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Sunday 15 June 2014

खुदा -करम

खुदा -करम
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दिल को किसी चीज ने पकड़ सा लिया है।  चाहकर भी खुश नहीं हो पा रहा हूँ।  क्या रहस्य है कुछ पता नहीं है।  हाँ यह बस आभास सा है कि मैं कुछ साँस ले रहा हूँ और घड़ी की टिक-टिक मुझे बार-2 जगा सी जाती है। दिल पर जब हाथ लग जाता है तो इसकी धड़कनों को महसूस कर सकता हूँ। इसके अलावा जब बाहर मुख्य सड़क पर कोई वाहन जाता है तो दूर तक उसकी आवाज़ कानों में आती रहती है। बाकी केवल निस्बद्धता है, मैं स्वयं भी नहीं जानता कि मेरे साथ क्या घटित हो रहा है। हाँ लगता है कि समय गर्दिश के दौर से गुजर रहा है और मैं न चाह कर भी बेबस हूँ। कई सुझाव आए, कुछ ठीक भी थे, कुछ पर अमल हो न सका, कुछ पर जान बूझकर कोशिश नहीं की। हाँ यह बात तो निश्चित है कि आड़े वक़्त में ही इंसान की पहचान होती है। उनका भी पता चल जाता है जिनके लिए हम काम करते हैं और वे कितने सच्चे हैं अपने आसपास काम करने वालों के प्रति। परन्तु यह बात भी है कि समय सदा एक जैसा नहीं रहता। आज यह मेरे साथ है, कल तुम्हारे साथ होगा। अतः किसी की आत्मा को इतनी भी न दुखाओ कि वह कहीं तुम्हे बद-दुआ न दे दे। मैं सभी का भला सोचने में विश्वास करता हूँ, अपने कार्य से जी न चुराता हूँ, अपनी गम्भीरता अपने  में समाने की कोशिश करता हूँ। अपना जी कड़ा करके सीधा खड़ा होने को तत्पर होता हूँ, लेकिन फिर भी तो एक हाड़-माँस का पुतला ही हूँ। मैं बाहर से चाहे जितना कठोर बनने की कोशिश करूँ, अन्दर से तो दिल धड़कता ही है। पर मेरे दिल की धड़कन कौन सुन रहा हूँ? शायद वह खुदा वहाँ दूर बैठा मेरे करम पर कुछ मनन का रहा हो और शायद मेरी और परीक्षा ले रहा हो। पर प्रभु, तुम फिर जैसा रखना चाहो तुम्हारी मरजी, मैं तो तुम्हारे द्वारा निर्देशित हूँ। कभी-2 मैं चालाक बनने कोशिश करता भी हूँ तो क्या वह तुमसे छुपा है? मैं क्या हूँ, इसका मूल्यांकन तो नहीं कर सकता लेकिन पीड़ा अंदर तक अनुभव कर रहा हूँ। मेरे प्रभु, मैं तो ठीक हूँ। तुम अगर और कष्ट देना चाहों तो मुझे स्वीकार परन्तु मेरी जान और मेरी बिटिया ने क्या अपराध किया है जो उन पर सजा थोपी जा रही है।  तुम्हारा अपराधी तो मैं हूँ तो मुझे सजा क्यों नहीं देते, क्यों उन मासूमों पर तुम सख्ती प्रयोग कर रहे हो। शायद तुम जानते हो कि जब उन्हें कष्ट होगा तो सबसे ज्यादा और पहले पीड़ा मुझे ही होगी। इसीलिए तुम अपनी सजा का सिकंजा ढीला नहीं करना चाहते। प्रभु, मैंने माना कि तुम सर्व शक्तिशाली और न्यायवादी हो पर तुम्हारे  अस्तित्व को झुठला ही कौन रहा है? फिर जब तुम हर दिल के अन्दर अच्छी तरह से झाँक कर देख लेते हो तो तुम्हे कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए। अतः कुछ करो, मैं हार मान लेता हूँ अपने अपराधों के लिए। अगर वे क्षम्य हों तो मैं माफ़ी के लिए प्रार्थना करता हूँ। फिर भी तुम्हे लगता है कि मेरा कोई पुराना या अभी का हिसाब बाकी है तो आप जो उचित है, वह करें। मैं तो वैसे ही मरे हुए के समान हूँ, तुम मारोगे तो सद्गति ही होगी। शास्त्रों में तुमने रावण, कंस, इत्यादि को मारकर मुक्ति प्रदान की। अगर तुम्हारे न्याय में यही कुछ है तो मुझे कोई शिकायत नहीं। लेकिन फिर भी मैं रहम की अर्जी तुम्हारे समक्ष रखूँगा कि मेरे मामले पर गौर किया जाए, मेरे दस्तावेजों की पुनः समीक्षा की जाए, हो सकता है कहीं पर गलत-फहमी हो गई हो। फिर अपराध इतना संगीन न हो तो धमका कर, चेतावनी देकर छोड़ा सा सकता है। मैं सब कुछ छोड़ता हूँ तुम पर। अभी तक मैं बोला, तुमने सुना। अब तुम सोचो और मैं सोता हूँ। मुझे आशा है कि तुम जो कुछ करोगे, अच्छा ही करोगे। प्रभु तेरी मरजी में सबकी मरजी है। 

धन्यवाद , शुभ रात्रि। 

पवन कुमार,
15 जून, 2014 समय 18:52 सांय  
(मेरी शिल्लोंग डायरी 28 अगस्त, 2001 समय 12:50 म० रा० से )

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