अन्वेषी -राह
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क्यूँ हम एक मानव को देव बना देते हैं
जबकि उसने तो इसके लिए कभी अभिव्यक्ति नहीं की।
एक असहज, अबूझ, भ्रांत, अप्रकाशित मानव बहुत ही सामान्य है
यदि उसे अपनी वास्तविक स्थिति का बोध होता है तो उचित ही है।
हर एक की अपनी विसंगतियाँ दूर करने की जिम्मेवारी भी है
यदि वह परिश्रम करके कुछ समझ ले तो उसको साधुवाद है।
क्या मानव में कुछ देव-तत्व हैं और कैसे उन्हें पाया जा सकता है
क्या उसकी खोजें फिर कोई बड़ा साम्राज्य प्राप्त करने को है।
वह तो स्वयं में ही इतना मग्न है कि उसे होश ही नहीं
फिर यदि वह एक बेहतर इंसान भी बन जाए तो उपलब्धि है।
क्यूँ वह खो जाता खुद में और त्यजना चाहता जग के प्रलोभन
और वह सिद्धार्थ , महावीर की भाँति निकल पड़ता है।
उसे वे तमाम रस लोलुप करने में विफल होते
क्योंकि उसे अपनी प्रतिबद्धता का ज्ञान है और वह एकाग्र-चक्षु है।
हम बहुत सामान्य हैं और कुछ इससे आगे बढ़ना चाहते
उन्हें इस जग की अनित्यता से करुणा तो है पर वे उद्वेलित होते।
बहुत व्यसन इस जग को मोहते और लिप्त करते अनेक वासनाओं में
फिर काम, क्रोध, मद, मोह, मत्सर, लोभ, ईर्ष्या, घृणा प्रभाव जमातें।
हम फँस जाते चक्र-व्यूह में, कोई निकास-द्वार चिन्हित न होता
अपनी स्थिति में कभी खुश होते, कभी फांदकर निकलने का मन होता।
समस्त मन की शक्ति भी हमें बहुत सामान्य बनाए रखती
और जग के तमाम रसायन हमें बालपन से आगे न बढ़ने देते।
संसार के दुःख हमें फँसाते और तमाम व्याधियों से त्रस्त करते
हम टीसते तो हैं लेकिन प्रबुद्धता और निवारण मिलता नहीं।
फिर छटपटाते हैं बाहर निकलने को पर बहुत अवरोध पाते
प्रपंचों से निकलने में अक्षीण हम फिर भाग्य को दोष देते।
कुछ हममें से तथाकथित सफल होते और भाग्य पर इठलाते
वे भी कुसमय पकड़े जाते और तब जीवन का असल रस अनुभव करते।
'नानक दुखिया सब संसार' तब उनको भी याद आता
और आईन्स्टीन का 'सापेक्षता सिद्धांत' भी कि एक कष्ट क्षण भी महाकंटक सम है।
पर स्वयं पर होते अनुभव हम भूल जाते जब अन्यों से व्यव्हार करते
और कभी भी मन पर दबाव न देते, क्या है उचित और क्या अनुचित?
बस चलते रहते शील-विहीन, व्यर्थ-अभिमान में ग्रसित
अपने से तनिक अल्प-बुद्धि, बल, ऐश्वर्य, विद्यावानों को तुच्छ समझते।
कितना निम्न उपयोग उस परम शक्ति का जो हममें है विद्यमान
और किञ्चित भी मानव को अपनी स्थिति पर लज्जा न आती।
तमाम तरह से पाप, व्यभिचार, बलात्कार और अशोभनीय आचरण
सामान्य क्या फिर तथाकथित सभ्यों के व्यव्हार में भी चित्रित होते।
फिर क्यूँ न हो उद्यत कुछ निर्मल मन इस दुर्गति से मुक्ति पाने को
और वे करें प्रयास निकलने को अपने ही बनाए फाँसों से।
फिर सुयत्न और मनन से वे कुछ उपाय पा जाते
और कुचक्रों से निकल, कुछ अपने जैसों को मार्ग बता देते।
पर उनका अन्वेषण भी पूरा नहीं, भली-भाँति जानते हैं वे
उन्होंने कुछ पा लिया है, इसका अर्थ नहीं वे परम-विजयी हैं।
वे तो अंधकार से निकल कुछ रोशनी में आए हुए लगते हैं
लेकिन 'बहुत कठिन है डगर पनघट की' और पनघट अभी दूर है।
मैं नहीं मानता कहीं पूर्ण-विराम है और मनीषी भी ऐसा कहते हैं
हम पूर्ण चिंतन में भी पूर्ण ज्ञान का रत्ती भर समझ न पाते हैं।
फिर कहाँ है वह परम-मार्ग और अकाट्य अनुभव
जिसको कुछों ने संगठन बना लिया है कि यही अनुपम और साध्य है।
आदर-अभिव्यक्ति अपने से श्रेष्ठों के किए अच्छा भाव है
पर क्या हम भी अन्वेषी हैं या भाट की भाँति केवल स्तुति गाते हैं?
कितने भावों को समझकर अपने से बाहर आने का यत्न किया है
और फिर संसार के हर जन का कुछ स्तर उठाने में सक्षम हुए हैं?
बहुत निकट नहीं जा पाया भावों के, फिर कभी।
पवन कुमार,
17 जून, 2014 समय 00:47 म० रा०
( मेरी डायरी दि० 10 जून, 2014 समय 10 बजे प्रातः )
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