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Thursday 26 June 2014

कुछ विचित्रता

कुछ विचित्रता
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 जग-विचित्रता की बात करूँ, जो हो कुछ विरल-निराली 
बहुत कुछ है अद्भुत यहाँ, पर ध्यान हमारा जाता नहीं। 

हर पल का बदलाव समक्ष नेत्रों के, फिर क्यों  रोमांच  
विविध ध्वनियाँ खग-वृन्द की, मोटरों का स्वर तो भिन्न। 
अपनी ही साँसों का चलन भी, विभिन्न स्वरूप है लेता 
कभी तेज़, कभी सामान्य, कभी अल्प यह है चलता। 

एक दिवस व रात्रि में ही हम, कितने रूप हैं देखते 
मनीषियों ने अष्ट-प्रहर बना दिए, समय के 3 घंटों के। 
लेकिन उनके अंदर भी कितनी भिन्नताऐं छिपी हुई  
हर दिन की अल्प-भिन्नता से, शनै-2 ऋतु बदलती। 

माना कुछ लय है प्रकृति में, यह अपने को दुहराती 
पर आकाश के रंग देख, हम क्यों पुलकित होते नहीं? 
धूप के रंग ही लाल-सुनहले, क्षणों में भिन्न ऊष्मा-मात्रा 
शायद एक काल  सम प्रतीत, लेकिन अंतर है होता। 

हम विस्मित सब रंगों से, उससे ज्यादा अविवेक पर  
क्यों न प्रकृति-विस्मय को देखते व होते प्रफुल्लित ? 
शायद जीवन-कर्कशता ने, बाह्य-दृष्टि बन्द कर दी  
पर आवश्यकता तो है जीवन में नवीन अनुभव की।

वृक्ष के पत्तों का वर्ण देखो, दिन-प्रतिदिन यूँ है बदलता 
शिशु पल्लव शनैः बड़े होता, पीत बनकर टूट जाता। 
वृक्ष की छाल को भी देखों, विभिन्न स्वरूप जाती लेती 
कभी चींटियों का घर बना, सतत बाहर जाती धकेली। 

हर क्षण वृद्धि-क्षय व सब शनैः-2 उस मिट्टी में मिले 
पर वह मृदा भी अपने में कितने ही रूप समाए हुए। 
विभिन्न किस्में, गुण व मिश्रण, भिन्न बनाता अन्यों से
फिर स्थानों  की विभिन्नता, हमको है चुंधियाए हुए। 

कहीं ऊँचे पर्वत, पहाड़ी, मैदान समतल मिलते कहीं 
कहीं रेगिस्तान, कहीं झरने, कहीं झीलें लहर मारती। 
कहीं नदियां, नाले और सागर-महासागर हैं छाए हुए 
कहीं पर वर्षा, सूखा, कहीं विस्तृत बर्फ फैली हुई है। 

कहीं घन वृक्ष, लघु वनस्पति, कहीं भीड़-भाड़, निर्जन है 
कहीं अरण्यों में भीषण जीव-प्रभुत्व, प्रकृति में हिले-मिले। 
कहीं मानव भी उन जैसे ही, कहीं सभ्यता चरम स्तर पर 
कहीं दरिद्रता, कहीं वैभव है, निज ढंग से बसर रहे कर। 

कहीं बुद्धिमता, कहीं मूर्खता, बहुत से जन यहाँ सामान्य  
कहीं पर शिक्षा, कहीं अपढ़ता, भिन्न मात्रा में रश्मि-ज्ञान। 
कहीं खुशियाँ, दुःख-कहर, मानव व्यस्त स्व-उपक्रमों में 
वे सब जीते अपने ढंग से, यह भी विस्तृतता लिए हुए हैं। 

कहीं पर चंदा, कहीं हैं तारे, कहीं धूमकेतु हैं चल रहे 
कहीं पर ग्रह-उपग्रह, आकाश असीमता लिए हुए हैं। 
उनको देखने में ही, हम कितने जन्म बिता हैं सकते 
फिर यन्त्र नए प्रचलन में आते, दूर-दृष्टि किए हुए हैं। 

फिर निज-रंग ही कौन से कम हैं, क्षण-2 नवीन होते 
चाहे अनुभव करें या न, पर परिवर्तन आमूल हुए हैं। 
बदलते सदा भिन्न रूपों में, वृहद प्रकृति का मात्र अंश    
हम एक दूजे को बनाते, सब पदार्थ का हुआ प्रयोग। 

मैं देखूँ और विस्मित होऊँ, इतनी विचित्रता भरी पड़ी 
दर्शन-वर्णन करना अति-दुष्कर, फिर भी यह सत्य ही। 
क्यों न होवें हम समृद्ध यहाँ, जब इतना कुछ है विस्तृत 
असली मालिक तो प्रकृति, मानव बस कुछ क्षण मुद्रित। 

करें बखान हम इस विचित्रता का भाव-वाणी-कलम द्वारा 
मन में करें अनुभव कुछ राग-विराग, संगीत-सन्नाटे का। 
फिर इस विस्तृतता में होवें संगी, मेरी तो बस इच्छा यही 
मैं सबका - सब मेरे, भाव को समझने का प्रयास जारी। 

पवन कुमार, 
26 जून, 2014 समय 15:19 अपराह्न 
(मेरी डायरी दि० 24 अप्रैल, 2014 समय 9:15 बजे प्रातः से ) 
  

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