँ और कौन हूँ 
प्रश्न बारम्बार मन को यूँ घेरा सा करता है। 

अंतः कुछ गया तो बाह्य समस्त भूल सा गया 
भ्रम की स्थिति है कि अंदर हूँ या बाहर हूँ। 
मन-प्राण शक्ति भी तो कोई परिचय न देती 
अथवा औरों की भाँति बड़ी -2 बातें कह दूँ। 

जब सब संज्ञा-शून्य है और मैं भी निस्पंद हूँ 
ज्ञान स्वयं ही का न तो औरों का क्या होगा ?
फिर वे मेरी प्राथमिकताएं भी तो नहीं हैं 
मेरी जड़ें स्वयं में ही समाना चाहती हैं। 

जीवन में भेजा रब ने, उद्देश्य जानता होगा 
पर लगता कर्त्तव्य-साम्राज्य कुछ बड़ा ही है। 
वह उचित भी है, मुझे निर्वाह करना चाहिए 
पूरी बल लगा कुछ उचित जानना चाहिए। 

लोग समझाते अधिक करने की न जरूरत 
शायद सुस्त बना उल्लू सीधा करना चाहते। 
परन्तु शायद उनकी सोच वही तक है 
पर मुझे तो कर्त्तव्य-विमूढ़ न होना है।  

मन के अंदर अति व्यापकता विद्यमान है 
वे मेरी विविधताऐं, व विभिन्न स्वरूप हैं। 
मैं उनसे पूर्णतया अवगत होना चाहता
पर कुछ तो रूबरू होने से रोक लेती। 

मेरा किसी से वास्ता नहीं, ऐसी बात नहीं 
पर स्व से निकास का मौका ही न मिला। 
किस्मत ने भी बहुत बहिर्मुखी नहीं बनाया 
अतएव बाहर शायद ज्यादा पकड़ नहीं है। 

पर यत्न, बाह्य को भी दूँ जितना बन पाए 
निज दायित्व - बोझ अन्यों पर न डालूँ। 
मेरी कोशिशें तो शायद अन्य मूल्यांकन करें 
पर बेड़ी पड़े बाज सम आत्म-बल ज्ञान न है। 

बहुत कुछ है विश्व में चहुँ ओर और मैं अधूरा 
पढ़ लिख के कुछ अल्प ही स्वयं  को हूँ पाता 
न कोई अच्छा लेख या कविताई मैं कर पाया 
न ही निज स्वरूप का दर्शन कभी कर पाया। 

मेरी कोशिशें क्या, कितनी और समुचित है 
या इसमें और सामग्री की आवश्यकता है। 
इस जीवन-यज्ञ में मेरी क्या भूमिका बनी है 
वह पुरोहित जनता होगा जिसने भेजा है। 

आना चाहता समीप ताकि मित्रता गूढ़ हो सके 
स्व से दूरी  सिमटे, खुद का स्पंदन कर सकूँ। 
दैव का भी तकाज़ा, स्वयं-सिद्धि ओर चला जाऊँ 
और जल्द ही निज परिचय सुनिश्चित कर ही लूँ। 


पवन कुमार,
14 जून, 2014 समय 14:35 अपराह्न 
(मेरी डायरी दि० 17 जुलाई, 2011 रा० 11:35 से )



Monday 9 June 2014

कुछ - कुछ

कुछ - कुछ 
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बड़ी अनूठी रात भई  जिसमें बहुत कुछ छुपा हुआ  
सोचूँ कैसे बनेगा भविष्य, राज अभी पता तक नहीं। 

सबके मन में कूकेँ कोयल 
लेती आनंद की लहरें हिलोर। 
परन्तु मैं डरा सा बैठा 
लेकर प्रभु नाम की डोर। 

चंदा की तो दिखें रोशनी 
लेकिन मैं अन्धकार हूँ पाता। 
चाहकर भी न देख पाता रोशनी 
बस बीती जाए बाह्य शुष्क जीवनी। 

 सोचा कभी था बनूँगा वयस्क मैं 
पर बालावस्था से भी निकल न पाया। 
यूँ ही तो मूर्ख सम हँसता 
और जीवन को समझ न पाया। 

सुना था परिश्रम से कुछ लोग सफलता पा लेते हैं 
लेकिन मैं लक्ष्य-विहीन मेहनत से यूँ रहा परे। 
क्या मैं कुछ कर सकता था, 
इन बीते वर्षों में कुछ जीवन भर सकता था? 

न खुद को चंचल पाया और न ही चलायमान हुआ 
बस अपनी दशा पर स्वयं को विव्हल किया। 
कहने को तो बहुत उम्र है बिता ली 
लेकिन दिन एक भी जीवन से साक्षात्कार न हुआ। 

फिर क्यों करूँ मैं बड़ी-2 बातें 
जब छोटे विषयों में ही न सफल हुआ। 
अपने मन स्वामी कभी न बना 
न इसका मुझे अहसास ही हुआ। 

कब तक मैं इस स्थिति में रहूँगा 
कब मेरा ये प्राणांत होगा और  मिलेगा नया जन्म। 
कब होगी मुझमें जीने की सुगबुगाहट 
और कब मुझे आत्म-दर्शन होगा? 

अकेले क्षणों में कभी-2 ऐसे ही बुदबुदा लेता हूँ 
लेकिन व्यस्त पलों में तो निष्क्रिय जीता। 
बहुत अधूरापन मुझे अपने में लगता 
और श्रेष्ठता का दामन दूर ही दिखता। 

नहीं कहता कि ये हीन - भावना है 
या फिर कहूँ कि आत्मावलोकन है। 
लेकिन कुछ भी हो, उठती है कुछ बनने की ललक 
और यदा-कदा तो वह बहुत प्रबल हो जाती है। 

बहुत अहसास हुआ है दिल के समीप के घावों का 
जो छोटी सी सरसराहट से भी टीस करने लगतें है। 
फिर सोचा था कि मरहम लगा दूँगा 
लेकिन खोजने से भी वह मुझे मिली ही नहीं। 

यदा-कदा मन प्रसन्न हुआ जाता है 
लेकिन एकांत में मन मनन में डूबना चाहता है। 
लेकिन केवल सतही अनुभव है यह दीखे 
शायद किसी अच्छे गुरु से मुलाकात नहीं हुई। 

अच्छे लेखकों से दूर हो गए हो आजकल 
अच्छे विचारकों से भी तो मिलते नहीं।  
बहुत ही बचकानी बातों में समय है बीतता 
फिर कैसे बहुत सुधार की आशा रखते? 

आत्म -संयम है प्रथम कदम, जीवन में आगे बढ़ने का 
मन-वाणी और कर्म पर अंकुश ले जाएगा तुम्हें मंज़िल तक।  
सफलता जहाँ से नहीं होती बहुत दूर 
और फिर मन में श्रेष्ठता का साथ होगा। 

स्वाध्याय करो, नित अच्छे विचारों से अवगत हो 
अपने को ऊपर उठाओ व्यर्थ के संवादों से, कलहों से। 
लाओ अपनी वाणी में तेजस्विता और ओज 
तुम्हारे हर एक शब्द का सम्मान होना चाहिए। 

हाँ ठीक है सदा बहुत संजीदा नहीं रहा जाता 
पर यकीनन तुम्हारी वाणी उचित हो सकती है। 
उसमें किसी के प्रति ईर्ष्या की बू नहीं होती 
और सभी से बन्धुत्व का ही कर्त्तव्य निभाती है। 

फिर मन में तुम्हारे उठे सात्विक विचार 
हर एक से तुम करों प्रेम-व्यव्हार। 
सुंदरता तुम्हें दिखे चहुँ ओर 
और रहे सुख का व्यापार। 

मेरी प्रभु से है विनती, बख्शें वो सद्बुद्धि 
वही है मेरे और दूसरों के भले में। 
 करे वही जो उसे उचित है जँचता 
लेकिन होगा वह न्यायपूर्ण ही। 

धन्यवाद। 

पवन कुमार ,
9 जून, 2014 समय 23:01 रा० 
(मेरी शिल्लोंग डायरी दि० 26 जनवरी, 2002 से )